Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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गा० २२ ]
हिदिविहत्ती कालो
३५
मोह० उक्क०
घभगो ।
६४. किण्ह० -- णील० काउ० ते ० पम्म० अणुक्क० जह० अंतोमु० एगेसमओ, उक्क० सगुक्कसहिदी | मुक्क० मोह० उक्क० जहण्णुक्क० एगसमय । अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीस सागरोवइतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय होता है । चक्षुदर्शनी जीवोंमें सपर्याप्तकों के समान जानना चाहिये !
विशेषार्थ - विभंगज्ञान पर्याप्त अवस्थामें ही होता है अतः इसके अनुत्कृष्ट स्थिति के उत्कृष्ट कालको अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर कहा। शेष कथन सुगम है। आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतिज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों के उत्कृष्ट स्थितिका प्राप्त होना पहले समय में ही सम्भव है, अतः इनके उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कहा । जो जीव अन्तर्मुहूर्त तक सम्यग्दृष्टि रहा पश्चात् सम्यक्त्वसे च्युत हो गया या सम्यक्त्व प्राप्तिके बाद जिसने अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त कर लिया उसके उक्त तीन ज्ञानोंके रहते हुए अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । तथा आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानका उत्कृष्टकाल चार पूर्वकोटि अधिक छ्यासठ सागर है अतः इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक छ्यासठ सागर कहा । यहाँ पर अधिक चार पूर्वकोटियों का ग्रहण करना चाहिये । अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीव भी इसी प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल कहना चाहिये । किन्तु वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल पूरा छयासठ सागर है, अतः इसके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल पूरा ध्यासठ सागर होगा । जो जीव मन:पर्ययज्ञानको प्राप्त होता है उसके प्रथम समयमें ही उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है अतः मन:पर्ययज्ञानीके उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा मनःपयर्यंज्ञानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है, अतः इसके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण कहा । यहां कुछ कमसे आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त लिया है । पूर्वकोटिमेंसे इतना काल कम कर देना चाहिये । संयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयतकी स्थिति मन:पर्ययज्ञानके समान है अतः इनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके कालको मन:पर्ययज्ञानके समान कहा । परन्तु इतनी विशेषता है कि परिहारविशुद्धिसंयतका उत्कृष्ट काल ३८ वर्ष कम एक पूर्वकोटि वर्ष है और संयतासंयतका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि वर्षं है । जो जीव उपशमश्रेणी से उतर कर और एक समय तक नौवें गुणस्थान में रह कर मर जाता है उसके सामायिक और छेदोपस्थापना संयतका जघन्य काल एक समय पाया जाता है, अतः इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय बन जाता है । शेष कथन मन:पर्ययज्ञानके समान है । त्रसपर्याप्त से चक्षुदर्शनीकी स्थिति में अन्तर नहीं है अतः चक्षुदर्शनी के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल त्रस - पर्याप्त के समान कहा ।
$ ६४. कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल ओघ के समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल प्रारंभकी तीन लेश्यावालोंके अन्तर्मुहूर्त और पीत तथा पद्मलेश्यावालोंके एक समय है । तथा उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । शुक्ल लेश्यावाले जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है ।
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