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उपाध्याय विनयविजय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व व्याकरण आदि ग्रन्थों का अध्ययन करने के लिए गए। दोनों की विलक्षण प्रतिभा एवं कंठस्थ करने की क्षमता से ब्राह्मण पंडित गुरु अत्यधिक प्रभावित हुए। इन्होनें विनयभाव के साथ विद्या गुरूओं का मन जीता तथा अनेक दुरुह ग्रन्थों का अभ्यास किया। उपाध्याय यशोविजय के गुरू नयविजयजी भी उस समय उनके साथ काशी में रहे। सुजसवेली नामक कांतिविजयजी के ग्रन्थ से यह ज्ञात होता है कि यशोविजय जी और विनयविजय जी ने लगभग ३ वर्षों तक काशी में भट्टाचार्य आदि गुरूओं से । न्याय, नव्यन्याय आदि के ग्रन्थों का अध्ययन किया था।
एक रोचक प्रसंग यह उपलब्ध होता है कि न्याय विषयक एक ग्रन्थ का अध्यापन अपने कुल के व्यक्तियों को ही करवाया जा सकता था, किन्तु यशोविजयजी एवं विनयविजयजी के विनयभाव एवं जन्मजात प्रतिभा के समक्ष विद्या गुरुओं का मन नतमस्तक हो गया। १२००श्लोक के न्याय विषयक ग्रन्थ के ७०० श्लोकों को यशोविजय जी ने और ५००श्लोकों को विनयविजयजी ने कंठस्थ कर अपनी अद्भुत स्मरण शक्ति का परिचय दिया।
उपाध्याय यशोविजयजी के समय ही उपाध्याय विनयविजय का स्वर्गगमन हो गया था। उनका परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध था। अतःउपाध्याय विनयविजय का विक्रम संवत् १७३८ में स्वर्गवास होने पर नयायविशारद उपाध्याय यशोविजय जी ने 'श्रीपालराजानो रास' नामक ग्रन्थ के अन्त में गौरवपूर्ण उल्लेख किया है
शिष्य तास श्रीविनयविजय वरवाचक सुगुण सोहाया जी विद्या विनय विवेक विचक्षण लक्षण लक्षित देहा जी
सोभागी गीतास्थ सारथ संगत सखर सनेहा जी इस उल्लेख से विनयविजय की अनेक विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं। १. वे श्रेष्ठ वाचक अर्थात् उपाध्याय के गुणों से सुशोभित थे। २. विद्या, विनय एवं विवेक से समन्वित थे। ३. उनका शरीर विलक्षण लक्षणों से लक्षित था। ४. वे गीतार्थ सन्त थे अर्थात् आगम के मूल सूत्र और उनके अर्थ के विज्ञाता थे। ५. वे स्नेहशील थे।
उपाध्याय यशोविजय ने 'धर्मपरीक्षा' नामक ग्रन्थ की स्वोपज्ञ टीका की प्रशस्ति में उल्लेख किया है कि श्री विनयविजयगणी ने इनकी इस कृति में सहयोग किया है साथ ही उन्होंने विनयविजय जी को न्यायाचार्य, महोपाध्याय तथा चारुमति उपाधियों से भी सम्बोधित किया है। इससे विनयविजय जी के व्यक्तित्व की विद्वता का पक्ष उद्घाटित होता है कि वे यशोविजयजी के साथ ग्रन्थ रचना में भी जुड़े रहे। 'चारुमति' विशेषण से स्पष्ट होता है कि उनकी बुद्धि तीक्ष्ण एवं निर्मल थी। उनकी प्रसिद्धि