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|| रत्नसार ॥
(१३३)
१७०. हिवै २४ जिन ना माता पिता नी गति कहै छै. उसभ पिया नागेषु सेसाणं सत्त हुंति ईसारों श्रठयसणं कुंमारें माहिंदे श्रठ्ठ बोधव्वा ॥ १ ॥ अट्ठणं जणणी ओ तिथय रागं हुति । सिद्धिश्रो अट्ठयसणं कुमारे माहिंदे श्र बोधव्वा ॥ इति २४ चोवीस जिन ना माता तथा पिता गति । इति भाव.
१७१ तथा जिनवाणी सांभलतां च्यार घातीया कर्म ना श्रंशे क्षयोपशम धर्म पामै छै ते किम ते एकसौ इकोत्तरमो प्रश्नः - जिनवाणी सांभलावै तिवारे जिवारे दर्शनावर्णी कर्म नो क्षयोपशम पामै. तिवारे जिनवाणी कान मांहि श्रावै, समजवा मांहि आवै, तथा ज्ञानावर्णी कर्म ने क्षयोपशम वाणी कान मांहि आवै तथा अज्ञानावरण कर्म ने क्षयोपशम वाणी कान मांही समज्या मां श्रवै तिवारै पछी वाणी ते दर्शन मोहनी कर्म नें क्षयोपशम थकी यथार्थ श्रात्म स्वरूप ज्ञान मांहि श्रावै.
१७२. जिन वाणी ध्यान मांहि आवै ते किम ?
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