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उपाध्याय विनयविजय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व सप्तमी विक्रम संवत् १६२८ में इन्हें 'सूरि' पद से अंलकृत किया गया। इनका भी प्रभाव हीरविजयसूरि की भांति सम्राट अकबर पर पड़ा। इसलिए अकबर ने इनको काली सरस्वती विरुद से सुशोभित किया एवं इन्हें षट् जल्प प्रदान किए। इन्होंने नमोदुर्वाररागादि की रचना की। प्रवचन परीक्षा वादियों को इन्होंने चौदह दिनों में पराजित किया। अहमदाबाद में भी अनेक परम्पराओं के वादियों को पराजित कियालाभनगर में ईश्वर कृतित्ववाद की चर्चा में विजय प्राप्ति की। इनको सवाई हीरविजयसूरि विशेषण से भी सम्मानित किया गया। इनके आठ उपाध्याय एवं दो हजार शिष्य थे। ऋषभदास आदि कवि इनकी कृपा से प्रसन्न थे। विद्वता एवं वाक्पटुता से इनकी तपागच्छ में अच्छी प्रतिष्ठा रही।
श्री हेमविजयगणी रचित 'विजयप्रशस्तिमहाकाव्य' में श्री हीरविजयसूरि का चरित विस्तार से उपलब्ध है।
__ श्री विजयसेन सूरि का स्वर्गवास ज्येष्ठ कृष्णा एकादशी विक्रम संवत् १६७१ को हुआ। इनके स्वर्गगमन के अनन्तर तपागच्छ में दो संघ हो गए। एक श्री विजयदेवसूरि का संघ जिसे देवसूर गच्छ के नाम से जाना गया तथा दूसरा विजयतिलक सूरि का गच्छ जिसे आनन्दसूर के नाम से पहचाना गया। उपाध्याय विनयविजय ने दोनों ही संघो में रह कर साहित्य साधना की। श्री विजयदेवसूरि
ये श्री हीरविजयसूरि के शिष्य थे। इनका जन्म पौष शुक्ला त्रयोदशी रविवार को विक्रम संवत् १६३४ में इलादुर्ग (इडर) में हुआ। इन्होंने अपनी माता के साथ माघ शुक्ला दशमी विक्रम संवत् १६४३ में राजनगर में श्री हीरविजयसूरि के मुख से दीक्षा अंगीकार की। इनकी योग्यता के आधार पर इन्हें विक्रम संवत् १६५५ में सिकन्दरपुर में श्री शान्ति जिन प्रतिष्ठा के समय पंन्यास पद से सुशोभित किया गया। इन्हें एक वर्ष पश्चात् वैशाख शुक्ला चतुर्थी विक्रम संवत् १६५६ में सूरि पद पर अधिष्ठित किया गया। बादशाह जहाँगीर ने इनको बहुमान देते हुए जहाँगीर महातपा विरुद से अंलकृत किया। इन्होंने अनेक शास्त्र चर्चाओं में जयपताका को ऊँचा उठाया। आरासण एवं स्वर्णगिरि पर इन्होंने तीर्थ में प्रतिमा की प्रतिष्ठा की। इन्हें चार जल्प प्रदान किए गए। विजयदेवसूरि के सम्बन्ध में विशेष जानकारी विजयदीपिका, देवानन्दाभ्युदय, महात्म्यवृत्ति आदि ग्रन्थों से जाना जा सकता है। इनका स्वर्गगमन आषाढ़ शुक्ला एकादशी विक्रम संवत् १७१३ को उन्नतनगर में हुआ। श्री विजयसिंहसूरि ... विक्रम संवत् १६४४ में मेदिनीपुर नगर में इनका जन्म हुआ। इनके पिता का नाम नत्थुमल और माता का नाम नाथकदे था। विक्रम संवत् १६५४ में जब ये दस वर्ष के थे तभी इनकी दीक्षा हो