________________
॥ रत्नसार ॥
१११. हिवै गुणग्राही, गुणगवेषी ते श्यु ? ते एकसो चवदमो प्रश्नः-यथा गुणग्राही, गुणगवेषी, साह्य ( सहाय )कारी, विनई, सेवाकारी, एहवा श्रावक तथा शिष्य गुरु ने मिलवा दुर्लभ. तथा गुणग्राही ते श्युं ? जे गुरु पासे सूत्र सिद्धान्त सांभलीने घणी प्रशंसा करै,कीर्ति करै, पर गुरु ना कोई उदयीक भाव ना अवगुण देखी ने तिहां द्वेष न ऊपजै. श्या माटै ? जे खेद ऊपजै तो भक्ति नो मन विनय गुण थी भागी जाइ. ए भाव. गुणगवेषी ते इयुं ? गुणगवेषी ते गुरु माहिं एके उपकार - गुण होइ ते जोई पिण विनय चूकै नहीं, अवगुण दृष्टी मांहि नावै. तथा साह्यकारी ते गुरु ने अन्न पानादिक नी, वस्त्र औषधादिक नी घणी सहाय करै. पोतै गांठ थि खरचै, गांठ न होय तो कोई जोग्य जीव पासे थी लावीने गुरु नी सहाय करै, तथा सेवा करी पोतानो जात थकी तन मन वचनें करी गुरु ने वेयावच करै, साता उपजावै. एहवा श्रावक तथा शिष्य पंचम काले मिलवा दुर्लभ