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॥ रत्नसार ॥ (१४७) ज्ञान ते शास्त्रादि पठन रूप. भाव ज्ञान ते आत्मस्वरूप नो जाणवो.
१९६. तेम क्रिया बे प्रकारनी-योग क्रिया ते शुभाशुभ बंध रूप. उपयोग क्रिया ते पोताने स्वरूपे प्रणमै ते निर्जरा रूप. जोग क्रिया ते जाते आश्रव रूप छे बंध में प्रापै. अने एहनो जे उपयोग छै ते स्वरूप निर्जरा करें. एतले कर्म ग्रहण त्याग रूप सालटो पालटो छै, पण सर्वथा मोक्ष क्रिया मध्ये नथी. सर्वथा मोक्ष ते उपयोगै छै. ते माटे जे क्रिया करे ते आश्रव रूप, माटै मोक्ष नी कतरणी कही छै,पण मोक्ष ते एहू नां उपयोग मांहे छै. इत्यर्थ.
१९७: अथ चौथा कर्म ग्रंथ मध्ये तथा अनुयोग द्वार सूत्र मध्ये नव अनंता कह्या छे, ते मध्ये पहिलो, बीजो, त्रीजो, ए तीन अनंता ना नाम ए मांहि तो कोई एहवी अनंती वस्तु लघु नथी जे आवै, ते माटे ए तीन अनंता सून्य, एहना स्वामी कोई नहीं. तथा