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सिंहावलोकन
ओसवाल जाति के इस विशाल इतिहास के द्वारा जो गहरी और गवेषणा पूर्ण सामग्री पाठको के सामने पेश की जा रही है हमारे खयाल से वह इतनी पर्याप्त है कि प्रत्येक विचारक पाठक के सम्मुख वह ओसवाल जाति के उत्थान और पतन के मूल भूत तत्वों का चित्र सिनेमा फिल्म की तरह खींच देगी । प्रत्येक व्यक्ति, जाति और देश के इतिहास में कुछ ऐसे विरोधात्मक मूल भूत तत्व काम करते रहते हैं जो समय आने पर या तो उस जाति को उत्थान के शिखर पर ले जाते हैं या पतन के गर्भ में ढकेल देते हैं। कहना न होगा कि संसार के अन्तर्गत परिवर्तन का जो प्रबल चक्र चलता रहता है वह इन्हीं तत्वों से संचालित होता है। ओसवाल जाति के इतिहास पर भी यदि यही नियम चरितार्थ होता हो तो इसमें भाचार्य की कोई बात नहीं।
इस जाति के इतिहास का मनोयोग पूर्वक अध्ययन करने से हमें इसमें कई सूक्ष्म तत्व काम करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। हम देखते हैं कि मध्ययुगीन जैना चार्यों के अन्तर्गत सारे विश्व को जैन धर्म
झण्डे के नीचे लाने की एक प्रबल महत्वाकाँक्षा का उदय होता है, और उसी महत्वाकाँक्षा की एक चिन गारी से ओसवाल जाति की स्थापना होती है। स्थापना होते ही यह जाति वायुवेग के साथ, उन्नति के मैदान में अपना घोड़ा फेंकती है और क्या राजनैतिक, क्या सैनिक और क्या व्यापारिक सभी क्षेत्रों में अपना प्रबल अस्तित्व स्थापित कर देती है। प्रति स्पर्दा के मैदान में वह अपने से प्राचीन कई जातियों को पीछे रख देती है। इसकी इस आकस्मिक उन्नति के कारणों पर जब हम विचार करते हैं तो हमें इसमें सबसे पहला तत्व जैनचार्यों की बुद्धिमत्ता और उनकी विकेशीलता के सम्बन्ध में मिलता है। इस जाति की स्थापना के अन्तर्गत जैनाचार्यों ने जिन उदार भावनाओं और सिद्धान्तों को रक्खा, उसके उदाहरण इतिहास में बहुत कम देखने को मिलते हैं। इस जाति के गठन में जातीय, धार्मिक और कौटुम्बिक आदि सभी प्रकार की उन स्वाधीनताओं का अस्तित्व रक्खा गया, जिसके वायुमण्डल में रहकर उसका प्रत्येक सदस्य अपना सांसारिक और नैतिक हर प्रकार का विकास कर सकता है।
. सामाजिक दृष्टि बिन्दु से यदि देखा जाय तो इस इतिहास में हमें स्पष्ट दिखलाई देता है कि जैनाचार्यों ने जाति पांति के विचार को गौण रख कर प्रतिभा और शक्ति के मान से तेजस्त
. जाति में मिलाना प्रारम्भ किया। उन महात्माओं ने इस जाति में उन्हीं पुरुषों को ग्रहण जैनाचाव्यों का सामा- करना प्रारम्भ किया जो या तो अपने मालिक के बल से राज शासन की धुरी को जिक दृष्टि बिन्दु घुमा सकते थे, या जो अपनी भुजाओं के बल से रणक्षेत्र के धोरण को बदल देने में
सफल हो सकते थे अथवा जो अपनी व्यापारिक चतुरता से आर्थिक जगत के भन्तर्गत अपना पैर रोक देने की ताकत रखते थे। फिर चाहे वे ब्राह्मण हों, चाहे क्षत्रिय, चाहे वैश्य । उन्होंने हर समय चुने हुए और प्रतिभाशील व्यक्तियों के संगठन का ध्यान रक्खा। इसका परिणाम यह हुआ कि इस जाति में जितने भी लोग सम्मिलित हुए वे सब शकिशाली और प्राकृतिक विशेषताओं से सम्पन्न थे । एक ओर जहाँ उन्होंने राजनैतिक वातावरण में अपने अद्भुत करिश्मे दिखलाये, दूसरी मोर उसी