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को कोई जानता ही नहीं था)। श्री नयविजय विबुध पय सेवक, वाचक जस कहे साचुं जी ।'
विनयविजयजी तो अपने गुरु कीर्तिविजयजी के नाम को मन्त्र मानते थे ।
वि. संवत् २०१३ में सर्व प्रथम मांडवी में पंन्यासजी भद्रंकर विजयजी का मिलन हुआ । भुजपुर में उनका चातुर्मास हुआ था । उन दिनों में उन्होंने कहा था : 'आप हरिभद्रसूरिजी के ग्रन्थ पढें ।' संस्कृत का ज्ञान प्राप्त होने पर मुनिश्री तत्त्वानन्द विजयजी के पास योगदृष्टि समुच्चय, योगबिन्दु आदि ग्रन्थ पढे । हरिभद्रसूरि के ग्रन्थों से निश्चयलक्षी जीवन बनता ही है। साथ ही साथ व्यवहार भी सुदृढ बनता है।
* दोष हमारा है परन्तु हमने दोष का टोकरा प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाओं पर उडेल दिया । कितने रहस्यमय सूत्र हैं ये सब ? योग ग्रन्थ पढने पर यह पता लगता है। योगग्रन्थों के पठन से हमें उन क्रियाओं आदि के प्रति अत्यन्त ही आदर की वृद्धि होगी ।
* 'तीर्थंकर-गणधर-प्रसादाद् एष योगः फलतु ।'
किसी भी अनुष्ठान के अन्त में हम यह कहते हैं । सिद्ध योगियों के स्मरण से भी अनुष्ठान सिद्ध होते हैं ।
* एकबार भी किसी योग में स्थिरता आ गई, स्थिरताजन्य आनन्द आया तो वह अनुष्ठान आप कभी नहीं भूलेंगे । उस आनन्द को प्राप्त करने के लिए आप बार-बार लालायित होंगे ।
नवकार मन्त्र वैसे ही बोलो और जाप करके बोलो - दोनों में फर्क होगा । जीवन में आत्मसात् होने के बाद निकलनेवाले शब्द प्रभावोत्पादक होते हैं ।
* परिषह के दो प्रकार हैं - अनुकूल एवं प्रतिकूल ।
अनुकूल उपसर्ग खतरनाक होते हैं क्योंकि अनुकूलता हमें अत्यन्त प्रिय हैं अनुकूलता उपसर्ग है ऐसा विचार ही नहीं आता । महापुरुष स्वयं प्रतिकूलता को निमंत्रण देते थे, जबकि हम निरन्तर अनुकूलता की खोज में रहते हैं। पूर्व महर्षि औषधि नहीं लेते थे तथा उपचार नहीं कराते थे, क्योंकि उन्हें प्रतिकूलता ही इष्ट थी । कहे कलापूर्णसूरि - १ ***
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