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सिंघवी
.से जयपुर और बीकानेर की एक लाख फौज को चढ़ा लाये । इस विशाल सेना ने जोधपुर पर घेरा डालकर सरदार धकलसिंह की दुहाई फेर दी, मानसिंहजी का अधिकार केवल गढ़ ही में रह गया। जोधपुर के इतिहास में यह समय ऐसा विकट था कि यदि पूरी सावधानी के साथ इसका प्रतिकार न किया जाता तो मारवाड़ के इतिहास के पृष्ठ ही आज दूसरी तरह से लिखे जाते । अस्तु, ऐसी भयंकर विपत्ति के समय में महाराज ने सिंघवी इन्द्रराजजी और भण्डारी गंगारामजी को कैद से बुलाकर इस विपत्ति से मारवाड़ की रक्षा करने को कहा । इस स्थान पर इन दोनों मुत्सुहियों की उच्च स्वामिभक्ति का आदर्श देखने को मिलता है। जितने कष्ट इन लोगों को मिले थे उन्हें देखते हुए यदि ये लोग ऐसे समय पर उदासीनता भी बतलाते तो इतिहासकार इन्हें बुरा नहीं कहते, मगर इन दोनों खानदानी पुरुषों में सब बातों को भूलकर, उस विपत्ति के समय में भी सच्चे हृदय से सेवा की। शुरू २ में तो इन्होंने धौंकळसिंह के तरफदार पोकरन ठाकुर सवाईसिंहजी से समझौते की बातचीत की, मगर जब उसमें कामयाबी न हुई तो उन्होंने मीरखाँ पिण्डारी को चार-पाँच लाख रुपये देने का वादा कर अपनी ओर मिला लिया और अपनी तथा उसकी फौज के साथ ढाढ़ को लूटते हुए जयपुर की ओर कूच किया। रास्ते में इन्होंने जयपुर के बख्शी शिवलाल को लुट किया तथा इस घटना की खबर बारहट सांइदान के साथ महाराजा मानसिंहजी को भेजी, बारहट मे निम्नांकित दोहा महाराजा के पास भेजा था:
फागेजुव पाई फते, लूट लियो शिवलाल ।
वे कागद में श्राणिया, मान विजाही मान ॥
कहना न होगा कि जयपुर पहुँचकर सिंघवी इन्द्रराजजी और मीरखां ने अपनी छूट शुरू कर दी । यह खबर जब जयपुर की फौज को जोधपुर में लगी तो उसने घबरा कर संवत् १८६४ की भादवा सुदी ३ को जोधपुर का घेरा उठा दिया और अपने-अपने राज्यों की ओर प्रस्थान कर दिया ।
जब जयपुर की विजय की खबर महाराज मानसिंहजी को मालूम हुई तो वे बड़े खुश हुए, और उन्होंने एक बड़ा महत्वपूर्ण रुक्का सिंघवी इन्द्रराजजी को बहशा जो इस ग्रन्थ के राजनैतिक महत्व नामक अध्याय में दिया गया है । इसी समय इन्द्रराजजी को प्रधानगी का पद बख्शा गया ।
संवत् १८६५ में सिंघवी इन्द्रराजजी और मुहणोत सूरजमलजी ने १० हजार जोधपुर की तथा १० हजार बाहरी फौज लेकर बीकानेर पर आक्रमण किया । उस समय बीकानेर नरेश सूरतसिंहजी ने चार लाख रुपये देने का वादा किया तथा पाँच गाँव देवनाथजी को जागीर में दिये। जिस समय सिंघी इन्द्रराजजी फौज के साथ बीकानेर गये थे उस समय पीछे से महाराजा मानसिंहजी ने मीरखां को उसकी फौज के खर्च के लिये पर्वतसर, मारोठ, डीडवाणा और साम्भर नावां का परगना लिख दिया था ।
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