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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन पहले अपने गुरु का नामोल्लेख करते हैं, तदन्तर माता का एवं फिर पिता का। गुरु के उपकारों को उन्होंने सर्वोच्च स्थान दिया है। गुरु ही एक शिष्य का सच्चा मार्गदर्शक होता है।
विनयविजय गणी जी का जन्म कहां हुआ इसका उल्लेख प्राप्त नहीं होता,किन्तु गुजरात की धरा उनके जन्म से सुशोभित हुई, ऐसा उनकी रचनाओं से एवं परम्परा से अनुमान होता है। उनकी गुजराती कृतियाँ भी इसकी साक्षी हैं कि गुजराती उनकी मातृभाषा रही है। गुजरात में जन्म का स्थान अभी तक अन्वेषणीय बना हुआ है। इनके पारिवारिक परिचय में भी माता-पिता के अतिरिक्त किसी का नामोल्लेख प्राप्त नहीं होता।
विनयविजयजी के साक्षात् गुरु उपाध्याय कीर्तिविजयजी रहे, ऐसा उनके द्वारा लोकप्रकाश में किए गए उपर्युक्त उल्लेख से एवं अन्य उल्लेखों से स्पष्टतः सिद्ध होता है। उन्होंने किस वय में एवं किस स्थान पर दीक्षा ग्रहण की, इसका भी विवरण प्राप्त नहीं होता। यह उल्लेख अवश्य प्राप्त होता है कि वे सतरहवीं शती के महान् जैनदार्शनिक उपाध्याय यशोविजयगणी के समकालीन थे तथा दोनों की मूल गुरु परम्परा एक ही रही है। गुरुपरम्परा
उपाध्याय विनयविजय एवं उपाध्याय यशोविजय दोनों आचार्य हीरविजय सूरि की शिष्य परम्परा के मनीषी विद्वान् सन्त थे तथा दोनों ही उपाध्याय की उपाधि से अलंकृत रहे। अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख उपाध्याय विनयविजयजी ने हैमलघुप्रक्रिया की प्रशस्ति में इस प्रकार किया है
श्रीहीरविजयसूरेःपट्टे श्रीविजयसेनसूरीशाः । तेषा' पट्टे संप्रति विजयन्ते विजयदेवसूरीन्द्राः ।। श्रीविजयसिंहसूरी याज्जयवति गुरौ गते स्वर्गम्। श्रीविजयप्रभसूरिर्युवराजो राजतेऽधुना विजयी।। खेन्दुमुनीन्दुमितेऽब्दे विक्रमतो राजधन्यपुरनगरे। श्रीहीरविजयसूरेः प्रभावतो गुरुगुरोर्विपुलात्।। श्रीकीर्तिविजयवाचक-शिष्योपाध्यायविनयविजयेन।
हैमव्याकरणस्य प्रथितेयं प्रक्रिया जीयात्।।' ___उपर्युक्त श्लोकों से विनयविजयजी की गुरुपरम्परा का स्पष्ट बोध होता है कि अकबर प्रतिबोधक आचार्य हीरविजयसूरि के पाट पर श्री विजयसेनसूरि ने आचार्य पद ग्रहण किया। उनके अनन्तर श्रीविजयदेवसूरि आचार्य बने । विजयदेवसूरि के दिवंगत होने के पश्चात् श्रीविजयसिंहसूरि को आचार्य पद संप्राप्त हुआ। इनके आचार्य काल में श्री विजयप्रभसूरि को युवाचार्य घोषित कर दिया गया था।