Book Title: Kasaypahudam Part 03
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ६२. चत्तारिकसाय० मोह० उक्क० अणुक्क० जह० एगसमो, उक्क० अंतोमुः।
६३. विहंग० सत्तमपुढविभंगो। णवरि अणुक्क० उक्क० तेत्तीस सागरो० अंतोमुहुत्तूणाणि । आभिणि-सुद०-ओहि० मोह० उक्क० केव०' ? जहण्णुक्क० एगसमो। अणुक्क जह• अंतोम०, उक्क० छावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवमोहिदंस-सम्मादि-वेदयसम्मादि० । णवरि वेदयसम्मत्तम्मि अणुक्क छावहिसागरोवमाणि । मणपज० मोह० उक्क० जहण्णुक्क० एगसमो, अणुक्क० जह. अंतोमुहुत्, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा। एवं संजद-परिहार०-संजदासंजद० । सामाइय-छेदो० एवं चेव । णवरि अणुक्क० जह० एगसमओ । चक्खु० तसपज्जत्तभंगो।
विशेयार्थ-स्त्रीवेद और पुरुषवेदमें उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अन्तर्मुहूर्त ओघके समान घटित कर लेना चाहिये। जो स्त्रीवेदसे अपगतवेदको प्राप्त हुआ जीव उपशमश्रेणीसे उतरते हुए एक समयके लिये स्त्रीवेदी हुआ और दूसरे समयमें मरकर अन्यवेदी हो गया उस स्त्रीवेदीके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। या जिस स्त्रीवेदी या पुरुषवेदी जीवने उत्कृष्ट स्थितिके पश्चात् एक समयके लिये अनुत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त किया और दूसरे समयमें वह मर कर अन्यवेदी हो गया उस स्त्रीवेदी या पुरुषवेदीके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी पल्योपमशतपृथक्त्व व सागरोपमशतपृथक्त्व स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है।
६२. चारों कषायवाले जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्महूर्त है। तात्पर्य यह है कि चारों कषायोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इनमें उक्त प्रमाण काल बन जाता है ।
६३. विभंगज्ञानी जीवोंके सातवीं पृथिवीके समान जानना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तमुहूर्त कम तेतीस सागर है । आभिनिबोधिकज्ञानी श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट सत्त्वकाल साधिक छयासठ सागर है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यक्त्वमें अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट सत्त्वकाल पूरा छयासठ सागर है । मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सत्त्वकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि है । इसी प्रकार संयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिये । तथा सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिए। पर
१. केव० जह० उक्क० केव० जहण्णु० इति पाठः।
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