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नियमसार
(मालिनी) इति निगदितभेदज्ञानमासाद्य भव्यः।
परिहरतु समस्तं घोरसंसारमूलम् ।। सुकृतमसुकृतं वा दुःखमुच्चैः सुखं वा। तत उपरि समग्रं शाश्वतं शं प्रयाति ।।१८।।
(अनुष्टुभ् ) परिग्रहाग्रहं मुक्त्वा कृत्वोपेक्षां च विग्रहे । निर्व्यग्रप्रायचिन्मात्रविग्रहं भावयेद् बुधः ।।१९।।
(शार्दूलविक्रीडित) शस्ताशस्तसमस्तरागविलयान्मोहस्य निर्मूलनाद् द्वेषाम्भ:परिपूर्णमानसघटप्रध्वंसनात् पावनम् । ज्ञानज्योतिरनुत्तमं निरुपधि प्रव्यक्ति नित्योदितं
भेदज्ञानमहीजसत्फलमिदं वन्द्यं जगन्मंगलम् ।।२०।। उक्त पाँच छन्दों में पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(रोला) इसप्रकार का भेदज्ञान पाकर जो भविजन।
भवसागर के मूलरूपजो सुक्ख-दुक्ख हैं।। सुकृत-दुष्कृत होते जो उनके भी कारण।
उन्हें छोड़ वे शाश्वत सुख को पा जाते हैं|१८|| इसप्रकार कहे गये भेदविज्ञान को पाकर हे भव्यजीवो! घोर संसार के मूलरूप सभी सुख-दुःख और पुण्य-पाप को छोड़ दो; क्योंकि इन्हें छोड़ने पर जीव शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेते हैं ।।१८।। उक्त पाँच छन्दों में दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(दोहा) करो उपेक्षा देह की परिग्रह का परिहार।
अव्याकुल चैतन्य को भावो भव्य विचार||१९|| परिग्रह का आग्रह छोड़कर और शरीर के प्रति उपेक्षा करके निराकुलता से भरा हुआ चैतन्यमात्र है शरीर जिसका; उस आत्मा की भावना भाओ।
उक्त दोनों छन्दों में पुण्य-पाप और उनके फल में प्राप्त होनेवाले लौकिक सुख-दुख