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धार्मिक क्षेत्र में श्रोसवाल जाति
तरफ की वेदी में संवत् १६४५ को वैशाख शुक्ला ३ गुरुवार का प्रतिष्ठित एक विशाल चरणयुग भी विराज. मान है । मूल गभारे के दक्षिण की दीवाल के एक आले में संवत् १७७२ को माह सुदी १३ सोमवार की प्रतिष्ठित श्री पुण्डरीक गणधर की चरण पादुका है तथा मूल वेदी के बाई तरफ की बेदी पर श्री वीर भगवान के ११ गणवरों की चरण पादुका खुदो हुई हैं। यह चरण पादुका मंदिर के साथ संवत् १६९२ से प्रतिष्टित है, और इसी वेदीपर संवत् १९१० की श्री महेन्द्रसूरि द्वारा प्रतिष्ठित श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण की पीले पाषाण की सुन्दर मूर्ति रक्खी हुई है। मूल मंदिर के बीच में वेदीपर एक अति भन्न चरण पादुका विराजमान है जिस पर १६९८ का लेख है।
मंदिर के चारों कोनों में चार शिखर के अधो भाग की चारों कोठरियों में कई चरण और मूर्तियाँ हैं। इन पर के जिन लेखों के सम्बत् पढ़े जाते हैं, उन सबों की प्रतिष्ठा का समय विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी से वर्तमान शताब्दी तक पाया जाता है । इन मूर्तियों के अतिरिक्त उक्त मंदिर में दिकपाल, (भैरव) शासन देवी आदि भी विराजमान हैं। प्राचीन मंदिर का सभा मण्डप संकुचित था। उसे अजीमगंज के सुप्रसिद्ध ओसवाल जमींदार बाबू निर्मल कुमारसिंहजी नौलखा ने विशाल बनवा दिया है।
जलमन्दिर
-- यह बड़ा ही भव्य मंदिर है। कई विद्वान यात्रियों ने अपने प्रवास वर्णन में इसके आस-पास के नयन मनोहर दृश्यों का बड़ा सुन्दर विवेचन किया है । वर्षाऋतु के प्रारंभ में जब जल से लबालब भरे हुए इस सरोवर में कमलों का विकास होता है उस समय वहाँ का दृश्य एक अनुपम शोभा को धारण करता है। यदि कोई भावुक अपनी शुद्ध भावना और आत्म चितवन के लिये इस जलमंदिर में जाकर अनंत के साथ तन्मय हो जाय, तो वह इस दुखमय संसार की अशांति को भूल जाता है। यह मंदिर एक सुन्दर सरोवर के बीच में बना हुआ है। उस सरोवर में सुन्दर कमल खिले हुए हैं और मत्स्यगण बड़ी निर्भयता से उसमें विचरण करते हैं।
इस मंदिर में यद्यपि कोई शिखर नहीं है पर उसका गुम्मज बहुत दूर २ तक दिखाई पड़ता है। मंदिर के भीतर कलकत्ता निवासी सेठ जीवनदासजी ओसवाल की बनाई हुई मकराणे की सुन्दर तीन वेदियाँ है। बीच की वेदी में श्री वीरप्रभु की प्राचीन छोटी चरण पादुका विराजमान है। इस चरण पट्ट पर कोई लेख दिखलाई नहीं पड़ता। ये चरण भी अति प्राचीन होने की वजह से घिस गये हैं। इस वेदी पर श्री महावीरस्वामी की एक धातु की मूर्ति रक्खी हुई है, जिसकी संवत् १२६० में आचार्य श्री अभयदेव