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श्रोसवाल जाति का इतिहास
"सिरोही राज्य के वासा से २ मील की दूरी पर कालगरा नामक एक गांव था तथा वहाँ पर एक पार्श्वनाथ का मन्दिर भी था। परन्तु अब उस गांव और मन्दिर का कुछ भी अंश नहीं रहा । केवल कहीं-कहीं घरों के निशान मात्र पाये जाते हैं। वहां से विक्रमी सम्वत १३०० (ईस्वी सन् १२४६) का एक शिलालेख मिला है, जिससे पाया जाता है, कि उक्त सम्बत् में चन्द्रावती का राजा आल्हणसिंह था" । उक्त गांव तथा मन्दिर का पता भी उसी लेख से चलता है।" कायंद्रा का जैन मन्दिर
सिरोही राज्य के कीवरली के स्टेशन से करीब चार माइल की दूरी पर कायन्द्रा नामक गांव है। पह एक अत्यन्त प्राचीन स्थान है। शिलालेखों में इसे कासहृद नाम से सम्बोधित किया है। इस ग्राम के भीतर एक प्राचीन जैन मन्दिर है जिसका थोड़े वर्षों पहले जीर्णोद्धार हुआ था । उसमें मुख्य मन्दिर के चौतरफ के छोटे-छोटे जिनालयों में से एक के द्वार पर वि० सं० १०९१ (ई. सन् १०३४ ) का लेख है। यहां पर एक दूसरा भी जैन मन्दिर था जिसके पत्थर आदि यहां से लेजाकर रोहेड़ा के नवीन बने हुए जैन मन्दिर में लगा दिये हैं। यह मन्दिर भी ओसवालों का बनाया हुआ है। र वैराट के जैन मन्दिर
____ जयपुर राज्य में वैराट स्थान अत्यन्त प्राचीन है, जहाँ पर पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास के दिन बिताये थे। यहाँ पर अशोक और उससे भी पहले के सिक्के पाये गये हैं। पुरातत्ववेत्ताओं ने अनुसंधान द्वारा यह निश्चित किया है कि यह नगर प्राचीन मत्स्यदेश की राजधानी था। ईसवी सन् ६३४ में जब प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएनसांग यहां आया था तो उसे यहाँ आठ बौद्ध मठ (Bnddhist Monasteries) मिले थे। यहीं पर सम्राट अशोक ने बौद्ध साधुओं के लिए आदेश निकाला था। यह शिलालेख आज भी बंगाल की ऐशियाटिक सोसाइटी के दफ्तर में मौजूद है। ईस्वी सन् की ११ वीं शताब्दी में महम्मद गज़नवी ने वैराट पर आक्रमण किया जिसका वर्णन आइने अकबरी में किया गया है ।
इस नगर में रित्व की दृष्टि से जो वस्तुएँ देखने योग्य हैं उनमें पार्श्वनाथ का मन्दिर भौर भीम की डूंगरी विशेष उल्लेखनीय है। पार्श्वनाथ का मन्दिर हाल में दिगम्बर जैनियों के हाथ में है पर इस मन्दिर के लेखों से यह स्पष्टतयाप्रकट होता है कि यह मंदिर मूलतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय वालों का था। इस देवालय के नजदीक के कम्पाउण्ड को एक भीत में वि० संवत् १६४४ (शक सं० १५०९, ई. सन् १५८७) का एक लेख खुदा हुआ है। उस समय भारत में सम्राट अकबर राज्य करते थे और जैनमुनि हीरविजयसूरि तत्कालीन प्रसिद्ध जैनाचार्य थे। सम्राट् भकवर ने वैराट में इन्द्रराज नामका एक अधिकारी नियुक्त किया