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(१२४) ॥ रत्मसार ॥
हिवै अंतरात्मा नो स्वरूप कहै छै. प्रथम कर्म बांध्या नो कारण जाणे ते लिखिये छै. मिथ्यात्व ५ अविरति १२.कषाय २५ योग १५ ते ५७ सतावन हेतु जीव कर्म बांधै ते वलतां भौगवै. ते भोगवतां मोहनी कर्म ने जोरै दुःख पामै तिवारै एम जाणै जे माहरो स्वभाव नहीं. किसी वस्तु जाई, तथा मरण श्रावै तिवारे इम जाणे जे माहरा प्रदेश थी कांइ जातो नथी. हूं तो सर्व वस्तु थी भिन्न छु, किवारे की लाभ पामे ? तिवारे इम जाणे जे बस्तु अशास्वती छै तो ते ऊपर हर्ष यो धरवो, तथा कांई जाए, तिवारे जाणे जे ए वस्तु थी सबंध टल्यो. वेदनादि कष्ट आवै सम भाव राखै. पर भाव पुद्गलादिक आत्मा थी भिन्न जाणवा. छोडवानी खप करै, परमात्मा नी वांछा करै, ध्यान सिझाय विशेष करें, भावना खिण २ भावै, संवर आदरै, निज स्वभावै ते ज्ञान तेह ने विषै इम मन रहै ते अंतरात्मा ध्यान करवा परमात्मा नो ध्यान करवा योग्य चौथा गुणठाणा थी बारमा गुण ठाणा