Book Title: Oswal Jati Ka Itihas
Author(s): Oswal History Publishing House
Publisher: Oswal History Publishing House

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Page 1403
________________ सिंहावलोकन घाट उतार दिया, मगर जैन धर्म की अहिंसा कहीं भी उनके मार्ग में बाधक न हुई। इसी प्रकार जब आवश्यकता महसूस हुई तो इस जाति के कई परिवारों ने वैष्णव धर्म को भी ग्रहण कर लिया। मगर उनका जातीय संगठन इतना मज़बूत था कि इस धर्म परिवर्तन से उस संगठन को बिलकुल धका न पहुँचा । आगे जाकर तो यह धार्मिक स्वाधीनता और भी ज्यापक हो गई, और आज तो हम ओसवाल परिवारों में मित्र २ धर्मों की एकता के अद्भुत राय देखते हैं। एक ही घर में इम देखते हैं कि पिता जैन है, तो माता वैष्णव है, पुत्र आर्यसमाजी है तो पुत्रवधू स्थानकवासी है, मगर इस धार्मिक स्वाधीनता से उनके कौटुम्बिक प्रेम और जातीय संगठन में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं भाती। इसका परिणाम यह हुआ कि धार्मिक बंधनों की वजह से नातीय संगठन में अभीतक कोई शिथिलता न माने पाई। . इस इतिहास के अन्तर्गत हमें यह बात भी देखने को मिलती है कि इस जाति का मुत्सुद्दी धर्ग जिस समय अपनी राजनैतिक प्रतिभा से राजस्थान के इतिहास को देवीप्यमान कर रहा था। उसी __ समय उसका व्यापारिक वर्गहनारों माइल दूर देश विदेश में जाकर अपनी व्यापारिक व्यापारिक क्षेत्र में प्रतिभा से कई अपरिचित देशों के अन्दर अपने मजबूत पैरों को रोकने में समर्थ हो रहा था। कहना न होगा कि उस जमाने में रेख, तार, पोस्ट आदि यातायात के साधनों की बिलकुल सुविधा न थी, यात्राएँ या तो पैदल करनी पड़ती थी या बैल गाड़ियों और ऊँटों पर । अन्धकार के उस घनघोर युग में ओसवाल म्यापारी घर से एक लोटा डोर लेकर निकलते थे और "धर कूच घर मुकाम" की कहावत को चरितार्थ करते हुए, महीनों में बंगाल, आसाम, मद्रास इत्यादि अपरिचित देशों में पहुंचते थे। ये लोग वहाँ की भाषा और रीति रिवाजों को न जानते थे और न वहाँ वाले इनकी भाषा और सभ्यता से परिचित थे। मगर ऐसी भयंकर कठिनाई में भी ये लोग विचलित न हुए, और इन्होंने हिन्दुस्तान के एक छोर से दूसरे छोर तक छोटे २ म्यापारिक केन्द्रों में भी अपने पैर अत्यन्त मजबूती से से रोप दिये और लाखों रुपये की दौलत प्राप्त कर अपने और अपने देश के नाम को अमर कर दिया। कहाँ मागौर, कहाँ बाल, कहां उस समय की भयंकर परिस्थिति, और कहाँ बेटा डोर लेकर निकलने वाला सेठ हीरानन्द ! क्या कोई कल्पना कर सकता था, कि इसी हीरानन्दके वंशज भारत के इतिहास में “जगत् सेठ" के नाम से प्रसिद्ध होंगे, और वहां के राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक वातावरण पर अपना एकाधिपत्य कायम कर लेंगे ? सच बात तो यह है कि प्रतिमा के लगाम नहीं होती, जब इसका विकास होता है तब सर्वतोमुखी होता है। और यही कारण था उसी हीरानन्द के वंशजों के घर में एक समय ऐसा आया जब चालीस करोद का व्यापार होता था, और सारे भारत में वह प्रथम श्रेणी का धनिक था। लार्ड क्लाइव ने अपने पर लगाये गये इलजामों का प्रतिकार करते हुए खन्दन में कहा था कि-"मैं जब मुर्शिदा बाद गया और वहाँ सोना चांदी और जवाहरात के बड़े र देखे, उस समत्र मैंने अपने मन को कैसे काबू में रक्खा, वह मेरी अन्तरास्मा ही मानसी है।" इस प्रकार इस माति और भी हजारों लाखों परिवार अपनी व्यापारिक प्रतिभा के बल से भारत भर में फैल गये। और आज भी उनके वंशज अत्यन्त प्रतिष्ठा के साथ वहाँ पर अपना व्यापार कर रहे हैं। ... . ऊपर के अवतरणों से हमें यह बात सह-मावस हो जाती है कि किसी जाति को उन्नति के

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