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ओसवाल जाति का इतिहास
उपरोक्त वाक्यों से यह प्रतीत होता है कि यद्यपि हरिभद्रसूरि सिद्ध ऋषि के साक्षात गुरु नहीं थे पर उनके परोक्ष धर्मोपदेशक थे । श्री सिद्ध ऋषि ने इस महान् ग्रन्थ की रचना मारवाड़ के भीनमाल नगर के एक जैन देरासर में की थी और श्री दुर्गस्वामी की गणा नाम की शिष्या ने इस ग्रन्थ की प्रथम प्रति लिखी थी।
यह ग्रंथ संस्कृत भाषा का एक अमूल्य रत्न है। आंतरिक वृत्तियों का सूक्ष्म इतिहास जैसा इस प्रन्थ में मिलता है वैसा दूसरे किसी ग्रन्थ में नहीं मिलता । एक विद्वान् का कथन है कि भारतीय धर्म और नीति के लेखकों में सिद्धऋषि का आसन सर्वोपरि है।
___ आचार्य सिद्धऋषि ने और भी कई महत्पूर्ण ग्रन्थ लिखे थे। चन्द्रकेवली* नामक प्राकृत भाषा के ग्रन्थ का आपने संस्कृत में अनुवाद(१) किया था। वि० सं० ९७४ में उन्होंने धर्मनाथ गणी कृत प्राकृत उपदेशमाला की संस्कृत टीका लिखी, जो अतीव महत्त्वपूर्ण और उपयोगी है। श्री सिद्धसेन दिवाकर कृत न्यायावतार ग्रन्थ पर भी आपने एक बहुत ही उत्तम वृत्ति लिखी है। तत्वार्थाधिगम नामक सूत्र पर भी सिद्ध ऋषि की एक वृत्ति है पर ये सिखऋषि उक्त सिद्धऋषि से जुदे मालूम पड़ते हैं।
श्री प्रभावक चरित्र में श्री सिद्ध ऋषि, उनकी गुरु परंपरा तथा हरिभद्रसूरि के साथ का उनका सम्बन्ध आदि बातों पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। कहने का अर्थ यह है कि श्री सिद्ध ऋषि आचार्य जैन साहित्य के प्रकाशमान रत्न थे और उनकी उपमिती भवप्रपंच कथा मानवीय हृदयों को जीवन के उच्चातिउच्च क्षेत्र में लेजाकर शान्ति के अलौकिक वायु मण्डल से परिवेष्ठित कर देती है। आचार्य जम्मूनाथ
आप बड़े विद्वान् जैन ग्रन्थकार थे । विद्वत्समाज में आपका बड़ा गौरव था। सवत् १००५ में मापने मणिपति चरित्र नामक ग्रन्थ की रचना की । इसके बाद आपने जिनशतक काव्य बनाया, जिसपर संवत् १०२५ में सांब मुनिने इसपर विस्तृत टीका लिखी। मुनी जम्मूनाथ ने दूत काव्य नामक एक अन्य काव्य-अन्य भी रचा था। मुनी प्रद्युम्नसूरि
चन्द्रगच्छ में प्रभुन्नसूरि नामक एक जैन साधु हो गये। आप वैदिक शास्त्र के बड़े पारगामी • इस ग्रंथ की मूल प्रति श्री कांति विजयजी के बढ़ौदे के भण्डार में मौजूद है। (१) वस्वकेषु मिते वर्षे श्री सिद्धर्षिरिदं महत् ।
प्राक् प्राकृत चरित्रादु धि चरित्रं संस्कृतं व्यधात् ॥