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ओसवाल जाति और प्राचार्य
सिद्धऋषिसूरि
आप महान जैनाचार्य थे। आपने 'उपमिती भव प्रपंच कथा' नाम का एक विशाल महारूपक अन्य रचा कि जो न केवल जैन साहित्य का सबसे पहला रूपक ग्रन्थ था वरन् समस्त भारतीय साहित्य के रूपक ग्रन्थों में वह शिरोमणि गिना जाता है। उसका साहित्यक मूल्य महान् है। सुप्रख्यात ० याकोबी अपनी 'उपमिती भव प्रपंच कथा' की अंग्रेजी प्रस्तावना में लिखते हैं
I did find something still more important. The great literary value of the U. Katha and the fact that it is the first allegorical work in Indian Literature.
. अर्थात् मुझे और भी अधिक महत्व की वस्तु मालूम हुई है। उपमिति भव प्रपंच कथा का साहित्यक मूल्य महान् है और यह भारतीय साहित्य का प्रथम रूपक ग्रन्थ है ।
यह ग्रंथ संवत् ११२ की ज्येष्ट सुदी पंचमी को समाप्त हुआ था। उपरोक्त सिद्धऋषिसूरि के सम्बन्ध में विभिड ग्रंथों में कुछ ऐतिहासिक विवरण हैं। उससे यह प्रगट होता है कि लाटदेश अर्थात् गुजरात में सूाचार्य नामक एक जैन आचार्य हुए। उनके शिष्य के शिष्य दुर्गस्वामी थे। वे मूल में बड़े धनवान, कीर्तिशाली तथा ब्रह्म गौत्र विभूषण ब्राह्मण थे। पीछे से उन्होंने जैन साधु की दीक्षा ली थी। इनका मारवाद के भीनमाल नगर में स्वर्गवास हुआ। श्री सिद्धऋषि इन्हीं दुर्गस्वामी के शिष्य थे।
-दुर्गस्वामी सिद्धऋषि के गुरु थे और सिद्ध ऋषि ने उनकी अनुकरणीय धर्मवृत्ति की बड़ी प्रशंसा की है। इन दोनों गुरु शिष्यों को गर्गस्वामी ने दीक्षित किया था। ये गर्गस्वामी संवत् ९६२ में विद्यमान थे। उन्होंने 'पासक केवली' तथा 'करम विपाक' नामक ग्रन्थों की रचना की थी।
___आचार्य सिद्धऋषि ने अपने ग्रन्थ में श्री हरिभद्रसूरि की बड़ी स्तुति की है। आपने कहा है कि मैं "इस प्रकार के हरिभद्रसूरि के चरण की रज के समान हूँ"। इसके आगे चल कर फिर आपने कहा है कि "मुझे धर्म में प्रवेश कराने वाले धर्मबोधक आचार्य हरिभद्रसूरि हैं। श्री हरिभद्रसूरि ने अपनी. भचिन्त्य शक्ति द्वारा मुझ में से कुर्वासना-मय विष को दूर करने की कृपा की और सुवासना रूप अमृत मेरे काम के लिये ढूंढ निकाला । ऐसे हरिभद्रसूरि को मेरा नमस्कार है"।
• संवत्सर शत नव के द्विषष्टि सहिते ऽतिलंघिते चास्याः ज्येष्टे सित पंचम्यां पुनर्वसौ गुरु दिने समाप्तिर भूत् +इन्हें श्री प्रभावकचरित्र में सूराचार्य कहा है। . .,