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ओसवाल जाति का इतिहास
जब बीकानेर से विजय प्राप्त करके उक्त फौज वापस लौटी तब महाराज मानसिंहजी ने खुश होकर कहा कि जैसी बात बीकानेर में रही ऐसी ही जयपुर में रह जाय तो बड़ा अच्छा है। इस पर इन्द्रराजजी के पुत्र फतेराजजी ने मुहणोत सूरजमलजी और आउवे के ठाकुर के साथ जयपुर पर चढ़ाई की और अपना लूटा हुआ सामान वापस ले आये।
संवत् १८७२ की आसौज सुदी ८ के दिन जब सिंघवी इन्द्रराजजी और महाराज देवनाथजी खावकों के महल में बैठे हुए थे, उसी समय मीरखां के सिपाही आये और उन्होंने सिंघवी इन्द्रराजजी से महाराज मानसिंहजी द्वारा दिये हुए चार परगने और निश्चित् रकम माँगी । इस सम्बन्ध में सिंघवी इन्द्रराजजी और उनके बीच बहुत कहा सुनी हो गई, फलस्वरूप उन सिपाहियों ने सिघवी इन्द्रराजजी को करल कर डाला। इस घटना से महाराज मानसिंहजी को बहुत भारी रंज हुआ। उन्होंने उनके शव को वही इज्जत बक्षी जो राजघराने के पुरुषों के शवों को दी जाती है। अर्थात् उनकी रथी को सींपोल निकाला और "रोसालई" पर उनका दाहसंस्कार हुआ। वहाँ पर अभी भी उनकी छतरी बनी हुई है। इनकी मृत्यु के रंज पर महाराज ने इनके पुत्र फ़तहराजजी को एक खास रुक्का इनायत किया जो "राजनैतिक महत्व" नामक अध्याय में दिया जा चुका है।
सिंघवी फतेराजजी-सिंघवी इंद्रराजजी के दो पुत्र थे, सिंघवी फतेराजजी और सिंघवी उम्मैदराजजी । सिंघवी इन्द्रराजजी के मारे जाने पर दीवानगी का पद और पञ्चीस हजार की जागीरी का पट्टा सिंघवी फ़तेराजजी को मिला। संवत् १८७२ से १८९५ तक भाप सात बार दीवान हुए। जब संवत् १८७३ में मुत्सुहियों के पड़यंत्र से गुलराजजी का चूक (करल ) हुआ तब सिंघवी फतेराजजी अपने कटम्ब सहित कुचामन चले गये. पर वहाँ के ठाकर शिवनाथसिंहजी के कहने से वे संवत १८७५ में फिर जोधपुर आये, वहाँ महाराज मानसिंहजी ने उनका बड़ा सस्कार किया। संवत् १८७६ के आषाढ़ में भापको फिर दीवानगी बख्शी और साथ ही कड़े, कंठी, पालकी और सिरोपाव की इज़त भी बख्शी तथा सुरायता गांव जागीर में दिया । संवत् १८८1 में एक षड्यन्त्र के कारण इनको महाराजा ने फिर नज़रबन्द कर दिया और दस लाख रुपये जुर्माना किये। मगर जब इस षड्यंत्र का भण्डाफोड़ हुआ तो महाराज मानसिंहजी ने संवत् १८८५ में इन्हें फिर दीवान बनाया। इसके पश्चात् फिर संवत् १४८७, १८९२ और १८९४ में ये पुनः २ दीवान बनाये गये।
सिंघवी इन्द्रराजजी के छोटे पुत्र सिंघवी उम्मैदराजजी अपने पिता की आकस्मिक मृत्यु के समय केवल चार साल के थे। ये अपने जीवन में हुकुमत का काम करते रहे। संवत् १९२९ में इनका देहान्त