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पासवान जाति का इतिहास टॉक पर, हाथी पोल के नजदीक वाले मन्दिर की उत्तर दिशावाली दीवाल पर लगा हुआ है। उसका भाव इस प्रकार है
"ओसवाल जाति में, लालण गौत्रान्तर्गत हरपाल नामक एक बड़ा सेठ हुभा। उसके हरीआ नामक पुत्र हुमा। हरीमा सिंह, सिंह के उदेखी, उदेसी के पर्वत, और पर्वत के बच्छ नामक पुत्र हुआ। बच्छ की भार्या वाच्छलदे की कुक्षि से अमर नामक पुत्र हुआ। अमर की लिंगदेवी नामक स्त्री से वर्द्धमान, चापसी और पद्मसिंह नामक तीन पुत्र हुए। इनमें वर्धमान और पासिंह बहुत प्रसिद्ध थे। ये दोनों भाई जामसाहब के मंत्री थे। जनता में आपका बहुत सत्कार था। वर्द्धमानशाह की स्त्री बन्ना देवी थी, जिसके वीर और विजयपाल नामक दो पुत्र थे। पनसिंह की स्त्री का नाम सुजाणदे था जिसके श्रीपाल, कुंवरपाल और रणमल्ल नामक सीन पुत्र थे। इन तीनों भाइयों ने संवत् १६७५ के बैशाख सुदी ३ बुधवार को शान्तिनाथ आदि तीर्थरों की २० प्रतिमाएं स्थापित की और उनकी प्रतिष्ठा करवाई।"
_"अपने निवासस्थान नवानगर ( जामनगर ) में भी उन्होंने बहुत विपुल द्रव्य खर्च करके कैलाश पर्वत के समान ऊँचा भव्य प्रासाद निर्माण करवाया और उसके भासपास ७२ देव कुलिका और ८ चतुर्मुख मन्दिर बनवाये । शाह पनसिंह ने शत्रुजय तीर्थ पर भी ऊँचे तोरण और शिखरों वाला एक बड़ा मन्दिर बनवाया और उसमें श्रेयांस आदि तीर्थकरों की प्रतिमाएं स्थापित की।"
इसी प्रकार संवत् १६०६ के फाल्गुन मास की शुक्ला द्वितीया को शाह पदमसिंह ने नवानगर से एक बड़ा संघ निकाला और आदलगच्छ के तत्कालीन आचार्य कल्याणसागरजी के साथ शत्रुम्जय की पात्रा की और अपने बनाए हुए मन्दिर में उक तीर्थकरों की प्रतिमाएं खूब ठाटबाट के साथ प्रतिष्ठित करवाई।"
उपरोक्त प्रशस्ति को वाचक विनवल्यमगि के शिष्य पण्डित श्रीदेवसागर ने बनाया। कहना न होगा कि ये देवसागर उत्तम श्रेणी के विद्वान थे । इन्होंने हेमचन्द्राचार्य के "अभिधान चिन्तामणि कोष पर “ग्युत्पत्ति रखाकर" नामक २०.०० श्लोकों की एक बड़ी टीका की रचना की है।
इन्हीं शाह यर्द्धमान और पासिंह के द्वारा बनाया हुआ जामनगर वाला श्रीशान्तिनाथ प्रभु का मन्दिर भी आज वहां पर उनके पूर्व वैभव की सूचना देता हुआ विद्यमान है। इस मन्दिर में भी एक लेख लगा हुआ है।
इन दोनों लेखों से मालूम होता है कि साह वर्द्धमान और पद्मसिंह दोनों भाई तत्कालीन जाम
• पूरा लेख देखिए मुनि जिनविजयजी कृत जैन लेख संग्रह २ भाग के लेखाक २१ में । + देखिए मुनि जिन विजयी कृत जैन लेख संग्रह लेखाक ४५५ ।