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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन गई। विक्रम संवत् १६७३ में इनको वाचक पद प्रदान किया गया तथा माघ शुक्ला षष्ठी विक्रम संवत् १६८२ को इलादुर्ग में ये सूरि पद पर अधिष्ठित किए गए। विक्रम संवत् १७०६ में इनका देहावसान
हो गया।
श्री विजयप्रभसूरि
उपाध्याय विनयविजय के काल में तपागच्छ के तीन. आचार्य हुए- विजयदेवसूरि, विजयसिंहसूरि एवं विजयप्रभसूरि। विजयप्रभसूरि के सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है, किन्तु इतना निश्चित है कि उपाध्याय विनयविजय ने इन्दुदूत काव्य के माध्यम से सूरत में विराजमान श्री विजयप्रभसूरी जी को सन्देश भिजवाया था। इन्दुदूत की रचना जोधपुर में वर्षावास करते समय विक्रम संवत् १७१८ में की गई थी। अतः यह स्पष्ट होता है कि उस समय श्री विजयप्रभसूरि ही आचार्य पद को सुशोभित कर रहे थे। श्री कीर्तिविजयगणी
उपाध्याय विनयविजय के साक्षात् गुरु श्री कीर्तिविजयगणी का नामोल्लेख तो विनयविजय जी की कृतियों में यत्र तत्र हुआ है। वे उनका स्मरण अपने माता-पिता से पूर्व श्रद्धापूर्वक करते हैं, किन्तु उनके सम्बन्ध में कहीं कोई विशेष जानकारी नहीं दी गई है। श्री कीर्तिविजयगणी साक्षात् रूप से अकबर प्रतिबोधक श्री हीरविजयसूरी के शिष्य थे। इनके प्राता सोमविजय ने भी श्री हीरविजयसूरी से कीर्तिविजय के साथ ही दीक्षा अंगीकार की थी। इसका स्पष्ट उल्लेख उपाध्याय विनयविजय ने लोकप्रकाश की प्रशस्ति में किया है
इतश्चश्रीहीरविजयसूरीश्वरशिष्यौ सौदरावभूतां द्वौ।
श्रीसोमविजयवाचकवाचकवरकीर्तिविजयाख्यौ।' अर्थात् श्री हीरविजयसूरी के दो सहोदर भ्राता शिष्य हुए वाचक श्री सोमविजय एवं वाचक श्री कीर्तिविजया नामोल्लेख के क्रम से यह स्पष्ट होता है कि सोमविजय बड़े भ्राता थे एवं कीर्तिविजय इनके लघु भ्राता थे।
कीर्तिविजयगणी ने विनयविजय को असीम स्नेह एवं अनुशासन प्रदान किया था। इसीलिए वे विनयशील बनकर विद्या प्राप्ति एवं साहित्य रचना के प्रति सन्नद्ध रहे। उपाध्याययशोविजय एवं उपाध्यायविनयविजयकापारस्परिक सम्बन्ध
___यद्यपि इन दोनों विद्वान सन्तों की परम्परा के पारस्परिक सम्बन्ध का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है तथापि जीवनकाल में इन दोनों के घनिष्ठ सम्बन्धों के उल्लेख प्राप्त होते हैं। सबसे प्रथम उल्लेख इन दोनों के सहाध्यायी होने का है। ये दोनों सन्त काशी के ब्राह्मण पंड़ितों से न्याय,