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मासवाल बाति का इतिहास
दीक्षित किया। भापका स्वर्गवास सम्बत् १९५४ की कार्तिक कृष्णा ३ को सुजानगढ़ में १३ वर्ष की अवस्था में हो गया है।
श्री स्वामी गचन्दजी-स्वामी बालचन्दजी महाराज का जन्म उज्जैन में कनीरामजी पिपाया के यहाँ संवत् १९०९ की भाषाद शुक्ला को हुआ। इन्दौर में बाप दीक्षित हुए, एवम् लाडन् में आपको भाचार्य पद प्राप्त हुआ । आपने अपने समय में १६ साधु और १२६ साध्वियों को दीक्षित किया । ५० वर्ष की आयु में लाडनू नामक स्थान में संवत् १९९९ की भाद्रपद शुक्ला १२ को भापका स्वर्गवास हो गया।
वर्तमान आचार्य श्री कालूरामजी-आपका जन्म सम्वत् १९३३ की फाल्गुन शुक्ला २ को छापर में हुआ। सम्बत् १९४७ में आचार्य मघराजजी द्वारा आप बीदासर में दीक्षित किये गये । सम्वत् १९६६ के भाद्रपद में भाप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। आपने अभी तक १२८ साधु और १९९ साध्वियों को अपने धर्म में दीक्षित किये हैं। इस समय सब मिलाकर 11 साधु और २९४ सावियाँ भापकै अधिकार में हैं। आप प्रारम्भ से ही बड़े प्रतिभासम्पन्न और उग्र तपस्वी रहे हैं। ब्रह्मचर्य का अपूर्व तेज आपके मुंह पर दैदीप्यमान हो रहा है। आपकी प्रकृति बड़ी सौम्य, गम्भीर और शीतल है। भाप जैन शाखों, दर्शनों और जैन सूत्रों के अच्छे जानकार है । संस्कृत साहित्य के भी आप अच्छे विद्वान हैं। इस सम्प्रदाय के संस्कृत साहित्य में बापने बहुत तरकी की है। इस समय इस सम्प्रदाय के बहुत से साधु संस्कृत के भौर जैन सूत्रों के अच्छे विद्वान हैं। आपकी सङ्गठन और व्यवस्थापिका शक्ति बढ़ी ही अद्भुत है। आपने अपने सम्प्रदाय का सङ्गठन बहुत ही मजबूत और सुन्दर ढंग से कर रक्खा है। और २ सम्प्रदायों के साधुओं में जो आपसी झगड़े खड़े हो जाते हैं वे इस सम्प्रदाय में कतई नहीं होते। यह सब श्रेय आपकी संगठन शक्ति को है। सम्प्रदाय के सब साधु और साध्धियाँ एक स्वर से आपकी आज्ञा का पालन करते हैं। कहा जाता है कि इस समय सारे भारतवर्ष में इस सम्प्रदाय के करीव २लाख अनुयायी हैं। आपने सङ्गठन को सुचारू रूप से चलाने के लिये इस सम्प्रदाय में हर साल माघ शुक्ला को मर्यादा महोत्सव नाम से एक उत्सव चलाया है, जिसमें प्रायः सभी साधु सम्मिलित होते हैं। साथ ही श्रावक वर्ग भो भाप लोगों के दर्शनार्थ उपस्थित होते है। इस अवसर पर इस प्रकार एक सम्मेलन सा हो जाता है एवम् मापसे विचार विनिमय का अच्छा मौका मिलता है। इसका श्रेय भी आपकी व्यवस्थापिका शक्ति को है।
इस सम्प्रदाय के साधु और साध्वियों की तपस्या भी बड़ी कठोर होती है। राजलदेसर की महासती श्री मुखॉजी ने २७० दिन तक केवल भाछ के सहारे तपस्या की थी। इसी प्रकार और भी कई साधुओं ने लगातार छ: १ सात माह तक की उग्र तपस्या की है।
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