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कोठारी रणधीरोत
कोठारी रणधीरोत गौत्र की उत्पत्ति
कोठारी रणधीरोत गौत्र की उत्पत्ति के विषय में यह दन्त कथा प्रचलित है कि मथुरा के राजा पांडू सेन-अखैपुरा राठोड़ मेडत्या को संवत् १०.1 में भट्टारक श्री धनेश्वरसूरिजी ने नेणखेड़ा नामक प्राम में प्रतिबोध देकर जैनी बनाया और ओसवाल जाति में सम्मिलित किया। इसी नेणखेड़ा गाँव में श्री ऋषभदेवजी का विशाल मन्दिर बनवाने के कारण इनका "ऋषम" गौत्र हुआ। साथ ही स्थान २ पर श्री ऋषभनाथजी के निमित्त कोठार शुरू करवाने से कोठारी कहलाये। राजा पांडूसेन की चौबीसवीं, पच्चीसवीं पुश्त में रणधीरजी नामक एक प्रतापी पुरुष हुए। इन्हीं रणधीरजी के वंशज रणधीरोत कोठारी कहलाते चले आ रहे हैं।
उदयपुर का कोठारी खानदान कोठारी रणधीरजी की तेरहवीं पुश्त में कोठारी चोलाजी हुए। इनके पुत्र मांडणजी संवत् १६१३ में राठोड़ कूपाजी की बेटी के साथ, जो महाराणा उदयसिंहजी के साथ ब्याही गई थी, दहेज में आये । संवत् १६२७ में महाराणा ने इन्हें डहलाणा नामक एक गाँव जागीर स्वरूप प्रदान किया। संवत् १६५२ में महाराणा अमरसिंहजी ने इसे वापस ले लिया, मगर महाराणा जगतसिंहजी ने सिंहासनारूढ़ होते ही इस गाँव के अतिरिक्त आसाहोली नामक एक और गाँव जागीर में प्रदान किया। कोठारी मांडणजी की तीसरी पुश्त में कोठारी खेमराजजी और हेमराजजी हुए। महाराणा ने इन्हें संवत् १७०१ में हाथी का सम्मान प्रदान किया।
कोठारी खेमराजजी के पुत्र भीमजी को महाराणा अमरसिंहजी (दूसरे) ने अपने प्राइवेट काम काज पर रक्खा। इनके पश्चात् महाराणा संग्रामसिंहजी (दूसरे ) ने इन्हें फौजबक्षी का काम प्रदान किया। इनके पुत्र चतुर्भुजजी को महाराणा जगतसिंहजी तथा महाराणा राजसिंहजी (दूसरे) ने प्रधान का काम इनायत किया, जिसे आपने बड़ी सफलता से संचालित किया। इसके पश्चात् इनके पुत्र शिवलालजी और शिवलालजी के पुत्र पन्नालालजी हुए। आप दोनों ही पिता पुत्र सरकार में काम काज करते रहे। कोठारी पक्षालालजी के छगनलालजी एवम् केशरीसिंहजी नामक दो पुत्र हुए।
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