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श्रीसवाल जाति का इतिहास
भी अपने अधिकार में करना चाहता था। महाराणा भीमसिंहजी ने उसके दबाव में आकर माँडलगढ़ की किला उसे लिख तो दिया लेकिन तुरंत एक आदमी के हाथ में ढाल और तलवार देकर उसे माँडलगढ़ में देवीचन्दजी के पास भेज दिया। देवीचन्दजी ने इस बात से यह अनुमान किया कि महाराणा ने मुझे जालिम सिंह से लड़ने का आदेश किया है। 1 इस पर उन्होंने किले का प्रबंध करवाया और वे अपने सामन्तों सहित लड़ने को तयार होगये । इससे जालिमसिंह की मनोकामनाएँ पूरी न होसकीं। जिस समय कर्नल टॉड ने उदयपुर की राज्यव्यवस्था ठीक की उस समय संवत् १८७५ के भाद्रपद शुक्ला पंचमी को पुनः मेहता देवीचन्दजी को प्रधान का खिलअत दिया गया । यद्यपि ये प्रधान बनने से इन्कार करते रहे तिसपर भी महाराणा ने इनकी विद्यमानता में दूसरे को प्रधान बनाना उचित न समझ इन्हें ही इस पद पर रक्खा । इस समय प्रधान तो येही थे लेकिन कुल काम इनके भतीजे शेरसिंहजी देखते थे ! आपकी दो शादियाँ हुई थी, जिनमें से दूसरी शादी मेहता रामसिंहजी की बहन से हुई थी। इनके साले मेहता रामसिंहजी बड़े होशियार और महाराणा के सलाहकारों में से थे। उस समय कुँअर अमरसिंहजी के साह शिवलालजी विश्वसनीय नौकर होने के कारण अपना ढंग अलग ही जमाने लगे उस समय इस अफरा तफ़री को देखकर मेहता देवीचन्दजी ने यह प्रधान का पद अपने साले रामसिंहजी को दिलवा दिया ।
मेहता शेरसिंहजी
महाराणा जवानसिंहजी के
मेहता रामसिंह के स्थान
अगरचन्दजी के तीसरे पुत्र सीतारामजी के बेटे शेरसिंहजी हुए । समय अंग्रेज़ी सरकार के खिराज के ७ लाख रुपये चढ़ गये जिससे महाराणा ने पर शेरसिंहजी को प्रधान बनाया । मगर कप्तान काफ साहब के द्वारा रामसिंहजी की सिफारिश आने से एक ही वर्ष के पश्चात् उन्हें अलगकर रामसिंहजी को पुनः प्रधान बनाया। वि० सं० १८८८ ( ई० सन् १८३ ) ) में शेरसिंहजी को फिर दुबारा प्रधान बनाया । महाराणा सरदारसिंहजी ने गद्दी पर बैठते ही मेहता शेरसिंहजी को कैद कर मेहता रामसिंहजी को प्रधान बनाया। शेरसिंहजी पर यह दोषारोपण किया गया था कि महाराणा जवानसिंहजी के पीछे वे महाराणा सरदारसिंहजी के छोटे भाई शेरसिंहजी के पुत्र शार्दूलसिंहजी को गही पर बैठाना चाहते थे । यद्यपि शेरसिंहजी अपने पूर्वजों की तरह राज्य के खैरख्वाह थे पर कैद की हालत में शेरसिंहजी पर सख्ती होने लगी तब पोलिटिकल एजण्ट ने महाराणा से उनकी सिफारिश की । किन्तु उनके विरोधियों ने महाराणा को फिर भड़काया कि अंग्रेज़ी सरकार की हिमायत से वह आपको डराना चाहता है। अंत में दस लाख रुपये देने का वायदा कर शेरसिंहजी कैद से मुक्त हुए। परन्तु उनके शत्रु उनको मरवा डालने के उद्योग में लगे जिससे अपने प्राणों का भय जानकर वे मारवाद की ओर अपने परिवार
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