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तेरापन्थी संपदाय तेरापन्थी संप्रदाय की स्थापना-इस पंथ के प्रर्वतक स्वामी भिक्खनजी महाराज थे। ऐसा कहा जाता है कि आप पहले स्थानकवासी संप्रदाय के अनुयायी थे, मगर जब आपने उस संप्रदाय के आचार्यों के क्रिया-कर्म में कुछ फर्क देखा तब आपने नवीन विचारों के अनुसार कुछ अपने अलग अनुयायी बनाए । एक बार आपके ३ अनुयायी आपके सिद्धान्तानुसार एक पड़त दुकान में पोषध कर रहे थे, ठीक उसी समय जोधपुर के तत्कालीन दीवान सिंघवी फतेचंदजी उधर निकले। श्रावकों को स्थानक में पोषध न करने का कारण पूछने पर उन्हें मालूम हुआ कि कुछ धार्मिक सिद्धान्तों का मत भेद हो जाने के कारण वे लोग अपने सिद्धान्तानुसार यहां पोषध कर रहे हैं। इसी समय स्वामी भिक्खनजी महाराज अपने । साधु अनुयायियों को साथ लेकर उक्त स्थान पर पधारे । उस समय उन्होंने अपने नवीन सिद्धान्त दीवानजी के सामने रखे, जिससे दीवान साहब बहुत प्रसन हुए। इसी समय पास में खड़े हुए एक सेवक ने तेरह साधु और तेरह ही भावकों को देखकर निम्न लिखित पद कह सुनाया, तभी से इस संप्रदाय का नाम तेरा पंथी संप्रदाय हुआ।
"भाप आपको गिल्लोकरे, ते आप आप को मंत।
देखो रे शहर के लोगां-"तेरापंथी तन्त ॥" जब उपरोक्त वात स्वामी जी को विदित हुई तो उन्होंने भी इस नामको सफल करने के उद्देश्य से अपने संप्रदाय के अनुयायियों के लिए पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति का मन बचन से पालन करने का सिद्धान्त बनाया। जो कोई साधु और श्रावक इसका पालन करे वह तेरापंथी साधु और तेरापंथी श्रावक कहलावे । इस प्रकार इन तेरह सिद्धान्तों से तेरापंथी मत की स्थापना हुई। आगे चलकर इस संप्रदाय में कई साधु एवम् साध्वियों दीक्षित हुई। वर्तमान समय तक इसमें आचार्य पाटधर हुए । भागे हम इन्हीं माठों प्राचार्यों था संक्षिप्त जीवन चरित्र लिख रहे हैं।
संप्रदाय के स्थापक श्री स्वामी मिक्खनजी महाराज-आपका जन्म संवत १७८३ के आषाढ़ शुक्ला १३ को मारवाड़ राज्यांतर्गत कंटालिया नामक प्राम में हुआ था। आपके पिता शाह बल्लूजी सखलेचा बीसा भोसवाल जाति के सज्जन थे। भापकी माता का नाम श्रीमती दीपाबाई था। स्वामीजी को बचपन से ही साधु सेवाओं से बड़ा प्रेम था। अतएव भाप साधुओं के पास जाया भाया करते थे। प्रारम्भ में आपने गच्छ वासी संप्रदाय के व्याख्यान सुने, पश्चात् पोतिय' 'ध संप्रदाय ने आपका ध्यान आकर्षित किया। जब यहाँ भी आपको सच्ची शांति का अनुभव न हुआ तब आपने बाईस संप्रदाय की एक शाखा के आचार्य श्री रघुनाथजी महाराज के पास जाना प्रारंभ किया। आपके उपदेशों से प्रभावित होकर स्वामी भिक्खनजी का मन जैन धर्म के साधु बनने के लिये उतावला हो उठा। भाग्यवशात इन्हीं दिनों आपकी धर्म पत्नी का भी स्वर्गवास हो गया । आपके पिताजी का स्वर्गवास पहले ही हो चुका था। अतएव माताजी की आज्ञा लेकर मापने साधु होना निश्चित किया। कहना न होगा कि अपने जीवन सर्वस्व एक मात्र माधार पुत्र को साधु होने की आज्ञा प्रदान करना माता के लिये कितना कष्ट साध्य है. मगर फिर भी तेजस्वी माता ने जगत के
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