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भंडारी
किले पर घेरा डाला तब पीमसी अपनी सेना लेकर किले पर पहुँचे और उस पर अपना अधिकार कर लिया । सम्वत् १७६९ में आप मेड़ते के हाकिम हुए। सम्वत् १०७२ की जेठ सुदी १३ को मण्डारी पोमसी और भण्डारी अनोपसिंहजी सेना लेकर नागीर पहुँचे । नागोराधिपति इन्द्रसिंहजी से तीन प्रहर तक इनकी भारी लड़ाई हुई। आखिर इन्द्रसिंह हार गये और नागोर पर इन भण्डारी बन्धुओं ने अधिकार कर लिया। जब यह खबर दरबार के पास अहमदाबाद पहुँची तो उन्होंने पोमसीजी को सोने के मूठ की तलवार भेजी और उन्हें नागौर का हाकिम बनाया और उनके नाम की मेड़ता की हुकूमत भण्डारी खेतसीजी के पोते गिरधरदासजी को दी ।
भण्डारी मनरूपजी आप मण्डारी पोमसीजी के ज्येष्ठ पुत्र थे । सम्वत् १७८२ में आप मेड़ते के हाकिम नियुक्त हुए। सम्वत् १७८२ में जब मराठों मे ५०,००० फौज से मेड़ते पर हमला किया, उस समय भण्डारी मनरूाजी और भण्डारी विजयराजजी ने मेड़ता, मारोठ और पर्वतसर की फ़ौज़ों को लेकर मेड़वा के माफकोट नामक किले की किलेबन्दी कर मराठों की फ़ौजों से मुकाबला किया। बड़ा घमासान युद्ध हुआ । आखिर दरबार ने कई लाख रुपये देकर सन्धि करती ।
जब भण्डारी अमरसिंहजी दीवान हुए तब भण्डारी मनरूपणी को एक सूबे का शासक बनाया और उन्हें पालकी, सिरोपाव, कड़ा, मोती और सरपंच भेंट किये। सम्वत् १८०४ के भाद्रपद मास में आप दीवानगी के पद पर प्रतिष्ठित किये गये और इसी समय आपको दरबार से बैठने का कुरुब मौर हाथी सिरोपाव इनायत हुआ । आप इस पद पर सम्वत् १८०६ के मार्गशीर्ष मास तक रहे । सम्बत् १८०५ की अषाढ़ सुदी १५ को महाराजा अभयसिंहनी का स्वर्गवास हो गया और महाराजा रामसिंहजी जोधपुर के राज्यसिंहासन पर बैठे । इस समय महाराजा रामसिंहजी ने मनरूपजी के बड़े पुत्र सूरतरामजी को दीवानगी का उच्चपद प्रदान किया और आपने मनरूपजी तथा पुरोहित जगुजी को अजमेर भेजा । इसके बाद महाराजाधिराज बख़्तसिंहजी और रामसिंहजी में बड़ा वैमनस्य हो गया । दोनों के बीच लड़ाइयाँ हुई । यद्यपि इस परिस्थिति में मनरूपनी ने बड़ी कुशलता से कार्य किया, पर बहुतसिंहजी यह बात भली प्रकार जान गये कि मनरूप भण्डारी हर तरह से रामसिंहजी की ! सहायता कर रहे हैं। अतएव उन्होंने इन्हें मरवाने का निश्चय किया ।
जब भण्डारी मनरूपजी सम्वत् १८०७ की कार्तिक सुद २ को महाराज रामसिंहजी के मुजरे से लौट कर पालकी से उतर रहे थे, उस समय बख़्तसिंहजी के भेजे हुए पातावत ने उन पर तलवार से हमला किया। मनरूपजी बुरी तरह घायल हुए और उनके १३ टाँके लगे । जब यह समाचार महाराजा रामसिंहजी को मिला तो वे बड़े दुःखित हुए और वे तुरन्त मनरूपजी के डेरेपर कुशल समाचार
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