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सिंहावलोकन
जो वह पतन की इस चरम सीमा पर पहुँच रही है इसका सारा उत्तर दायित्व भी वर्तमान धर्माचात्रों पर ही है । धर्म संस्था मनुष्य की भावुकता का विकास करने वाली संस्था है । इस भावुकता को यदि उचित मार्ग से संचालित किया जाय तो इसीमे संसार के बड़े से बड़े उपकार सिद्ध हो सकते हैं और यदि इसी को गलत रास्ते पर लगा दी जाय तो संसार के बड़े से बड़े अनिष्ट भी इससे हो सकते हैं । प्राचीन जैनाचारयों ने जहाँ इस भावुकता का उपयोग लोगों को मिलाने और संगठित करने में किया, वहाँ आगे के जैनाचार्यों ने, अपने २ व्यक्तित्व और अहंकार को चरितार्थ करने के लिए मत्रीन २ सम्प्रदायों और भेड़ भावों की गहराई करके उस सङ्गठन के
टुकड़े करने में ही अपनी शक्तियों का उपयोग किया। इन्हीं लोगों की दया से समाज में कई सम्प्रदायों और मत मतान्तरों का उदय हुआ, और एकता के सूत्र पर स्थापित की हुई भोसवाल जाति फूट और वैमनस्य के चक्कर में जा पड़ी। और आज तो यह हालत है कि ये मतभेद हमारे जातीय संगठन की दीवार को भी कमजोर करने लगे हैं। हमारे पूज्य साधुओं की कृपा से उनके भावकों में अब यह भावना भी उदय होने लगी है कि स्थानकवासी, स्थानक वासियों में ही शादी सम्बन्ध करें और मन्दिर मार्गी मन्दिर मार्गियों में ही । ईश्वर न करे यदि यह नियम भी कहीं प्रचलित हो गया, तो फिर इस जाति का अन्त ही निकट समझना चाहिए ।
धार्मिक मतभेद
हमें यह मानने में तनिक भी संकोच नहीं हो सकता कि त्याग और तपस्या में आज भी हमारे जैन साधु भारत में सब से आगे बढ़े हुए हैं । लेकिन इसके साथ ही दुःख के साथ हमें यह भी स्वीकार करना पड़ता है कि अहंभाव और व्यक्तित्व के मोह की मात्रा उनमें क्रमशः अधिक बलवती होती जा रही है। जैन शास्त्रों में इस प्रवृत्ति पर विजय प्राप्त करना सब से कठिन बतलाया गया है, यह ऐसी प्रवृत्ति ( उपश्म मोहनीय ) है कि ग्यारहवें गुण स्थान पर पहुँची हुई आत्मा को भी वापस पतित करके दूसरे गुण स्थान में लाकर पटक देती है। इसी प्रवृत्ति की बजह से संसार में समय २ पर अनेक मतम तान्तरों और सम्प्रदायों का उदय होता है और अशान्ति की मात्रा बढ़ती है । कि जो व्यक्ति अपने घरबार, धन, दौलत और कुटुम्बी जनों के मोह को मुट्ठी भर धूल की तरह छोड़ कर संसार में विरक्त हो जाते हैं वे अत्यन्त साधारण "पूज्य" और "आचार्य” पदवी के लिए ऐसे लड़ते हुए दिखलाई देते हैं कि गृहस्थों तक को आश्चार्य होता है और उनकी लड़ाई को मिटाने के लिए श्रावकों को बीच में पढ़ना पड़ता है। अगर ये अपने अहंभाव को नष्टकर अपनी महानता के प्रकाश में देखेंगे तो यही पदवियाँ उन्हें अत्यन्त क्षुद्र दिखलाई देंगी ।
इसी प्रवृत्ति का प्रताप है
अगर आज हमारे ये जैनाचार्य्यं इस प्रवृत्ति पर विजय प्राप्त करके, समानता के महान् सिद्धांतों का बीड़ा उठा कर तैय्यार हो जायं तो जाति की धार्मिक, सामाजिक और कौटुम्बिक सभी कमजोरियाँ क्षण भर में दूर हो सकती हैं। इन लोगों के हाथों में आज भी महान् शक्ति केन्द्रीभूत है। जनता आज भी. इनके पीछे पागल है ।
इधर गृहस्थों का कर्तव्य भी उनके पीछे इस बात का तकाज़ा कर रहा है कि इन लोगों का
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