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सिंहावलोकन
अनुकरण करके अब तक वे धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से अपनी काफ़ी बरबादी कर चुके हैं। यदि
अब भी ये लोग अपने अहंभाव को तिलाञ्जलि देकर जनता को एकता के सूत्र में बांधे सामाजिक कमजोरियाँ तो बहुत ही अच्छा है वरना इस प्रकार समाज में वैमन
साधुओं की अब समाज को जरूरत नहीं है। धार्मिक मतमतान्तरों ही की तरह इस जाति के कलेबर में कई ऐसे सामाजिक दोष भी घुसे हुए हैं, जिनकी वजह से यह जाति दिन प्रति दिन क्षीण होती जा रही है। इन सामाजिक कमजोरियों में हमारो वैवाहिक जीवन, परदा और पोशाक, और सामाजिक फिजूल खर्चियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं।
किसी भी जाति की उन्नति का यदि अन्दाज करना हो तो वह उस जाति के वैवाहिक जीवन से भली प्रकार किया जा सकता है। जिस जाति का वैवाहिक जीवन सुन्दर और प्रेमपूर्ण होता है,
जिसका नारी अङ्ग सभ्य और स्वस्थ होता है, उस जाति की सन्तानें भी हृष्ट-पुष्ट, हमारा वैवाहिक जीवन बलवान् , मेधावी और सुंदर होती हैं। खेद है कि ओसवाल जाति का वैवाहिक
जीवन अत्यन्त निराशापूर्ण और अन्धकारमय है। एक ओर तो घोर अशिक्षा और परदे की अमानुषिक प्रथा की वजह से हमारा नारी अङ्ग निर्माल्य और निर्जीव हो गया है, इसकी दूसरी ओर प्रति वर्ष हजारों छोटे २ बालकों का विवाह की वेदी पर बलिदान होता है, तीसरी ओर पचासों उतरी उम्र के खुड़े भी समाज के नवयुवकों का हक नष्ट कर समाज की बालिकाओं का जीवन नष्ट कर देते हैं । इन सब बातों से समाज का संयम और सदाचार खतरे में पड़ा हुआ है, नारी अंग के निर्माल्य होने से हमारे समाज की ठीक वही हालत हो रही है जो पक्षाघात से पीड़ित व्यक्ति की होती है। हमारा दाम्पत्य जीवन कलहमय हो रहा है, समाज का वायुमण्डल हजारों बाल-बिधवाओं की आहों से धुंवाधार हो रहा है। इन सभी बातों से दिन २ समाज का भविष्य अन्धकार की ओर अग्रसर हो रहा है।
इन सब बातों को दूर कर समाज को स्वस्थ करने के लिए यह आवश्यक है कि समाज के वैवाहिक जीवन को सुंदर बनाया जाय। इसके लिए समाज के नारी अंग को शिक्षित और सुसंस्कृत किया जाय । हर्ष है कि समाज के अगुवाओं का ध्यान इस ओर धीरे २ आकृष्ट होने लगा है और अब स्थान २ पर बहुत सी कन्या पाठशालाएं खुल रही हैं। पर अभी यह प्रयत्न समुद्र में बून्द के तुल्य ही कहा जा सकता है। इस दिशा में बहुत बड़े स्केल पर काम होने की आवश्यकता है।
दूसरा महत्व का प्रश्न वैवाहिक स्वाधीनता का है। कोई भी तर्क और कोई भी दलील इस बात का समर्थन नहीं कर सकती कि पुरुषों को तो साठ २ वर्ष की उम्र तक पांच २ छः२ विवाह करने की समाज की ओर से खुली इजाज़त हो और स्त्रियाँ दस वर्ष की उम्र की आयु में विधवा होने पर भी पुनर्विवाह के अधिकार से बञ्चित रक्खी जाँय । इतिहास के न मालूम किस अन्धकार पूर्ण युग में इस कठोर और पक्षपात पूर्ण व्यवस्था का उदय हुआ जिसने भारत के सारे सामाजिक जीवन को नष्ट भ्रष्ट कर रक्खा है। जब स्त्री और पुरुष में समान मनोविकारों का उदय होता है, तब क्या कारण है कि पुरुषों के मनोविकारों की तो इतनी सावधानी से रक्षा की जाय और स्त्रियों के मनोविकारों की भोर बिलकुल ध्यान ही न दिया जाय । अनेकों वर्ष के वादविवाद और समय की जरूरतों से यह विषय अब इतना स्पष्ट और निर्विवाद हो