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जगत् सेठ का इतिहास
सोना, मोहर और रुपये से न खरीदी जा सके। गंगा के किनारे पर जहां तक मेरा महिमापुर बसा हुआ है. और महिमापुर के अन्दर मेरी टकसाल चालू है वहां तक मेरे वैभव, मेरी सत्ता और व्यापार के सन्मुख कौन उँगली ऊँची उठा सकता है। फरुखसियर स्वयं एक दिन याचक की तरह रुपये की भीख मांगता हुआ इसी सेठ के आँगन में उपस्थित हुआ था। आज वह बादशाह बना हुआ है पर मेरा विश्वास है कि हमारे धन से ही यह राजमुकुट खरीदा गया है तथा जिस दिन हम लोग रुपया देना बन्द कर देंगे उसी दिन वह मुकुट उनके सिर से गिर पड़ेगा। राजकाज में नीति और अनीति के विचार भले ही न हों पर हमारा व्यापार और व्यवहार तो इसी पर अवलम्बित है ।" सेठ माणिकचंद ने फिर कहा "सारे काण्ड का मुख्य उद्देश्य यही है कि अंग्रेजों की लड़ाकू कौम से जहाँ तक बने वहां तक दुश्मनी बाँधना ठीक नहीं और इसीलिये मैंने इन सब बातों का खुल्लमखुल्ला विरोध नहीं किया। मैं बादशाह को लिख देता हूँ कि मैं आपके हुक्म को सिर चढ़ाता हूँ और मुझे मिली हुई बंगाल की सूबेगिरी को पुनः मुर्शिदकुलीखांके सिपुर्द करता हूँ। क्योंकि मैं उनको अपने से अधिक योग्य मानता हूँ। मुझे विश्वास है कि बादशाह मेरे इस कथन को सहर्ष स्वीकार करेंगे।"
मुर्शिदकुलीखां ने पूछा कि अंग्रेज व्यापारियों को जो परगने सौंपने का फरमान बादशाह की भोर से भेजा गया है उसका क्या होगा? जगतसेठ ने कहा कि इस विषय में जरा बुद्धिमानी से काम लेना होगा। अंग्रेज लोग व्यापारी हैं; कूटनीतिज्ञ हैं; लड़ाकू हैं वे जब चाहे तब बादशाह की आँखों पर पट्टी बांध सकते हैं। साथ ही समय पड़ने पर अपने मित्रों को सहायता भी कर सकते हैं। इसलिए उनके साथ किसी भी प्रकार का उछृङ्खल व्यवहार करने का परिणाम अच्छा न होगा। इन परगनों की मालिकी तो नहीं दी जा सकती मगर यह व्यवस्था करना होगी कि इस भाग में अंग्रेज व्यापारी बिना कस्टम टैक्स के व्यापार कर सकें।
उपर के सारे अवतरण से इस बात का पता चल जाता है कि बंगाल के तत्कालीन राजनैतिक वातावरण में जगतसेठ का कितना जबरदस्त प्रभाव था। समस्त बंगाल, बिहार और उड़ीसे का महसूल . सेठ माणिकचंद के यहां इकट्ठा होता था और इन तीनों प्रदेशों में जगतसेठ की टकसाल के बने हुए रुपये ही उपयोग में आते थे। तत्कालीन मुसलमान लेखकों ने लिखा है कि जगतसेठ के यहां इतना सोना-चांदी था कि अगर वह चाहता तो गंगाजी का प्रवाह रोकने के लिये सोने और चांदी का पुल बना सकता था । बंगाल के अन्दराजमा हुई महसूल की रकम दिल्ली के खजाने में भरने के लिये जगतसेठ के हाथ की एक हुण्डी पर्याप्त थी। "मुतखरींन" नामक ग्रन्थ का लेखक लिखता है कि उस जमाने में सारे हिन्दुस्थान में जगत सेठ की बराबरी का कोई दूसरा व्यापारी या सेठ न था। कितनी ही दफे जगतसेठ के भण्डार लूटे