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॥ रत्नसार ॥ (३५३) बांधै छै ते किम ? तेहने कांई शुभ संकल्प रूप व्यापार नथी. जे केवली भगवंत ने एक शुकल लेश्या . नो उदै छै ते जोग द्वार प्रणमै अने योग नी प्रणमन ते उदये उदयैक भावै जाइ प्रणमै, पुद्गल ने पुद्गल नो विश्राम तिवारे ते लेश्यायें एक समे एक साता वेदनी नो बंध थाय , पणं उत्तम पुद्गल ग्रहै, बीजे समै वेदै, त्रीजे समै निर्जरै. ए रीते धारूं छं. इति.
२०७. हिवै चौथे गुण स्थान सम्यक् दर्शन पामै अनंतानुबंधीया राग द्वेष तथा मिथ्यात्व मोहनो क्षय तथा क्षयोपशम थाए ३. . २०८. अवगुण उदै मांहि थी तथा सता मांहि थी जाइ ते किहां गुणै खार, बैर, ने जहर जायं ? सम्यक् दर्शन गुणै खार जाइ, सम्यक् ज्ञान गुणै बैर जाय, मिथ्याल मोह गए तथा चारित्र मोह गए जहर जाय. तथा छठे गुण स्थानै मुनि ने उदय मांहि थी विषय
मांहि थी विषय, कषाय, उत्सूत्र, परूपणा, ए तीन - अवगुण जाइ. तथा केवली ने राग, द्वेष, मोह गए