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ओसवाल जाति का इतिहास
पर मत के महाकवियों की और उनकी कृतियों की बड़ी प्रशंसा की है । इन्द्रभूति, गणवर, वाल्मीकि, वेद. व्यास, गुण्याढ्य, ( बृहत्कथाकार ) प्रवरसेन पाद लिस कृत तरंगवती, जीवदेवसूरि, कालिदास, बाण, भारवी, हरिभद्रसूरि, भवभूति, वाक्पति राज, बपभष्ट, राजशेखा कवि, महेन्द्रसूरि, रुद्रकवि आदि अनेक महाकवियों की बड़ी प्रशंसा की है। महाकवि धनपाल का तिलक मंजरी ग्रंथ संस्कृत साहित्य का एक अमूल्य रन है। यह ग्रंथ बड़ा ही लोक प्रिय है। इसकी समग्र कथा सरल और सुप्रसिद्ध पदों में लिखी गई है। प्रसाद गुण से वह अलंकृत है। हेमचन्द्राचार्य सरीखे प्रकाण्ड विद्वानों ने इस ग्रन्थ को उच्चकोटि का ग्रंथ माना है। उन्होंने अपने काम्यानुशासन में उसका बहुत कुछ अनुकरण करने की चेष्टा की है। यह कथा नवरस और काव्य से परिपूर्ण है। प्रभावक चरित्रकार का कथन है, कि उक्त कथा को जैनाचार्य शांतसूरिजी ने संशोधित किया था। संवत् ११३० की लिखी हुई इसको । प्रति इस समय भी जैसलमेर के भण्डार में विद्यमान है। इसके अतिरिक्त महाकवि धनपाल ने प्राकृत भाषा में श्रावकविधि, ऋषभ पंचाशिका, “सत्यपुरीय श्रीमहावीर उत्साह" नामक ग्रन्थ रचे, जिनमें अंतिम ग्रंथ स्तुति काव्य पर है, और उसमें कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी है।
आचार्य शन्तिसूरिजी
आप प्रभावशाली तथा विद्वान थे। आपने ७०० श्रीमाली कुटुम्बों को जैन बनाया था । आप बड़गच्छ के थे। महाराजा भोज ने आपको अपनी राजधानी धार में निमंत्रित किया था। वहाँ विद्वानों की सभा में आपने अपनी अलौकिक प्रतिभा का परिचय दिया, इससे महाराजा भोज ने आपको “वादि ताल" की उपाधि से विभूषित किया । आपने जैनियों के सुप्रसिद्ध उत्तराध्ययन "सूत्र पर बड़ी ही सुन्दर टीका की। उसमें प्राकृत भाषा का बाहुल्य होने से उसका नाम" "पाईय टीका" रक्खा गया। संवत् १०९६ में आपका स्वर्गवास हुआ।
आचाय्य वर्द्धमानसूरि
संवत् १०५५ में आपने हरिभद्र कृत उपदेश पद की टीका की। इसके अतिरिक्ति मापने उपदेश माला वृहद् वृत्ति नामक ग्रन्थ लिखा। विक्रम संवत् ९४५ का कटिग्राम में एक प्रतिमा लेख प्राप्त हुआ है, जिसमें आपके नाम का उल्लेख है । संवत् १०४८ में आपका स्वर्गवास हुभा ।
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