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जैनेन्द्र का जीवन-दशन
की बाबा तोड निखित के साथ प्रखण्ड हो सके तो सच्चिदानन्द रूप है ।
वस्तुत जैनेन्द्र ने जीव विज्ञान के द्वारा भी मानव जीवन की दिगता का ही प्रकट करने का प्रयास किया है। प्रथ जीवन का निनाय प्रग है। ससार नितान्त अपरिग्रही प्रवति के अनुसरण से नल नही माता, कि किसी भी वस्तु का आवश्यकता से अधिक परिग्रह स्वय में दोप है । जैनेन्द्र के अनुसार धन की आवश्यकता व्यक्ति, समाज पौर राष्ट्र सभी के लिए स्वाभाविक है। यद्यपि सब के मूल मे व्यक्ति ही प्रधान है किन्तु समाज और व्यक्ति की समस्या के रूप में कुछ अतर अवश्य रहता है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे धन का एकत्रीकरण समाज के लिए अभिशाप है। जिस प्रकार रक्त का प्रवाह पूरे शरीर मे समान रूप से यावश्यक है, यदि रक्त किसी अग-विशेष में ही रुक जाय और अन्य अग रक्त-हीन रह जाय तो उससे शरीर मे भयकर स्थिति उत्पन्न हो जाती है और व्यक्ति अपने जीवन की भी आशा छोड बैठता है। उसी प्रकार धन रूपी रक्त का समाज रूपी शरीर के किसी भी प्रग मे रुक जाना सामाजिक दृष्टि से बहुत ही हानिप्रद है। धन की माथकता उसके अविरल प्रवाह में है, अवरुद्ध होकर जडित होने में नही है। समाज में होगी स्थिति तभी उत्पन्न होती है, जब व्यक्ति का अथवा गरमा-विशेर का स्वार्थ उसमे केन्द्रीभूत हो जाता है। जैनेन्द्र के अनुसार मय की बात उसकी वस्तुता को बढाने के लिए न होकर जीवन सवर्धन के हेतु होनी नाहिए।
प्रर्थ-विभाजन की दृष्टि से जैनेन्द्र साम्यवादियों के मदृश्य ही शापक और शोषित के म-य की खाई को दूर करने के पक्ष मे है । उनके अनुसार श्रमिक वर्ग परिश्रम करने के बाद भी सदैव असन्तुष्ट और अतृप्त रहता है, किन्तु शोपक वर्ग आवश्यकता से अधिक वस्तु अपने गोदाम में भरता जाता है। अाज बन को लेकर विभिन्न मतवाद उठ खडे हुए है। साम्यवाद, समाजवाद, पूजीवाद मार्थिक समस्या को लेकर ही विकसित हुए है। जैनेन्द्र अपने साहित्य मे किसी वाद का भी समर्थन करते समय व्यक्ति को केन्द्र में लेते है। व्यक्ति की उपेक्षा करने वाला कोई भी वाद उन्हें स्वीकार नही है। उपन्यासकार यशपाल एक प्रकार से साम्यवाद के प्रचारक ही प्रतीत होते है किन्तु जैनेन्द्र किसी भी मत का दृढता मे समथन नही करते । उनके अनुसार समाजवाद मे यद्यपि पूजीवाद के सदृश्य व्यक्ति का शोषण नही होता, किन्तु समाजवाद का विकसित रूप ही कालान्तर मे व्यक्ति की उपेक्षा करके समाज को ही विशेष महत्व प्रदान करता है। साम्यवादी नीति को भी वे सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए उपयोगी समझते है, किन्तु उन्होने साम्यवाद के जिस स्वरूप को स्वीकार किया है, वह मार्क्सवादी न होकर आध्यात्मिकता