Book Title: Jainendra ka Jivan Darshan
Author(s): Kusum Kakkad
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 317
________________ ३१२ जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन गत अनुभव के आधार पर यह कह सकते है कि विवाह के अनन्तर भी प्रेम की स्थिति बनी रहती है । यह बात दूसरी है कि वह काम के स्तर पर घटित होता हुआ न दिखायी दे। किन्तु साहित्य मे सच्चाई को न भी व्यवत करके सदैव मर्यादा को ही अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है । सत्य के छिपाव मे व्यक्ति का छल ही अन्तर्भूत होता है । यदि जीवन के सम्बन्ध सहज हो तो उनमे विकृति आने का प्रश्न ही नही उठता। जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति सत्-असत् गुणो की समष्टि है। महत्ता अथवा तुच्छता उसके व्यक्तित्व का अग हे । एक की स्वीकृति और अन्य के निषेध मे व्यक्तित्व की पूर्णाभिव्यक्ति सम्भव नही हो सकती । व्यक्तित्व की पूणता के लिए उसका सब कुछ स्वीकार करना होगा । जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति देवता और पशु के बीच की कडी है । अतएव उसमे दोनो के अशो का होना स्वाभाविक ही है । जब कभी वह अपने अन्तस् की तुच्छता को दबाने का आग्रह करता है तो उसके व्यक्तित्व मे विकार उत्पन्न हो जाता है । जैनेन्द्र के अनुसार साहित्य मे तुच्छ अथवा दलित व्यक्ति भी उतना ही माननीय है, जितना प्रतिष्ठित । जैनेन्द्र ने जीवन की राजनीतिक, सामाजिक आदि समस्याओ को व्यक्ति की सापेक्षता मे ही स्वीकार किया है । राजनीति में प्रचलित विभिन्न वादो मे उनकी दृष्टि मे वही वाद सत्य अथवा स्वीकृत हो सकता है, जिसमे व्यक्ति का हित प्रधान हो । व्यक्ति की उपेक्षा करने वाला वाद स्वार्थ का ही पोषक है। ___ जैनेन्द्र ने भाग्य, कर्म, परम्परा तथा जीवन-मृत्यु के सम्बन्ध मे अपने मौलिक विचारो का प्रतिपादन किया है। उनकी परम आस्तिकता उन्हें किसी पल भी भाग्य के चक्र से मुक्त नही होने देती। उनके पात्र अतिशय भाग्यवादी है । जैनेन्द्र के अनुसार पुरुषार्थ की सार्थकता केवल कर्मशीलता मे ही है। भाग्य पुरुषार्थ का सहयोगी होकर ही चलता है। पुरुषार्थ मे जब निराशा मिलती है तो भाग्य के सहारे उनके पात्र टूटने से बच जाते है । जैनेन्द्र ने कर्म-परम्परा को पूर्व जन्म अथवा पुनर्जन्म की शृखला से नही जोडा है। उनके अनुसार पुनर्जन्म होता है, यह सत्य है, किन्तु कोई यह नही देखने जाता कि पुनर्जन्म द्वारा पूर्वजन्म के कर्मों और सम्बन्धो मे सम्बन्द्धता होती ही है। इस तथ्य को जैनेन्द्र ने पतझड के आधार पर स्पष्ट किया है । उनके अनुसार प्रतिवर्ष पतझड मे पत्ते झर जाते है और पुन बहार आने पर उनमे नये पल्लव आ जाते है, किन्तु कह कौन सकता है कि ये वही पल्लव हे जो कि पिछली पतझड मे झरे थे। इस प्रकार जैनेन्द्र इस जन्म को पूर्व अथवा पुनर्जन्म से सम्बद्ध नही मानते । उनकी दृष्टि मे पुनर्जन्म की सार्थकता केवल व्युक्ति के बार-बार जन्म होने मे ही है । जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति के कर्म मृत्यु के बाद

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