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ओसवाल जाति का इतिहास पांडित्य और अनुकरणीय दरदर्शिता से सिद्धराज नरेश और उनका मन्त्रिमण्डल बहुत ही प्रभावित हुआ। आपने जैनधर्म के सिद्धान्तों को इतनी खूबी के साथ राजा और उनकी विद्वन्मण्डली के सम्मुख रक्खा, कि सब लोग आप को अकाव्य दलीलों पर वाह २ करने लगे। पहिले कहा जा चुका है कि महाराज सिद्धराज जयसिहदेव विद्या के अनन्य प्रेमी व विद्वानों के भक्त थे तथा इसके कुछ ही समय पहिले जयसिंहदेव ने सुप्रख्यात् विद्याप्रेमी मालवाधिपति राजा भोज पर विजय प्राप्त की थी। मालवे की राजधानी धारा नगरी की समग्र समृद्धि तथा भोज राजा का विशाल पुस्तक भंडार पाटण में लाया गया था। विजयलक्ष्मी से सुशो. मित होकर जब महाराजा पाटन में आये, तब अनेक पंडित उन्हें आशीर्वाद देने के लिये उनके महल में उपस्थित हुए । कहने की आवश्यकता नहीं कि हेमचन्द्रसूर भी राजा को आशीर्वाद देने पधारे। इस समय आपने महाराजा भोज के ग्रन्थ भण्डार का निरीक्षण किया। भण्डार के रक्षकों ने उस समय भण्डार से. एक ग्रन्थ निकाल कर राजा की सेवा में भेंट किया, उस पर राजा ने आचार्य देव से पूछा कि "यह क्या ग्रन्थ है।" तब आचार्यदेव ने जवाब दिया, “यह भोज व्यारण नाम का शब्द शास्त्र है" इसके बाद भोज को प्रशंसा करते हुए आचार्य देव ने महाराजा जयसिंह से कहा कि "मालव नरेश भोज विद्वच्चक्र शिरोमणि थे।" उन्होंने शब्द शास्त्र, अलंकारशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, तर्कशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, राजनीतिशास्त्र, तरुशास्त्र, वास्तुलक्षण, अंकगणित शकुन विद्या, अध्यात्म शास्त्र, स्वप्नशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र, आदि अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया था । यह सब सुन कर सिद्धराज जयसिंहदेव बोले, "क्या हमारे यहाँ इस प्रकार का सर्व शास्त्र, निष्णात पंडित नहीं हैं ?" इस समय सब उपस्थित विद्वानों की दृष्टि आचार्य हेमचन्द्र पर पड़ी। राजा ने हेमचन्द्र से विनय की कि आप 'शब्द व्युत्पत्ति' शास्त्र पर कोई ग्रन्थ रख कर हमारे मनोरथ को सफल करें। आपके सिवाय इस कार्य को पूरा करने वाला कोई दूसरा विद्वान् नहीं है। मेरा देश और मैं धन्य हूँ, कि जिसमें आप सरीखे अलौकिक विद्वान निवास करते हैं।
श्री हेमचन्द्राचार्य ने राजा की अभिलाषानुसार "सिद्ध हेम व्य करण” नामक महान् ग्रन्थ रचा। राजा को उक्त अन्य बहुत पसन्द आया, और उन्होंने अपने देश में उसके अध्ययन और अध्यापन का प्रारम्भ किया । इतना ही नहीं उन्होंने अपने मित्र राजाओं को भी लिख कर अङ्ग, बङ्ग, कलिंग लाट और कर्नाटक आदि देशों में भी उसका प्रचार करवाया और उसकी २० प्रतियाँ काश्मीर भेजी । उसकी कुछ प्रतियां अपने राजकोष में भी रक्खीं। जा लोग इस व्याकरण का अध्ययन करते थे, उन्हें राज्य की ओर से कॉफी उचेजन मिलता था। काकल नामक अष्ट व्याकरण का एक विद्वान कायस्थ इस व्याकरण को पढ़ाने के लिये रक्खा गया । ज्ञान पंचमी आदि दिनों में इसकी पूजा अर्चना होने लगी । (श्री प्रभावक चरित्र लोक ९५-११५) इतना ही नहीं यह ग्रन्थ स्वयं राजा की सवारी करने के हाथी पर रख कर बड़े समारोह