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कोरटा तीर्थ
कोरटा का दूसरा नाम कोरंट नगर तथा कोरट है। यह कसबा जोधपुर रियासत के वाली परगने में राजपूताना मालवा रेलवे के एरनपुरा स्टेशन से १२ माइल पश्चिम में आबाद है। इस कसबे के चारों ओर प्राचीन मकानों के खंडहर पड़े हुए हैं। उन्हें देखने से अनुमान किया जा सकता है कि किसी समय यह नगर बड़ा शहर होगा। इस नगर से आधा मील की दूरी पर भगवान महावीर स्वामी का एक भव्य मन्दिर है, जिसके चारों ओर एक पक्का कोट बना हुआ है और इसके भीतरो दैलान में बड़ा मजबूत तलघर है। यह तलघर बहुत ही प्राचीन प्रतीत होता है।
इस अति प्राचीन मन्दिर का निर्माण तथा प्रतिष्ठा श्री रत्नप्रभाचार्य द्वारा हुई है, जैसा कि कल्पद्रुमकलिका टीका के स्वविरावली अधिकार में लिखा है,
" उपकेश वंश गच्छे श्रीरत्न प्रभु सूरिः येन उसियनगरे कोरंटनगरे च समकालं प्रतिष्ठा कृता रूप ब्दय कारणेन चमत्कारश्च दर्शितः"
__ अर्थात् उपकेश वंश गच्छीय श्रीरत्न प्रभाचार्य हुए जिन्होंने ओसियां और कोरंटक (ोरटा) नगर में एक ही लग्न से प्रतिष्ठा की, और दो रूप करके चमत्कार दिखलाया।
____धाराधिपति सुप्रख्यात महाराजा भोज की सभा के नो रत्नों में पंडित धनपाल नाम के एक सज्जन थे। वि० सं० २०८१ के आस पास उन्होंने 'सत्यपुरीय श्री महावीर उत्साह' नामक प्राकृत भाषा में एक अन्य बनाया था। उसकी तेरहवीं गाथा के प्रथम चरण में 'कोरिट-सिरिमाल-धार-आहुडनराणउ' आदि पद हैं जिनमें अन्य तीर्थों के साथ साथ कोरटा तीर्थ का भी उल्लेख है। इससे यह पाया जाता है कि ग्यारहवीं शताब्दी में इस तीर्थ स्थान का अस्तित्व था। तपेगच्छ के मुनि सोमसुन्दरसूरि के समकालीन कवि मेघ ने संवत् १४९९ में तीर्थमाला नामक एक ग्रन्थ रचा जिसमें "कोरट" नामक तीर्थ का उल्लेख है ! कवि शील विजयजी ने संवत् १४४६ में तीर्थ माला पर एक दूसरा ग्रन्थ बनाया जिसमें भी इस तीर्थ स्थान का विवेचन किया गया है ।
इससे यह जान पड़ता है कि ग्यारहवीं शताब्दी से लगाकर अठारहवीं शताब्दी तक यहाँ अनेक साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविकाएँ यात्रा के लिए आते थे और यह स्थान उस समय में भी तीर्थ स्वरूप माना जाता था। कहने का अर्थ यह है कि यह तीर्थ प्राचीन है और इसका निर्माण, पुनरुद्धार आदि सब कार्य ओसवालों के द्वारा हुए हैं।