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मोसवाल जाति का इतिहास उत्तर दिया कि जैन मुनि निस्पृह होते हैं। वे संसार के बड़े से बड़े वैभव की तनिक भी परवाह नहीं करते। इस पर फिर सम्राट ने निवेदन किया कि आप कुछ भेंट तो स्वीकार कीजिये। तब आचार्य देव ने कहा कि आप कैदियों को बन्धन मुक्त कीजिये और पीजरे के पक्षियों को छोड़ दीजिये। इसके अतिरिक्त पर्युषण के आठ दिनों में अपने साम्राज्य में हिंसा बन्द कर दीजिये। कहने की आवश्यकता नहीं कि सम्राट ने कैदियों को मुक्त किया, पीजरे से पक्षी छोड़े गये और कई तालाबों में, सरोवरों में मच्छी न मारने के आदेश किये गये। इसी समय अर्थात् संवत् १६४० में आचार्यावर श्री हीरविजयसूरि जगद्गुरु की उच्च उपाधि से विभूषित किये गये।
___ इसके बाद थानसिंह ने भाप के द्वारा कई जैन बिम्बों की प्रतिष्ठा करवाई। इसी समय आप ने अपने शिष्य शांतिचन्द्र को उपाध्याय का पद प्रदान किया। जौहरो दुर्जनमल ओसवाल ने आचार्य श्री से कई जैन बिम्बों की प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रकार बहुत से धार्मिक कार्यों के कारण संवत् १६४० में आप को फतहपुर सीकरी ही में चातुर्मास करना पड़ा। इस चातुर्मास के बाद आप बावन गज ऋषभनाथजी की यात्रा के लिये पधारे। संवत् १६४२ में आप ने आगरा में चातुर्मास किया। इसके बाद गुजरात से विजयसेनसूरि भादि मुनि संघ का आप को निमंत्रण मिला। आप सम्राट के पास अपने शिष्य शांतिचन्द्र उपाध्याय को छोड़ कर गुजरात के लिए रवाना हुए। शांतिचन्द्रजी ने भी बादशाह पर बहुत अच्छा धार्मिक प्रभाव डाला और कई मद्य माँस के भक्षकों के बुरे खान पान को भी छुड़वाया।
आचार्य श्री हीरविजयसूरि बिहार करते हुए नागौर पहुंचे। यहाँ पर संमत् १६४३ में आप मे चातुर्मास किया। वहाँ के तत्कालीन राजा जगमाल के वणिक मन्त्री मेहाजल ने आप की बड़ी सेवा की। इस समय अनेक देशों से अनेक धार्मिक संघ आचार्य श्री के दर्शनों के लिये आये। जयपुर राज्य के वैराट नगर से वहाँ के अधिकारी इन्द्रराज का आप को निमन्त्रण मिला जहाँ आप ने अपने शिष्य उपाध्याय कल्याणविजयजी को प्रतिष्ठा करवाने के लिये भेजा। इसके बाद आप आबू यात्रा के लिये गये। वहाँ तत्कालीन सिरोही नरेश ने सिरोही में चातुर्मास करने का आप से बड़ा आग्रह किया। उक्त राजा ने यह भी प्रार्थना की कि अगर आचार्य श्री मेरे राज्य में चातुर्मास करेंगे तो मैं प्रजा के बहुत से टैक्स माफ कर प्रजा के कष्टों का निवारण करूँगा और सारे राज्य में जीव हिंसा न करने का आदेश निकालूंगा। इस पर संवत् १६४४ में हीरविजयसूरि मे वहाँ पर चौमासा किया। श्री वृषभदास कृत 'हीरविजयसूरिदास, मामक ग्रन्थ से पता लगता है कि उक्त राजा ने अपने वचन का बराबर पालन किया।
हीरविजयसूरि बिहार करते २ गुजरात के पाटन नगर में पहुंचे और संवत् १६४५ में भाप ने वहाँ पर चातुर्मास किया। जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं कि हीरविजयसरि अपने शिष्य शांतिचन्द