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उपाध्याय विनयविजय व्यक्तित्व एवं कृतित्व
उपाध्याय विनयविजय के गुरु वाचकवर श्री कीर्तिविजयजी आचार्य नहीं थे। वे उपाध्याय पद से सुशाभित रहे। विनयविजयजी के द्वारा लिखित उपर्युक्त श्लोकों से यह भी तथ्य स्पष्ट होता है कि उनके समय आचार्य विजयदेवसूरि विद्यमान थे। उनके दिवंगत होने पर विजयसिंहसूरि ही आचार्य बने। श्री विजयप्रभसूरि उस समय युवाचार्य थे जो आगे चलकर आचार्य पद से सुशोभित हुए।उपाध्याय यशोविजय एवं उपाध्याय विनयविजय दोनों की गुरुपरम्परा को संक्षेप में इस प्रकार दर्शाया जा सकता है
आचार्य हीरविजयसूरि (विक्रम संवत् 1583 - 1652 ) (सम्राट अकबर के प्रतिबोधक)
श्री कल्याणविजयजी
श्रीलाभविजयजी
श्रीनयविजय
श्रीजीतविजय
श्रीपद्मविजय श्रीयशोविजय
आचार्य परम्परा
आचार्य विजयसेनसूरि (वि.सं. 1628 में आचार्य, 1671 में स्वर्गवास )
आचार्य विजयदेवसूरि
आचार्य विजयसिंहसूरि
1 आचार्य विजयप्रभसूर
उपाध्याय कीर्तिविजय
उपाध्याय विनयविजय
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श्रीहीरविजयसूरि
सम्राट् अकबर प्रतिबोधक हीरविजयसूरि का जन्म विक्रम संवत् १५८३ की मार्गशीर्ष शुक्ला नवमीं को पालनपुर में हुआ था। इनके पिता का नाम कुरांशाह एवं माता का नाम नाथीदेवी था। विक्रम कार्तिक कृष्णा द्वितीया सोमवार विक्रम संवत् १५६६ में अण्हिलपुर पाटन नगर में तपागच्छ के आचार्य श्री विजयदानसूरि के सानिध्य में जैनमुनि की दीक्षा अंगीकार की । इनका बचपन का नाम हीरजी था और दीक्षोपरान्त इन्हें 'हीरहर्ष नाम दिया गया। शास्त्राभ्यास स्वदर्शन एवं परदर्शन में पारंगत होकर हीरहर्ष मुनि ने ख्याति अर्जित की। इन्हें सवंत् १६०७ में नारदीपुर में ‘पंन्यास' पद तथा संवत् १६०८ में वाचक (उपाध्याय) पद प्रदान किया गया। विक्रम संवत् १६१० में सिरोही में आपको सूरि (आचार्य) पद पर अधिष्ठित किया गया। तब से आप 'हीरविजयसूरि के नाम से पहचाने गए। फतेहपुर सीकरी में उन्होंने तत्कालीन सम्राट् अकबर को जैनधर्म की शिक्षाओं से
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