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स्थानकवासी
या पद प्रदान किया। आपका स्थापित किया हुआ सूरत का 'श्री जैन आनन्द पुस्तकालय' बम्बई प्रान्त में प्रथम नम्बर का पुस्तकालय है। इसी तरह आगम ग्रन्थों के उद्धार के लिए आपने सूरत, रतलाम, कलकत्ता, अजीमगअ, उदयपुर आदि स्थानों में लगभग १५ संस्थाएं स्थापित कीं । इन्हीं गुणों के कारण आप " आगमोद्धारक" के पद से विभूषित किये गये। इस समय आप सूर्य्यपुरी में निवास करते हैं। आपने बाल दीक्षा के लिए बड़ोदा सरकार से बहुत वादविवाद चलाया था ।
श्री जैन श्वेताम्बर स्थानकवासी प्राचार्य
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उस समय
इस सम्प्रदाय के प्रधान प्रचारक श्री कोंकाशाह भी एक मशहूर साहूकार थे । शताब्दी के अन्तर्गत अहमदाबाद नगर के एक प्रतिष्ठित तथा धनिक सज्जन थे। प्रारम्भ तीक्ष्ण बुद्धि वाले, बुद्धिमान तथा धर्म प्रेमी महानुभाव थे । आपके अक्षर बड़े ही सुन्दर थे । छापेखानों आदि का आविष्कार म हो पाया था । अतः जैन धर्म के कई शास्त्रों को आपने स्वयं अपने हाथ से लिखा जिससे आपको जैन शास्त्रों के अध्ययन का शौक क्रमशः लग गया और कालान्तर से आप एक बड़े विज्ञान तथा जैन तत्वों के पंडित होगये । तदनन्तर आपने अपनी सम्पति का सदुपयोग कर जैन शास्त्रों को लिखवाना आरम्भ करा दिया। इस प्रकार जैन साहित्य को संग्रहित करने के विशाल कार्य द्वारा आपको जैन धर्म के तत्वों का विशेष ज्ञान होगया और उसी समय से आपने जैन जनता को जैन तत्वों का उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया। धीरे २ आपका नाम जैन समाज में फैल गया और दूर २ से सैकड़ों हजारों व्यक्तियों के झुण्ड के झुण्ड आपके व्याख्यान को सुनने के लिये आने लगे और आपके प्रभावशाली व्याख्यान को सुन कर हजारों की संख्या में आपके अनुयायी होगये । सर्व प्रथम आपने संवत् १५३१ में ४५ साधुओं को दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा दी। इसके पश्चात् इस सम्प्रदाय का प्रचार बड़ी तेजी इस धर्म को अंगीकार किया और बहुत से गृहस्थों
से होने लगा और थोड़े ही समय में हजारों भावकों ने
मे सांसारिक सुखों को छोड़ छोड़कर इस सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण की।
आप सोलहवीं से ही आप
लोकाशाहजी के पश्चात् ऋषि श्री भाणजी, श्री भीदाजी, श्री यूनाजी, भी भीमाजी, श्री गजमक
मी, श्री सखाजी, श्री रूप ऋषिजी, श्री जीवाजी नामक आचार्य धर्म प्रचारक श्री लोकाशाहजी के पाट पर क्रमशः विराजे । आप सब आचायों ने जैन सिद्धान्तों का सर्वत्र प्रचार किया और लाखों की संख्या में अपने अनुयायिओं को बनाया। इसी समय तत्कालीन भाचायों में मतभेद होजाने के कारण इस सम्प्रदाय की तीन शाखाएं होगई – (१) गुजराती लोकागच्छ (२) नागोरी डोंकागच्छ तथा (३) उत्तरार्ध लोकागच्छ । कागच्छ के आचार्य श्री जीवाजी ऋषि के तीन मुख्य शिष्य थे श्री कुँवरजी, श्री नरसिंहजी तथा श्री श्रीमलजी । इनमें से श्री कुँवरजी, और उनके पश्चात् श्री श्रीमलजी उक्त पाट पर बैठे। आपके पश्चात् श्री रत्नसिंहजी, श्री केशवजी, श्री शिवजी, श्री संघराजजी, श्री सुखमलजी, श्री भागचन्दजी, श्री बालचन्दजी, श्री माणकचन्दजी, श्री मूलचन्दजी, श्री जगतसिंहजी तथा श्री रतनचन्द
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