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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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जैनेन्द्र
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जीवन दशन
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हिन्दुस्तानी एकेडेमी, पुस्तकालय
इलाहाबाद
वर्ग मया •
• • • •
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पुम्ना माया" .
क्रम संख्या : ... .१३५३.. .....
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
० मोहन पादरी
हरेक रोड, बादाबार
डा० कुसुम कक्कड़
प्रकाशक
पूर्वोदय प्रकाशन दिल्ली-११०००६
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पूर्वोदय प्रकाशन (स्वत्वाधिकार। पूर्वोदय प्रा० लि. रजिस्टर्ड कार्यालय ७ ८ दरियागज, दिल्ली-११०००६ चालीम रुपये १५ अगस्त, १९७५ डा० कुमुम कक्कड युवा मुद्रण, ७ न्यू वजीरपुर इन्डस्ट्रियल काम्प्लैक्स, दिल्ली-११००५२
मुद्रा
JAINENDRA KA JEEWAN-DARSHAN (Jainendra Kumar's Philosophy of Life)
by Dr KUSUM KAKKAR Price Rs 40/- (Rupees Forty only)
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विषयानुक्रमणिका
विषय
पृष्ठ मन्या
प्राक्कथन
परिच्छेद--
:-
:
जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका दर्गन क्या है , जैनेन्द्र का व्यवहार-दयन जैनेन्द्र जीवन के ज्वलन्त प्रग्ना के समाधान मानव-ज्ञान और मानव-परिस्थिति मे सम्बन्धित अनेक प्रश्नों पर विचार और जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण मनुष्य द्वारा विवामित जीवविज्ञान अथशास्त्र, गजनीति, दर्शन मनविज्ञान लगन निष्ठा, दायित्व प्रेम-माहार्द्र आदि का महत्व प्रान्मनिष्ठा ही अधिक है व्यक्तिचेतना और कालखण्ड से ऊपर उठने की चेष्टा नव प्रचारक नहीं है वृद्धि की प्रगल्भता में माथ-साथ हृदय की प्रासादिकन' मानवता के शाश्वत प्रश्नों पर विचार-१-ईश्वर २-जीव ३-अध्यात्म ४-राष्ट्रीय जीवन की समस्या और वाह्य प्रभाव ।
परिच्छेद–२
जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार ईश्वर के अस्तित्व का बोध, जैनेन्द्र की आस्तिकना, ईश्वर सम्बन्धी दार्शनिक और वैज्ञानिक दृष्टि, जैन दर्शन, पाश्चात्य दृष्टि आधुनिक विचारको की आस्तिकता, सृष्टि है इसलिए उसका
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विषय
पृष्ठ सख्या
सृष्टा भी है, ईश्वर को तर्क द्वारा सिद्व नही किया जा सकता, जैनेन्द्र की तर्कशुन्य प्रास्था, अद्वैत दृष्टि, देवी-देवता मे अविश्वास, ईश्वर स्वयभू, ईश्वर का स्वरूप, ईश्वर प्रानन्द स्वरूप, सत्य ही ईश्वर है, सगुण ईश्वर, ईश्वर प्रेममय, ईश्वर-प्रेम वियोगप्रवान, लौकिक जीवन मे ईश्वरीय आस्था, ईश्वरीय आस्था द्वारा जीवन मे व्यवस्था, प्रार्थना का महत्व, "श्वर अज्ञेय हे, ईश्वर भाग्यविधाता।
परिच्छेद–३
जैनेन्द्र और धर्म
८५---११५ जेनेन्द्र की वार्मिक दृष्टि, जैन दर्शन, जनेन्द्र के अनुसार धम का अर्थ और स्वरूप, धर्म और सम्प्रदाय, धम और विज्ञान, धर्म और राजनीति, जैनेन्द्र की दृष्टि में हिसा, जैनेन्द्र के विचार-गाधी और जेन दशन, अपरिग्रह, परहित, जीवन में धर्म की आवश्यकता, जनन्द्र की दृष्टि मे मोक्ष ।
परिच्छेद-४
जैनेन्द्र की दृष्टि में भाग्य, कर्म-परम्परा एव मृत्यु
११६-१४४ भाग्यवादी जैनेन्द्र, पाश्चात्य नियतिवादी और अनियतिवादी विचार, जैनेन्द्र अतिशय भाग्यवादी, भाग्यवादिता आस्थामूलक, भाग्य से विद्रोह नही, निष्काम कर्मभाव, पुरुषार्थ, भाग्य और पुरुषार्थ सहयोगी, कर्माकर्मभाव, पुनर्जन्म, सस्कार समष्टि को प्राप्त, कर्म की स्थिति विभिन्न दार्शनिक सन्दर्भ, जैनेन्द्र की दृष्टि और सामान्य अभिमत, प्रतिभा अध्यवसायमूलक, जीव-वैज्ञानिक दृष्टि, क्षतिपूर्ति, भारतीय दर्शन और पुनजन्म, परलोक, मृत्यु, मृत्यु एक अनिवार्य
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विषय
पृष्ठ संख्या
सत्य, मृत्यु की सार्थकता, मृत्यु के द्वार से अमरत्व, मृत्यु का भय ।
परिच्छेद–५
जैनेन्द्र के अह सम्बन्धी विचार
१४५-१७७ जैनेन्द्र के साहित्य मे ग्रह की स्थिति, अह का अर्थ भारतीय और पाश्चात्य दर्शन, पाश्चात्य दर्शन, भारतीय दर्शन, जैनेन्द्र की दृष्टि मे अह, अह का स्वरूप, अह और आत्मा, जैनेन्द्र की अह दृष्टि और मनोविज्ञान, फ्रायड-मनोविज्ञान, फ्रायड
और जैनेन्द्र की अह दृष्टि, जैनेन्द्र की मोलिकता, जैनेन्द्र की रचनाओ मे अह की स्थिति, समर्पण भाव, इरोस और सैडिज्म, काम ओर ब्रह्मचर्य, अहकार ।
परिच्छेद-६
जैनेन्द्र और समाज
१७८-२०८ प्रेमचन्द-युग, जैनेन्द्र की सामाजिक दृष्टि, परिवार और विवाह, विवाह और प्रेम, परिवर्तनशील मान्यताए, प्रेम-विवाह, विवाह-विच्छेद, अन्तर्जातीय विवाह, काम-भावना, स्त्री-पुरुष सम्बन्ध लिगत्वहीन, नैतिकता, वेश्यावृत्ति, समाज मे नारी का स्थान ।
परिच्छेद-७
जैनेन्द्र और व्यक्ति
२०६-२४५ जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति, व्यक्तिवादी जैनेन्द्र, परमार्थिक दृष्टि, मानव-नीति, जीवनादर्श दार्शनिक दृष्टि, जैनेन्द्र की दृष्टि मे आदर्श और यथार्थ, यथार्थ व्यथामूलक, पूर्णतावादी विचार, व्यक्ति अपूर्ण, व्यक्ति देवता नही, दलित भी माननीय, व्यक्ति टाइप नहीं, व्यक्ति और मनोविज्ञान, यथार्थ प्रकृतिवाद का पर्याय नही, परस्परता, आत्म-परिष्कार, व्यक्ति और समाज,
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विषय
परिच्छेद
-८
परिच्छेद ६
परिच्छेद १०
विभिन्न जीवन दृष्टि, सतवाद, मार्थिक वैषम्य, सदाचरण, पैसा प्रोर व्यक्ति, पजीवादी टि, साम्यवादी दृष्टि, ट्रस्टीशिप, मनुष्य पर मशीन, शारीरिक श्रम, मानव-चरित्र विज्ञान, प्रजातन्त्र, सर्वोदय प्रात्यात्मिक मूल्यो की प्रतिष्ठा ।
जेनेन्द्र परम्परा और प्रयोग साहित्य से उपन्यास का महत्व, उपन्यास - साहित्य की परम्परा, उपन्यासकार प्रेमचन्द, गाहित्य का परिवर्तनशील सत्य, साहित्य मे जेनेन्द्र का प्रानिर्भाव, व्यक्ति प्रोर प्रतश्नेतना, जेन सुवारवादी नही, साहित्य कल्याणमय, साहित्य
र समाज, साहित्य और ट्रैकनीक, रहस्यमयता, जेनेन्द्र की भाषा, नोकोत्तर तथा मानवेत्तर विषय गोरारिक विषय, साहित्य श्रास्तिकता, सामाजिक दृष्टि चिरन्तन सत्य |
पृष्ठ संख्या
२४६-२६६
जैनेन्द्र और सत्य
२७०
सत्य जिज्ञासामूलक, परमसत्य श्रद्धेत साहित्य सत्य का स्वरूप, सत् का भाव सत्य, पुरण सत्य अज्ञेय, सत्यवोच प्रनुभवादित, सत्य का व्यावहारिक रूप, सत्य का स्वरूप काल से तद्गत नही, सत्य शिव सुदर, सत्य घटना में निम्रत सत्य और वास्तव, जैनेन्द्र साहित्य का मूल्य, सत्य उत्सग मे, प्रेम समग्र और सहज, न्तर्भुत पीडा, साहित्यादर्श सत्य की स्वीकृति,
सत्य जगत - सापेक्ष ।
जैनेन्द्र जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण २६० दर्शन avsaratधक, विज्ञान विश्लेषणात्मक,
२८६
३०८
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विषय
उपसहार
सहायक ग्रन्थ-सूची
पृष्ठ संख्या
जैनेन्द्र का मश्लेषणात्मक दृष्टिकोण, श्रद्वैत चर्चा का विषय नही, द्वैत से प्रद्वैत की ओर, जीवन अखण्ड इकाई, काल-खण्ड देश अविभाज्य, ऐक्यबोध ग्रहविसर्जन, अर्धनारीश्वर द्वैत बोधक, मानसिक सरचना प्रखण्ड, भौतिक मौर आध्यात्मिक ऐक्य, व्यक्तित्व प्रखण्ड, सत्व, रज, तम सश्लिष्ट, सृष्टि प्रखण्ड, साहित्यिकप्रक्रिया सश्लेषणात्मक, सत्यबोध श्रद्वामूलक, गैस्टाल्ट मनोविज्ञान, जैनेन्द्र की प्रखण्ड दृष्टि और गैस्टाल्ट ।
३०६---३१४
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दो शब्द
हिन्दी उपन्यास-जगत् मे जैनेन्द्र का आविर्भाव अत्यन्त उल्लेखनीय घटना है। जैनेन्द्र से पूर्व प्रेमचन्द साहित्य-जगत् को एक नवीन चेतना तथा जीवनदायिनी शक्ति प्रदान कर चुके थे, किन्तु प्रेमचन्द अपने युग की समस्याग्रो को सुलझाने की चेष्टा मे समसामयिकता मे ही सीमित रह गए । जीवन से चिपके हुए कलाकार होने के कारण वे जीवन के स्थूल विस्तार को तो माप सके, किन्तु मानव-मन की अतल गहराइयो, मानव-जीवन की सूक्ष्म परिस्थितियो के मनोवैज्ञानिक आधार की ओर वे अधिक ध्यान न दे सके । इसके विपरीत जैनेन्द्र की चेष्टा बाह्य परिवेश से अधिक आत्मोन्मुखता की ओर दृष्टिगत होती है । जैनेन्द्र ने जीवन की समस्याओ को न लेकर उसके उत्स को ही पकडने का प्रयत्न किया है। उन्होने व्यक्ति के नित्यप्रति के जीवन से अधिक उसमे निहित सत्य की ओर दृष्टिपात किया है। उनकी दृष्टि मनोवैज्ञानिक है। उन्होने मानव-चेतना के रहस्यो को अपनी अनुभूति की पीठिका पर अभिव्यजित किया है।
जैनेन्द्र ने अपने साहित्य में जो बौद्धिकता रखी है और जीवन की परम्परागत नैतिक मान्यताप्रो पर जो प्रश्नसूचक चिह्न लगाया है वह उन्हे हिन्दी कथा-साहित्य मे एक नये युग-प्रवर्तक के रूप मे, प्रेमचन्द से एक कदम आगे स्थापित करता है। जैनेन्द्र के साहित्य में मनोविज्ञान तथा दर्शन का सामजस्य स्पष्टत दृष्टिगत होता है। वे साहित्यकार होने के साथ-साथ दार्शनिक भी है। एक अोर मनोविज्ञान द्वारा उन्होने मानव-वृत्ति के सत्यो का उद्घाटन किया है, दूसरी ओर दर्शन के द्वारा आत्मगत सत्यो की अभिव्यक्ति की है और व्यक्ति को आत्ममन्थन की ओर उन्मुख किया है। दार्शनिकता के कारण जैनेन्द्र का साहित्य अत्यधिक गूढ हो गया है, किन्तु उसकी गूढता ही उसका सार है, क्योकि उसमे ऋजुता न होकर गहराई का आभास मिलता है। जैनेन्द्र के साहित्य का सत्य आत्म-विसर्जन तथा ऐक्यानुभूति मे निहित है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे अद्वैत अन्तिम सत्य है, वह चर्चा का विषय नही बनता, किन्तु जीवन की भाषा द्वैत मे है । दो को लेकर ही सृष्टि चलती है। जैनेन्द्र ने मानव-जीवन के सश्लिष्ट रूप की अभिव्यक्ति का प्रयास किया है। उनके अनुसार धर्म, समाज, अर्थ आदि व्यक्ति की सापेक्षता मे ही सार्थक है । उन्होने मानव-जीवन के शाश्वत प्रश्नो पर विचार किया है। उनका सम्पूर्ण साहित्य उनकी
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प्रास्तिकता से अनुप्राणित है । उनकी दृष्टि मे होनहार के द्वारा ईश्वर के अस्तित्व का ही बोध होता है । उनकी ईश्वरीय प्रास्था जीवन को सम्बल प्रदान करती है ।
जैनेन्द्र का साहित्य अध्यात्म तथा भौतिकता का समुच्चय है । उनके अनुसार जीवन की सार्थकता उसके भोग मे है, तिरस्कार में नही । वस्तुत वे जैन धर्म द्वारा प्राप्त होने वाली व्यक्तित्व - कृशता को स्वीकार नही करते । जैनेन्द्र का साहित्य जैन धर्म के प्रस्ति नास्तिवाद से प्रभावित है । उन्होने धर्म को स्वभाव के अर्थों में ही ग्रहण किया है । जैनधर्मी होने के कारण जेनेन्द्र ने सभी धर्मो के प्रति प्रादर का भाव व्यक्त किया है, तथापि उनकी निष्ठा जैनधर्म मे ही है । उनके साहित्य मे धर्म तथा विज्ञान का सामजस्य दृष्टिगत होता है । जैनेन्द्र की धार्मिक दृष्टि प्रहिसामूलक है । उनकी अहिसा - नीति गाधीजी की अहिसात्मक दृष्टि से प्रभावित है । जैनेन्द्र ने ग्रह से मुक्ति को ही सच्ची मुक्ति बताया है । जैनेन्द्र के अनुसार भाग्य का विषय त है और पुरुषाथ का अर्थ केवल श्रम करना ही नही है, वरन् श्रम के साथ ही ईश्वर के सहयोग को भी स्वीकार करना आवश्यक है । केवन पुरुषाय को मानने से व्यक्ति मे अह भावना आती है ।
जनेन्द्र साहित्य क्षेत्र में एक नवीन मोड लेकर प्रविष्ट हुए और वह नवीनता सहज है, सायास नही । श्रेय और प्रेय मे समन्वय, सत्य पर आस्था, नारी की उदात्तता यादि के प्रति सलग्नता भी जैनेन्द्र क साहित्य में निहित है । सब मिलाकर जैनेन्द्र न जीवन को उसके सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य में देखने की चेष्टा की है ।
हिन्दी के ऐसे प्रतिष्ठित और उच्च कोटि के विचारक एव चिन्तक साहित्यकार की कृतियों को अपने प्रत्ययन का विषय बनाकर डा० ( श्रीमती पुरी) कुसुम कक्कड ने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के हिन्दीविभाग में अध्ययन कर जिस शोध-प्रबन्ध पर डी० फिल्०' की उपाधि प्राप्त की, वह जैनेन्द्र- साहित्य के अध्ययन की एक विशिष्ट कडी है । विदुषी लेखिका ने जैनेन्द्र-साहित्य का मर्म पहचानने की प्रभुत क्षमता का परिचय दिया है । मुझे आशा ही नही, पूर्ण विश्वास हे कि जैनेन्द्र-साहित्य के विद्यार्थियों के लिए उनकी यह पुस्तक अत्यन्त उपादेय सिद्ध होगी और हिन्दी के निष्पक्ष सुधी आलोचको म उनकी इस रचना का आदर होगा । इतनी सुन्दर रचना के लिए, में डाल ( श्रीमती पुरी ) कुसुम कक्कड को बधाई देता हू ।
लक्ष्मीerre वाय
प्रोफेसर एव अध्यक्ष, हिन्दी - विभाग, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी
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प्राक्कथन
परिवर्तन सृष्टि का नियम है । सृष्टि के आदिकाल मे प्राणिमात्र का जीवन जैसा था, वैसा आज नही है । साहित्य जीवन की प्रतिकृति है। मानव जीवन की अस्फुट और अनकही बाते साहित्य मे शब्द और वाक्यो की लपेट मे जीवन को स्पन्दन और स्थायित्व प्रदान करती है। बासी हुए विचार और घिसी-पिटी मान्यताए वायव्य मे एक घुटन सी उत्पन्न कर देती है । उस घुटन से त्राण पाने के हेतु छुट-पुट झरोखो से आने वाली स्वच्छ वायु का प्रवेश अनिवार्य है। ___मानव जीवन मे जब कभी सहज गति से परिवर्तन होता है तो हमे उसका आभास भी नही मिलता, किन्तु कोई छोटी-सी घटना भी जीवन मे एक तूफान ला देती है । साहित्य में भी प्राय यही स्थिति देखी जाती है । प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध एक नवीन क्रान्तिकारी स्वर का उद्घोष करने का दायित्व भला कौन ले सकता है? व्यक्ति परिस्थिति को सदैव विनत भाव से स्वीकार करता रहा है । कहानी और किस्से की पुरानी परिपाटी, वर्णन और चमत्कार प्रधान थी। तिलस्मि और ऐय्यारी को प्रमुखता देने वाली रचनायो मे मानव जीवन की सत्यता को उद्घाटित करने की क्षमता नही थी। जिस कार्य को भारतेन्दुयुगीन उपन्यासकारो ने प्रारम्भ किया था, उसे प्रेमचन्द ने आगे बढाया और उपन्यासो को जीवनदायिनी शक्ति प्रदान की, जिससे व्यक्ति ने साहित्य के माध्यम से अपने ही जीवन की झाकी देखने का प्रयास किया । प्रेमचन्द एक सहज, सीधी लकीर पर चलते हुए साहित्य-जगत् मे अवतीर्ण हुए। उनके पात्र व उनकी भावाभिव्यक्ति की भाषा इतनी सुलझी और स्पष्ट थी कि उन्हे समझने मे हमे तनिक भी कठिनाई नही हुई और जनमानस सहज ही उस नवीनता के तल मे विभोर हो उठा। उसके समक्ष जीवन आदर्शरूप मे प्रस्तुत हुआ । प्रेमचन्द की रचनाओ को समझने के लिए पाठक को अपनी ओर से कोई जोड-तोड नही करनी पडी। मानव सदा से ही आदर्श प्रिय रहा है। 'वह क्या है ?" से ऊपर 'क्या होना चाहिए ?' के लिए प्रयत्नशील रहता है । मानव प्राणी प्रादर्श की निर्दोष प्रतिमा बनने मे सदैव अपनी निजता का
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निषेध करता हुआ अपने साथ छल करता रहा है । 'चाहिए' से याद है, किन्तु 'क्या हे' से यथार्थता के दर्शन होते हे । गानव स्वभाव हे कि वह पनी सच्चाई को पूर्णत उद्घाटित नही करना चाहता ।
को सच्चा का
ठता
जेनेन्द्र का साहित्य व्यक्ति के छत और मिथ्यावाद का साफा कर देता हे । व्यक्ति को भरे समाज मे उधार कर बठा कर देता है। वह सच्चाई को मन ही मन स्वीकार करता हुआ भी स्पष्ट गन्दी म स्वीकार करने का साहस नही कर पाता । अपने पन्त साहित्य की भूमि मे प्रकट हुआ देखकर वह लेखक के प्रति उत् हे । 'खिसियानी बिल्ली की भाति तिलमिलाया हुआ मावोचक लेखकही लाछित करते लगता है । इस प्रकार साहित्यकार के पति सच्चा न्याय नही हो पाता । जब तक साहित्य मे अभिव्यक्त सत्यता को अपने जीवन से पागसात् करके नही देखा जाता, तब तक उसके सम्बन्ध में सही निर्णय सव नही हो सकता ।
प्रेमचन्द के बाद साहित्य जगत् में जैनेन्द्र के पदार्पण करत ही हा चल - सी मच जाती है । जैनेन्द्र साहित्य जगत् में एक तूफान के सालो हुए। जैनेन्द्र ने जान बूझकर प्रेमचन्द की मान्यताओ का समा नही किया। साहित्य में उनका प्रवेश सहज रूप ग ही हुआ था तथापि उसकी off । यास्वरूप साहित्य जगत् एक नवीन भाव-धारा का गवार हा । नेन्द्र द्वारा ग्रहीत नवीनता यदि वैचारिक ही होती तो सम्भवत उसे शब्दो के मान्यम स समने मे सुविधा हो सकती थी किन्तु उन्होने पती भावाभिव्यक्ति से टेढे-मेढे मार्गों से की है कि वह सामान्य साहित्य पनि के लिए दूर प्रतीत होती है । उनके शब्द सूचक मान है । भाव शब्दो से पार है। किन्तु गाग की कठिनाई से घबड़ाकर गन्तव्य को निरर्थक नहीं माना जा सकता । यी यह सत्य है कि जैनेन्द्र की दार्शनिकता ने एक और यदि विषय को रूह बनाया है तो मनोविज्ञान की सकरी गली में वह प्रस्पष्ट भी हो गया है । शब्द के प्रयोग के सम्बन्ध से भी जैनेन्द्र इतने मितव्ययी है कि प्राय कुछ प्रशखकर शेप के लिए इत्यादि से ही काम चला लेते है और भावो की स्थिति तो
वे प्राय मौन ही हो जाते है । पाठक बेचारा सिर बार-बार समझने की चेष्टा करते हुए भी पाय सफल ही रहता है | किन्तु जिसे हम जैनेन्द्र के साहित्य की जटिलता समभते हैं, वह हमारी अपनी ही समता है । हम राजमार्ग पर चलने के इतने अस्त हो गए मार्गों पर चलना हमे अच्छा नही लगता किन्तु गार्ग की जटिलता के कारण साहित्य में भूत सत्य रूप गन्तव्य का निषेध नही किया जा सकता ।
ले
पीट कर रह जाता है।
। यह
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जैनेन्द्र के पूर्ववत साहित्यकारो ने सत्य की अभिव्यक्ति का साहस ही नही किया था, किन्तु जैनेन्द्र ने सर्वप्रथम मानव आत्मा मे निहित सत्य को स्पष्टरूप से व्यक्त करने का प्रयास किया है । जैनेन्द्र ने व्यक्ति को उसकी समग्रता में स्वीकार किया है । उसमे यदि देवत्व है तो दानवत्व भी है । एक के निषेध मोर दुसरे की स्वीकृति से व्यक्तित्व मे पूर्णता नही प्रा सकती ।
सृष्टि के मूल स्तम्भ 'स्त्री-पुरुष' की समस्या को उठाकर जैनेन्द्र ने साहित्य जगत् में एक नवीन किन्तु शाश्वत सत्य का उद्घाटन किया है । इनकी दृष्टि मे व्यक्ति की समस्त क्रियाश्रो का उत्स 'ग्रह' है । 'ग्रह' विसर्जन ही उनके साहित्य का मूल स्वर है । जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त काम भावना फ्रायड की मनोविश्लेषणात्मक दृष्टि से पृथक् है । जैनेन्द्र अचेतन मन को 'दमित वासना' का पुजन मानकर 'भगवत्ता' का केन्द्र मानते है । उनके पात्र भोग से योग की ओर उन्मुख होते हुए दृष्टिगत होते है ।
जैनेन्द्र के साहित्य का सत्य 'विसर्जन' और 'ऐक्य' मे ही प्रन्तर्भूत है । सम्पूर्ण साहित्य इन्ही दो आधार - बिन्दुओ को लेकर चरितार्थ हुआ है । प्राध्यात्मिक स्तर पर ग्रह अर्थात् प्रश का ब्रह्म प्रर्थात् पूर्ण के समक्ष विसर्जित होना तथा सान्निध्य स्थापित करना ही उनके साहित्य का लक्ष्य हे । द्वेत लोकिक सत्य है, द्वैत अन्तिम सत्य है । मानव जीवन का उद्देश्य द्वैत से प्रद्वैन की प्रोर उन्मुख होना है ।
जैनेन्द्र ने जीवन की चिरन्तन समस्याओ के प्रतिरिक्त शाश्वत सत्यो पर भी प्रकाश डाला है । ईश्वर, ग्रात्मा, जन्म, मृत्यु, भाग्य, पुनर्जन्म आदि भी उनकी चर्चा और चिन्तन के विषय रहे हे । जैनेन्द्र की प्रास्तिकता सत्य अर्थात् ईश्वर को तर्क द्वारा सिद्ध करने में असमर्थ है ।
जैनेन्द्र ने बाह्य जीवन की परिस्थितियो और द्वन्द्वो का भी अपने साहित्य मे चित्रण किया है । उनकी दृष्टि में द्वन्द्व का कारण बाह्य परिवेश मे न होकर अन्तर्मन में ही स्थित होता है ।
जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन का विवेचन करते हुए उनकी कहानियों और उपन्यासो के साथ ही निबन्धो द्वारा भी उनके विचारो की पुष्टि का प्रयास किया गया है । उनके सैद्धान्तिक विवेचन का क्षेत्र इतना वृहत् है कि उसे छोडकर उनके चिन्तन का पूर्ण परिचय प्राप्त करना असम्भव है । जैनेन्द्र के साहित्य मे जहा कही विचारगत विरोधाभास दृष्टिगत होता है, वह उनके निबन्धो के द्वारा सहज ही स्पष्ट हो जाता है। अतएव जैनेन्द्र के विचारो की सत्यता को जानने के लिए उनके उपन्यास और कहानियो के साथ ही साथ उनके निबन्धो तथा प्रश्नोत्तर रूप मे संग्रहीत विचारो को भी जानना अनिवार्य है ।
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व्यक्ति का जीवन परिवेश और सस्कारो की समष्टि है । उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर परम्परागत सस्कारो ओर परिस्थिति का प्रभाव पडना अनिवार्य है। जैनेन्द्र का व्यक्तित्व उनके सस्कारो ओर परिवेश का ही योग हे । उनका जन्म सवत् १९५० मे कोडियागज (अलीगढ) मे हुआ था। जन्म के दो वष बाद ही पिता की मृत्यु हो गई, अत उनका सारा भार मा रमा देवी बाई तथा मामा महात्मा भगवानदीन पर पडा । मामा के द्वारा स्थापित गुरुकुल में ही इनकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई थी । वहा का वातावरण बहुत ही शुद्ध और धार्मिक था । जैनेन्द्र पर इस वातावरण का बहुत अधिक प्रभाव पडा । एक बार तो वे 'बाहुबली' की कथा सुनते-सुनते रो पडे थे। उस समय वे इस कथा से इतने प्रभावित हुए कि प्रागे इसी नाम से एक कहानी भी लिखी । महात्मा भगवानदीन अत्यधिक त्यागी और अपरिग्रही पुरुप थे । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमे 'काश्मीर की यह यात्रा' मे देखने को मिलता है । जैनेन्द्र के साहित्य पर उनके जीवन की घटनाओ तथा मा ओर मामा के सस्कारो का प्रभाव स्पष्टत लक्षित होता है । स्वधर्म (जैनधर्म) के प्रति आस्था तथा ईश्वरीय विश्वास उन्हे अपने सस्कारो से ही प्राप्त हुआ है।
जैनेन्द्र के साहित्य-सृजन की ओर उन्मुख होने का कारण स्वेच्छित न होकर आन्तरिक और बाह्य जीवन की विवशता ओर अभाव ही है। बाह्य जीवन की बेकारी और आर्थिक सकट तथा प्रान्तरिक प्रभाव के कारण उनके मन की पीडा अधिकाधिक घनीभूत होती गई। ऐसे मे मन के बोझ को लेखनी द्वारा कागज पर उतारने मे उन्हे चैन मिला । वस्तुत प्रान्तरिक उफान को शान्त करने के प्रयास मे अनायास ही साहित्य-सृजन की यह प्रक्रिया हातान्तर मे उनके लिए अनिवार्य हो गई । समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओ की माग तथा रेडियो पर प्रसारित होने वाले उनके धारावाहिक उपन्यासो की माग ने उन्हे लेखन-कार्य के लिए विवश कर दिया । जैनेन्द्र के द्वारा 'अपनी कैफियत' से ज्ञात होता है कि वे कभी भी स्वेच्छा से लिखने के लिए प्रवृत्त नही हो सके है। प्रारम्भिक अवस्था मे कभी-कभी उन्होने (साहित्य-रचना द्वारा) आर्थिक सकट में त्राण पाने के हेतु साहित्य-रचना की और उससे प्राप्त होने वाला ताभ ही उनके साहित्य का श्रेय था, किन्तु बाद के उपन्यास--सुखदा', 'विवर्त', 'अनन्तर', और कहानिया तो मानो उनके सिर चढकर ही लिखवायी गयी है । कहानी और उपन्यास की भाति निबन्धो के क्षेत्र मे भी उनकी यही स्थिति देखी जा सकती है। जब प्रश्नकर्ता कागज-कलम लेकर उनके पीछे पड जाता है तो उन्हे विवश होकर उत्तर देने ही पडते है। इस प्रकार से एक-दो नही अनेको सग्रह तैयार हो गये है। 'समय और हम' जैसे वृहद् दार्शनिक ग्रन्थ को अठारह
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माह तक के अनवरत प्रश्नोत्तर की प्रक्रिया द्वारा ही पूर्ण किया जा सका है। 'सुनीता' लिखने के बाद तो वे दस वर्ष तक मौन रहे। किन्तु साहित्य का भाग्य था कि जैनेन्द्र फिर से जागे और परिणामस्वरूप 'सुखदा', 'विर्वत', 'मुक्तिबोध' आदि जैसी महत्तम कृतिया उपलब्ध हुई । ऐसा प्रतीत होता है कि जैनेन्द्र की चिन्तन और लेखन-क्षमता कुण्ठित नही हुई है। उनमे वही जीवतता आज भी बनी हुई है, जो कि उनकी प्रारम्भिक रचनाओ मे दृष्टिगत होती है। 'कल्प' पाक्षिक पत्रिका के द्वारा भी जैनेन्द्र के विचारो के सम्पर्क में आने का सौभाग्य मिल रहा है। अब उनके जीवनदर्शन का अभिनव सस्करण- 'समय, समस्या और सिद्धान्त' के नाम से प्रकाशित होने मे पाया है । इसमे जीवन, सिद्धान्त और जीवन व्यवहार से सम्बन्धित ४५० प्रश्न है, उसमे जीवन के चिरन्तन प्रश्नो के साथ ही आध्यात्मिक और शाश्वत प्रश्नो के समाधान भी प्राप्त होते है । सम-सामयिक राजनीतिक स्थितियो के सस्पर्श के कारण अत्याधुनिक स्थितियो पर भी प्रश्न किए गए है । जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर उपरोक्त अप्रकाशित पुस्तक की जानकारी प्राप्त हुई थी और श्री प्रदीप भाई की कृपा से पुस्तक की टक्ति प्रतियो के अध्ययन करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुअा। इस कृपा के लिए मै उनके प्रति अत्यधिक आभारी हू। समयाभाव के कारण मै सूक्ष्मरूप से उसका अध्ययन तो न कर सकी किन्तु जितनी सुविधा उपलब्ध हो सकी उसके अनुसार मै इसी निष्कर्ष पर पहुची हूँ कि 'समय और हम' से 'समय, समस्या और सिद्धान्त' मे भिन्नता है। यह भिन्नता जैनेन्द्र की अभिव्यक्ति-क्षमता में विशेष रूप से दृष्टिगत होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि 'समय और हम' मे जो ऋजुता, क्लिष्टता और बौद्विकता के कारण शुष्कता
आ गई थी, जिसके कारण वह कोरा वैचारिक ग्रन्थ प्रतीत होता है, वह अभाव 'समय, समस्या और सिद्धान्त' मे नही रह गया है। प्रस्तुत पुस्तक मे लेखक की हार्दिकता, भाव-स्निग्धता तथा अभिव्यक्तिगत स्पष्टता तथा अनुभूतिगत गहराई पूर्णतया दृष्टिगत होती है।
उपरोक्त वृहद् जीवनदर्शन के अतिरिक्त 'वृत विहार' भी प्रकाशित कृति है, जिसमे जीवन के ज्वलन्त प्रश्नो पर जैनेन्द्र के विचार समाविष्ट है। 'त्यागपत्र' के नायक की अगली कहानी भी 'अनामस्वामी के नाम से 'कल्प' पाक्षिक पत्रिका मे धारावाहिक रूप मे छप रही है। जैनेन्द्र के 'जीवनदर्शन' पर कार्य करते हुए सदैव उनके दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा मन मे बनी रहती थी, किन्तु परिस्थितिवश सौभाग्य नही मिल पाता था । परन्तु जब शोधनिबन्ध लगभग समाप्त हो रहा था, तब उनके दर्शन की आकाक्षा का लोभ सवरण न हो सका और १७ मई की शाम को उनके दर्शन की अभिलाषा पूर्ण
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हुई। उनसे मिलने के पूर्व मन एक अज्ञात भय से ग्रस्त था। उनकी वरिष्ठता तथा वयोवृद्धता के कारण ऐसा प्रतीत होता था कि सर भवत वे मेरी प्रत्पबुद्धि का आभास पाकर मुझे अपनी समस्यानो का समाधान प्राप्त करने की छूट न दे ? किन्तु उनके व्यक्तित्व के प्रभाव ने मेरे भयर पी कोहरे को क्षण भर मे ही विलीन कर दिया । मे उनके समक्ष रतनी प्रात्गीय हो गई कि जिसकी कि मै कभी कल्पना भी नही कर सकती थी। पान दिन तक लगातार मै पाच-छ घण्टो तक प्रतिदिन प्रश्न करती और वेब स्नेह के साथ मेरे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देते । उनके सम्बन्ध में मेरे मन में एक यह भी भय था कि कही उन्होने मेरे प्रश्नो के उत्तर अपनी प्रकृति के अनुकूल केवल 'हा' मे ही दिए तो कैसे बात स्पष्ट होगी ? परन्तु प्राशा के विपरीत उन्होने हर समस्या को भली प्रकार सुलझाने मे सहयोग दिया। कई बार मेरे सन्तुष्ट न होने पर वे तनिक भी रुष्ट न होते थे और अपनी बात को बडे ही महज ढग गे म्पाट करने का प्रयास करते थे।
जैनेन्द्र से मिलने पर उनके साहित्य की कुछ बहुचलित iit प्रार उपन्गासो मे जो विवाद प्रचलित है, उन पर भी चर्चा हई और हान उनका सन्तोषजनक समाधान किया। इसी अवसर पर मन उनको राम । र ज्ञासा व्यक्त की कि क्या वे निकट भविष्य मे कोई उपन्यास निलंग । सम्बन्ध में उन्होने यही विचार व्यक्त किया कि वे स्वेच्छा म तो कभी लिखते नही है, जब कही से जोर पडता है, तभी उनके भीतर व्याप्त द्वन्द्व रचना का सप धारण कर लेता है, तथापि उन्होने यह अवश्य बताया कि 'अन्तत्ति को लेकर उपन्यास लिखने की बात मन में उठी थी जो मन से सवथा दूर रहो । इच्छा मन में ही रह गई, बाहर उद्भासित न हो सकी।' उन्होने एक बहु काल से इच्छित विषय पर उपन्यास रचना की अपनी इच्छा प्रकट की थी । विपय का सार है कि-'अर्थ विनिमय ही यदि धनार्जन का माध्यम हो तो अन्तत वेश्या का स्थान वैश्य से ऊचा होना चाहिए ।' उपरोक्त विषय को लेकर ये वैश्यो के प्रति अपने प्राकोश तथा वेश्या बनी विवश नारी के पति अपनी सवेदना को ही व्यक्त करना चाहते है।
श्रद्वेय जैनेन्द्र जी से विदा का वह क्षण तो मेरे मन की पीठिका पर वह अमिट छाप छोड गया है जो अविस्मरणीय है । अस्वस्थ होने के अनन्तर भी वे द्वार तक मुझे पहुचाने आए और बड़े प्यार से बेटी के सदृश विदा किया। म उनके प्रति अपनी श्रद्धा और आभार को शब्दो द्वारा व्यक्त कर सन्तुष्टि नही पा रही हूँ। मै विनत भाव से उनके प्रति आभारी हूँ।
सर्वप्रथम मै उस परम पिता के प्रति नतमस्तक है, जिसकी अनुकम्पा में पग
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पग पर मुझे गुरुजनो और स्नेहियो का सहयोग प्राप्त होता रहा है। तदनन्तर मै अपने परम पूज्य फादर डा० कामिलबुल्के के प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धा के शब्द-पुष्प अर्पित करती है, जिनकी स्नेहयुक्त प्रेरणा और सहयोग मुझे वरदान सिद्व हुई। अपने निर्देशक डा० मोहन ,वस्थी के प्रति मै हृदय से आभारी हूँ, जिन्होने निरन्तर मेरी सहायता की।
मै विभागाध्यक्ष, श्रद्वेय डा० लदमीसागर वाष्र्णेय के प्रति अत्यन्त कृतज्ञ हूं, जिन्होने मेरे विषय का चुनाव करके मुझे अपना अमोध सहयोग प्रदान किया।
हिन्दी साहित्य सम्मेलन तथा केन्द्रीय पुस्तकालय से मुझे पुस्तको की पर्याप्त महायता तथा अन्य सुविधाए अध्ययन सम्बन्धी प्राप्त होती रही है, मै उन अधिकारियो के प्रति आभारी हूँ।
मै अपने परमपूज्य पिता जी के प्रति किन शब्दो मे अपनी श्रद्धा व्यक्त करू , जिनकी महत प्रेरणा ही मेरे शोध-कार्य के प्रादि से इति तक छायी रही
और यह प्रस्तुत शोधप्रबन्ध एकमात्र उन्ही के आशीर्वाद के फलस्वरूप प्रकाशित हो पा रहा है।
अन्त मे मै श्री रामहित त्रिपाठी, हिन्दी टवाक के प्रति आभारी हू जिन्होने मेरे शाध प्रबन्ध को बडे ही आत्मीय भाव से शीघ्रातिशीघ्र टकित किया है।
(कुसुम कवकड)
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परिच्छेद-१
जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
दर्शन क्या है? ___“साधारण भापा मे 'दर्शन' का अर्थ है 'देखना' दार्शनि पनि पा का उद्देश्य समस्त ब्रह्माण्ड को एक साथ देखना अथवा सम्पूर्ण दृष्टि पारत करना कहा जा सकता है।" दार्शनिक का लक्ष्य सत्य का मादशात्कार करना है। सत्य का साक्षात्कार करने के प्रयत्न मे ही दार्शनिक साधक अथपाटा बग जाता है। बह वस्तु का वाह्य-निरूपरण अथवा मूत्याफन नहीं करता। वह तो आध्यात्मिक ओर भौतिक जगत मे अन्तर्भत अश्य सत्य की खोज करने का प्रयत्न करता है। इस दृष्टि से एक आस्था-परक प्राध्यात्मिक व्यक्ति भी दार्शनिक हो सकता है और विज्ञान के सहारे भौतिक सत्य का अन्वेपण करने वाला वैज्ञानिक भी दार्शनिक हो सकता है । क्योकि सत्य से कुछ भी बहिर्गत नही है और सत्य की खोज करना ही दार्शनिक का प्रमुख कतव्य हे तथापि वैज्ञानिक और आध्यात्मिक व्यक्ति की प्रक्रिया मे अन्तर है। यह अन्तर प्रारम्भिक स्तर पर विशेपरूप से द्रष्टव्य है, किन्तु जब वैज्ञानिक सत्य को वाह्य इन्द्रियो के माध्यम से न जानकर अतवृष्टि, सबुद्धि से जानने का प्रयास करता है, तब वही वैज्ञानिक दार्शनिको की श्रेणी मे आ जाता है। वैज्ञानिक मबुद्धि के द्वारा प्राप्त ज्ञान का बुद्धि के आधार पर विश्लेषण करता है । प्रज्ञा को
१ डा० देवराज 'भारतीय दर्शन शास्त्र का इतिहास', प्र० स०, १९४१,
इलाहाबाद, प० १६६।।
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१८
जेनेत का जीवन-दर्शन
वस्तुरूप प्रदान करने के प्रयत्न मे तक ओर बुद्धि का पोश हो जाना स्वाभाविक है । न्यूटन को सबुद्धि के प्रावार पर गुरुत्वाकापणी शशित ना बोध प्राप्त हुआ था किन्तु बुद्धि के द्वारा उसने गगन गिबात का विनाम किया था । विज्ञान और दशा मे यही म। भेद है कि ज्ञानि। गग को आशिक रूप मे अथवा खण्ड-खण्ड करके देखता है, for दाई ।। गाय का समग्र रूप मे साक्षात्कार करता है। भारतीय ऋपि ओर साचा पा से उन्होने साधना की चरम सिद्धि पर पड़चक र मन्त्र का साक्षात्कार किया या अन्तनयनो से दर्शन किया था, इसलिए उस सत्य का जो सप उपस्थित किया है उसे दर्शन कहना उचित ही है।"
भारतीय दशन और पाश्चात्य फिलासफी मे अन्तर है। भारतीय दार्शनिक आत्मशुद्वि के माग से ही आत्म साक्षात्कार का प्रयत्न करता है। पाश्चात्य दाशनिको ने प्रात्मशुद्वि को प्रश्रय दिया है । उहोने तक की तुला पर अपनी मान्यताप्रो का प्रतिपादन किया है। वस्तुत फिलासफर को प्रा गा वि पिण प्रधान होती है और दाशनिक की पद्वति मरणागक' । भारतीय दार्शनिका ने तक के आधार पर मत्य का प्रतिपादही या व पापा और विश्वास के प्राचार पर मत्य का माक्षात्कार किया। भारतीय पायनिता का लक्ष्य गत्य के बोध द्वारा मोक्ष की प्राप्ति करना है।
दर्शन शास्त्र का कार्य मानव जीवन की सापेक्षता में पिता होता है । जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र नही है, जिसका दानि । विजन सभवन हो सके । मानव जीवन की समग्रता का बोध प्राप्त करने के forv उसम विविध राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक प्रादि पहलुओ का अपयन अनिबाय है, किन्तु विशुद्व दार्शनिक और साहित्यिक दार्शनिक की प्रतिया में मन्नत अन्तर दृष्टिगत होता है। 10 देवराज के अनुसार दशन शारन की शेली गाहित्य से भिन्न है । कवि, उपन्यासकार जीवन पर विचार करने में किसी नियम का पातन नहीं करते। दाशनिक चिन्तन नियमानुमार होता है। माहित्यकार किसी वस्तु या व्यक्ति के इन्द्रियगम्य वाहा अगा को ही अपने विवेचन का विषय नहीं बनाता वरन् वस्तु और व्यक्ति के मन म अन्तनिष्ठ आत्मा को समझने का प्रयास करता है । अपने इस प्रयाग में ही वह अपनी दाश निक दृष्टि का परिचय देने में समर्थ होता है।
जैनेन्द्र ने अपनी अप्रकाशित पुस्तक 'समय, समस्या और सिद्धात' में 'दशन'
१ डा० देवराज 'भारतीय दर्शनशास्त्र का इतिहास', पृ० १ । २. डा० देवराज 'भारतीय दर्शनशास्त्र का इतिहास', पृ० १८ ।
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जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
के सबध पर किए गए विवेचन मे दर्शन को सबुद्धि प्रधान ही माना है। जैनेन्द्र का समग्र साहित्य उनकी अन्तश्चेतना का ही प्रतिफल है। उनके साहित्य मे दार्शनिकता की जो झलक दृष्टिगत होती है, उसमे उनकी आस्था
और हार्दिकता ही अन्तर्भूत है । उनके साहित्य का अवगाहन करने में यह विदित होता है कि साहित्य-सृजन के हेतु उनका पमुख प्रादर्श सत्य के साथ साक्षात्कार करना रहा है । सत्य आत्मा मे है । दर्शन शास्त्र का उद्देश्य सत्य के प्रति व्यक्ति की जिज्ञासा को शान्त करना है । जनेन्द्र दार्शनिक होने के साथ ही साथ साहित्यकार भी है। सत्य तो यह है कि वे लेखक होने के कारण ही दार्शनिक के रूप मे जाने जा सकते है । अतएव उनकी जिज्ञासा सूक्ष्म सत्य के साथ जगत् मे व्याप्त स्थूल अथवा व्यावहारिक सत्य का अनुभव करने के लिए प्रयत्नशील रही है । जैनेन्द्र का समग्र साहित्य सत्य की खोज और उसकी अभिव्यक्ति का ही प्रतिफल है। ___'दर्शन' शब्द स्वय मे इतना गूढ और गम्भीर भावबोधक बना दिया गया हे कि उसके उच्चारण मात्र के तद् स्थित विषयगत जाटिलता ओर तात्विकता सहज ही मानग-पटल पर अकित हो जाती है। सामान्यत लोगो की यह परिकल्पना रही है कि दार्शनिक जीवन की सहजता से पराङ्मुख होकर ब्रह्म, जीव, जगत् अोर माया आदि तात्विक विषयो पर विचार करने वाला व्यक्ति है। उसमे मानवीय प्रेम, सहानुभूति आदि की भावनाए सुप्तप्राय रहती है, किन्तु दार्शनिक को एक नीरस व्यक्ति समझना तथा दर्शन को जटिलता प्रदान कर अग्राह्य बनाना हमारी भूल है।
प्रत्येक व्यक्ति अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार समार के वैचित्र्य तथा प्रकृति की विराटता मे प्रतर्भूत रहस्य को जानने का प्रयास करता है। व्यक्ति-भेद के कारण दृष्टि-भेद होना भी स्वाभाविक ही है। जगत् की यथार्थता, ईश्वर के अस्तित्व, जीवन के द्वन्द्व के सबध मे प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना दृष्टिकोण होता है । वस्तुत दार्शनिक कोई विशिष्ट व्यक्ति नही है । वह भी सामान्य व्यक्तियो के सदृश्य ही मानव-समाज में जीवन व्यतीत करता है, समाज के दुख-सुख से अभिभूत होता है । सामान्य से सामान्य व्यक्ति का जीवन के सम्बन्ध मे एक दृष्टिकोण होता है, किन्तु सामान्यत सभी व्यक्तियो के दृष्टिकोण मे इतनी प्रौढता नही होती कि वे ससार को अपनी दृष्टि दान कर सके अथवा उनके विचारो से मानव जाति को एक नवीन चेतना मिल सके । दार्शनिक अपने विचारो और मान्यताप्रो को सुनियोजित रूप मे व्वक्त करता है । अतएव दार्शनिक और अदार्शनिक के मध्य कोई स्पष्ट सीमारेखा खीच देना सम्भव नही है। दर्शन जीवन के प्रति एक विशिष्ट दृष्टि का
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जनेन्द्र का जीवन दर्शन
मोतक है। किसी व्यक्ति के लिए यह कहना कि वह दानिकह, गगो शानि नही है, अथवा तेराक है, वाशनिक नही है, अनुचित पार पाता है। मूलत प्रत्येक व्यक्ति चाहे दापि हो या मानिा, गतो शानिगे या साहित्यिक, सब के मूल में मानवीय सोदना प्रवासी नगा । है ।
जैनेन्द्र का व्यवहार-दर्शन
वस्तृत जैनेन्द्र दाशनिक हे या राय ? म प्रश्न कर वाद विवाद करना निराधार है । जैनेन्द्र ने जीवन को उसकी समगता में गमका पारा किया है। जीवन अखण्ड काई से यह साहित्य, मनोविज्ञान मा, मेरा त नही है, केवल हम अपनी (अन्ययन की) सुविधा के vिो नि । गो में विभाजित कर देते है । अन्य ना जीवन की सत्यना बोर की सम्पुगता मे ही सुलभ हो सकता है । जनेन्द्र चाहे साहित्यकार हो अगवा पानि , fair! उन सबसे परे वह एक त्यत्ति है । उन्होन मानव जीवन के II त - उनके व्यावहारिक धरातल पर रामभाने का प्रयाग दिया है। जानी ' गा के मन्थन से उन्हे पन नितान्त मालिका प.
शं अथवा दाशनिक होने की सूचना है। पिगो । गत माग से पृथक नही है, फिन] साहित्य के नाता पर ho rhition ढग है, जो उसे परम्परागत माग म पर प्रतिष्ठित करता है।
सष्टि का शाश्वत सत्य अपरिवतनी है, Inागगा रने और व्यक्त करने की दृष्टि मे युगानुर प परिवर्तन होता रहता है। जीव, जगत के परस्पर सबध तथा उनके रहस्य को समझान को fir रागार से दूर नही गए, वरन् प्रतिदिन के जीवन मे ही उन्हान सय bt atta प्रयास किया। मानव-धम की विराट् भूमिका ना तहाने अपने अन्दाग न । से समझना चाहा है। अपनी अान्तरिक सहानुभूति और सवेदना गोग। उन्होने गम्भीरता और जटिलता में भी सरलता तथा भावगत गमताका सन्निवेश किया है।
हिन्दी-कथा-साहित्य के क्षेत्र में मुशी प्रेमचन्द-का। मे शास्त्यि जगत परम्परागत मान्यताओ, सामाजिक मर्यादा, विशेषत प्रेमचन्द्र की सूचारवादी प्रवृत्ति के कारण अत्यधिक बाह्योन्मुखी हो गया था। समाज और उसकी समस्या ही साहित्य का मुख्य विषय था, यद्यपि उरा युग की माग । दान हुए प्रेमचन्द का साहित्य अपना अद्वितीय स्थान रखता है। उनके उपन्यागा मे जन-जीवन के घात-प्रतिघात, ममता, सहानुभूति, त्याग आदि मानवीय गुगगा की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति हुई है, किन्तु जहा जीवन का बाह्य पक्ष पुष्ट हो रहा
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जनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
था, वही व्यक्ति-चेतना कुठित होती जा रही थी। समाज मे व्यक्ति की अतश्चेतना, पके मन मे अवस्थित प्रेम की भावना को उपन्यास और कहानियो के मार.म से पूर्णत पोषण नही मिल रहा था । एक ही मन स्थिति मे बने रहने । साहित्यिक-परिवेश गे नवोन्मेव का अभाव था। ऐसी स्थिति मेनेन्द्र जी ने साहित्य को, एक नवीन स्वर ही नही प्रदान किया, वरन् उनके पवेश मे ला.त्य-जगत् मे एक -न्तिकारी प्रभाव की स्थिति उत्पन्न हो गई सोर रामरत हिन्दी कथा-साहित्य ने एक नवीन करवट ली ।
जनेन्द्र की सगन्वयात्मक दृष्टि ने विज्ञान की विभीषिका से सत्रस्त मानव को प्रद्धा और विश्वास का अपूर्व सम्बल प्रदान किया। उन्होने भोतिकता गौर माध्यात्मिकता के मध्य सामन्जस्य की एक कडी जोड कर मानव-जीवन को सारसता की ओर उन्मुख किया।
जैनेन्द्र जी.नालगत प्रश्नों के समाधान
जेनेन्द्र का साहित्य मानव जीवन के ज्वलन्त प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत करता है। नातिगिक-परिवेश मे परम्परागत दार्शनिको से पृथक् उन्होने कि नवीन पिट प्रदान की है । सामान्यत अध्यात्मवाद और भौतिकता के ५१ लिनागे में विभाजित करके देखा जाता है। दोनो पृथक् वर्ग मे बट गये है, किन्त जीवन का सत्य वर्गों में विभाजित होकर अग्राह्य हो जाता है। जैनेन्द्र की जीवन-दृष्टि विश्लेषणात्मक न होकर सश्लेषणात्मक है। विग्रह मे एकपदीय प्रबलता दृष्टिगत होती है और हठवाद को प्रश्रय मिलता है, किना दर्शन का T- य ग घर्ष मोर वैमनस्य न होकर प्रेम और स्वय को मुलभूत दृष्टि प्रदान करना है । मामान्यत प्राचीन दार्शनिको ने भौतिकता और अध्यात्मिकता के द्वन्द्व के मध्य किसी समन्वयात्मक मार्ग की स्थापना नही की थी। गद्यपि स्वामी विवेकानन्द ने इस क्षेत्र मे समन्वय का प्रयास किया था। किन्तु उनका योगदान सामाजिक पोर राजनीतिक क्षेत्र तक ही सीगित था। जैनेन्द्र ने सर्वप्रथम साहित्य के माध्यम से जीवन की इस विशाल खाई को पाटने का प्रयास किया है। उन्होने विचार और व्यवहार मे सन्तुलन रथापित करने का प्रयास किया । दर्शन मे वैचारिक पक्ष अधिकाशत प्रधान रहा है। शास्त्रीय रूप मे नीति और उपदेश की बाते शास्त्रो मे कही गई थी, किन्तु उनमे नित्यप्रति के जीवन संघर्ष से त्राण पाने का व्यावहारिक मार्ग निर्दिष्ट नही किया गया था। फलत वैचारिक पक्ष अपनी शुष्कता के कारण नीरस और जटिल होता गया। ऐसी स्थिति मे सदा से उपेक्षित व्यवहार पक्ष पर विचार करने की आवश्यकता प्रतीत हुई।
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जनन् का जीवन-दर्शन
जेनेन्द्रजी के अनुसार मानव जीवन के सर्वागीण विकास के लिए बुद्धि के साथ भावना का योग भी प्रतिवाय हे । भावगत व्यावहारिकता मे मानव जीवन का पत्येक पहलू समाविष्ट हो जाता है । साज स वैज्ञानिक युग मे एकोदेशी हाकर गन्तव्य की प्राप्ति करना प्रसम्मा है | निरी भौतिकता उसी परस्वप से अपूरण है, जैन श्रात्मा के समान में पारणहीन शरीर का ग्रकपण । वस्तुत जैनेन्द्र ने विज्ञान और प्रत्यात्मवाद से सामन्जस्य स्थापित करके जीवन के प्रति आस्था उत्पन्न की है । यही से जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन के मा तत्व अभेदत्व अथवा प्रतिवाद का प्रारम्भ होता है । उनकी प्रभेदात्मक दृष्टि साहित्य मे विभिन्न शन्दा रा जीवन क विविध क्षेत्रो मे अभियक्ति पाप्त करती है ।
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जैनेन्द्र ने जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्न का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया हे । पुरा समाधान अथवा प्रश्नाभाव की स्थिति का व नही स्वीकार करत, क्योंयि जीवन मनन्त सम्भावनाओ से पूरा है । उसकी प्रगति काल की गनन्त व्याप्ति तक सम्भव है । अत कामी रामान समय सापेक्ष ही हा सकता है सनातन नही ।
मानव-ज्ञान श्रौ मानव-परिस्थिति से सम्बन्धित अनेक प्रश्नो पर विचार और जीन के प्रति उनका दृष्टिकोण
वेन्द्र का साहित्य उनके जीवन सघर्ष से उद्भूत मानसिक गरि हृदयगत प्रवृति का ही परिणाम है । वे अपने जीवन की छाटी छोटी गा से भी ग्रात्मवान प्राप्त करते रहे, उसे ही उन्होने कल्पना के महारहित्य के रूप में अभिव्यक्त किया है । उन्हाने 'स्व' से परे पर' की साका अपने जीवन में ढाल कर अपने भावो और विचारा का पुट कर यक्त किया है । जेनन्द्र न मानव-कर्म के द्वारा उसके मूल स्त्रात का पकने का प्रयास किया है । सामान्यत ras जीवन की घटनाओ जान म फसकर उन्ही के विवेचन मे अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझा है, किन्तु जैनेन्द्र ने प्रत्यक्ष नगत से अप्रत्यक्ष की ओर अथवा स्थूल से की प्रार जाने का प्रयास किया है । उन्होने जीवन की समस्त नेपाया घटनाचा के समक्ष एक प्रश्नचिह्न लगा दिया है । क्या ? कैसे ? का प्रश्न निरन्तर उनके प्रवचेतन में घुमता रहता है । उन्होने इस प्रकार के प्रश्न को स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त न करके संकेतमान में काम चलाया है । जीवन-सरिता के मूल स्रोत का उस रूप में व्यक्त किया है कि पाठक अन्त में सावने का विवश हो जाता है कि ऐसा क्यो ?
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जैनेन्द के जोवन-दशन की भूमिका
वस्तुत जैनेन्द्र ने जीवन के सत्य को ग्रहण कर उसे जीवन के विविध क्षेत्रो मे व्यक्त किया है। जैनेन्द्र जी के अनुसार व्यक्ति का अह उसके जीवन का वह उद्गम-स्थल है, जहा से उसके समस्त विचारो, भावो ओर आचरण को दिशा-निर्देश प्राप्त होता है। (ग्रह के अस्तित्व-बोधक अर्थ में अधिक उन्होने उसको 'मै' तथा 'पर' के द्वन्द्व रूप में व्यक्त किया है ।) जनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य मे अह का विशद् विवेचन प्राप्त होता है। विचारात्मक निबन्धो से लेकर अधिकाश कहानियो और उपन्यासो मे अहविसर्जन की समस्या मुख्य रूप से मुखरित हुई है। जैनेन्द्र के जीवन और साहित्य का परम लक्ष्य आत्मोत्सर्ग है । 'मै' भाव की अतिशयता भेद-भाव सूचक हे । किन्तु जैनेन्द्र भेद मे अभेद की खोज करते है। उनकी दृष्टि में अभेद ही सत्य है। 'मै' का प्राबल्य व्यक्ति-चेतना को कुण्ठित कर देता है जैनेन्द्रजी के अनुसार अहभाव को सुरक्षित बनाए रखने से वह पुष्ट ही होता है, उसका विगलन नही होता। अत वे 'मैं' को विस्तार देकर समष्टि मे मिला देना चाहते है। व्यक्ति का स्व-बोध इतना फैल जाय कि वह स्वय अस्तित्वहीन-सा अनुभव करे। उनकी कल्पना मानो बूंद को सागर की यान्ति मे समा देना चाहती है। यद्यपि समुद्र में बू द का अस्तित्व ही मिट जाता है, किन्तु जैनेन्द्र अस्तित्व को बनाए रखते हुए व्याप्ति का भाव उत्पन्न करना चाहते है ।
जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन का प्राण-तत्व व्यक्ति के 'अह' में निहित है। सामान्यत उनके इस तात्विक दृष्टिकोण को समभाने मे लोग भ्रम मे पड़ गए है और अपने भ्रमित दृष्टिकोण के आधार पर ही जैनेन्द्र के कथा-साहित्य की भी आलोचना की है, किन्तु जैनेन्द्र की विचारधारा मूलत भिन्न है। सामान्यत आधुनिक लेखक और विचारक अह को अस्तित्व-बोध तथा मनोवैज्ञानिक स्तर पर ग्रथि के रूप मे लेकर अपने विचारो की पुष्टि करते है, किन्तु जैनेन्द्र प्रह को ग्रथि नही मानते । ग्रथि विकार और व्यक्ति के अचेतन मे दबी हुई पशुता की सूचक है । मनोवैज्ञानिक मानव-निया का प्रेरक स्त्रोत अचेतन मन को मानते है। उनके अनुसार अचेतन मे त्यवस्थित व्यक्ति की दमित वासना ही उनके कार्यो का प्रतिनिधित्व करती है। जैनेन्द्र जी के अनुसार अह मूल प्रवृतियो का पुज हे ।' मनुष्य के अचेतन मन मे पाप नहीं, वरन् भगवत्ता निहित है।
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जैनेन्द्र कुमार 'समय पोर हम (१९६२)', प्र०स०, दिल्ली, पृ० ५७१ । "मनुष्य के मर्मातिमर्म मे भगवत्त पड़ी हुई है और जो अह के एक-एक पटल को भेदकर और चुकाकर भगवत्त भाव तक पहुच पाता है। वह प्रशता से उठकर सर्वता को प्रकट करने लग जाता है।" ---जेनेन्द्र कुमार 'समय और हम', प्र० स०, दिल्ली, १६६२, पृ० ५६७ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दशन
गहन्ता श्रोन्मुग हुए बिना व्यक्ति मे पहम्मन्यता की पोषक सिद्द होती है । ऐसी स्पिति द्वन्द्वात्मक होती है। प्रत्येक के ग्रह के मध्य द्वन्द्व की सम्भावना उत्पन्न हो जाती है, किन्तु भगवत्त की ओर उन्मुख होने से पहन्ता का द्वन्द्व समाप्त हो जाता है।
जन-7 ने भाव का जीवन के विविध परिप्रेक्ष्य मे विविध यो रो व्य किया है। जानेन्द्रजी प्रकति के क्रिया-नालापो में एक महत् भावना ने ददान काने । सुग के प्रकाश, वृक्ष की छाया, धरती की शरण में मानव के समक्ष जो गाता गाभाषण का भाव निहित है, उसे मानव-प्राणी नहीं समझ पाता, फारा उगे अपना काकीपन भारी लगने लगता है।' एकाकीपन से मारण पाने के लिए ही सभे प्रह को मिटा देने की भावना जाग्रत हु। बरत जैनेन्म के अगवार पह विसजन की भावना व्यक्ति के एकाकीपन से मुक्ति प्राप्त कन तथा समनट मे 'रव' को समाहित कर देने की भावना में ही उद्भूत है। जनेन्द्र के फा-साहित्य में प्रात्मोत्सग की भावना "तने त्यापक रूप में
1 . जनेन्द्र का साहित्य उनके प्रात्म-निसजन का गान गाथा पी। ।।। पता है। रत्नप्रभा', 'गवार' प्रोर नासपती' या पलानिया पार पाने ५ गतने सान्त हो जाते है कि यदि ' ।
- गाउन प्रेरित न हा ता उनका जीवन पत्थर को मात ।। समान रोगाट जाय कि उसमे पुन जाने की सम्भावना ही न रह जाय । कि जो विगर्जन की भावना उनके पात्रो को टूटने नही देती, वे अपने जानकामय बनाकर समाज के प्राघात-प्रतिपात का गहकर प्रायलित कद्वारा गमति के प्रति अपने 'मे' भाव को गर्मापत कर शुन्गनत हो जात ।
जीन्द्र पायदा गन्दर्भो में अपनी अहता को विजित करने की मार उन्मुग होते है तो सागाजिक, सन्दभ मे जहा उनका यह 'पर' को पीडित करता है। उगमे स्व-हित नी भावना प्रमुख होती है, दूसरे वेगक्ति स्तर पर जिसमें यक्ति को अपने 'म' का एकाकी बोध कष्टदायक प्रतीत होता हे २ वह 'स्व' का 'पर' में समाहित करने के लिए विकल होता है। दूसरे २.५ मे उन्हान स्त्री-पुरुप के सम्बन्धो को लिया है। स्त्री अपने स्त्रीत्व में तथा पुकार प्रान पल म नितात एकाकी तथा अपूर्ण है। सी-पूरुप में अपने भाव को खाजती है, पुरुष स्त्री मे पाण पाता है। जनेन्द्र के साहित्य में यह
१ प्रगाकर माचवे 'जैनेन्द्र के विचार', (१९३७), बम्बई, पृ०३ ।
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जेनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
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भावना अर्ध नारीश्वर के रूप मे अभिव्यक्त हुई है। 'फासी', 'एकरस' 'रानी महामाया' (पान वाला), 'दिन, रात, सवेरा' मे सी-पुरुप का एकाकीपन उन्हे निक्षित कर देता है। वे अपने जीवन की व्यस्तता मे भी मन की प्यास बुझाने का मार्ग ढढते रहते है। उनके कार्ग-त्यापार मे स्पष्टत इस पोर सकेत नही मिलता, किन्तु उनके अन्तस् मे व्याप्त अभाव तथा शुन्गता उन्हें अनजाने ही अपने गन्तव्य की अोर उन्मुख करती है ।
दूसरी ओर सामाजिक सन्दर्भ मे उनके पात्र अपने जीवन मे बिर से अधिक कष्ट सहकर समाज की मगलाकाक्षा मे रत रहते हैं। 'त्यागप:' की मृणाल तथा 'कल्याणी' मे कल्याणी पीडा को सहकर ही स्वय को समान के प्रति समर्पित करती है। यद्यपि जैनेन्द्र ने आत्मोत्सर्ग को जीवन का समाः लक्ष्य गाना है, किन्तु उनके पात्रो के स्वाभिमान को कोई ठेस नही पहचती। अभिमान पयवा महत्ता और स्वाभिमान मे अन्तर है। जैनन्द्र के पान पीडा को सहते है, किन्तु अपने व्यक्तित्व पर पाच नही पाने देते । 'वह रानी' कहानी में यह रानी दुर्भाग्य के थपेड खाती हुई कहा से कहा पहा जाती है, किन्तु अपमानित होकर अपने प्रेमी की सहानुभूति नही ग्रहण कर गाती । 'नागपन' की मृणाल भी कम स्वाभिमानी नही है। वह जज की बुना होने के कारण सुरुष रो जीवन व्यतीत कर सकती थी, किन्तु वह समाज की दृष्टि मे काटा बनकर अपने प्रात्माभिमान को खण्ति नही करना चाहती ।
नेन्द्रजी ने जीवन मे ज्ञान और श्रद्धा अथवा बुद्धि प्रौर भावना के ... २६ सामन्जस्य स्थापित करने लिए अह विसर्जन को अनिवार्य माना है। जान अथवा बुद्धि प्रह की प्रतीक है। उसमे व्यक्ति का आग्रह निहित हता हे. किन्तु आग्रह में सत्य का बोध नही हो सकता। ईश्वर के पस्तिता न हो। के लिए तर्काश्रित बुद्धि से परे हृदयगत श्रद्धा की यावश्यकता है। जब तक व्यक्ति का 'ग' प्रबल रहता है, तब तक वह ईश्वर के ममा समर्पित नहीं हो सकता। भक्ति-भावना इसीलिए आत्म-निवेदन प्रधान हाती है। नरत्त जैनेन्द्र की प्रारितकता के मूल में भी अह विसर्जन की भावना ही समाथी
अनेन्द्र के पालो की जिज्ञासु प्रवृत्ति भी उनकी निरहकारिता की प्रा' इगित करती है। वे सदैव स्वय को अपूर्ण तथा अतृप्त पाते है। उनगे यह चुगोती नही होती कि उन्होने सत्य को जान लिया है, वरन् वे यही समझते है कि उनके समक्ष सत्य' अश रूप मे ही व्यक्त हुआ है। वस्तुत पोनेन्जी जीवन पोर साहित्य मे अपनी निरहकारिता मे निरन्तर पारितकता की ओर उन्मुख होते रहे है। जैनेन्द्र की निरहकारिता पर मत खलील जिब्रान ने
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जनन्द्र का जीवन दर्शन
भे
विचारो की झलक स्पष्टत दृष्टिगत होती हे । ' जनेन्द्र ने ग्रह विसजन के द्वारा जीवन के प्रति उपेक्षरणीय विषय पर विशेषरूप से प्रकाश डाला है। री-पुरुष के परस्पर श्रकपरण 7 भूत उनकी प्रात्म - विराजन की भावना ही विद्यमान है ।नेन्द्र वामपन्यासकार है, जिन्होने स्त्री-पुरुष के प्राकृतिक सम्बन्ध पर विशद विवेचन किया है। सामान्यत हम नर-नारी को पति-पत्नी, भाई-बहन, माता-पिता यादि सम्बन्धा के सन्दर्भ में ही पहचानते है किन्तु उनके मूल मे जो निर्गुणना नियक्तिक सत्य छिपा हुआ है, उसे नने का प्रयास नही करते । जनेन सो का उसकी निक्तिकता प्रोर गुणहीनता मे ही समझने की नेष्टा की है । सम्भवत जैनेन्द्र ने निर्गुण रूप स्वीकार करते हुए भी जिन विभिन्न सम्बन्ना को स्वीकृति प्रदान की है, वह उसके रूप को सहज ग्रात्य तथा सुगम नाने के हेतु हो किया है । जिस प्रकार निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार करिता नीरम माग है। बिना इन्द्रियगोचर हुए ईश्वर का स्वरूप समभना प्रोर उसको भक्ति प्राप्त करना दुर्लभ है । सगुण रूप के द्वारा ही भावना का सतोप प्राप्त होता है । उसी प्रकार नेन्द्र जी ने श्री ओर पुरुष " नियतिक रूप की स्पष्टता का दूर करने के लिए उन्हें विभिन्न सामाजिक एवं पारि बारिक सम्बन्धो में प्रस्तुत किया। सुनीता मे जेनेन्द्र की यह मानता स्पष्टत परिक्षित होतो हे | किन्तु उनके विचारा की मोतिकता गोर नवावी पुरुष का उनके प्रकृति रूप से स्वीकार करने में ही है । उता अनुसार फुदन्व परिवार पीठ खाते हैं, नाते-रिश्ते, नाम-गोत सत्र पोछ प्रात । जा सुनीता ह सुनीता ही है, और हरिप्रसन्न हरिप्रगन्न है । पर यह भी वही सुगना
१
'कभी यह न कहना मेने समस्त सत्य पा लिया है, बल्कि गर्न एक सत्य पाया है ।'
-सतीव मित्रान
- दि पोफेट' (हिन्दी अनु० 'जीवन-दर्शन', सत्यकाम विद्यालकार ), संशोधित संस्करण, १६५८, राजपाल एण्ड सस, दिल्ली, प०स०५८ । 'तुम शायद स्त्री के होने को इसी तरह जानते हो, जैसे प्रदाय के होने को। स्त्रीका 'स्त्री' सज्ञा देकर पुरुष को न छुटकारा के न होगा । उसे कुछ न कुछ और भी कहना होगा। माता कहो, बहिन कही, उपपत्नी
कहो, प्रेमिका को कुछ न कुछ अपनापन जतलाए बिना स्त्री' मज्ञा का
7
प्रयोग करके उस नीन्द्रव्यम छुट्टी तुमको नही मिलगी ।'
-जैनेन्द्रकुमार, 'सुनीता', दिल्ली, १६६४, १०१५ ।
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जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
चाहिए की सुनीता नाम के संग्रहीत लालित्य के भीतर वह भाव और प्रकृति स्त्री है, उमी भाति दूसरा भी अपने नाम की अमिधा प्रोढकर बस परुप है।" सृष्टि के प्रारम्भ मे भी स्त्री-पुरुष नाम और व्यक्तित्वहीन थे। वे दोनो शारीरिक तथा भावात्मक दृष्टि से स्वय में अपूर्ण है। स्त्री कोमा गरगो वा प्रतीक है, पुरुष कठोरता का प्रतीक है। स्त्रीत्व मे मातृत्व की लालसा हे, पुरुष अपने दान में उसे सन्तुष्ट करता है। जैनेन्द्र की अधिकाश कहानियो के नारी पात्रो मे मातृत्व की उत्कट अभिलाषा है। मातृत्व के पूर्व की स्थिति काम पार भोग की है। जैनेन्द्र काम को 'पाप' नही समभते । जेनेन्द्र के पूर्ववर्ती लेखक स्त्री की रोम-रोम मे समायी इस मातृत्व की प्राकादा की उपेक्षा करते रहे। उन्होने सत्यता का निपेध करते हुए उसे अश्लीलता का पोषक बताया, किन्तु जैनेन्द्र जीवन के मूल सत्य के प्रस्तुतीकरण में अनैतिकता तथा अश्लीलता के दशन नहीं करते । काम और भोग मे सृष्टि की कामना निहित है, तो वह कैमे उपेक्षणीय हो सकता है। जैनेन्द्र के पुरुप-पान अपने अह को विगलित करने के लिए स्त्री के प्रति प्रार्थी रहे है । अतएव मभोग मे व्यक्ति की महता की हार हे । सम्पूर्ण समर्पण मे भगवत्-भाव निहित होता है । जैनेन्द्र के अनुसार पूर्ण समर्पण एकमात्र ईश्वर के प्रति ही सम्भव हो सकता है। प्रत स्त्री-पुगए के मम्मिलन-भाव को भूलकर अद्वैत अथवा अवता की प्राप्ति द्वारा ही काम मे मोक्ष तथा भोग मे योग की कल्पना की जा सकती है ।
वस्तृत जेनेन्द्र फायट के मत के समर्थक नही प्रतीत होते । उन्होने स्वय स्वीकार किया है कि 'सब के मूल मे फ्रायड बाले काम को नास्तिक लोफर में कैसे मान सकूगा ?'' मूल सब कर्तृत्व मे, मे उस परम तत्व को मानता ह, जिसके लिए हमारे पास ईश्वर जैसे शब्द है। भगवत्ता तथा प्रात्म-समर्पण की भावना से सम्बन्धित होकर ही वे काम, प्रेम, भोग प्रादि प्रकृत भावो को नि सकोच रूप मे व्यक्त कर सके है । छिपाव तथा दुराव मे ही मन का पाप छिपा रहता है, जहा छिपाव अथवा बचाव के लिए कुछ भी शेप नही रह जाता, वहा पाप अथवा अनेतिकता की सम्भावना ही नही उठती वह सहज और स्वाभाविक रूप में ही अभिव्यक्त हो जाते है । नग्नता मे जो कामोद्रेग की क्षमता है, वह स्त्री की सहजता से उद्भूत न होकर उसकी प्रदर्शन
१ जैनेन्द्र कुमार सुनीता, दिल्ली १९६४, पृ० १३६ । २. जैनेन्द्र कुमार काम, प्रेम और परिवार', १९६१, दिल्ली, पृ० १२२ । ३ जैनेन्द्र कुमार काम प्रेम और परिवार', द्वितीय सरकरण, दिली,
१६६१, पृ० १२४ ।
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जैनेन्द्र का जोवन-दरान
ठानी
है ।
मे हो निहित रहती है । जैनेन्द्र के पामे नग्नता शरीर के सोन् गित करने के लिए न होकर सम्पूर्ण समर्पण के रूप मे लेक हुई हे । 'विकता का मानद उतना सकीरण नही है, साि विवादशवादी देखो से दृष्टिगोचर होता है । 'एक रात' 'सुनीता' उपन्यास में उनकी समर्पण भावना सी महत भाव से जेवेन्द्र के इतिहास पे विवाह र प्रेम की समस्या भी पर्याक विस्फोटक " मे व्यक्त हुई है | जेवेन्द्र ने विवाह को सामाजिक व्यवस्था कवि अनिवार्य म स्वीकार किया है । प्रेम-विवाह उनकी दृष्टि में गति पफ सिद्ध होता है । प्रेम मे दायित्व प्रथवा विवाह की बान्यता ही ा है। पत्नी रमाथ-साथ नदी के दो किनारो के चवना स्वाभाविक है। उनके गनुसार- 'पत्नी को काम्य शो यदि गाना स्वीर तो किसी-न-किसी तोर मार्ग से आ ही जाना है।' नेम के
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भार विवाह केवल मगार में प्रवेश का द्वार है, उसे
लापर
मानक
1
व्यक्ति के प्राकृतिक प्रवाह में गवरोध उत्पन्न हो जाता है जिसम समे उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है । यही कारण है कि तर पम को सामाजिक दृष्टि मनुचित नही रागयत । sot आदि समाज की सीमा मे नही कर सम गुप्त काव हे पीलिए उसम सामाजिक मर्यादा का प्रश्न ही नहीं उठता। सन जिजान ने गी भ्रम में पारस्परिक स्वतन्त्रता को प्रनिवाय गाना है | ग तुपित हो जाता है । पैनेन्द्र खली तहत धिक प्रभावित है उनकी जीवन, जगत
जिज्ञान के ि कम सम्बनी
पर
"
३
१ रुमने
को सानो में बाट दिया है और शरीर जहा स्थित हा
न
पति र प्रनुपस्थित है वहा पविता की भावना को बिठा दिया है । म जानता कि जो यधूरा हे वह तृष्णा हे ।'
-- जैनेन्द्र कुमार 'काम, प्रेम और परिवार', दिल्ली, १९६१ प्र० स०
पृ० ३३ ।
जनेन्द्र कुमार
१० २६ ।
जैनेन्द्र कुमार
४
1
तणा
काम,
प्रेम और परिवार', दिल्ली, १९६१, प्र० स०
'काम, प्रेम और परिवार', दिल्लो १६५१, प्र० ग
५० ११० ।
सन्त खलील जिब्रान 'जीवन-दर्शन' (दि प्रोफेट का अनुवाद) अनु सत्यकाम विद्यालकार, दिल्ली, सशोधित स०, १६५८, पृ० १६ ।
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जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
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गलीत जिनान के बहुत ही निकट प्रतीत होती है । जैनेन्ट का सम्प्रति साहित्य प्रेम की व्यथा से ही इतना हृदयग्राही बन सका है। उन्होने मानव जीवन ही नही पशु पक्षी तथा जड प्रकृति के क्रिया-क्लापो मे भी अन्तनिहित उनके प्रेम ही गभिव्यक्ति की है। पशु-पक्षी मे उन्होने मानवीय मवेदना को प्रतिष्ठित करके प्रेम का उच्चादर्श व्यक्त किया है। 'एक गौ' तथा 'दो निडिया' कहानिगो मे गात्विक तथा रोमान्टिक प्रेम की अत्यधिक मामिक गभिव्यक्ति है । ____ोनेन्द्र की प्रास्तिकता प्रेम अथवा श्रद्धा का ही पर्याय है। पद्धा ही उनके विचारो के मूल मे अवस्थित वह स्रोत है, जो उन्हे जीवन-यात्रा के अनन्त कष्टो तथा निराशा के मध्य आशा और विश्वास पी एक दिव्या दृष्टि प्रान करती है। विज्ञान के इस युग मे मानव नितान्त श्रद्धाहीन हो गया है। उकी प्रात्म-शक्ति समाप्त प्राय हो गई है। किकर्तव्यविमूढ हुमा-सा परग मत्य को जानने की चेप्टा न करके निरर्थक कार्यो मे अपनी उर्जा नष्ट करता है। मनेन्द्र के अनुसार विज्ञान समय की आवश्यकता है, किन्तु प्रारथा जीवन का पार है। ईश्वर की परम सत्ता में विश्वास करता हुमा व्यक्ति नाजीवन कष्ट गोगा भी निराश नहीं होता । पीडा मे भी उमे ईश्वरीय बरदान की गनुभूति होती है। ___ो के अनुसार जीवन-सघर्ष है । ससार युद्ध-स्थल है । मनुष्य प्रतिवाण सो गाय पोर परिस्थिति के थपेडो को झेलता हुना भी अपनी जीवन-या को पूर्ण करने का प्रयास करता है । उनकी अधिकाश कहानियो भार उपन्यागो मे जीवन को शहादत प्रोर यज्ञ के रूप मे स्वीकार किया गया है । 'कल्याणी', 'जय गंग' आदि उपन्यासो मे जीवन के यज्ञ मे स्वय को हुताशन वना देना ही उना लक्ष्य है। जैनेन्द्र के समक्ष गाधी ओर ईसा की कुर्बानी ही वह प्रादर्ग रही , जिसके कारण उनके पात्र सदैव अपने जीवन का उत्सग करने को तत्पर रहते है। जैनेन्द्र के साहित्य मे ईसा के जीवन की पीडा को मानव जीवन के महानतम आदश के रूप मे अभिव्यक्त किया गया है । पीडा ही व्यक्ति की पू जी है, जिसे अपने अन्तस् मे सजोए हुए वह जीवन-शक्ति का
१ 'प्रेम न किसी पर अधिकार जमाता है और न स्वय ही किसी से अधि
वृत है। २ जीवन एक शहादत है। शास्त्र कहते है यज्ञ है।'
-जैनेन्द्र कुमार 'कल्याणी', दिल्ली, १६५६, पृ० ११० । ३ 'जीवन ही जलना है।' वह है, यज्ञ मे उससे बचना क्यो चाहे ।
--जैनेन्द्र कुमार
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जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन
रस ग्रहण करता है, क्योकि पीडा मे ही प्रेम ओर 'पर' के पति महानुभूति का भाव समाहित होता है । पात्याणी', 'अनन्तर', 'जयवर्धन' आदि गभी उपन्यासो मे ईसा का यादश प्रस्तुत किया गया है । वस्तुत यदि जोवन है तो यह गघर्ष हीन हो नही माता । जेनेन्द्र के अनुसार जीवन एक कठोर सत्य है। वह इतना सरल पोर गुखमय नही है, जितना बा त्याकपण क कारण पतीत होता है।' त्यक्ति जीवन में संघर्ष करने की इच्छा लेकर मघप-रत नही रहता। सघष की शक्ति प्रेम मे से ही उत्पत्र होती है। यही कारण है कि जैनेन्द्र जीवन मे सहने को ही वम मानते है। भघर्ष करना जीवन का मार नही, वरन् जोयन की अनिवार्य प्रक्रिया है । जैनेन्द्र के अनुमार जीवन का सार-तत्व प्रेम है। प्रेम के वशीभूत होकर व्यक्ति मे अपने को 'पर' से गद्भूत शक्ति उद्भुत होती है। जैनेन्द्र के उपन्यास प्रोर कहानियो मे जीवनगत सघप का जो रूप दृष्टिगत होता है, वह अन्तस् की व्यथा के कारण ही मतत् गतिशीत रहता है। 'कल्याणी' और 'मणात' ऐसी नारिया है, जो प्रेम के तू जीवन मे जूझती रहती है, किन्तु परिस्थिति में पराजित होकर वे पी नही हटती । जीवनयाना पूरा करती है। उन्हे अनेो काट गहने पा, किन्ला वह पराजित नही होती।
अनेन्द्र के अनूगार जीवन की साथकता उससे निपटे रहन गही नही है। शहीद ही जिन्दगी के स्वाद को समझ सकता है, जो गहुए प्राणो की प्राहुति दे देता है। जीवन के लिप्त रहने में मौत का भय न्यक्ति की प्रगति को अवगत कर देता है, क्योकि उसके मन में मदैव यही काटा चुभता रहता है कि कही मौत उसके जीवन के सुख को पल भर में समाप्त कर दे। जैनेन्द्र की कहानियो और उपन्यासो मे एसी अनेका घटना भाटगत होती हे, जब उनका पात्र स्वेच्छा से मृत्यु का आलिगन करके अपने जीवन को गफा बनाते है । 'फासी' मे शमशेर अपनी मात द्वारा जीवन को अर्थवत्ता प्रदान करता है । वह मौत को बडी चीज नही मानता, किन्तु जीवन के लिए कभीकभी मृत्यु का ग्रालिगन श्रेयष्कर होता है। जैनेन्द्र मोत मे जीवन की यात्रा को समाप्त हुया नही पाते, क्योकि जीवन तो अनन्त यात्रा हे ।
जैनेन्द्र का जीवन-यादर्श नितान्त व्यावहारिक प्रतीत होता है। समार
१. 'जीवन निरी मुलायम चीज नही है । वह युद्ध है। जब तक व्यक्ति है तब तक युद्ध है । वहा कोई समझोता नही है और कोई अन्त नही है।'
- प्रभाकर माचवे 'जैनेन्द्र के विचार', पृ० ६६ । २ जैनेन्द्र कुमार 'विवर्त', प्र० स० दिल्ली, १६५३, पृ० १२६ ।
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जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
मे ऐसे व्यक्ति दुर्लभ ही होगे जिनके मार्ग मे कठिनाझ्या आहा नही । राजमार्ग पर चलकर अपनी जीवन-यात्रा सपन्न करने वाले विरको ही होते है । जैनेन्द्र के अनुसार "जिनके मार्ग में कठिनाइया आती ही नही है, सब सुगमता ही सुगमता रहती है, वे जीवन मे बहुत दूर तक और ऊचे तक नही जा पाते ।
"देखा जाता है कि कठिनाई और अवरोधो ने ही अमुक जीवन के मार्ग को दिशा प्रौर स्वरूप दिया है।"
कठिनाइयो को झेलते हुए भी जीवन-सरिता सतत् प्रवाहित होती रहती है। जैनेन्द्र जीवन की परिवर्तनशीलता मे ही विश्वास करते हे, पराजित होकर जडबद्ध हो जाना तथा प्रगति को अवरुद्ध कर देना वे उचित नही समझते । जैनेन्द्र के अनुसार परिवर्तन जीवन का नियम है। जीवन प्रेम है
और प्रेम का भी नियम परिवर्तन है।' 'प्रेम जीवन का मूलाधार है, अतएव जीवन मे परिवर्तन आवश्यक है। प्रकृति परिवर्तनशील है, समाज की मान्यता परिवतनीय हे तो व्यक्ति का जीव न जड नही हो सकता । 'कत्याणी' मे एक स्थल पर जैनेन्द्र ने जीवन की गतिशीलता पर प्रकाश डालते हुए कहा हे . "रुनाना नाम जिन्दगी का नही है, जिन्दगी नाम चलने का है। जीवन में सुख-दुःख, उतार-चढाव आते रहते है, किन्तु जीवन की यात्रा चलती रहती है। खिन्न होकर रुक जाना जीवन का प्रादर्श नही है। जैनेन्द्र ने 'कल्याणी' मे कल्याणी के द्वारा रचित एक गद्य-गीत मे जिस बटोही की कल्पना की वह अपनी आन्तय॑था को सजोए अज्ञात पथ की ओर चलता जाता है। उसकी वेदना के मूल मे प्रेम का स्वर ध्वनित होता प्रतीत होता है। वह एकमात्र उसी स्वर के आकर्षण पर भटकता हुआ चलता जाता है । वस्तुत जैनेन्द्र के जीवन का पादश अन्तस् मे प्रेम की लौ को जलाकर जीवन की अनन्त यात्रा पूर्ण करना है। विरह-व्यथा से शक्ति उद्भूत होती है। जैनेन्द्र ने 'त्यागपत्र' मे जीवन मे बूद-बूद रिसने वाली वेदना का जो रूप प्रस्तुत किया है, वह जीवन के सबध मे उनके दृष्टिकोण को व्यक्त करने मे पूर्णत सहायक प्रतीत होती है। जैनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य का आधार है-व्यथा ।
१ प्रभाकर माचवे 'जैनेन्द्र के विचार', १०८२ । २ जैनेन्द्र कुमार 'विवर्त', दिल्ली, प्र० स०, १६५३, पृ० ७० । ३ जैनेन्द्र कुमार 'कल्याणी', पृ० ५। __ "मानव चलता जाता है और बूद-बूद दर्द उसके भीतर इकट्ठा होकर
भरता जाता है वही सार है, वहीं जमा हुआ दर्द मानव की मानस-मणि है। उसके प्रकाश मे मानव व्यक्ति-पथ उज्जवल होगा।"
--जैनेन्द्रकुमार 'त्याग-पत्र', बम्बई, पृ० ४५ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
के रस से प्राद्र होकर ही उनके पान ग्रपनी जीवन-शाना सम्पन्न
कव है।
वेन्द्र प्रग और वेदना को जीवन का प्राधार माना है । प्रेम मे वि सरसव नही हो सकता । विशेषण विज्ञान का नियम है, किन्तु वेन्द्रमनुसार जीवन को गति सश्वेषणात्मक है । वह प्रेम के सुन से समस्त विदा को देती है । द्वेत भाव मिट जाता है । विज्ञान में हेत ही प्रधान नही होगा वरन् जीवन विभिन्न शाखाश्रो प्रतिशाखाप्रा में विभाजित हो जाता हे, केनुसार जीवन को वास्तविकता उसकी समग्रता से स्वीकाय I राती है। जरा पूरण का प्रतीक नही बन सकता । '
"
नेवा राजनीति, समाजगास्त्र, मनोविज्ञान र दर्शनशास्त्र मानव जीवन की विविध परिस्थितियों का व्यापक "ययन लिया पादि विषय स्वयं निरपेक्ष रूप से जाने जाते हन्तु जवेन श्रपने साहित्य में उन्हें व्यक्ति की सापेक्षता मे विवेचित किया है। व्यक्ति का जीवन यास्न, समाजशास्त्र, जीव-विज्ञान या मटर है | सभी शार एकदूसरे से सरन्ति के किा विषय गानव जीवन, मानव परिस्थिति बना गानव जीवन स ही है। साहित्य मानव जीवन की सदनात्मक पनि पक्ति है । पत साहित्य मे जीव विज्ञान, ग्रर्थ, धर्म, समाज, राज ऐति विवचन श्रावण हे |
विचिन्ना या मासिक
"
जैनेन्द्र का साहित्य जीवन की व्यापकता को स्वरा में समाहित करके युगata तथा युग की विविध समस्याओ को विवेचित करने में वह विक सहायक रहा है । जनेन्द्र के उपन्यास और कहानियों में जो व्यक्ति नेतना विष्टि में मुखरित हुई है, उसका प्रेरक तत्व उनका युगन्ना ही है । यह सत्य है कि उपन्यास ओर कहानियों में उन्होंने अपने सास-पास की बटनाया की होना का स्पर्श देकर वरित किया है, किन्तु उनके विनारात्म । निबन्धो
मे उनकी दृष्टि की व्यापकता युग बोल के प्रति जागरुकता का परिचय मिलता है । उनका युग-बोध पुस्तकीय ज्ञान तथा सकिय कार्यों का परिणाम न कर स्वानुभव पर आधारित है । यह सत्य हे कि जैनेन्द्र की राजनीतिक चेतना, सामाजिक जागरूकता उनके जीवन को सचेष्ट नही बना सकी उन्हान परिस्थितिगत प्रनुभव को साहित्य के धरातल पर अपने विचारा का कोवर पहना कर प्रस्तुत किया है ।
१ जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', दिल्ली, १९६२, प्र०स०, पृ०१५७-५८ ।
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जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
जीव विज्ञान
मानव जीवन का प्रारम्भिक ज्ञान हमे जीव-विज्ञान के द्वारा ही प्राप्त होता हे । जीव की उत्पत्ति के अनन्तर ही समाज, धर्म, अर्थ आदि की समस्या उद्भूत होती है । प्रतएव जीव-विज्ञान वह प्रारम्भिक अध्याय है जो हमे जीव और विशेषत मानव प्राणी के विकास का बोध कराता है ।
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डार्विन पशु योनि से जीव-विज्ञान का आरम्भ मानते है । वे विकास का प्रारम्भ पशुता से करते है, किन्तु जैनेन्द्र जीव वैज्ञानिक नही है, वरन् दार्शनिक है अतएव वे विकास मे भी सत्य की खोज करते हे । जैनेन्द्र के अनुसार विकास की उपरोक्त स्थिति स्थूलत सामाजिक और सत्य है, किन्तु पशुता से और गहरे जाय तो अन्तिम प्राधार मे दिव्यता प्राप्त होगी । विकास का सिद्धान्त उतने आगे नही जायगा । परिणामत मनुष्य को मूलत पशु मान लिया जाता है । जबकि जैनेन्द्र की मान्यता के अनुसार प्रत्येक प्राणी और मनुष्य तो और भी विशेषत दिव्य के आकर्षण से मुक्त नही हो सकता । जैनेन्द्र के अनुसार हिसा की जड मे भी सवेदना है, वस्तुत मूल मे दिव्यता ही है ।
जैनेन्द्र ने विकासवाद मे, पशुत्व के मूल मे, देवत्व को हिसा मे ग्रहिसा की स्थिति के प्राधार पर स्पष्ट करने का प्रयास किया है । उनके प्रनुसार ग्रहिसा के प्राधार के बिना हिसा भी नही हो सकती । हिसा वह प्रक्रिया है, जिसमे स्वकीय के लिए 'पर' पर प्रहार होता है। यदि स्व के पास स्वकीय न हो तो प्रहार की प्रेरणा समाप्त हो जाय । वस्तुत स्वकीयता का निर्माण ग्रहिसा के प्राधार पर होता है प्रर्थात् पर प्रहार की हिसा मे भी स्वकीयता प्रर्थात् ग्रहिसा की प्राधार स्थिति निवार्य है ।' वस्तुत पशुत्व के मूल मे देवत्व विराजमान है । जैनेन्द्र ने 'जयवर्धन' मे अपने इन्ही विचारो की पुष्टि की है । जय प्राध्यात्मिक व्यक्ति है । वह यह स्वीकार करने में असमर्थ है कि फल बीज से भिन्न हो सकता है । उसका विश्वास है कि -- कभी मानव देवता होता तो इस विश्वास के प्राधार पर कि देवत्व से उसका उद्गम है" उसका दृढ विश्वास है कि 'पशु प्रादि नही है, विकास मे बहुत बाद की कडी है । गुण का, सत् और चित का ग्राविर्भाव वहा से नही है । प्रर टूट गया है और प्रतीति प्राप्त है कि गुण उसके भी गहरे गर्भ मे है ।" 'उनकी दृष्टि मे मनुष्य के उत्स को पशुत्व मे खोजना उचित नही है । जय के अनुसार मनुष्य देव है और स्व
१ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार । ( १६-५-७१ ) |
२ जैनेन्द्र कुमार 'जयवर्धन' पृ० १५१ ।
३ जैनेन्द्र कुमार ' जयवर्धन' पु० १५१ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दशन
की बाबा तोड निखित के साथ प्रखण्ड हो सके तो सच्चिदानन्द रूप है ।
वस्तुत जैनेन्द्र ने जीव विज्ञान के द्वारा भी मानव जीवन की दिगता का ही प्रकट करने का प्रयास किया है। प्रथ जीवन का निनाय प्रग है। ससार नितान्त अपरिग्रही प्रवति के अनुसरण से नल नही माता, कि किसी भी वस्तु का आवश्यकता से अधिक परिग्रह स्वय में दोप है । जैनेन्द्र के अनुसार धन की आवश्यकता व्यक्ति, समाज पौर राष्ट्र सभी के लिए स्वाभाविक है। यद्यपि सब के मूल मे व्यक्ति ही प्रधान है किन्तु समाज और व्यक्ति की समस्या के रूप में कुछ अतर अवश्य रहता है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे धन का एकत्रीकरण समाज के लिए अभिशाप है। जिस प्रकार रक्त का प्रवाह पूरे शरीर मे समान रूप से यावश्यक है, यदि रक्त किसी अग-विशेष में ही रुक जाय और अन्य अग रक्त-हीन रह जाय तो उससे शरीर मे भयकर स्थिति उत्पन्न हो जाती है और व्यक्ति अपने जीवन की भी आशा छोड बैठता है। उसी प्रकार धन रूपी रक्त का समाज रूपी शरीर के किसी भी प्रग मे रुक जाना सामाजिक दृष्टि से बहुत ही हानिप्रद है। धन की माथकता उसके अविरल प्रवाह में है, अवरुद्ध होकर जडित होने में नही है। समाज में होगी स्थिति तभी उत्पन्न होती है, जब व्यक्ति का अथवा गरमा-विशेर का स्वार्थ उसमे केन्द्रीभूत हो जाता है। जैनेन्द्र के अनुसार मय की बात उसकी वस्तुता को बढाने के लिए न होकर जीवन सवर्धन के हेतु होनी नाहिए।
प्रर्थ-विभाजन की दृष्टि से जैनेन्द्र साम्यवादियों के मदृश्य ही शापक और शोषित के म-य की खाई को दूर करने के पक्ष मे है । उनके अनुसार श्रमिक वर्ग परिश्रम करने के बाद भी सदैव असन्तुष्ट और अतृप्त रहता है, किन्तु शोपक वर्ग आवश्यकता से अधिक वस्तु अपने गोदाम में भरता जाता है। अाज बन को लेकर विभिन्न मतवाद उठ खडे हुए है। साम्यवाद, समाजवाद, पूजीवाद मार्थिक समस्या को लेकर ही विकसित हुए है। जैनेन्द्र अपने साहित्य मे किसी वाद का भी समर्थन करते समय व्यक्ति को केन्द्र में लेते है। व्यक्ति की उपेक्षा करने वाला कोई भी वाद उन्हें स्वीकार नही है। उपन्यासकार यशपाल एक प्रकार से साम्यवाद के प्रचारक ही प्रतीत होते है किन्तु जैनेन्द्र किसी भी मत का दृढता मे समथन नही करते । उनके अनुसार समाजवाद मे यद्यपि पूजीवाद के सदृश्य व्यक्ति का शोषण नही होता, किन्तु समाजवाद का विकसित रूप ही कालान्तर मे व्यक्ति की उपेक्षा करके समाज को ही विशेष महत्व प्रदान करता है। साम्यवादी नीति को भी वे सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए उपयोगी समझते है, किन्तु उन्होने साम्यवाद के जिस स्वरूप को स्वीकार किया है, वह मार्क्सवादी न होकर आध्यात्मिकता
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जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
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से परिपुष्ट है। मार्म ने भौतिक जगत में अधिक से अधिक उत्पादन द्वारा साम्ग स्थापना का हिसक प्रयास किया था। किन्तु जैनेन्द्र की नीति गाधी की गहिरा नीति का ही प्रतिफल है। जैनेन्द्र के अनुसार साम्यवाद मे समस्त सम्पदा सार में केन्द्रित हो जाती है, अतएव उसमे व्यक्ति स्वातन्त्र्य का गवकाश नही रहता। जैनेन्द्र का प्रादर्श भौतिक साम्य न होकर प्रात्मपरक हे । उनले प्रनमार प्रत्येक को अपनी योग्यता के अनुसार अर्थ की प्राप्ति होनी चाहिए । गमाज की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए श्रेणी विभाजन आवश्यक है। गरीब पार अमीर का भेद समाज से मिटाया नही जा सकता। जैनेन्द्र के अनुसार आर्थिक दृष्टि से उत्पन्न भेद-भाव को मिटाने के स्थान पर व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य सहानुभूति और सहृदयता का सम्बन्ध अनिर्वाय है । गरीब प्रगीगे के द्वारा अपनी गरीबी के कारण अपमानित तथा शोषित नही होना चाहिए । जैनेन्द का मूलादर्श जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे प्रेम और दया का विस्तार करता है।
जनेन्द्र के उपन्यारा सोर कहानियो मे स्वार्थ-रत पूजीपतियो के प्रति जो गामाश । न किया गया है, वह उनकी मानव-नीति का ही पोषक है। 'विवत' में गिन्द्र ने समीरो की शान-शोकत तथा विलास का बहुत ही व्यग्यात्म ( रा किया है। जैनेन्द्र के अनुसार अर्थ की सार्थकता उसके परमानी होन म है। 'कल्याणी' तथा 'प्रनन्तर' में उनके विचारो की पुष्टि वाटगत होनी है। अर्थ-नीति राजनीति के घेरे मे प्राबद्ध होकर मानवनीति तथा प२ गार्थ मनक प्रादर्शों से परे हो जाती है। जैनेन्द्र अर्थ-नीति को गर्म नीति के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करते है। उनकी परमार्थिक दृष्टि के मूल मे धर्मास्था ही केन्द्रीभूत है।
वात जनन्द्र ने अर्थ शास्त्र के द्वारा मानव जीवन की विपम परि
१ 'पत्थरो से (हीरा, पत्थरो से तात्पर्य हीरा-पन्ना आदि से) बच्चे खेलते है,
लेकिन अमीर भी खेलते है।' --जैनेन्द्र कुमार 'विवर्त', १६५३, दिल्ली, प०म०, पृ०६४ । 'अर्थगार की बुनियाद गे यह मान्यता है कि इन्सान स्वार्थी है । परमार्थ की जैसी कोई कल्पना ही उस शारत्र के पास नही है। ..मेरा अनुमान
कि मनुष्य की गहराई में पडे धर्म नैतिक भाव की बुनियाद पर नयी अर्थ-रचना का प्रारम्भ हो सकता है और गाधी का प्रयत्न उसी का मूत्रपात था। ---जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', दिल्ली १९६२, प्र०स०, पृ०१८६ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
स्थितियो को देखने और उन्हे साहित्य के द्वारा अभिव्यक्त करने का प्रयास किया है । एक ओर उन्होने अर्थ सम्बन्धी संद्रान्ति विवेचन अपने विचारात्मक निबन्धो द्वारा प्रस्तुत किया है । 'समय और हम' परिपेक्ष, प्रश्न और प्रश्न' आदि वैचारिक निबन्ध तथा प्रश्नोत्तरो मे श्रम, उत्पादन, वितरण तथा विभिन्न वादो की प्रार्थिक नीति का विवेचन किया है, दूसरी ओर उपन्यास गोर कहानियो द्वारा अर्थ के कारण जीवन मे उत्पन्न होने वाली समस्या का प्रत्यन्त व्यावहारिक तथा सवेदनात्मक वरणन किया है । उस दृष्टि से 'अपना प्रपना भाग्य', 'साधु का भेद, चोरी, पत्नी, आदि कहानिया प्रस्तुत की है ।
वस्तुत लेखक ने अथ को दृष्टि मे रख कर व्यक्ति के जीवन को परखने और उसमे स्वय को आत्मसात करने का प्रयास किया है, किन्तु यह आवश्यक है कि व्यक्ति उसके प्रति निस्पृह रहे । वह प्रपरिग्रही बनकर परहित के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दे ।
जैनेन्द्र ने प्रर्यशास्त्र के समान राजनीति को भी मानव-नीति से सम्बद्ध रूप मे ही स्वीकार किया है । राजनीति व्यक्ति द्वारा निर्मित होती है, अत वह व्यक्ति पर अपना प्रभुत्व नही स्थापित कर सकती । मानव जीवन की व्यवस्था में वह एक हेतु बनकर ही स्थिर रह सकती है। जैनन्द्र के अनुसार स्वाथ की भावना ही व्यक्ति को व्यक्ति में तथा सस्था विशेष म दूर रखती है । 'स्व' के विराजन मे द्वन्द्व का प्रश्न ही नही उठता । जैनन्द्र साहित्य के विचारात्मक पक्ष में राजनीति के विभिन्न आदर्शों की स्थापना और आलोचना की गई है । उपन्यास और कहानियों में उन्होने मानव जीवन से तद्गत करके राजनीतिक नियम, कानून और व्यवस्था की विवेचना की हे । 'जयवर्धन' मे जैनेन्द्र के राजनीतिक विचारो की स्पष्ट अभिव्यक्ति हुई है । उनके अनुसार राजनीति की साथकता इसी में है कि वह धीरे-धीर मानव- नीति की और अग्रसर हो और शासन तथा दण्ड का बाह्य आरोपण स्वय में निरर्थक प्रतीत होने लगे । राज्य सभा प्रथवा कानून को एकाएक समाप्त नही किया जा सकता किन्तु प्रयास इस बात का होना चाहिए कि व्यक्ति स्वशासित हो । शासन के स्थान पर अनुशासन को प्रश्रय मिले ।'
'जयवर्धन' में जैनेन्द्र के विचार भारतीय संस्कृति और प्रादर्शो का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते प्रतीत होते है । उनके विचारो के मूल मे गाधी की अहिसक नीति भी स्पष्टत दृष्टिगत होती है । जैनेन्द्र के अनुसार राज्य, राष्ट्र
१ जैनेन्द्र कुमार ' जयवर्धन', दिल्ली, १६५६, पृ० ७० ।
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आदि व्यक्ति के द्वारा कल्पित सीमाए है, किन्तु मूलत अखिल सृष्टि कागज के नवशे की रेखाओ मे विभाजित नही है । 'राष्ट्रवादी' नीति मे अपने पडोसी राष्ट्र के प्रति मानवता, पशुता का प्रतीक बन जाती है । सीमा रेखा के कारण पड़ोसी राष्ट्रो के मध्य अवस्थित व्यक्तियों की पारस्परिक सहानुभूति और मानवीय संवेदना समाप्त हो जाती है । राष्ट्रीय विभाजन के कारण प्राय ऐसा होता है कि सीमा रेखा एक घर के कुछ कमरो को एक राष्ट्र विभाजित कर देती है यार कुछ को दूसरे मे । इस प्रकार एक साथ प्रेमपूर्वक रहने वाला परिवार विभाजन के बाद पारस्परिक सहानुभूति और सहृदयता खो बैठता है । वस्तुत जैनेन्द्र नक्शे की रेखाओ से परे सम्पूर्ण मानवता को एक सूत्र मे बाधने के पक्ष मे हे । राष्ट्र और राज्य बाह्य व्यवस्था के सूचक ही हो सकते हैं, किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय भावना ही प्रधान होनी चाहिए ।
जैनेन्द्र की राजनीतिक विचारधारा गाधीजी के आदर्शो से परिवेष्टित है । गाधीजी के अनुसार राजनीति, सौ फीसदी राज करने, बनाने या रखने की नीति होकर नही बैठ सकती । राजनीति निरपेक्ष रूप नही धारण कर सकती। मानव जीवन यदि भीतर ही भीतर रूग्ण होता जा रहा है, स्वार्थमपीवान नेताओं के द्वारा यदि सामान्य जीवन की उपेक्षा की जाती है, तो राजनीति शक्ति न रहकर शक्ति के उदय में बाधक सिद्ध होती है । ' राज्य की शक्ति व्यवस्थामूलक होनी चाहिए । आत्मानुशासन ही वह यन्त्र है, जिससे समस्त मानवता शामित हो । ऐसी स्थिति मे राजा प्रजा, नेता - जनता के मध्य की साई स्वत ही मिट जायेगी । जैनेन्द्र ऐसी ही राजसत्ता के पक्ष मे है, जिसमे शीर्ष पर कोई न हो, फिर भी व्यवस्था बनी रहे । यही कारण है कि 'जयवर्धन' में जय को सिहासन के प्रति कोई आसक्ति नही है ।
जैनेन्द्र के साहित्य का केन्द्र बिन्दु व्यक्ति और व्यक्ति का जीवन है । राजनीति मे व्यक्ति की उपेक्षा करके राष्ट्र को प्रगतिशील बनाने वाली
१ 'राज्य की सीमा है, वह लकीर धरती पर तो नही हे, सिर्फ नक्शे पर है, इसलिए राज्य कृतिम है ।' -- जैनेन्द्र कुमार 'जयवर्धन', दिल्ली, १९५६ प्र० स० पृ० ४११ ।
२.
१६६२, प्र० स० पृ० ७५ ।
जैनेन्द्र कुमार 'अकाल पुरुष गाधी', दिल्ली, ३. "भारतीय ग्रात्मा का कभी सिहासन पर चढ़
बैठने की आकाक्षा नही
हुई है। उधर उसकी सष्ट ही नही गई । रुचि ही नही रही । यहा उसने माया को देखा । उसकी शोध सत्य की थी, इसलिए वह शक्ति से और उसके प्रतीको से बाहर रही ।" प्र० स०, 'जयवर्धन'
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
१
साम्यवादी दृष्टि स्कीकाय नही हे । उन्होने व्यक्ति की सापेक्षता मे ही जीवन के विविध प्रगो की सार्थकता स्वीकार की है । व्यक्ति की अन्तर्निष्ठ प्रवृत्तियो के सत्य का उद्घाटन करने के लिए उन्होने मनोविज्ञान का सहारा लिया है । वस्तुवादी लेखक वाद्य परिस्थितियो के सन्दर्भ मे ही अपने पानी के चरित्र और व्यक्तित्व का निर्माण करते है, किन्तु जैनेन्द्र आत्मपरक साहित्यकार है । उन्होने व्यक्ति के मनोविज्ञान के सहारे उसके कार्य-व्यापारो के स्रोत का पता लगाया है । राजनीति, अर्थशास्त्र उनके द्वारा बहुत स्थूत रूप मे अभिव्यक्ति प्राप्त करते हे । व्यक्ति जीवन की समग्रता, अर्थ राज, नम प्रादि की सापेक्षता मे ही सम्भव है, किन्तु व्यक्ति क्या है, उसकी प्रवृत्तिया उसके व्यक्तित्व के निर्माण तत्व तथा अन्तर्द्वन्द्व आदि बातो को जाने बिना किसी भी साहित्यकार की समस्त अभिव्यक्ति महत्वहीन ही रह जाती है । क्योकि साहित्य समाज का ही दर्पण नही है, वह व्यक्ति के अन्तद्वन्द्व की अभिव्यक्ति का साधन नही है । सागर की विराटता अथवा उसकी उठती- गिरती तरगे ही उनकी महानता की सूचक नहीं है । उसकी महानता का रहस्य उसके अन्त रात मे अवस्थित है, जो कि गन्धन के परिणामस्वरूप ही ज्ञात किया जा सकता है । उसी प्रकार व्यक्ति जोवन का सत्य घटनाओ मे न होकर मन के अन्तद्वन्द्व और ग्रात्मलोभ में विद्यमान रहता है । मनोविज्ञान के द्वारा जैनेन्द्र ने व्यक्ति को उसकी प्रवणता मे जानने का प्रयास किया है । अन्तर और वाह्य दोनो का अन्योन्यासित सम्बन्ध हे । बाह्य जीवन ग्रन्तद्वन्द्व के सहारे ही परिचालित होता है । सामान्यत सुधारवादी लेखको ने वाह्य परिस्थिति को ही व्यक्ति के नरिन का निर्माण तत्व माना है, किन्तु जैनेन्द्र की कथा मे व्यक्ति के चारित्रिक विकास की परिणति न होकर द्वन्द्वाभिव्यक्ति ही है । उनके पात्र प्रेमचन्द आदि उपन्यासकारो के सदृश्य उत्तरोत्तर अपने चरित्र का विकास करते हुए नही प्रतीत होते । यद्यपि जैनेन्द्र के पानी का जीवन अनन्त सम्भावनाम्रो ग पूरा है, उनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध मे कोई पूर्व निर्णय नही प्रस्तुत किया जा सकता, किन्तु उनकी विशेषता अन्तर्द्वन्द्व द्वारा 'स्व' की अभिव्यक्ति करने मे है । यही कारण है कि जैनेन्द्र के उपन्यास चरित्र प्रधान न होकर व्यक्ति प्रधान है । जैनेन्द्र ने व्यक्ति को उसके भूत और वर्तमान की सम्पूति मे देखा है । जीवन की वर्तमानता के मूल मे उसका व्यतीत जीवन समाहित रहता है । व्यक्ति
३
१ जैनेन्द्र कुमार 'कहानी प्रनुभव और शिल्प', दिल्ली, १९६७, प्र० श०, पृ० १३० ।
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जानन्द्र के जीवन दर्शन की भूमिका जो कुछ भी दिखता है वही नही है, वरन् उसके पीछे उसका एक इतिहास है, जो उसके व्यक्तित्व पोर आचरण का आधार है। जैनेन्द्र ने अपनी मनोवैज्ञानिक सुभा-बूझ द्वारा अखण्ट जीवन का अवलोकन किया है। 'फकिया बुढिया' व 'गवार' मे उनके इन्ही विचारो की झलक दृष्टिगत होती है ।
किया बुढिया' आजीवन बुढिया और रुकिया ही नही थी। वह भी कभी युवती थी। रनिया ही नही रुक्मणि थी। किन्तु बुढापे मे उसकी अति विनम्रता, गहनशी ता और त्यागमयी प्रवृत्ति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि अवश्य ही वह ही मे टूटी हुई है। उसके भावात्मका जीवन को कही कोई ठेस लगी है, जिसके कारण वह इतनी अधिक विनत रहती है। ऐसी स्थिति मे लेखक ने बड़ी सूझ-बुझ के द्वारा रुकिया के बीते दिन की पर्त पर पर्त खोली है । लेखक की महत्ता बीते दिनो की घटना के वर्णन मे नही है, वरन् उसे किया बुढिया के यौवन को उभार कर अत्यधिक सवेदनात्मक रूप मे प्रस्तुत करने में है । 'गवार' मे भी गवार व्यक्ति की अतिशय भक्ति भावना के मूल में उसके मन की कठा ही वह प्रेरक तत्व है जो समस्त विचार और फर्म को प्रभावित रहती है। उसकी बातो मे ऐसा प्राभाग होता है कि वह अन्त माधु पनि का भक्त पुरुप है, किन्तु जैनेन्द्र ने उसके आचरण को कार्य र गा की असा मे रखकर समझने और मूल मे अविस्थत मत्य को उद्घाटित करने का प्रयास किया है। वस्तुत लेखक का उद्देश्य व्यक्ति के छन्न को काटकर गाय का उद्घाटन करना है । 'सुखदा', 'विवर्त', 'अनन्तर' आदि मे जैनेन्द्र के पमुख पायो का आचरण वहुत ही असहज रूप से अभिव्यक्त होता है। उपन्यासो मे जैनेन्द्र ने कर्म के कारणो की स्पष्ट विवेचना नही की है, किन्तु यह गत्य है कि उनके पुरुष पात्र यथा जितने, हरिप्रसन्न मनोग्रन्थि से पीलित और इसीलिए वे क्रान्तिकारी का रूप धारण करते है । ___ जैनेन्द्र ने सत्य के उद्घाटन के लिए मनोविश्लेषण की शास्त्रीय पद्धति का महारा नही लिया है, वरन् अपने व्यावहारिक ज्ञान के आधार पर पात्रो के जीवन की असहजता तथा उनके अप्राकृतिक प्राचरण के मूल उत्स को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उन्होने स्त्री-पुरुष के प्राकृतिक सम्बन्धो को मनोवैज्ञानिक धरातल पर प्रस्तुत किया है। फ्रायड के अनुसार 'काम' शारीरिक भुल है जो सदैव तृप्त होने के लिए सचेण्ट रहती है। जैनेन्द्र ने स्त्री-पुरुष के मम्मिलन में काम-तृप्ति की आकाक्षा को अनिवार्य रूप से स्वीकार किया है । काम की क्षधा को उन्होने आध्यात्मिकता का पुट देकर
१ फाय', 'मनोविश्लेषण' (१५-७-१९६०), द्वि० स०, दित्ली, पृ० २७७ ।
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जैनेन्द्र का जावन-दर्शन
मौलिकता का परिचय दिया है । अतएव उनके अनुसार काम तृप्ति द्वारा दमित वासना की ही तुष्टि नही होती, वरन् स्त्री-पुरुष के पारस्परिक मिलन में भगवत्ता का बोध होता है तथा ग्रह विसजन की भावना को पोषण मिलता है, जिससे व्यक्तित्व का समुचित विकास सम्भव होता है ।
जेनेन्द्र ने खेल, पाजेब, आत्मशिक्षरण, फोटोग्राफ आदि कहानियो मे बाल मनोविज्ञान का प्रत्यविक स्वाभाविक वर्णन किया है । बाग-मनाविज्ञान की दृष्टि से 'खेल' उनकी बहुत ही सफल कहानी मानी जातो हे । बच्चो की परिमेय कल्पना-शक्ति का उन्होने बहुत आकर्षक चित्र प्रस्तुत किया है ।
जैनेन्द्र के साहित्य मे नम, अथ, राजनीति प्रोर समाज मे भोतिकता से प्रात्यात्मिकता पिण्ड से ब्रह्माण्ड 'स्व' से 'पर' की प्रोर जो उन्मुखता दृष्टिगत होती है, उसके मूल मे जैनेन्द्र के चिन्तनशील व्यक्तित्व की ही भातक मिलती हे | जैनेन्द्र लेखक होने के साथ ही साथ विचार प्रधान दार्शनिक भी है । उनकी दार्शनिकता तत्व की प्रचारक न होकर व्यावहारिक जीवन को माय प्रधान करने वाली धुरी हे । कोरी भावना व्यक्ति को कत्पना लोक का प्रारणी बना देती है । किन्तु व्यक्ति यथाय भूमि मे चरण रखता हुआ सम्भावनाश्रो के लोक में प्रगतिशीत होता है । जैनेन्द्र की वाशनिकता ययपि किन्ही स्थतो मे विषय की भावनात्मक गरिमा को बहुत बोकिन बना देती है, किन्तु विकाशत वह जीवन की सत्ता को उद्घाटित करने में ही सहायक होती है । उनके दर्शन का स्वरूप जीवन के साथ इतना ग्रात्मसात् होकर भिव्यक्त होता है कि उसकी दुमहता प्रोर जटिलता स्वत ही नष्ट हो जाती है । जैनेन्द्रका दर्शन उनके आत्मबोध प्रोर सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति का ही परिचायक है । उनके जीवन-दर्शन में मनोविज्ञान का विशेषत योग रहा है। दर्शन समष्टि को व्यष्टि में समा लेने, प्रथवा व्यष्टि को व्यष्टि में समर्पित कर देने की भावना का पोषक हे । मनोविज्ञान व्यष्टि के ग्रन्तर्द्वन्द्व का विवेचित करने मे सक्षम हुआ है । जैनेन्द्र की दार्शनिकता दृष्टि प्रज्ञेय वादियो की मी रहस्यवादी हे । वे प्रदृश्य और प्रस्तुत के सम्बन्ध मे सदैव सम्भावित प्रथवा सापेक्ष को ही स्वीकार करते है । जो अग्राह्य है, उसके सम्बन्ध मे निरपेक्ष रूप से कोई निर्णय नही प्रस्तुत किया जा सकता । जैनेन्द्र की सापेक्षिक दृष्टि जैन दर्शन की प्रनेकान्तवादी दार्शनिकता का ही प्रतिफल है। जैन दर्शन मे सत्य क्या है, इस सम्बन्ध म अन्तिम निरणय नही दिया जा सकता ।
४०
१ जैनेन्द्र कुमार 'खेल' जेनेन्द्र की प्रतिनिधि कहानिया, सपा शिवनन्दनप्रसाद १६६६, प्र० स०, दिल्ली, पृ० ३४ ।
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जैनेन्द्र क जावन-दर्शन की भूमिका
नैनेन्द्र की अनेकान्ततादी दृष्टि नितान्त प्रहिसक तथा समन्वयमूलक है। वे किसी भी मत का ग्वण्डन नही करते, क्योकि प्रत्येक विचार अपनी सीमा मे सत्य हो सकता है। विचारो और वादो का खण्डन भी एक प्रकार की हिसा ही है । जैनेन्द्र की महिसक नीति कोरी जीव-हत्या तक ही सीमित न होकर व्यापक गर्थो मे गृहीत है।
जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियो मे सत्यान्वेषण के प्रति सतत् जिज्ञासा बनी रहती है। ईश्वर ही एकमात्र शक्ति है, जो जीवन के समस्त सूत्रो का सचानन करती है । प्रतिदिन के जीवन की घटित घटनाग्रो के मध्य प्रत्येक व्यक्ति को उस परम सत्ता का आभास प्राप्त होता रहता है। निराशामय जीवन मे पक्ति अपनी श्रद्धा और विश्वास के सहारे ससार मे जीने की शक्ति प्राप्त करता है । जैनेन्द्र की जीवन दृष्टि अभेद श्रद्धामूलक है। भेददृष्टि द्वन्द्वमला है, किन्तु जहा समस्त भेद-भाव अपने-अपने मार्गों से उस परग सत्ता मे माहित हो जाते है, वहा मतवाद का प्राग्रह नही रहता, बरन पारस्परिक प्रेम की सम्भावना रहती है।
जीने की दार्शनिकता कोरी बुद्धि का ताण्डवनृत्य नही करती, उसमे व्यावहारिक जीन के पात्मसात् होने की क्षमता विद्यमान है । अधिकाशत दाशनिक जीवन की गावहारिकता से दूर निर्जन मे शाश्वत सत्यो की खोज मे रत रहते है, किन्तु जनेन्द्र ने जीवन-सघर्ष के मन्य ही सत्य का बोध प्राप्त करने की नाटा की है। मानव-पीडा मे ही सत्य का स्वरूप निवास करता हे । जनेन्द्र की विचारधारा का मूल उद्गम ही मानव-व्यथा है।' व्यथा मे समर्पण की भावना उत्पन्न होती है। जैनेन्द्र के दुख-बोध और गौतम बुद्ध के दुख-बोध में पन्तर है । जैनेन्द्र दुःख से छुटकारा नहीं चाहते, वरन् दुख में ही पात्मान्वेषण अथवा सत्यान्वेषण करते है। जनेन्द्र के अनुसार व्यथा की शक्ति पारथा पर ही निर्भर है। जैनेन्द्र के पात्र अपनी व्यथा का दोषारोपण समाज अथवा किसी व्यक्ति-विशेप पर नहीं करते, उमे वे अपने भाग्य का परिणाम समझते हे । यद्यपि जैनेन्द्र की अतिशय भाग्यवादिता तो कभी
१ "हर विवाद को मानो सवेदना की कसोटी पर उतरना और अपने को
गरा साबित करना होता है । सबसे प्रथम तथ्य और मूल तत्व हे दुखइस बौद्ध कथन का भी शायद यह सार है । इस अनिवार्यता के ही विचार को मानो कहानी बनना पड गया।" ----जन कुमार 'कहानी . अनुभव और शिल्प' दिल्ली, १९६७, प्र० स०, पृ० ७२ ।
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जेन्द्र का जोवन-दर्शन
भी पटकाने भी लगती है। ऐसा प्रतीत होता है कि वे कम में मधिक भाग्य पर निशास करते है । किन्तु यह सत्य है कि वे भाग्य-विश्वासी होते हुए भी कम की उपेक्षा नही करते । जैनेन्द की अति भाग्यवादिता के मल मे ईश्वरीय प्रास्ता ही विद्यमान है । उनके अनुसार 'म' (व्यक्ति) गदेव गपूणता म पूरगता की प्राप्ति की ओर प्रयत्नशील रहता है।
जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति भाग्य के समक्ष अत्यन्त विना हा जाता है। उरा निवगता को वह नहुत विनत होकर स्वीकार करता है। उगके गन्तर मे यह बोल होता हे कि 'जब वह है, तब में कहा ? तर गहार कगा।" जनेन्द्र व्यक्ति को प्रव्यक्त के व्यक्तीकरण का माध्यम मानते हैं। उनके अनुसार वह (व्यक्ति) भाग्य के हाथ मे सपने को छोडकर भी निरन्तर कमगील रहता है।
जैनेन्द का परमादर्श जीवन की सतत् यात्रा मे अभेद प्रशवा प्रभिन्नता की प्राप्ति करना है। यद्यपि व्यक्त समार की व्यावहारिक पृष्ठभूमि मे नितातोपत्र सभव नही, गत ते द्वैत के मध्य प्रेम का कर भेदत्व की स्थापना करना चाहते है, जिसम गात्मानन्द का पालिसके । गभेद जायचा पण 'ताजनेन्द्र के जीवन-दशन IT वह माधार है, जिन पर नहाने अपन मस्त चिन्तन को साहित्य के द्वारा अभि पक्त है।
जनेन्द्र के माहित्य मे उनकी जीवन के प्रति अटूट प्राग्या की भिव्यक्ति हुई है। जीवन में लगन, निष्ठा, दायित्व, प्रेम, सोहाद्र आदि का मह-र उनके उपन्यास ओर कहानियो मे स्पष्टत दृष्टिगत होता है । जैनेन्द्र के पास समस्त मानवीय गुणो का प्रतिनिधित्व करते हे । दया गौर गहानुभूति की भावना उनके पानो मे कूट-कूट कर भरी हुई है। 'लात सरोवर' में एल. माधु निम्बाथ भाव से कोढी वेश्या की सेवा करता है। उसे सामाजिक मान-गम्मान का भय नही होता । वह बडी लगन और निष्ठा के साथ समाज द्वारा तिरस्कृत नारी की सेवा करता है। जैनेन्द्र की रचनाओ मे त्याग की भावना विशेष रूप से दृष्टिगत होती है । 'परख' मे कट्टो का त्याग और निश्छल सेवा, प्रेम का आदर्श अतुलनीय है।
जैनेन्द्र ने सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि से चिरन्तन प्रश्नो के भीतर प्रवेश किया है। जीवन के सत्य के पति वे सतत् जिज्ञासु के सदृश्य गदैव जगत और जगत की
१ प्रभाकर माचवे जैनन्द्र के विचार', प्र० स०, १६२७, पृ० २४० । २ जैनेन्द्र कुमार 'लाल सरोवर', जैनेन्द्र प्रतिनिधि कहानिया मपाल
शिवनन्दनप्रसाद, प्र० स०, दिल्ली, १६६६, पृ० २४५ ।
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जैनेन्द्र के जोवन दशन की भूमिका
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घटनामो मे ही रगते रहे। उन्होने जटिल से जटिल समस्या का समाधान भी जीवन की मावहारिकता मे ही प्राप्त किया है । सत्य का शोध करने के लिए वे सगार से नहीं गये, न ही उन्होने परम्परागत दार्शनिको के सादृश्य अपना कोई दर्शन प्रस्तुत किया है। भारतीय दर्शन के क्षेत्र मे प्राय प्रधिकाश दार्शनिक अपने पूर्व प्रतिष्ठित मान्यताओ के आधार पर ही अपना प्रत्ययन मीर विश्लेषण पारम्भ करते थे । उनके समक्ष खण्डन - मण्डन की प्रतिया ही प्रधान होती थी । किन्तु जैनेन्द्र मान व्रष्टा है, मत विशेष काटा होने पोग्य भी नही स्वीकार करते । वे जीवन के प्रति इतने राजग रहे कि प्रतिदिन की घटित होने वाली घटनाओ का प्रभाव उन पर पड़े बिना नही रहा ।
वे
स्वय को किसी
चिरन्तन में समय की निरन्तरता का बोध होता है । जीवन के वे प्रश्न जो प्रतिदिन की घटनाओ से संबंध रखते है, वे ही विरन्तन कहे जा सकते है | जैनेन्द के साहित्य को विशिष्टता चिरन्तन प्रश्नो के मूल मे समाविष्ट सत्य की खोज करने में ही दृष्टिगत होती है। सामाजिक, ऐहिक, राजनीतिक प्रदिपना के परी माकार प्रकार मे ही वे सन्तुष्ट नही होते सौर न ही उसमें सवार की पावापकता राम कते है । उनकी में यदि व्यक्ति से जीवन के पाप हो जाय तो वाह्य जीवन की समस्त विषमताए स्वत ही दूर हो जायेगी । तव उन्होने साधार पर दृष्टि डाली है, प्रादर्श पर नही । स्व पर की समस्या जीवन की सबसे विकट तथा विशद् समस्या है । घर परिवार सवेकर राष्ट्र के मूल मे 'स्व-पर' का द्वैत और द्वैत से उद्भूत ही प्रधानत दृष्टिगत होता है । जैनेन्द्र के प्रनुसार द्वैत की स्थिति जगत को सता के लिए अनिवार्य घोर स्वाभाविक है, किन्तु द्वैत अन्तिम सत्य नही है, अन्तिम सत्य यद्वैत की प्राप्ति के हेतु स्व अथवा पर को मूलत मिटाना वा अस्तित्व का ही समाप्त करना नही है, वरन स्व का प्रदर्श पर के सम्मुख समर्पित होना है। स्व पर की परम्परा द्वारा जीवन की बडीसे बडी समस्याए सहज ही समाप्त हो सकती है ।
जैनेन्द्र ग्रात्मपरक प्रास्तिक साहित्यकार और जीवन-द्रष्टा है । उनके जीवन का सत्य आत्मोपलब्धि प्रथवा ग्रात्मोन्मुखता मे ही प्राप्य है । प्रेमचन्द का साहित्य उनकी वस्तुनिष्ठ प्रकृति का परिचायक है । वे समाज की रामाश्रा से घिरे थे । व्यक्ति की श्रात्मा उनके साहित्य मे इतनी मुखरित नही हो सकी थी, जितनी कालान्तर मे जैनेन्द्र के साहित्य मे हुई है । जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन जिन मान्यता पर आधारित है, वे स्वत ही उन्हे श्रात्मोपलब्धि की ओर उन्मुख करती है ।
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जनेन्द्र का जीवन दर्शन
'प्रह विसजन' मे ग्राम समर्पण की भावना विमान हे बिना यात्मसमारण के पात्मोपलब्धि असम्भव है। जैनेन्द्र समस्त चराचर जगत को विनत भाव मे रामपित होते हा ही पाते है। 'स्व' का 'पर' में समाहित हा जाना प्रथवा 'पर' को 'स्व' में मिला देना ही उनके विचारो का मू। र है। 'मे कूछ नही है, जो कुछ है सब वही है, ऐसी भावना व्यक्ति कामगार के माया प्रपच म दूर कर प्रात्मोन्मुख बना देती है । जैनेन्द्र के अनुसार यदि पति के मन में यह भाव उत्पन्न हो जाए कि प्रकृति का समस्त वैभव उगने हिताय है, गब उसके प्राचीन है तो उसकी प्रगति अवरुद्द हो जाती है। प्रगति का मुत गपूणता के बोध में ही निहित है । 'मै कुछ नही ह म सत्य का बोध होने पर ही व्यक्ति पूगता के लिए प्रयत्नशीत होता है । गात्मा का परमात्मा मे माक्षात्कार होने की स्थिति ही पूणता की सूचक है। किन्तु जनेन्द्र का विश्वास है कि जीवन सतत् यात्रा है।' व्यक्ति का मग्बन्ध यात्रा से होना चाहिए, मजिल से नही। माग के कष्टो को सहता हमा त्यति निरन्तर आत्मोन्मुग्वी होता जाता है। अन्ततम मे ईश्वर : गिवा कोई नही है । जनेद के अनुसार "ग्रह एक है, उसके भी मम मू. में गाय । पगिल मग मित निन्दु पन उठा है तो उसकी यथाथता गोरा ग सरते उतरत क्या हमे उग निखित मे ही पान जाना नही मिलेगा ।'' की प्रात्मनिष्ठा में परम अन्तरग परमेश्वर की प्राप्ति का नो हाना है, उगम अचतन, अवचेतन आदि की ग्रन्थि नही होती। जैनेन्द्र गत्य की पारित कहतु शब्दो मे नही भटकते । उनके अनुसार शब्द बीच के पडाव है, उनमें ही भटक जाना लक्ष्य का निषेध करना है ।
जैनेन्द्र पात्मनिष्ठ होकर वस्तू जगत् की उपेक्षा नही करते । जिस प्रकार उनकी समष्टि को ग्रहण करने की भावना स्वत ही व्यष्टि को पीलिप्रदान कर देती है। उसी प्रकार पात्मनिष्ठा मे वस्तुनिष्ठा गनिवाय रप में स्वीकृत हे । वस्तु-जगत की अनेाता आत्मोन्मुखी होकर एकता की ओर उन्मुख हाती है । इन्द्रिया ही वह कडी है जो आत्मता को वस्तुता में जोडने में सक्षम होती है। वस्तु जगत की उपेक्षा मे जीवन की कल्पना ही असम्भव हो जाती है। वस्तृत जैनेन्द्र की आत्मोन्मुखता एक ओर ईश्वर की प्राप्ति मे महायक है, दूगरी पोर वस्तुजगत के भेद-भाव को दूर कर अभेदत्व अथवा प्रद्वैतता की और उन्मुख करती है । अखण्डता की प्राप्ति ही जैनेन्द्र के जीवन और साहित्य का परम लक्ष्य है।
१ जैनन्द्रकुमार कल्याणी', प्र० स०, दिल्ली, १९५६, पृ० १४-१५ ।
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जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
आत्मनिष्ठा ही अधिक है
जैनेन्द्र के उपन्यास प्रोर कहानियो मे आत्मनिष्ठा स्पष्टत दृष्टिगोचर होती है। उनके पात्र गपनी आत्मा मे ही सत्यान्वेषण का प्रयास करते है। पीडा ही वर रम है, जिसमे उन्हे अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति होती है । जैनेन्द्र के उपन्यास गौर कहानियो मे बाह्य संघर्ष की अपेक्षा अन्तर्द्वन्द्व ही प्रधान है। 'मुखदा', 'कल्याणी', 'त्यागपत्र' के नारी पात्र आत्मव्यथा मे ही पीडित हे। जैनेन्द्र की कहानियो मे 'एकरात', 'गवार पानवाला', 'रुकिया बुढिया,' 'अधे का भेद,' 'दृष्टिदोष', 'जाह नवी', 'रानी महामाया' आदि अधिकाश कहानियो मे एक अन्तर्व्यथा विद्यमान है जो अपनी चरम सीमा मे शून्यवत् हो जाती है। उस अवस्था मे व्यक्ति को अपनी आत्मा के मर्मातिमर्म मे प्रवेश कर गतिन्द्रियता का बोध होता है । स्त्री-पुरुष के सम्मिलन मे भोग से योग की ओर गति होती है। योगावस्था मे द्वन्द्व और द्वैत से मुक्त होकर व्यक्ति एकाग्र हो उठता है । जैनेन्द्र की कहानियो मे अन्तरमन की रिवतता मे सदैव प्राप्ति की प्रबल आकाक्षा विद्यमान रहती है। 'एक-रात' मे सभोग की स्थिति में सी-पुरुष पात्र इतने तन्मय हो जाते है कि वासना का अश स्वय में निम ल्य सिद्ध हो जाता है। अतत उनकी योगावस्था उन्हे एक दूसरे गे दुर करके भी शान्त रखती है ।
जनेन्द्र की प्रात्मपरक नीति स्व-रति से भिन्न है। जैनेन्द्र के प्रालोवको ने उनकी यात्मनिष्ठा को आत्मयोग की सज्ञा दी है और उसे वासनामूलक तथा रीतिकालीन ऐहिकता से युक्त किया है। किन्तु जैनेन्द्र की दृष्टि मे सयोग स्वय मे अन्तिम स्थिति नही है। शरीर मे भटक जाना सत्य का निषेध करना है। वे इन्द्रिय सोपान द्वारा प्राप्त होने वाली आत्मोन्मुखता तथा परमतत्व की एकाग्रता को ही जीवन का प्रधान लक्ष्य मानते है ।
__ जैनेन्द्र का साहित्य युगविशेष से बधा हुआ नहीं है। बुद्धि व्यक्ति को काल और खण्ड की सीमा मे आबद्ध करके ही उसे व्यक्तित्व प्रदान करती है, किन्तु श्रद्धा खण्ड मे ही सीमित न रहकर अखण्डता की ओर उन्मुख होती है। काल की गति अनन्त तथा अपरिमेय है, वह अविभाज्य है। जैनेन्द्र के अनुसार हम अपनी सुविधा के लिए काल का विभाजन करते हे और उसे घटा, दिन और साल आदि में विभाजित कर देते है। किन्तु सत्य यह है कि काल की अनन्त धारा मे भूत, वर्तमान और भविष्य स्पष्ट ही समाहित हो जाते है । यदि भूत वर्तमान से पृथक् है तो इतिहास का स्वय मे कोई महत्व ही नहीं रह जाता। युग-युगान्तर से सग्रहीत मानव-अाधार विचार ही सस्कृति का रूप धारण कर लेते है ।
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नेन्द का जीवन दर्शन
पक्ति-चेतना और काल-खण्ड के ऊपर उठने की चेष्टा
जैनेन्द्र के साहित्य द्वारा कालखण्ड गौर ग्यक्ति चेतना से ऊपर उठने की नेता है। वर्तमान मे नधा हुया व्यक्ति शाश्वत सत्य के राग्नाला मे को पक्षा निर्णय नही दे पाता । पतएव जनेन्द्र के अनुसार माहित्य गम गामाता के प्रति सापेक्ष दृष्टिकोण रखते हा गमगानीन नही होगा 17 | 3 प्रादश समयोत्तीर्ण होकर ही युग सत्य बन सकता है।' गोरनामी नागीदास द्वारा विरचित 'रामनरित मानरा' नार सौ वर्षों के बाद गाज भी अपनी समयोत्तीर्णता के कारण उसी प्रकार ग्राह्य है, जैसे कि ततमी के युग मे था । शाश्वत सत्य को चिरस्थायी रखने के लिए उसे कात-लड मे मीमित नही रखना होगा। ___ जैनेन्द्र का जीवन-प्रादर्श उत्तरोत्तर गखण्डता की ओर उन्मुग हाता है। आत्मोपलब्निी मे व्यक्ति, त्यक्त जगत के बन्धन से मुक्त हो परम प्रतरग मे साक्षात्कार करता है। जीवन यदि वर्तमान से सम्बद होता नो हार की अखण्डता स्वय मे ही नि शेष हो जाती। जैनेन्द्र ने कानरम ऊपर उठने की चेष्टा की है। आधुनिकता गथवा नवीनता की दाप गाने के गोम में वे स्वय को किमी युग-विशेष के घेरे में प्राबद्द करके नही चलते । मानित और नवीन कहलाने के लोभ में प्राज साहित्य के क्षेत्र में पुराने के उन्मुलन तथा नितान्त नवीन की स्थापना के हेतु कान्ति हो रही है। रिट नखक' भी जैनेन्द्र को रीतिकाल मे स्थान देकर माधुनिकता की पताका ऊनी करते है। फिन्तु माधुनिक से तात्पर्य यदि वर्तमान मे ही है, तो वह दिन स्वय मे ही विनष्ट हो जायेगा। व्यक्ति अथवा साहित्य भुत को सस्कृति रूप मे स्वय मे समाहित करता हुआ भविष्य का आलिगन करता है। युगविशेष का डका पीटने वाला साहित्य शाश्वत सत्यो की प्रतिष्ठापना नहीं कर सकता। जैनेन्द्र की प्रात्मा सदैव काल की अनन्तता मे ग्वो जाने के लिए व्याकुल रही है। व्यष्टि को समष्टि मे समाकर शून्य में विलीन हो जाना ही उनके जीवन का तय है। उन्होने स्वीकार किया है कि "मै कभी भी प्रावुनिक नही होना चाहता, क्योकि काल से तत्सम होना चाहता हु। काल के खण्द्र को लेकर तुष्ट और मग्न नही हो जाना चाहता। वे काल को भूत, वतमान
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', दिल्ली, १९६२, प्र०म०, पृ० ५०३ । २ कमलेश्वर 'नई कहानी की भूमिका', इलाहाबाद, १६६६, पृ०१२ । ३ जैनेन्द्र के साक्षात्कार के अवसर पर। ४ जैनेन्द्रकुमार 'कहानी अनुभव और शिल्प', पृ० ६० ।
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जैनेन्द के जीवन-दर्शन की भूमिका
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और भविष्य की रेखाग्रो से विभाजित करके समझने के पक्ष मे नही है। व्यक्ति का सत्य समय से पार चलने मे ही सार्थक हो सकता है। पार का तात्पर्य यह नहीं है कि वर्तमान पर दृष्टि ही नही रहे। जैनेन्द्र यथार्थ जीवन की उपेक्षा म विश्वास नहीं करते। उनके अनुसार धरती पर पैर रखते हुए भी दरिट अनन्त शून्याकाश से भी पार होनी चाहिए। उस अनन्तता की गोद मे जागतिक द्वन्द्व, भेद-भाव प्रौर अखण्डता का दोष स्वय मे ही तिरोहित हो जाता है। जेनेन्द्र ने प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनियो के प्रादर्श को उपस्थित करते हुए 'जयवर्धन' मे जय को समय के पार देखने वाले आदर्श व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है ।
जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे व्यावहारिक जीवन मे उत्पन्न होने वाले वर्ग-भेद के ऊपर व्यक्ति की सत्ता स्वीकार की है। मनुष्य खण्डता मे जडित नही है। वह काल के अनन्त प्रवाह के सदृश्य अपनी जीवन यात्रा मे निरन्तर चलता जाता है, क्योकि उसका लक्ष्य स्थूल और व्यक्त के पार सूक्ष्म की खोज करना है। जैनेन्द्र ने अपनी कहानियो मे वर्तमान से इतर पौराणिक कथायो को अपनी कल्पना का पुट देकर तथा पौराणिक पात्रो को अपने
आत्मिक मत्य की अभिव्यक्ति का प्रतीक बनाकर वरिणत किया है। उनकी अन्य नहानियो मे तथा उपन्यासो मे उस दिव्यता की प्राप्ति का प्रयास है, जहा पहुचकर व्यक्ति नेतना भी विलुप्त हो जाती है, केवल शून्य शेप रह जाता है। स्त्री-पुरुष के प्रेम सम्बन्धो मे भी जैनेन्द्र के पात्र यथार्थ की शूमि से ऊपर उठकर सत्यान्वेषण का प्रयास करते है। वे वर्तमान से चिपटे नही रहते, वरन् स्वपन और कल्पना-लोक मे अपने समस्त जागतिका बन्धनो से मुक्त होकर अद्वैतता की प्राप्ति मे तत्पर रहते है ।
वस्तृत जैनेन्द्र साहित्य और जीवन के सम्बन्ध मे उच्चतम मान्यताप्रो को ही स्वीकार करते हुए चलते है। आत्मनिष्ठा और अखण्डता उनके साहित्य की प्रात्मा है। उन्होने सत्य की प्राप्ति मे बुद्धि से अधिक भावना ओर श्रद्धा को प्रश्रय दिया है। बुद्धि और विचार के लिए सामाजिक ओर लौकिक आदि धाराणाए सगत होती है, किन्तु जीवन का काम उनको लाघता हुआ भी चल सकता है। "वाह्य जगत् की सम्बद्धता पौर अपेक्षा जब
१ 'चेतना समय से नही चलती वरन् समय उसके पार चलता हे । “हो गये
जिन्होने समय के पार देखा है, " । "काल के बीच मनुष्य को अकाल बनना है, वह क्षण की उपासना से नही, शाश्वत के ध्यान से होगा।'
----जैनेन्द्रकुमार . 'जयवर्धन', पृ० ४६ ।
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जनेन्द्र का जीवन-दर्शन
कि ग्रह के लिए अनिवार्य है, तब धारणात्मक विभिन्न विनिया नाना तत्व मय जगत् उतना अनिवार्य नही है। सक्षेप में जीवन मे लोनिका सामाजिक की अपेक्षा से अखिल अखण्ड की अपेक्षा अधिक सगत पोर र वाम गकर है।' खण्डता में स्थूल जगत की लीला दृष्टिगत होती है, किन्तु हरपना अपवा लोक मे व्यक्ति काल-खण्ड से ऊपर उठकर अखित को अपना लेना चाहता है। __ जैनेन्द्र के दाशनिक विचारो पर सत खतील जिब्रान का बहुत अधिक प्रभाव पडा है । खलील जिब्रान भी कात को प्रेम की भाति अविभाज्य और असीम मानते है। उनके अनुसार कालातीत अतर्वामी को मातातीत जीवन का ज्ञान रहता है। ___जैनेन्द्र का साहित्य सत्य की खोज और उसकी अभिव्यक्ति का ही प्रतिफल है। सत्य दृष्टि-सापेक्ष हो सकती है, किन्तु मूलत उसकी प्रकति निरपेक्ष है। शाश्वत सत्ता का बोध अनुभूति द्वारा ही हो सकता है। बुनि 'अनन्तता पोर अखण्डता में प्रवेश करने में असमर्थ होती है। श्रद्धा निगवे गम्मत हो गती है, जिससे कि अह अहा न हो जाये, किन्तु उसका अस्तित्व तक म निमा हो जाता है । जैनेन्द्र परम आस्तिक विचारक है। वे सत्य काय सार मक प्राधार पर ग्रहण करने का प्रयास करते है। ऐसी स्थिति 2.107 गी मत विशेष से हेतु प्राग्रह नही होता । यही कारण है कि नापार नही करते और न ही अपने मत की पुष्टि के लिए यूक्ति गो का यह ही रचत। जैन धर्मावलम्बी होने के कारण स्यादवाद से बहुत अधिक प्रभावित है। साइन्सटाइन की रिलेटिविटी का सिद्धात भी स्यादवाद का ममा । । । चर्म में किसी भी मत का खण्डन नही किया जाता । पत्येक विचार दार' मा मोर समय सापक्ष होने के कारण सत्य हो सकता है, किन्तु उगही गार्वभौम मत्य के रूप मे स्वीकार नही किया जा सकता। जैनेन्द्र भी अपनी हिमान नीति के कारण प्रत्येक मत का आदर करते हे पोर अपने विचारो का किसी पर प्रारोपण नही करते । राजनीति, धर्म, समाज, दर्शन, मनोविज्ञान आदि सभी क्षेत्र में वे नितान्त व्यावहारिक दृष्टिकोण को स्वीकार करते है । राजनीति में समाजवाद, पूजीवाद, साम्यवाद आदि विभिन्न मतवाद प्रचलित है, जो कि स्वयमा अपूर्ण है। जीवन प्रखण्ड इकाई है। जीवन की अखण्डता से असयुक्त होकर कोई भी सिद्धात सत्य का साक्षात्कार कराने में असमर्थ सिद्ध होता है। जैनन्द्र
१ जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', दिल्ली, प्र० स०, पृ० ५७५ । २ खलील जिब्रान 'जीवन-दर्शन (अनु० सत्यकाम विद्यालकार) दि प्रोफेट'
दिल्ली (सशोधित सस्करण १६५८), पृ०स०६६ ।
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जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
जगत की समस्त व्याप्ति को जीवन से आत्मसात् करके स्वीकार करते है । वस्तु र पाद बाहर की चीजे है, किन्तु जीवन का सत्य आत्मोपलब्धि मे ही प्राप्य है । अतएव जैनेन्द्र साहित्य मे बाह्य निष्ठा अथवा प्रचार का प्रश्न ही नही उठता । जहा व्यक्ति की आत्मता प्रधान है वहा पारस्परिक भेद-भाव स्वत ही निराधार सिद्ध हो जाते हे ।
तत्त्व-दर्शन के प्रचार में भारत के ही नही, विदेशो मे भी बडे-बडे दर्शनशास्त्र और मतवाद खडे हो गये है । जैनेन्द्र का विश्वास हे कि ईश्वर है या नही, उसका क्या स्वरूप है, इस सम्बन्ध मे वे तर्क का सहारा लेकर कोई निश्चित निर्णय नही देते । ईश्वर के सम्बन्ध में वे परम जिज्ञासु के सदृश्य
नुमान ही लगाते हे । उसके सम्बन्ध मे कोई निरपेक्ष मत प्रस्तुत करके उसे ही सर्वोपरि नही मानना चाहते । जैनेन्द्र ने कहानी की रचना -दृष्टि प्राप्त करने के हेतु ही की हे, दृष्टिदान के हेतु नही की है ।
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वे तत्व प्रचारक नही एव युक्तियों का व्यूह नही रचते
।
आधुनिक साहित्यकारो मे अधिकाशत प्रचार की भावना विशेष रूप से सदगत होती है । वे नवीनता की छाप लगाकर अपने नाम से किसी नए बाद सिद्धानादि का प्रचार करना चाहते है प्रचार की कामना से ही वे प्राचीन प्रादर्श की उपेक्षा मे जुटे हुए है । किन्तु जैनेन्द्र की साहित्य-रचना प्रतिनियामक और प्रतिस्पर्धात्मक न होकर नितान्त सहज और आत्मोपलब्धि के रूप में ही हुई है । प्रचारक को नाना प्रकार की युक्तियों के व्यूह रचकर अपने पक्ष को प्रमाणित करना पडता है, किन्तु जैनेन्द्र ने अपने मत की सत्यता को सिद्ध करने के लिए युक्तियो का जाल नही बिछाया है । वे सामान्य रूप से अपनी बातें कहकर फिर उनकी प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में चिन्तित नही होते । जैनेन्द्र की रचनाशीलता की अपरिग्रहिता भी उनके व्यक्तित्व की सहजता का स्पष्ट प्रमाण है । यदि उनमे यश की आकाक्षा होती तो स्वेच्छा से सदैव रचना करते रहते । सत्यता यह है कि अधिकाश कहानियों और उपन्यासो की रचना उन्होने ऊपरी दबाव के कारण की ।
जैनेन्द्र जीवन द्रष्टा हे । द्रष्टा ज्ञाता से अधिक हे । जानकर जो ज्ञानी बनते है वे व्यावहारिक जीवन में असफल रह जाते है, किन्तु जीवन को देखकर और उसके सत्यो म प्रवेश करके नवीन दृष्टि प्राप्त करने वाला व्यक्ति ही सत्य का सच्चा बोधक और निर्णायक हो सकता है । जैनेन्द्र के साहित्य मे बौद्धिक प्रगल्भता के साथ-साथ हृदयगत प्रसादिकता भी दृष्टिगत होती है । जैनेन्द्र द्वारा रचित विचार-प्रधान निबन्धो में उनका चिन्तनशील व्यक्तित्व सहज ही
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
अभिव्यक्ति प्राप्त करता है । जैनेन्द्र के विचार' में संग्रहीत निबन्ध जैनेन्द्र की बौद्धिकता का अत्यन्त व्यावहारिक ओर सरस रूप व्यक्त करते है । जैनेन्द्र के चिन्तन और अभिव्यक्ति की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे कठिन-मे-कठिन विषय को भी जीवन की घटनाओं से आत्मसात् करके इतने सरल रूप मे अभिव्यक्त करते है कि सत्य का स्वरूप प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत हो जाता है । पाठक को उनकी महजता पर आश्चर्यचकित हो जाना पडता हे । दूर-पास, पिरावाद, मानव का सत्य', उपयोगितावाद, जरूरी भेदाभेद आदि निबन्धो में उनका वैचारिक पक्ष जीव तत्त्व-दर्शन का विश्लेषण करता है। किन्तु तत्त्व-दर्शन जैसा निराकार विषय यदि कोरे शब्दजाल और युक्तियो के आधार पर प्रस्तुत किया जाय तो उसे ग्रहण कर बुद्धि को कसरत करनी पडेगी और विचार का सार-तत्व हृदय तक उतरते-उतरते शुष्क होकर समाप्त हो जायगा। अतएव जैनेन्द्र ने बुद्धि को विचार-तत्व के स्तर तक ही स्वीकार किया है । विचार से अधिक जहा बुद्वि द्वारा तत्वो का प्रचार होने लगता है और हृदयगत आस्था समाप्त हो जाती है, वहा वे बुद्धि को उसे रवीकार नही करते । उन्होने विचार के द्वारा भाव को स्थिरता प्रदान की है, क्योकि कोरी भावना मे टिकने की सामर्य नही होती।
बुद्धि की प्रगल्भता के साथ-साथ हृदय की प्रासादिकता
जैनेन्द्र के साहित्य में हृदय की प्रासादिकता इतने व्यापक रूप में व्यक्त हुई है कि दशन की गम्भीरता भी उसमे सरस हो उठती है। उनकी कहानियो मे यह भाव रमणीयता स्पष्टत दृष्टिगत होती है। पात्री के विचार मानो हृदय तल की गहराई से आर्द्र होकर अभिव्यक्ति प्राप्त करते है। उनकी कुछ कहानियो मे इतनी सरसता है कि उन्हे पढते-पढ़ते एक अप्रतिम आनन्द की अनुभूति होती है । 'लाल सरोवर', 'रानी महामाया', 'राजीव और भाभी', 'दो चिडिया', 'नादिरा' आदि कहानियो मे जैनेन्द्र ने व्यक्ति के अन्तरतम में प्रवेश कर अन्तस् की कोमल भावनामो को बडी सहजता से अभिव्यक्त किया है । कही-कही तो भावावेश इतना बढ़ जाता है कि पाठक का हृदय कचोट कर रह जाता है। जैनेन्द्र की ‘फोटोग्राफी' कहानी इस दृष्टि से बहुत ही प्रभावशाली है । भाव की सात्विकता मन को झकझोर देती है। वात्सल्य और स्नेहयुक्त ऐसी पवित्र अभिव्यक्ति अन्यत्र दुर्लभ है। छोटी-सी घटना हृद्तत्री के तार झकझोर देती है। ___जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियो मे स्त्री-पुरुष प्राकर्षण तथा परस्पर समर्पण भाव में स्त्री पात्र बहुत अधिक विनत हो जाते है। 'रानी महामाया'
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जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
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प्रेम में अपना स्वत्व मिटा देने के लिए स्वय को नाना प्रकार की यातनाए देती है । वह अपनी हार्दिकता के सहारे ही प्रिय का साक्षात्कार करना चाहती है।
'परख' के प्रारम्भिक अशो मे कट्टो और मास्टर साहब के मध्य होने वाला वार्तालाप बहुत आकर्षक प्रतीत होता है । जैनेन्द्र के साहित्य मे अनेको स्थल भरे पडे है, जिनमे वे निरे श्रद्धालु और प्रेमी रूप मे ही व्यक्त होते हैं । बुद्धि की उष्मा तनिक भी नही पहुच पाती।
मानवता के शाश्वत प्रश्नो पर विचार
जैनेन्द्र ने मानव जीवन के शाश्वत प्रश्नो पर विशद् विवेचन किया है। ईश्वर, जीव, मृत्यु, पुनर्जन्म, मोक्ष आदि विषयो पर उन्होने अपने मौलिक विचार प्रस्तुत किए है, जो किसी भी दार्शनिक मतवाद मे बघे नही है । उनके अनुसार दार्शनिक वही है, जो जीवनद्रष्टा है । जीवनद्रष्टा जीवन और जगत् की उपेक्षा करके नितात एकाकी बन जगल मे नही भटकता वरन् जीवन को घटनाग्रो प्रोर द्वन्द्वो में सत्य का अन्वेषण करता है। जैनेन्द्र ईश्वरवादी विचारक है । उनके अनुसार ईश्वर का अस्तित्व ही एकमात्र सत्य है । उसकी मत्ता को नकारा नही जा सकता। क्योकि तर्क की गति वही सम्भव है, जहा व्यक्ति की पहुंच है, किन्तु जो विषय बुद्धि की पहुच के बाहर है उसे तर्क द्वारा भी नही सिद्ध किया जा सकता। जैनेन्द्र के अनुसार मनुष्य की शक्ति अपूरण है। वह अपनी अपूर्णता से पूर्ण ब्रह्म का साक्षात्कार नही कर सकता। अतएव ईश्वर के अस्तित्व को उन्होने श्रद्धा और विश्वास के आधार पर ही स्वीकार किया है।
जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियो मे पग-पग पर उनकी वास्तविकता दृष्टिगत होती है । उनकी अतिशय भाग्यवादिता ईश्वरीय श्रद्धा का ही परिणाम है । जैनेन्द्र के साहित्य मे ईश्वर-भक्ति, पूजा, कर्मकाण्ड आदि के व्यक्त रूप में दृष्टिगत नही होती, वरन् उनकी आस्था पात्रो के हृदय मे अन्तनिष्ठ है। उनका हृदयगत प्रेम, त्याग, सेवा, समर्पण भाव ईश्वरीय भक्ति का ही द्योतक है। ईश्वर ही अप्रत्यक्ष रूप मे समस्त सृष्टि का सचालक है । 'सुखदा' में उन्होने ईश्वर को सूत्रधार के रूप मे स्वीकार किया है।
ईश्वर को जानने के लिए उनके पात्रो में अतीव अविकलता है । 'व्यर्थ प्रयत्न' में ईश्वर के समक्ष समर्पित होने के लिए व्यक्ति का अह छटपटाता
१ जनेन्द्र कुमार 'सुखदा', प्र० स०, दिल्ली, १६५२, पृ० १८ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
रहता है। भौतिकता मे शान्ति नही । क्योकि ससार नश्वर हे । अतएव जैनेन्द्र एकमा र ईश्वर को ही सत्य रूप में स्वीकार करते हे । यही जैनेन्द्र की आत्मा का सत्य है । 'सब नही के पीछे एक है और वह हे ईश्वर ।'
जेनेन की ईश्वरीय आस्था केवल व्यक्तिगत जीवन तक ही परिमित न होकर देश, समाज, धम और राष्ट्र के सन्दभ मे भी फलित होती है । यही उनके विचारो की मोलिकता हे । अर्थ का परमार्थीकरण राजनीति में मानवतावादी दृष्टिकोण तथा अह विसर्जन की भावना उनकी आस्तिकता के ही प्रतीक है।
जैनेन्द्र अज्ञेयवादियो के सदृश्य ईश्वर को रहस्यमय रूप में ही स्वीकार करते है, उनके बारे में कोई निश्चित स्वरूप नही प्रस्तुत करते । सृष्टि की अखण्डता मे एकमात्र परब्रह्म का रूप ही परिलक्षित होता है । आत्मोन्मुख होकर ही अखण्डता की उपलब्धि हो सकती है।'
जैनेन्द्र की धम सम्बन्धी धारणा बहुत ही स्पष्ट है । सामान्यत धर्म के स्वरूप को लोग सम्प्रदाय मे आबद्ध करके उसकी प्रात्मता की अवहेलना करते है। जैनेन्द्र के अनुसार धर्म का व्यापक रूप व्यक्ति की सहनशीलता में प्रतिनिष्ठित है । जीवन मे कष्टो को सहते हुए उत्तरोत्तर कर्तव्य मार्ग की पोर बढते जाना ही व्यक्ति का धर्म है। व्यक्ति का धर्म ही गात्विक धमभाव का भी बोधक है। जैनन्द्र के समस्त उपन्यास और कहानियो म धम-भावना व्यापक रूप से छायी हुई है। उनके पात्र अपनी पीडा में ही जीते है। मणाल समाज से तिरस्कृत होकर अधिक-से-अधिक कष्ट सहने में तथा 'अधे का भेद' कहानी में प्रवे की स्त्री अर्थोपार्जन के लिए तन बेचने को भी अधर्म नही समझती। वस्तुत जैनेन्द्र की धर्म सम्बन्धी धारणा सकीर्णता की परिचायक न होकर दृष्टि की व्यापकता की सूचक है।
जैनेन्द्र आत्मा को परमात्मा का ही अश मानते है। 'आत्मा अपने परम रूप म परमात्मा हे । आत्मा विकासशील है। प्रात्मता में व्यक्ति-भेद नही
१ जैनेन्द्र कुमार 'व्यर्थ प्रयत्न' (कहानी) २ जैनेन्द्र ने इस ब्रह्म को विश्वास और उपासना का विषयमान न रहने देकर
वैयक्तिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आचार-विचार के प्रेरक स्रोत के रूप में इसकी वैयक्तिक और अकाट्य व्याख्या की है, जो उनकी सबसे बडी देन है।' ----जनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० १६ ।
(उपोद्घात मे-वीरेन्द्रकुमार गुप्त) ३ जैनेन्द्र कुमार , ‘समय और हम', पृ० ५३ ।
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जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
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होता, किन्तु अहन्ता भेद-भाव मूलक है। आत्मता आन्तरिक चेतना है, किन्तु उसे सक्रिय होने के लिए ग्रहन्ता का आश्रय लेना पडता है और अहन्ता भी आत्मा के अवलम्ब पर स्थिर है। जैनेन्द्र ने अहन्ता और आत्मता को एकदूसरे की सापेक्षता मे स्वीकार किया है। उनके अनुसार प्रात्मता ही सत्य
और स्वीकार्य है। प्रात्मोपलब्धि मे स्वचेतना ही प्रधान नही होती। वरन् 'स्व' मे 'पर' मे उन्मुखता की प्रेरणा विद्यमान होती है। 'स्व' को हम 'पर' मे ही प्राप्त कर सकते है। 'अपने को पा जाना, सब को पा जाना है। • • इसलिए प्रात्मोपलब्धि कोई वैयक्तिक आदर्शमात्र नही है, वह एक ही साथ सामाजिक और समष्टिपरक है।''
__ जैनेन्द्र के कथा-साहित्य मे आत्मा का स्वरूप अखण्ड अथवा समग्न रूप मे स्वीकार किया गया है । उन्होने अहता और आत्मता का लौकिक व नैतिक अर्थ न ग्रहण करके उसे वैज्ञानिक रूप से स्पष्ट किया है। जैनेन्द्र के अनुसार अहन्ता अर्थात प्रश का पूर्ण से भिन्न अस्तित्व और अात्मता अर्थात् अश का समग्र व्यक्तित्व । व्यक्ति अपने-अपने प्रहबोध से समग्रबोध की ओर उन्मुख होता है । जैनेन्द्र की प्रात्मपरक नीति इसी सिद्धान्त पर आश्रित है ।
ग्रह सदैव कर्मरत है। भाग्य व्यक्ति की कर्म-तत्परता में बाधक नही होता। भाग्य व्यक्ति के कर्मों का निर्णायक है । व्यक्ति होनहार के हाथ मे है। भारतीय दर्शन में कर्मानुसार पुनर्जन्म हो जाता है। जैनेन्द्र की कर्म और पुनर्जन्म सम्बन्धी धारणा परम्परागत भारतीय दार्शनिको से भिन्न है। उनके अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा परमात्मा मे समाविष्ट हो जाती है, किन्तु यह आवश्यक नही कि वही आत्मा अपने पूर्व कर्मो को साथ लेकर शरीर धारण करती है। मृत्यु के बाद कर्म, क्षितिज मे उसी प्रकार व्याप्त हो जाता है जिस प्रकार बूद समुद्र मे मिलकर अस्तित्वहीन हो जाती है। इस दृष्टि से कर्म का कोई महत्व नही रहता और जन्म जन्मान्तर तक शुभ कर्मो द्वारा उत्तरोत्तर मुक्ति की प्राप्ति का प्रयत्न भी निर्मूल्य हो जाता है। जैनेन्द्र कर्म के सम्बन्ध मे यह स्वीकार करते है कि व्यक्ति के कर्म अन्तरिक्ष में समाहित होकर व्यक्ति के न रहकर समष्टि के भी हो जाते है। इस प्रकार अपने कर्मों के लिए स्वय ही उत्तरदायी नही होता, वरन् उसे समष्टि के प्रति भी उत्तरदायी होना पडता है। इसलिए उसे अपने पाप-पुण्य के प्रति अधिक सतर्क रहना पडता है।
१ जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', पृ० ६१ । २. जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', पृ० २० (उपोद्घात-वीरेन्द्रकुमार गुप्त)
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
जैनेन्द्र ने अपने कथासाहित्य मे पुनर्जन्म को अनिवार्य रूप से स्वीकार किया है । उन्होने उपन्यास और कहानियो मे पुनर्जन्म पर तात्विक रूप से विवेचन तो नही किया हे, किन्तु मृत्यु के बाद जीवन के द्वार को बन्द नही मानने । उनके अनुसार जन्म-मृत्यु का क्रम सतत् चलता रहता है । जैनेन्द्र के अनुसार मृत्यु के अनन्तर जन्म की स्थिति अनिवार्य है, किन्तु यह नही कहा जा सकता कि अमुक नाम का विशिष्ट व्यक्ति अपने पूर्वजन्म के कर्मो के सहित पुनजन्म गहण करता है । जैनेन्द्र की पुनर्जन्म सम्बन्धी धारणा परम्परागत भारतीय दार्शनिका से भिन्न हे । जैनेन्द्र का विश्वास हे कि यद्यपि ग्रन्य मान्यता भी स्वीकार्य हो सकती है, किन्तु वे भी व्यक्तिगत अभिमत मात्र ही हे, उन्हें परम सत्य के रूप मे स्वीकार नही किया जा सकता । जैनेन्द्र अपनी पुनर्जन्म सम्बन्धी मान्यता को तर्क और द्रष्टान्त के द्वारा पुष्ट करने का प्रयास करते हे । उन्होने पुस्पाय को बीच की स्थिति माना है । जन्म और कर्म के मन्य व्यक्ति की सम्यिता ही पुरुषार्थ है किन्तु पुरुषार्थी के लिए भाग्य का सहारा अथवा ईश्वर के पति विश्वास होना श्रावश्यक है, क्योकि कोरा पुरुषार्थ निराशा के क्षण से पुन गति प्राप्त करने की क्षमता नही देता, जब कि मला व्यक्ति पुरुषाय की सफलता को भाग्य का परिणाम मानकर प्रसन्तुष्ट नही होता । नन्द्र की भाग्य सम्बन्धी विचारधारा आस्तिकता म मदित है ।
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निष्कर्ष
जैनेन्द्र के साहित्य का पूर्णरूपेण अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका साहित्य स्वानुभव की भूमिका पर प्राधारित है । हृदयगत अतिशय वेदना ही साहित्यरूप मे अभिव्यक्त हुई है । वे स्वेच्छा से नगक या उपन्यासकार नही हुए । परिस्थितिगत विवशता ही उनके लेखन की प्रेरक बनी । श्रतएव उन्होने ग्रास-पास के जीवन को ही अपनी अनुभूति का पुट देकर चित्रित किया है । उन्होने जीवन के शाश्वत प्रश्नो का समाधान अपनी अन्तदृष्टि के द्वारा प्रदान किया है । चिरन्तन प्रश्नो के मत्य उन्हाने अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से प्रवेश किया है। उनकी बौद्धिक सूक्ष्मता व्यक्तिगत चिन्तनशीलता का ही परिणाम है। उन्होने कभी भी ज्ञानवर्धन के हेतु शास्तीय पुस्तका का अध्ययन नही किया । उनकी गहन चिन्तन में अभिरुचि नही थी। जीवन मे घटित घटनाओ में उन्होंने तत्व दर्शन की झलक प्राप्त की है। धर्म, समाज, मनोविज्ञान यादि किसी भी विषय का उन्होने अपनी सबुद्धि के द्वारा विवेचन किया है । सत्य को जीवन से आत्मसात् करके देखने के कारण उन्हें जीवन से बाहर सत्यान्वेषण की प्रावश्यकता नही प्रतीत हुई ।
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जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका
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वस्तुत जैनेन्द्र ने जीवन के विभिन्न पक्षो का विशद् विवेचन किया है । उनका जीवन-दर्शन किसी पक्ष - विशेष का ही पोषक नही है । उन्होने जीवन विविधता के मध्य सन्तुलन स्थापित करने का प्रयास किया है । ईश्वर को स्वीकार करते समय वे जीवन की सामान्य घटनाओ की उपेक्षा नही करते । क्योकि जीवन की सार्थकता तो ससार मे रहकर ही पूर्ण होती है । अतएव जैनेन्द्र ससार मे रहकर ही जीवन को ईश्वरमय बनाना चाहते है । उनकी प्रास्तिकता जीवन के विभिन्न क्षेत्रो मे स्पष्टत दृष्टिगत होती है । जैनेन्द्र के साहित्य और दर्शन को चार खण्डो मे विभाजित करके स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है -- ( १ ) ईश्वर, (२) जीव, (३) अध्यात्म, (४) राष्ट्रीय जीवन की समस्याए और बाह्य प्रभाव ।
जैनेन्द्र राष्ट्रीय जीवन की विविध समसामयिक समस्याओ के प्रति बहुत ही सजग रहे है । समाज, देश, राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीयता से उत्तरोत्तर वे विश्वबन्धुत्व की भावना की ओर ही उन्मुख होते जा रहे हैं । धर्मनिरपेक्षता, भाषा, विदेश नीति, विग्रह, प्रौद्योगीकरण की नीति का उन्होने विशद् विवेचन किया हे । माक्सवाद, पुजीवाद, कम्युनिज्म, समाजवाद आदि विभिन्न वादो के सम्बन्ध में अपने विचारो को वैचारिक निबन्धो मे प्रस्तुत किया है । 'समय और हम उनकी ऐसी रचना है, जिसमे उन्होने देश-विदेश की विभिन्न नीतियो को भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य मे विवेचित किया है। भारतीय संस्कृति और राजनीति का उनके साहित्य पर बहुत अधिक प्रभाव पडा है । उनका सैद्धान्तिक विवेचन उनकी वैचारिक रचनाओ मे प्राप्त होता है, किन्तु उन सिद्धान्तो को उन्होने मानव जीवन के सन्दर्भ मे अपने उपन्यास और कहानियो में दर्शाया है । 'सुखदा', 'विवर्त', 'जयवर्धन', 'मुक्तिबोध' में विशेष रूप से राष्ट्रीय जीवन की समस्या पर प्रकाश डाला गया है ।
जैनेन्द्र की समस्त विचारधारा के मूल मे मानव- नीति ही मुख्यरूप से विद्यमान हे । मानव हित की सापेक्षता मे ही वे किसी भी मत या आदर्श को ग्रहण कर सके है । उनके जीवनादर्श पर महात्मागाधी की अहिसात्मक नीति का प्रभाव स्पष्टत परिलक्षित होता है । गाधी की अहिसा नीति मात्र जीव
हिसा के सन्दर्भ मे ही प्रयुक्त नही हुई है, वरन् उसे व्यापक अर्थो मे जीवन के विविध परिप्रेक्ष में प्रयुक्त किया गया है। देश-विदेश की पारस्परिक मित्रता, सौजन्य तथा एक-दूसरे के कष्ट मे होने की भावना के मूल मे भी उनकी अहिसात्मक दृष्टि ही विद्यमान है ।
जैनेन्द्र पर जैन दर्शन का प्रभाव भी पूर्णत लक्षित होता है। जैन धर्म जैनेन्द्र का स्वधर्म है । अपने साहित्य में उन्होने यत्र-तत्र इस सत्यता की ओर
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जनेन्द्र का जीवन-दर्शन
यान आकृष्ट भी किया है तथापि वे किसी भी बर्म और सम्प्रदाय से पूर्णत बवे नही हुए है। उनकी मान्यता सार ग्रहणी प्रतीत होती है।
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परिच्छेद --२
जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
ईश्वर के अस्तित्व का बोध
"जिसके बारे मे हम कुछ नही बता सकते, उसके बारे मे चुप रहना चाहिए ।' वित्न्स्तीन की यह उक्ति यद्यपि ईश्वर के अस्तित्व और स्वरूप पर पूरी तरह सही उतरती है, तब भी मानव की बुद्धि और उसकी वाणी ईश्वर के विषय मे कभी भी निष्क्रिय नही रही ।" सृष्टि की व्यापकता, व्यवस्था तथा निरन्तर जन्म-मरण के क्रम को देखते हुए मानव मन मे सदैव यह जिज्ञासा रही है कि इस समस्त दृश्य जगत् के पीछे कोई परम सत्ता ग्रदृश्य रूप से अवश्य कार्य कर रही है। सूर्य का प्रकाश, दिन-रात का क्रमिक आगमन एव विराट् प्रकृति ही उस परम सत्ता की अभिव्यक्ति है । प्रास्थापरक मनीषियों ने परमसत्ता के अस्तित्व को अपनी हार्दिक श्रद्धा और विश्वास के आधार पर ही स्वीकार किया है। उन्हे अपने परमेश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए तर्क का सहारा नही लेना पडा । उनकी दृष्टि मे 'ईश्वर है' और वही एकमात्र शक्ति सम्पन्न है, इस विश्वास के सम्मुख सारे तर्क और बौद्धिक वाग्जाल मिथ्यावाद का पोषण करते हुए प्रतीत होते है । विश्वासी के समक्ष ईश्वर को तर्क द्वारा सिद्ध करने का प्रश्न ही नही उठता । भौतिकतावादी विचारक इन्द्रिय प्रत्यक्ष को ही सत्य मानते है । उनकी दृष्टि मे ईश्वर इन्द्रियगोचर नही है, इसलिए ईश्वर नाम की किसी परम सत्ता का प्रश्न ही
१ जैनेन्द्र कुमार 'समय प्रोर हम', दिल्ली, प्र० स०, १९६२, पृ० १४ ।
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जनेन्द्र का जोवन दशन
नही उठता। सृष्टि के समस्त क्रिया-कलापो का सिवाय प्रकृति के प्रोर कौन कारण हो सकता है।'
जैनेन्द्र की प्रास्तिकता __जैनेन्द्रजी परम अास्थावान्, विचारक और लेखक है। नका समग्र जीवन अोर साहित्य ईश्वरीय गास्था और प्रेम के रग में रगाहमा है। उनकी
आस्तिकता ही उनके साहित्य की आत्मा है, जो विषम में विराम मिति मे भी व्यक्ति को टूटने नही देती। अपने जीवन की विषम स्थितियो की विभिन्न खाई-खन्दको को पार करते हुए ही वह आज साहित्य के माननीय स्थल पर श्रासीन है। लेखक के जीवन का ही अधिकाश साहित्य मे अवतरित होता है। अपने जीवन की सत्यता को बह परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से कही-न-कही अवश्य ही पायित कर देता हे अथवा उसकी आत्मा मे अन्तर्भत सत्य स्वय भी यत्र-तत्र पकट हो उठता है। जैनेन्द्र के साहित्य मे त्याप्त मारया, गमर्पण ओर निमिमानिता तया भाग्यवादिता के मूत मे उसकी ईश्वर परायणता की प्रत्यक्ष मा. ग्टिगत होती है। जैनेन्द्र मानो एक साचा योर साहित्य उनकी माता का प्रमुख अग हे । साहित्य ही उनका भाव विभोरता की अभिव्यक्ति का उपादान बना है। उपन्यास, कहानी, निबन्नामादिको रचना उन्होन साहित्य-जगत् मे योगदान देने की अभिलाषा स न र स्वानुभूति की अभिव्यक्ति या ईश्वर-उपासना के रूप में की है।
जैनेन्द्र की दृष्टि में ईश्वर को तर्क या विवाद द्वारा नहीं गिग किया जा सकता। विवाद मे 'मैं' की पुष्टि होती है, हमारी आस्तिकता ही नही । प्रास्तिकता तो निर्विवाद तथ्य है। ईश्वर को प्राप्त कर दी मानव की माकाक्षा भ्रम नही है, क्योकि अनादि काल में यह जिज्ञासा अब तक चली ग्रा रही है । यदि ईश्वर की खोज मानव का पागलपन होती तो कभी उतनी दर तक टिक नही सकती थी। 'हा, जो आस्तिकता टूट जाती है, वह मास्तिकता ही नही ।२ . अह के रहते हुए ईश्वर की प्राप्ति असम्भव है। ईश्वर द्वन्द्र मे नही है, वह तो दो के बीच ऐक्य मे है अथवा 'मैं' से विसर्जन म है। जैनेन्द्र की दृष्टि में 'बँद जब समन्दर में मिल जायगी तब सवाल ही कुछ नहीं रहेगा। पर यो बूद चाहे कितनी फैले, कितनी ही फूले समुद्रता उसके लिए अप्राय ही
१ दा० राधाकृष्णन 'भारतीय दर्शन', दिल्ली, १९६६, पृ० २२८ (सवं
मिन्द्रात सग्रह २ ५) २ जैनेन्द्रकुमार 'प्रस्तुत प्रश्न', दिल्ली, १९६६, पृ० १०८ ।
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जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
बनी रहेगी।
ईश्वर सम्बन्धी दार्शनिक और वैज्ञानिक दृष्टि
__ससार मे यदि कुछ नित्य, अनन्त और निर्विकार है तो वह ईश्वर अथवा ब्रह्म ही है। पाश्चात्य दार्शनिको की ब्रह्म सम्बन्धी विविध मान्यताए प्रचलित हे । किन्तु सबकी दृष्टि मे परम सत्ता एक ही हे अनेक नही है। धर्म, सभ्यता
और सरकृति के वैभिन्य के कारण ईश्वर के अनेक नाम और रूप है, किन्तु सब कुछ एक को सूचित करते है। चाहे उसे ईश्वर कहे या ब्रह्म, गॉड कहे या खुदा । इस्लाम धर्म अनेक देवी-देवताओ का कट्टर विरोधी है। आस्तिक विचारको के अतिरिक्त नास्तिक अनीश्वरवादी होते हुए भी यह मानते है कि एक परम सत्य अवश्य है और उस सत्य को जानने की जिज्ञासा हममे सदैव बनी रहती है । आधुनिक वैज्ञानिको मे भी किसी अदृश्य रहस्य के उद्घाटन की ही प्रबल आकाक्षा है, जिससे वे तल तक पहुंच कर यह देखना चाहते है कि वहा क्या है ? ग्रास्तिक के लिए सत्य सहज स्वीकार्य है। किन्तु वैज्ञानिक उसे नकार कर भी अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार करने की स्थिति मे ही पहुचना चाहता है, किन्तू उगकी जिज्ञासा का कही अन्त नही है। चाद तक पहचने के प्रयास में उसकी यही इन्छा छिपी हुई है कि देखे चाद मे क्या है ?
वस्तुत दार्शनिक और वैज्ञानिक दोनो ही सत्य की खोज मे है। एक मे जिज्ञासा और अनुभूति है, दूसरे मे बुद्धि और तर्क द्वारा प्रमाणित करने का प्रयत्न है। वैज्ञानिक बुद्धि और तर्क को सामने उपस्थित कर देना चाहता है, किन्तु दार्शनिक मबुद्धि द्वारा सत्य के स्वरूप और उसके अस्तित्व का अनुभव करता है । प्रतएव दर्शन और विज्ञान का लक्ष्य सत्य की प्राप्ति होते हुए मार्ग भिन्न है। किन्तु आज समय की माग यही है कि दोनो के मार्ग की गहरी खाई पट जाये । अर्थात् उन दोनो मे एक-दूसरे को मिथ्या और निरर्थक सिद्ध करने की भावना न हो, वरन् कर्म की दृढता और उसमे विश्वास की प्रगाढता हो ।
साहित्य वह भूमि है, जिस पर समस्त विभेद अथवा पार्थक्य को ऐक्य की दिशा का ऐमा निर्देश प्राप्त हो सकता है, जो व्यावहारिक जीवन के हेतु उपयुक्त हो। साहित्य जीवन की कला है। जैनेन्द्र प्रास्थावान दार्शनिक है। उन्होने वैज्ञानिक विवेक मम्मत बुद्धि को स्वीकार करते हुए भी परमेश्वर के सन्दर्भ में आस्था का ही प्राचल पकडा है। अपनी हार्दिकता को वे किसी भी पल छोड ही नही पाते। विश्वास को छूटता हुम्मा देखकर सम्भवत वे अपने
१ जैनेन्द्र कुमार साहित्य का श्रेय और प्रेय', दिल्ली, १९५३, पृ० १०६ ।
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जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन
जीवन को ही नष्ट होता हुआ देखते हे । वास्तविकता तो यह है कि जब से उन्होने साहित्य सृजन का मार्ग अपनाया तब से प्राद्यन्त वे ग्रपने साहित्य मे चरम ग्रास्तिक प्रोर ईश्वरवादी साहित्यकार और दार्शनिक के रूप मे ही होते हे ।
दार्शनिक हो अथवा साहित्यकार, प्रत्येक का अपना एक विचार पर होता हे जिस प्रोर वह सतत् गतिशील होता है । विचार व्यक्ति के सरकारी के ही परिणाम समझे जा सकते है । जैनेन्द्र यद्यपि जन्म से जैनी हे, तथापि भारतीय सस्कृति के विविध ग - उपागो से वे पूर्णत तटस्थ नही है । उनके विचारो पर वेदान्त, उपनिषद्, गीता आदि मे निहित ईश्वरीय आस्था की पूर्ण झलक स्पष्ट दृष्टिगत होती है । वैदिक काल मे एक परम सत्य की नाना देवी - देवता के रूप पूजा और प्रर्चना टिगत होती है । उपनिषदो मे भी ईश्वर की सर्वव्याप्ति पर प्रकाश डाला गया है । ईश्वर सर्वव्याप्त है, तथापि वह इतना सूक्ष्म हे कि इन्द्रियगम्य नही हो पाता है । ब्रह्म की सूक्ष्मता गोरगरता उसके प्रस्तित्व का निषेध नहीं कर सकती । जगत ब्रह्म की परित्यक्ति है । ब्रह्म के गुणो का अन्त नही हे नेति नेति इस प्रकार का विशेषण ब्रहा की अनन्तता को ही द्योतित करता है ।
जेन दर्शन
जैन दार्शनिको की ईश्वर सम्बन्धी विचारधारा वेद र उपनिषदो से भिन्न है । जैन दर्शन प्रनीश्वरवादी है। तीर्याकर ही जैनियो के सर्वश है ।' तीर्थकर यह है, जिसने अपने समस्त पूर्व कर्मों को नष्ट करके सागारिक बन्धनो से मुक्ति प्राप्त कर ली है । वह आत्यात्मिक क्षेत्र में श्विरवादी विचारको मे ब्रह्म के सदृश्य स्थान प्राप्त करता है ।' तीर्थंकर प्रन्य लोगो के लिए प्रादर्श के पात्र होते है। जैनियो का तीर्थकर सिद्ध अथवा गर्हत उपनिपदीय ब्रह्म के ही समक्ष है । हा, जैनियो का ईश्वर सृष्टि का संचालक थवा विनाशक नही है । '
१ राहुल सांकृत्यायन 'दर्शन दिग्दर्शन', १९४७, इलाहाबाद, पृ०स०, ३८६, ४१० ।
२ एएन उपाध्याय 'दि जैन कनसेप्शन आफ डिवाईनिटी', १९६८ BETR A' GEZUR GESTE SGCHIGHL INDIANSHESTCH RIET FUR ERICH FRAUW ALLNIR Pg 390
३ वही, पृ० ३६०-३६२ ।
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जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
पाश्चात्य दृष्टि
पाश्चात्य दार्शनिको ने भी एक परम सत्ता को स्वीकार किया है । अन्तर यह है कि पाश्चात्य दार्शनिको ने अधिकाशत सत्य को सिद्ध करने के लिए तर्क और बुद्धि का सहारा लिया है। ब्रेडले ने 'परम सत्य' को अनुभवगम्य रूप मे स्वीकार किया है ।
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आधुनिक विचारको की प्रास्तिकता
आधुनिक युग के भारतीय दार्शनिको और विचारको ने भी एक सत्य की सत्ता स्वीकार की है । स्वामी विवेकानन्द, परमहस, रविन्द्रनाथ टैगौर, डा० राधाकृष्णन, गाधीजी आदि महान विभूतियो ने ईश्वर के अस्तित्व को श्रद्वा और विश्वास के आधार पर स्वीकार किया है । विभिन्न पाश्चात्य भारतीय प्राचीन तथा आधुनिक दार्शनिको के सन्दर्भ मे जैनेन्द्र आध्यात्मिकता तथा विज्ञानवाद के सधिस्थल पर खडे आस्था-परक दार्शनिक है । यद्यपि जैनेन्द्र साहित्यकार हे और उन्हें परम्परागत दार्शनिक परम्परा मे विवेचित करना प्रसगत प्रतीत होता हे तथापि जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्त दार्शनिकता को समझने के लिए उपरोक्त विविध दार्शनिको का वैचारिक दृष्टिकोण जानना
निवार्य था । दर्शन के क्षेत्र मे विवेकानन्द ने आधुनिक युग मे सर्वप्रथम भौतिक र आध्यात्मिक जगत मे सामन्जस्य स्थापित करने का प्रयत्न किया था, किन्तु साहित्य जगत् में हमे वही प्रयत्न जैनेन्द्र द्वारा दृष्टिगत होता है । दर्शन जीवन का संद्धान्तिक पक्ष है तो सम्भवत साहित्य उसका व्यापारिक पहलू है । साहित्य के जीवन्त पात्रो मे जीवन के सत्य अत्यन्त ही प्रभावोत्पादक रूप मे घटित होते हुए दृष्टिगत होते है ।
जैनेन्द्र के अनुसार ईश्वर है और वही सब कुछ है । शेष सब उसी के होने की प्रतीति है । समस्त मानवीय क्रियास्रो तथा जडजगत का प्रेरक भी एकमात्र ईश्वर ही है । जैनेन्द्र की आस्तिकता उनके भावात्मक जीवन की आधारशिला है । उनकी रचनात्रो के पात्र परम प्रास्तिक और भाग्यवादी है । 'समय और हम' उनकी एक विचारपूर्ण दार्शनिक कृति है । उसका प्रथम प्रश्न ही ईश्वर के अस्तित्व तथा प्रास्तिकता का प्रत्यक्ष प्रमाण है । जैनेन्द्र की नवीनतम कृति जो अभी अप्रकाशित है, उसमे उन्होने अपने ईश्वर और तत्सबधी विचारो का विशद् विवेचन प्रस्तुत किया है, जिसकी पुष्टि उनके सृजनात्मक साहित्य में सहज की उपलब्ध हो जाती है ।
सृष्टि है इसलिए उसका सूष्टा भी है
जैनेन्द्र की दृष्टि मे इस विराट् सृष्टि को चलाने वाला शान्त व्यक्ति
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जेनन्द्र का जीवन-दर्शन
नही हे, वरन् कोई असीम सत्ता हे । 'होनहार' द्वारा ईश्वर के अस्तित्व की ही पुष्टि होती है। उनकी दृष्टि मे ब्रह्माण्ड को अादमी नही चला रहा है। जगतगति जिस नियम से चल रही है, वह निश्चय ही इस बरती नाम के ग्रह पर मनुष्य नाम का प्राणी नही है । वरन् उसका सृष्टा परमेश्वर है। जैनन्द्रजी सृष्टि को मानने के कारण सृष्टा को भी मानते है ।' विराट प्रकति की अनन्त क्रियाप्रो मे सूर्योदय और सूर्यास्त नदी के सतत् प्रवाह काल की अनन्तता के मूल मे ईश्वरीय शक्ति ही विद्यमान है, जो कि समस्त प्रकतिगत काय में एक अन्विति प्रोर सातत्य को उत्पन्न करती है।
ईश्वर को तर्क द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता
बुद्धिवादी विश्लेषणात्मक दृष्टि द्वारा ईश्वर को प्रखण्ड रूप में स्वीकार करने में असमर्थ होते है। तक के द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने मे असमर्थ विचारक ईश्वर के होने मे ही सन्देह करते है । जैनेन्द्र की तो बढ आस्था है कि यदि 'अस्ति' शब्द किसी के लिए प्रयुक्त हो सकता है तो वह मात्र ईश्वर हे । 'हे' की अनन्तता में केवल ईश्वर ही समाया लगा है। नलिनेति कहकर भी उसके अस्तित्व को ही स्वीकार किया गया है। पाणो म ति नेति द्वारा सत्य से इन्कार नही, वरन् स्वीकार पर बल दिया जाता है। जैनेन्द्र के अनुसार परमतत्व के लिए नेति से सही परिभाषा दुसरी नही हो सकती। उनकी दृष्टि मे नेति मे तत्व कुछ नही है, उसमे अर्थ है तो यह गय है कि मानवभाषा अपूर्ण है । और जो ज्ञात हे ज्ञातव्य सदा उसग गाग है। जो है वह नकार नही है। परमात्मा इन्कार तनिक भी नही। वह सब का सर्वया स्वीकार
अनन्तर मे जैनेन्द्र के इन्ही विचारो की स्पष्टत मानक मिलती है। उनकी दृष्टि में ईश्वर प्रखण्ड ब्रह्म है तथा बुद्धि की परच म पर है। प्रत जानने के द्वारा हम उस जान नही सकते । इसीलिए अज्ञेय और अदृश्य को जानने और शब्दो मे व्यक्त करने की चेष्टा में व्यक्ति की अहता का प्राग्रह ही दृष्टिगत होता है । जैनेन्द्र के अनुसार ईश्वर व्यक्ति की चर्चा का विषय नही बन सकता । अस्तित्व स्वय मे प्रश्न नही होना चाहिए । प्रश्न हाता है जब
१ जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', दिल्ली, १९६६, पृ० स० ६ ० । २ 'मै आस्तिक हू और सृष्टि को मानने के कारण स्रष्टा को भी मानता है।'
--जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', दिल्ली, १९६६, पृ० ३६४ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० ६८।
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जनेन्द्र के श्विर सम्बन्धी विचार
अस्तित्व से अलग होते है और हम सब अलग ही है । अस्तित्व की जगह हम अस्मित्व है । परतुत्व ईश्वर अखण्ड इकाई है। ईश्वर को लेकर प्रश्न तो हमार 'म' भाव के कारण ही होता है, अन्यथा तो ईश्वर का अस्तित्व निर्विवाद ही है। गत परमेश्वर को मानकर स्वय से छुटकारा पाना चाहता है, किन्तु ईश्वर । मानने में नाना मान्यताए फलित होती है। विविध मान्यताप्रो के कारण कार की अखण्डता पर आघात होता है । अतएव जैनेन्द्र ईश्वर सम्बन्धी । गातानो को उचित नही समझते । उनकी दृष्टि मे ईश्वर चर्चा का ीि है। इसलिए इस सन्दर्भ मे उन्हे भटकना भी नही पडता। जैनन्द्र तार को जानने के यत्न मे व्यक्ति की अहता के ही दर्शन करते है। उनकी पि मे व्यक्ति का यह सोचना कि 'मै ईश्वर को जान सकता हूँ' कोरा मि" यावाद ।।द भला कब सागर को जान सकती है । बूद तो केवल रामु मे समान २ प्रस्मि' को 'अस्ति' मे खोकर ही पा सकती है, इसी प्रकार मनाप र म सोकर ही उसका अनुभव कर सकता है । ईश्वर साक्षात्कार के full fortी, वरन अन्तर्दृष्टि अर्थात् प्रज्ञा की आवश्यकता होती है । IIIT तो हम उसका अनुभव कर सकते है । ईश्वर की प्राप्ति हो । ग गोते लगाने से ही होती है । तर्कवाद द्वारा अनास्था की .. .। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी अन्तर्दृष्टि पर बल देते हुए स्पी।। ।। . 1 ग सहज ज्ञानात्मक अन्तर्दृष्टि से हम ईश्वर को देख मा...' . . नही प्राप्त हो सकती । बुद्धि उस दैवी रहस्य
जनेन्द्र की तकन्य प्राम्या
. . . मत्व को सिद्ध करने के प्रयत्न मे स्वय को उलझाते नही । र मारना का अस्तित्व अकाट्य है, क्योकि उस परम शक्ति के प्रागारमाना गम्भव और निराधार है । वे बौद्धिक जिज्ञासा द्वारा भी ॥ . . . मान करते है, जो उनके अत्यन्त ही निकट है। उनकी आमा र
अन्य वस्तुनो की सत्यता को स्वीकार करने मे
१. निमार २. .
..', दिल्ली, १९६८, प्र० स०, पृ० ८५। ! रवीन्द्र दर्शन', दिल्ली, १६६२, अनु० ज्ञानवती
रवीन्द्र दर्शन', दिल्ली, १६६३, पृ० ६३ (अनु०
३. ना
ज्ञानदीवार)
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
असमर्थ है । जैनेन्द्र ईश्वर की अनुभूति के क्षणों मे इतने विभोर हो जाते है कि उन्हे अपने अस्तित्व का भी भान नही रहता । वे सिद्ध करने का प्रयत्न नही करते कि ईश्वर है, वरन् उनका विश्वास हे कि वही हे ।' उनका विश्वास है कि नदिया सब समुद्र में गिरती है इसी तरह विश्वास सब ईश्वर में पहुचता है । विश्वास मे हम अपने प्रापको छोड दे तो ईश्वर के सिवा पचने लिए हमारे पास कोई गति नही रह जाती है । यह विश्वास चरम शक्ति के प्रति होता है । यह आवश्यक नही कि उस शक्ति का रूप एक ही हो । हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, सिक्ख आदि धर्मों के विश्वास भिन्न है, किन्तु दूसरा कोई प्रतर नही पडता । समस्त विश्वास एक उसी चरम सत्ता मे ही समाहित होते है । अत ईश्वर के अस्तित्व के लिए विवाद उठाना निरथक है ।
विवाद मै अथवा मेरे मत की स्वीकृति के हठ मे से ही प्रादुर्भूत होता है । किन्तु ग्रह अथवा 'मैं' के विसर्जन मे भेद या मतवाद की स्थिति नही रह जाती । सब आत्मा उस परमात्मा की अश मात्र हे । सब मे उसका ही प्रकाश व्याप्त
| जैनेन्द्र के अनुसार जब तक ग्रादमी मे तर्क मौजूद हे तब तक ईश्वर विवाद और व्यर्थता का विषय ही बना रहने वाला है । वृद्धा का विषय नहीं हो सकता । ईश्वर के प्रति विश्वास रखने के कारण ही व्यक्ति के जीवन की नाना कठिनाइया सहज ही दूर हो जाती है । वह हमे कष्ट देकर कवन सचेत करता है । रवीन्द्रनाथ टैगोर का भी यही विश्वास हे । उनकी दृष्टि मे प्रेम के
१ जैनेन्द्र कुमार 'जैनेन्द्र प्रतिनिधि कहानिया' - सम्पादक शिवनन्दनप्रसाद, दिल्ली, प्र० स०, १६६६
'वह है, वह है ।'
'कहा है ? कहा '
सब कही, सब कही है ।
और हम
हम नही । वह है । पृ० ६३ ।
'ईश्वर की व्यक्तिगत अनुभूति के साक्षी पूर्व मे ही नही है । सुकरात और प्लेटो, प्लोटिनस और पोफिरी, प्रागस्टाइन और दाते तथा अन्य असल्य व्यक्ति ईश्वर के अनुभव के साक्षी है । ईश्वर का अनुभव सृष्टि के यादि से ही लोगो को होता रहा है और वह किसी देश या जाति तक सीमित नही है ।'
?
-- डा० राधाकृष्णन् 'जीवन की प्राध्यात्मिक दृष्टि', पृ० स० ५२८ । २ जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', पृ० ८५ ।
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जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
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कारण ही परमात्मा कष्ट भेजता है । वस्तुत ईश्वर का विश्वास प्रादमी की ast मदद करता है । जैनेन्द्र के पात्र अपने जीवन की विषम स्थितियो मे भी ईश्वरीय आस्था का सहारा लिए हुए जीवनयापन करते है । प्रास्था के रहते हुए निराशा प्रथवा विश्वास की भावना या ही नही सकती । व्यक्ति को प्रत्येक कर्म के फल मे होनहार की प्रेरणा ही दृष्टिगत होती है । 'प्रधे का भेद' मे अधा भिखारी, ‘त्यागपत्र' की मृणाल, सुखदा आदि पात्र अपने अन्तर मे निहित विश्वास के कारण भी छूटने नही पाते । 'समय, समस्या और सिद्धान्त'
जैनेन्द्र ने स्पष्ट स्वीकार किया है कि 'जिसके प्रति अटूट विश्वास और श्रद्धा है, उसके द्वारा निराशा, पराजय मिलने पर अश्रद्धा उत्पन्न होती है । किन्तु सूक्ष्मता से देखे तो प्रश्रद्धा और अवज्ञा की यह घोरता विश्वास की टूटन नही है, हमारी अपेक्षाओ के टूटने की ही प्रतिक्रिया है । '
अद्वैत दृष्टि
जैनेन्द्र मूलत अद्वैतवादी है । ब्रह्म एक है । हर दो के बीच मे एक्य है । उनकी दृष्टि मे द्वैत टिक नही पाता । जहा द्वैत दृष्टिगोचर भी होता है, वह दो नही, वरन् एक ही परम सत्य की अभिव्यक्ति है । एक ही सत्य के दो रूप हे । जैनेन्द्र के अनुसार जिस प्रकार फल और रस मे कोई अन्तर नही है । उसी प्रकार ईश्वर के विविध रूपो मे भी कोई पार्थक्य नही है । हमारी भाषागत सीमा ही भेद उत्पन्न कर देती हे अन्यथा परम सत्य एक ही है । जैनेन्द्र की अद्वैतवादी विचार-धारा दार्शनिक क्षेत्र मे कोई नवीन देन नही है । प्राच्य तथा पाश्चात्य अधिकाश दार्शनिको में अद्वैत तत्व की ही प्रधानता है । वैदिक काल से लेकर धुनिक काल ( २०वी शती) तक के दार्शनिको मे यही धारा मुख्यत मान्य रही है । जैन दार्शनिक अनीश्वरवादी होते हुए भी एक ही 'परम सत्ता' (तीर्थाकर) पर विश्वास करते है । गीता में वर्णित सर्वोपरि ब्रह्म एक निर्विकार सत्ता है ।
जैनेन्द्र की अद्वैतवादी विचारधारा विशुद्ध अद्वैतवादियो की सी नही है । यद्यपि वे कही भी उपनिषदो के प्रभाव को स्वीकार नही करते, तथापि उनके साहित्य अन्तत भक्ति भावना के मूल मे उपनिषदीय विचारो की झलक स्पष्टत
त होती है । सम्भवत भारतीय दर्शन के तत्व संस्कारवश यत्र-तत्र दिखाई देते है । भक्ति भावना से पूर्ण होने के कारण उनके ईश्वर सम्बन्धी विचार पूर्ण
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या प्रौर सिद्धान्त' (अप्रकाशित ) पृ०स० १२६ । २ 'एको सत्य विप्रा बहुधा वदन्ति'
जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', १६६८, प्र० ९५ ।
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जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन
अद्वैतवादी नही प्रतीत होते तथापि वे विश्व की अखण्डता, एफ ब्रह्म की शक्ति पर पूर्ण विश्वास करते है।
द्वैत सासारिक तथ्य है । ऐक्य आध्यात्मिक सत्य है । जीव और ब्रह्म का ऐक्य ही जीवन का परम लक्ष्य है। जैनेन्द्र के अनुसार जोव का अस्तित्व अपने मे अपूरा हे । हममे एक-दूसरे की और फिर शेष की आवश्यकता में रहता है । इसलिए तब जीवात्मा का जो अखण्ड चिन्मय स्रोत है, ब्रह्म है, वही है । ऐसा मानकर हमारा जीवत्व खण्डित के बजाय अखण्ड होता है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे शकर का भी यही आशय है। भेद तो ऊपरी माया तक ही परिमित है। उसकी दृष्टि मे समस्त चेतन्य से अस्तित्व का, उस अखण्ड ब्रह्म से अभिना भाव सबध है । जैनेन्द्र के अनुसार सृष्टि मे ब्रह्म और जीव दो सत्ता नही है । प्रतीति हमे द्वैत की होती है, किन्तु यदि निरा द्वैत ही होता तो प्रतीति तक सभव कैसे होती ? इसलिए उस अनेक रूप प्रतीति के रहते एकता का प्रत्यय अनिवार्य हो जाता है।
'मैं' अथवा अलगाव ही दुख का कारण है, क्योकि मेरे 'मे' भाव के रहते हुए ब्रह्म से साक्षात्कार असम्भव है । जब 'मैं' मिट जाता है, अर्थात् उसे अपनी अहता का बोध नही रहता वह 'पर' अर्थात् ईश्वर प मे ही लीन रहता है, तभी सत्य की उपलब्धि सम्भव हो सकती है। आध्यात्मिक दृष्टि से ही नही, व्यावहारिक जगत में भी द्वैत की अनन्तता सम्भव नही है। जगत की सायकता द्वैत पर आश्रित है, किन्तु जीवन का लक्ष्य अद्वैत की प्राप्ति होना चाहिए । जैनेन्द्र के समग्र माहित्य म यह आदर्श स्पष्टत दृष्टिगत होता है। उपक पात्र सदैव अद्वैत की अोर प्रवृत होते हुए दष्टिगत होते हैं। उनकी दृष्टि म द्वैत द्वन्द्व का मूल है। अतएव द्वैत मे पार जाकर ही व्यक्ति शान्ति और सत्य की प्राप्ति कर सकता है। द्वैत से ऊपर अद्वैत ही वह परम सत्य है, जिसे उन्हान ईश्वर रूप मे अभिव्यक्त किया है।
परम अद्वैत जीव के साथ जिस प्रकार एक है, वैसे ही एक है जड के साथ भी। ईश्वर की परम सत्ता मे द्वैत को अवकाश नही है। द्वैत का स्थान हमसे है। जहा युद्ध है, दो पक्ष है वहा भी अभेद की सम्भावना है, क्योकि लडते हुए उनके बीच एक जमीन रहती है, जहा वे सधि पर पा सके ।'
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धात', पृ० ४४ । २ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ४५।। ३ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', (भाग १, नई व्यवस्था), १९६२,
प्र० स०, दिल्ली, पृ० स० १६८।
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जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
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देवी-देवता मे अविश्वास
ऋग्वेदकालीन अनेक देवी-देवताओ मे जैनेन्द्र का विश्वास नही है। जैन धर्मावलम्बी होने के कारण उन्होने सत्य के अनेकान्तिक रूप को स्वीकार किया है । उनकी दृष्टि मे विश्वास के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति या वर्ग के अलग-अलग देवता हो सकते है, क्योकि आज भी कोई सूर्य का उपासक है, कोई दुर्गा का तो कोई गणेश का, किन्तु सभी के मूल मे एक ही परम सत्य का प्रकाश विद्यमान है। उसी की शक्ति सब में व्याप्त है। हमारी भावना विभिन्नता की कल्पना करती है, किन्तु यथार्थ मे एकता ही सत्य है । ज्यो-ज्यो मानव-बोध विकसित होता गया, त्यो-त्यो विभेद को मिटाकर एक परम सत्य की कल्पना जीवन के लिए आवश्यक प्रतीत होने लगी । यही कारण है कि वैदिककालीन अनेक देवी-देवता उपनिषद् और भागवत् काल के एक परब्रह्म के रूप मे ही स्वीकृत हो जाते है। जैनेन्द्र ईश्वर के सम्बन्ध मे विभेद को निरपेक्ष रूप से नही स्वीकार कर सकते। 'नई व्यवस्था' मे उन्होने पूर्व की परम्परा और पश्चिम की परम्परा द्वारा ईश्वर के सम्बन्ध में व्यक्ति की दूरी को ही व्यक्त किया है। उनकी दृष्टि में एक मत दूसरे मत से ऊपर उठने और अपनी सत्यता को प्रमाणित करने में अधिकाधिक गौरवान्वित हो जाता है। एक ईश्वर को सत्य मानने से सारे विश्वास उसी मे समाकर ऐक्य की प्रतिष्ठा करते है किन्तु अनेक देवी-देवताओ को मानते हुए उन्ही पर भटक जाने मे दृष्टि की सकीर्णता और मतवाद को ही प्रश्रय मिलता है, हृदयगत श्रद्धा और व्यापक दृष्टि विलुप्त हो जाती है।'
ईश्वर . स्वयभू
प्रश्न उठता है कि यदि ईश्वर एक है वह एक परम सत्य है तो उस सत्य का क्या स्वरूप है ? क्या वह व्यक्ति द्वारा ग्राह्य हो सकता है । यदि वह निराकार अमूर्त और अनन्त है तो वह सान्त व्यक्ति द्वारा स्वीकार हो पाता है ? क्या ईश्वर की उत्पति हुई है अथवा वह स्वयभू है ? आदि अनेको प्रश्न जैनेन्द्र के साहित्य मे समाधान ढूढने के हेतु उठ खडे होते है।
ईश्वर उत्पन्न नही हुआ । वह सृष्टि का आदि मूल कारण है, स्वयभू है । जिसकी उत्पत्ति होती है, उसका विनाश भी निश्चित है। जन्म और मरण का क्रम अनिवार्य रूप से चलता है। किन्तु ईश्वर न जन्मता है, न मरता है । वह परम आत्मा है । 'गीता' में भी स्वीकार किया गया है कि वह कभी नही जन्मा और न वह मृत्यु को प्राप्त होता है और चूकि उसका आदि नही, इसलिए अत
१ जैनेन्द्रकुमार 'नई व्यवस्था' (जैनेन्द्र की कहानिया, भाग १), पृ० १७३ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
भी नही हे ।' जैनेन्द्र भी ईश्वर को स्वयंभू मानते है । उनकी दृष्टि मे 'ईश्वर' शब्द की ध्वनि में ही हे कि वह पैदा नही होता, फिर किसी से पैदा होने का प्रश्न ही नही उठता । वह केवल है । इस तरह वह अनादि अथवा आदि कारण है, पर कारण ऐसा कि कार्य उससे बाहर हो नही सकता ।' सब कुछ है और उस सब की समष्टि ही ईश्वर है । ईश्वर समग्रता तथा अखण्ड में है ।
वैज्ञानिक सिद्वान्तो के अनुसार यदि कुछ है तो उसका कारण अवश्य होगा । शून्य मे प्रस्तित्व की कल्पना निराधार है । इस सिद्धांत के आधार पर हम ईश्वर को प्रकृति से उत्पन्न हुआ नही मान सकते । क्योकि जड-जगत् असत् हे और उसका अस्तित्व भी ईश्वर के अस्तित्व के ही कारण सम्भव है । स्वय में उसका कोई महत्व नही । प्रत असत् से सत् ( परमेश्वर) की उत्पति की कल्पना नही की जा सकती ।
ईश्वर को कार्य भी नही माना जा सकता, क्योकि कार्य होने मे उसमे परम तत्व का अभाव हो जायेगा । वह तो आदि है, उसके पूर्व कुछ भी नही । कायकारण के चक्कर में अनवस्था दोष की सभावना रहती है प्रर्थात् किसी वस्तु के कारण की खोज अनन्त तक की जायेगी पर फिर भी उससे समाधान न होगा । अत मानना होगा कि गत्यक जन्मशील वस्तु की उत्पति किसी ऐसी वस्तु से हाती है जो स्वयं प्रज तथा स्रष्टा है ।
ईश्वर का स्वरूप
वस्तुतश्विर के अस्तित्व को जानने के अनन्तर उसके स्वरूप को जानना भी ग्रनिवाय हे । एक ही सत्य दृष्टि-भेद के कारण नाना रूपात्मक प्रतीत होता है । द्वैतवादी ब्रह्म रूप है, किन्तु व्यावहारिक जगत् में ब्रह्म को अपने समीप अनुभव करने के लिए उसे स्वरूप प्रदान करना आवश्यक है । ईश्वर रूप, प्राकार, मानव हृदय की जिज्ञासा और प्यास का परिणाम है, ब्रह्म उसकी बौद्धिक जिज्ञासा का विषय है । मानव-मन ग्रात्म समर्पण के लिए सदैव उत्सुक रहता है । मानव उसी स्थल पर अपने को समर्पित करना चाहता है, जहा उसे कुछ पान को शेष न रह जाए, अर्थात् उसकी समस्त इच्छाए स्वयं तृप्त हो जाय । ऐसा परम श्राश्रय स्थल ब्रह्म का ईश्वरमय स्वरूप ही है । जैनेन्द्र ने ब्रह्म
१ भगवद्गीता - ३, २, २० ।
२ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ४३ ।
३ 'भगवद्गीता' - 'ईश्वर शून्य से जगत् का निर्माण नही करता, वरन् अपने सत् स्वरूप से करता है ।'
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जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
को 'ईश्वर' रूप मे ही स्वीकार किया है ।
जैनेन्द्र प्रत्येक विचार अथवा दृष्टि को सापेक्ष रूप मे ही स्वीकार करते है । व्यक्तिगत अभिमत को निरपेक्ष सत्य की स्वीकृति नही मिल सकती । जैनेन्द्र के अनुसार 'ईश्वर का स्वरूप किसी दूसरे को छोडकर कोई एक निश्चित हो नही सकता । इसी से ईश्वर ईश्वर है । सुविधा हम सब को हे कि अपने मन का स्वरूप उसको पहना ले । उसे रूप मे बाधना हमारी ही आवश्यकता है ।" इस प्रकार ईश्वर अनन्त रूपात्मक हो जाता है और पुन एक ऐसी स्थिति आती है जब सब रूप उसी के हो जाते हे । जैनेन्द्र के अनुसार ईश्वर, अल्लाह, गॉड आदि को पृथक्-पृथक् सत्ता मानने मे प्रश्न उपास्य का नही, उपासक का है । उपासक की निष्ठा ही उपास्य को सत्यता प्रदान करती है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे यदि सम्पूर्ण समर्पण भाव है तो उपास्य सत्य हो ही जाता है । चित्र उपास्य का कृष्णरूप हो अथवा क्राइस्ट का हो अथवा अन्य किसी का भी होयह प्रश्न वृथा है । जो संगत है, वह मात्र उपासक की हृदयगत सत्यता है ।
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जैनेन्द्र के अनुसार यदि ईश्वर के विशिष्ट रूप के प्रति आस्था सहज भाव से जाग्रत होती है, तब उसमे उपासना की सत्यता पर शका की जा सकती है, किन्तु जब प्रथावश उपासना की जाती है तब वह दबाव के नीचे उपासक मे प्रपनी उपासना से उल्टे भाव पैदा करती है । इस प्रकार के मिथ्याचार से उपासना भी मिथ्या बन जाती है । वस्तुत जैनेन्द्र की दृष्टि मे ईश्वर का स्वरूप चाहे कुछ भी हो उपासक की भावना और भक्ति ही सच्ची होनी चाहिए । यही कारण है कि जैनेन्द्र के साहित्य मे पात्रो को ईश्वरीय आस्था के लिए रूप व प्राकार पर टिकने की आवश्यकता नही हुई है । ये प्रतिपल अपने हृदय में ईश्वर के प्रति निष्ठा रखे हुए है । अपनी प्रास्तिकता को पोषित करते है । विवाद द्वारा वे भक्ति को खण्डित नही करना चाहते । ऐक्य की अनुभूति ही अन्तिम सत्य के रूप मे शेष रह जाती है । स्थूल बुद्धि द्वारा निराकार ब्रह्म को समभाग सभव नही है, अतएव भाव और श्रद्धा के सहारे ही उसे रूपाकार प्रदान करके ग्राह्य बनाया जा सकता है । भगवद्गीता मे कृष्ण का विराट् रूप अर्जुन को ग्राह्य नही हो पाता और वह कृष्ण से उनके साकार तथा सौम्य रूप को पुन देखने के लिए प्रार्थना करने लगते है ।
जैनेन्द्र के अनुसार उपास्य को हम निराकारता के क्षेत्र से मानो उतार कर अपने पास और प्रत्यक्ष लेने की चेष्टा किया करते हैं । परमेश्वर इस
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ४४ ।
२. 'श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ११, श्लोक ४५, गीताप्रेस गोरखपुर ।
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जनन्द्र का जीवन-दर्शन
प्रक्रिया मे अनायास हमारी प्रिय से प्रिय मूर्ति का रूप ग्रहण कर लेता है । यद्यपि यह सत्य है कि परमेश्वर रूप का रूपाकार गे नही समा सकता तथापि जैनेन्द्र की दृष्टि मे भक्त की भक्ति ही यह अक्षम्य साधना कर पाती है। जैनेन्द्र के अनुसार प्रिय की प्रत्यक्ष प्रथवा समक्ष कल्पना करके उपामक की अनुरक्ति पोर भी बढ़ जाती है । उन की दृष्टि में प्रेम की प्रगाढता प्रनायाम जब उपासना करती है तो उपलब्धि गविक सुगम पोर सुनिश्चित है।' ईश्वर स्वरूप के सम्बन्ध मे जैनेन्द्र का ऐसा विश्वास है कि जिसमे अन्तिम प्रोर परिपूर्ण विश्वास हे वही ईश्वर है। जहा समपण मभव हो उसे ही ईश्वर र प मे भिहित करने में उन्हें कोई बाधा नही है। व्यक्ति मे जो विश्वास की क्षमता और अनिवायता हे पोर वही पर्याप्त प्रमाण हे, विश्वसनीयता की सत्यता ।
ईश्वर प्रानन्दस्वरूप
जेनन्द्र के अनुसार ईश्वर प्रानन्दम्वरूप है।' प्रानन्द का तत्व न हो तो जीवन ही मभव नही है । हा, दुख क्लेश भी उगे अनुभव होता है। मका कारण स्वय अश में प्रशता की पनुभूति है । वह अनुभुति दुगमय गोलिा। होती है कि उसके प्राधार में पूणता गे विछोह है। फिर गी मोचन वय प्रानन्द का स्फूलिग है। जैनेन्द्र की दष्टि में प्राकृतिक सुषमा ने भो ईश्वरीय आहाद के ही दशन होते है। उनके अनुसार- - 'अग अगी का पृथक् भाव जब कि वेदना का बोध देता है । तब उसके प्रभाव प्रोर सयोग भाव में एक साथ प्रसाद की अनुभूति खिल उठती है। कारण, प्रत प्रकृति में जीवन सच्चिदानन्द स्वरूप है। व्यष्टि समष्टि गे अलग नही है। अलग की प्रतीति हाते ही अपुणता
और विकृतिया दीखने लगती है।" जैनेन्द्र की उपरोक्त विचारधारा ही उनके माहित्य का मूल स्वर है। उनके साहित्य में समाहित पीडा अथवा वेदना का प्रमुख कारण अशत प्रतीति ही है। जैनेन्द्र के अधिकाश 'म' का बोन होते हा समर्पण के लिए पयत्नशील दृष्टिगत होते है । 'म' अथवा 'स्व' को 'पर' म विलीन करके वे एकमात्र परम सत्य अर्थात् ईश्वर का साक्षात्कार करना चाहते है। जगत म उनका द्वैत अर्थात् ईश्वर से वियोग बना रहता है। वे पीडा में ही प्रानन्द का अनुभव करते है, किन्तु उनम सदैव ईश्वर के समक्ष
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धात', पृ० ४६ । २ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धात', पृ० ४८ । ३ जनेन्द्रकुमार 'समय, रामग्या और सिद्वात', पृ० ४८ । ४ वही।
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जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बधी विचार
समपित हो जाने की उत्कट लालसा दृष्टिगत होती है। जैनेन्द्र के पात्रो की अहशून्यता के मूल मे उनकी ईश्वरीय आस्था के ही दर्शन होते है। इसीलिए जैनेन्द्र ईश्वर के प्रेममय रूप को ही स्वीकार करते है।
सत्य ही ईश्वर
गावी के अनुसार 'सत्य ही ईश्वर है ।'' सत्य निर्वयक्तिक तथा निराकार है। वह हमारी भावना का विषय नही बन सकता । यद्यपि गाधी जी का यह विश्वास प्रदारश सत्य तथा उपयोगी है कि सत्य के ऐक्य मे साम्प्रदायिक विवाद की प्रथम रही है । क्योकि हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सभी एक परम सत्य को स्वीकार करते है । परम आस्तिक ही नही नास्तिक भी सत्य के अस्तित्व को स्वीकार करते है । सत्य स्वय अकाट्य है । वस्तुत बिना किसी द्वन्द के समस्त मतवादो की धारा नदी के सदृश्य सत्य-सा सागर में समाहित हो जाती है। किन्तु 'ईश्वर' को सत्य कहने पर हिन्दू धर्म का ईश्वर ही सत्य सिद्ध हो पाता है पोर नास्तिक तथा प्रास्तिक गाड और खुदा आदि की सत्यता विवादास्पद हो जाती है। यही कारण है कि गाधी जी ने सत्य को ही ईश्वर माना । यद्यपि जैनेन् को यह गत्य स्वीकार है, किन्तु सत्य ही ईश्वर है, ऐसा मानकर वे श्विर को निर्वैयक्तिक नही रहने देना चाहते । ईश्वर मानव को अावश्यकताअो का पूरक है। उसे रूप देकर रूप मे प्रतिष्ठित करके हम उसके समक्ष आत्मसमर्पण कर सकते हैं। समर्पण के अभाव मे ईश्वर की प्राप्ति असम्भव है। 'स्व' का विगलन ही ईश्वर प्राप्ति का वास्तविक मार्ग है। सत्य को ईश्वर मानने मे ग्रह का प्रश बना रहता है। राम का मूर्ति रूप प्रतिष्ठित स्वरूप हमे सहज ही गानन्दमय बना देता है । श्रीमद्भागवद् गीता का ब्रह्म भी ईश्वर रूप में इसी प्रकार परिगत हो गया है । जैनेन्द्र के द्वारा ब्रह्म को ईश्वर रूप मानने तथा उमे भक्ति प्रेम आदि का विषय स्वीकार करने मे श्रीमद्भागवद् गीता का प्रभाव स्पष्ट ही परितक्षित होता है।
जैनेन्द्र की दृष्टि मे जैसे-जैसे उस मूर्त और सगुण मे एकात्मता पाने की चेष्टा होगी, वैसे ही वैसे व्यक्त अव्यक्त, मूर्त अमूर्त और सगुण निर्गुण बनता जायगा । माधना सावक को आकार का सहारा देकर निराकार मे उठती ही जायेगी।' जैनेन्द्र के अनुसार भक्त की भावना प्रियतम मे मूर्तित हो
१. महात्मा गाधी 'दि वायस आफ टू थ', १९६८, अहमदाबाद-'ट्रथ इज
गाँन नशिग इज नथिग एल्स' ... ६७ । २ महात्मा गाधी नही, पृ० ६६ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त'--(अप्रकाशित) ।
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जेनेन्द्र का जीवन-दर्शन
जाती है। भक्त ग्रपनी भावना के अनुकूल ही ईश्वर को रूप पदान करता है । तुलसी, सूर की भाव सघनता राम, कष्ण को अनायस ईश्वर बना देती है, परन्तु यदि वे तर्क पद्धति से ऐसा करना चाहते तो सभव न होता । वस्तुत जेन्द्र अपने साहित्यिक क्षेत्र मे दार्शनिक होने के साथ ही साथ भक्त और ईश्वर के अनन्य उपासक भी है । भक्तिकालीन सूर, मीरा और तुलसी के सदस्य उनका हृदय भी प्रात्मसमर्पण के लिए विकत होता हुआ दृष्टिगत होता है । 'साधु का हठ' कहानी दृष्टि मे साधु की अतिशय विनम्रता और ग्रहशून्यता जेनेन्द्र के विचारो की पुष्टि के लिए पर्याप्त है ।
जैनेन्द्र के अनुसार आधुनिक विज्ञानवादी युग मे सगुण साकार ईश्वर के प्रति निष्ठा का प्रभाव हे । बुद्धि की शुष्कता मे ग्रह का प्राचुर्य हे । सत्य की खोज मे हम ग्रह का ही पोषण करते है । यही कारण है कि ग्राज आस्थाहीन समाज निरन्तर अनीश्वरवादी होता जा रहा हे। जीवन में रही भी स्थिरता नही है । सवत्र समस्या प्रोर उलभाव हे । जैनेन्द्र के अनुसार सबका समाधान ईश्वर की पाप्ति में ही सम्भव है । उपासना के द्वारा पत्थर की मूर्ति में भी ईश्वरीय शक्ति र स्वरूप के दर्शन होते है । किन्तु मूर्ति की उपासना लिए तपरता निवास है । सन्त्री श्रद्धा और तत्परता के अभाव मूर्ति पूजा खातामा रह जायगी । पूजा का वास्तविक प्रयोजन नही पूरा हो सकेगा । एसी स्थिति मे नास्तिक की कमशीलता उसे प्रास्तिक से अधिक श्रेणी का उपासक बना देगी । "
जैनेन्द्र की दृष्टि मे यदि जडमूर्ति की उपासना करने वाला व्यक्ति भक्त हे तथा ईश्वर के योग्य हे तो यत्रो के साथ अपनी प्रयागशाना में सतत् रत रहने वाला वैज्ञानिक भी किसी उपासक से कम नही है । किन्तु वैज्ञानिक की उपासना मे समपरण भाव नही जाग्रत होता । जैनेन्द्र के अनुसार यदि वैज्ञानिक मे 'स्व' सेवन की जगह समर्पण की वृत्ति मे तो वह भी प्रास्तिक से कम नही है | किन्तु देखा यह जाता है कि उपास्य के समक्ष उसका सिर नही भुकता, प्राथना नही होती, भक्ति नही फूटती । वस्तुत ईश्वर की प्राप्ति समपरण में ही सम्भव हा सकती है । निष्कर्पत यदि यह कहे कि जैनेन्द्र का व्यक्तित्व भक्त, साहित्कार और दार्शनिक का समन्वित रूप हे तो अतिशयोक्ति न होगी । वे स्वयं को ईश्वर की विराटता के समक्ष पराजित हुआ-सा पाते है । अपनी इस पराजय को वे अपना
१ जैनेन्द्रकुमार 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', दिल्ली, १६५३, प्र० स० पृ०
१६२-१६३ ।
२ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ५१ ।
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जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
सौभाग्य ही समझते है । एक स्थल पर तो वे स्वीकार करते है कि इस हार को कृतार्थ भाव से मानना सीख गए है।
सगुण ईश्वर ___ जैनेन्द्र के अनुमार परम सत्य व्यक्ति से निरपेक्ष है, इसलिए वह परम सत्य अनुभूति निरपेक्ष है । वह बौद्धिक जनो को तृप्ति दे सकता है । इतर को महान सम्बद्धता चाहिए। इसलिए गाधी का सत्य शेष जनो के लिए ईश्वर अधिक सत्य होगा । गाधी जी उतनी सगुणता सत्य को पहनाने की आवश्यकता नही समझते । उन्होने निर्गुण निराकार रूप मे सत्य के प्रति अपना सम्पूर्ण भाव प्रदर्शित किया । इसलिए जब उन्होने कहा कि ईश्वर सत्य है, कहने की जगह सत्य ही ईश्वर हे पर सन्तुष्ट हुए तो उन्हे भगवत् स्थापना को मूर्त रूप प्रदान करने की आवश्यकता न थी। जैनेन्द्र के अनुसार निर्गुण निराकार मे उपलब्धि अथवा अनुभूति और सवेदन का भाव ग्राह्य नही है, इसलिए ईश्वरता से मडित करके ही उस परम सत् को हम अपने मन के निकट लाते है । उस निकटता का गाध्यम ही पेग अथवा भक्ति कहलाता है। इसीलिए भक्तो ने यहा तक कहा है कि हमे भगवान नही चाहिए भक्ति ही चाहिए । भक्त के लिए भक्ति ही प्रिय और निकट रहे, यही उसकी कामना होती है। जैनेन्द्र के साहित्य मे भगवान और भक्ति की उपरोक्त सत्यता प्रेम मे वियोग के स्तर पर दृष्टिगत होती है। उनकी दृष्टि में विरह ही वह स्थिति है, जिसमे प्रेम अथवा भक्ति अधिकाधिक घनीभूत होती है । इस प्रकार जैनेन्द्र के अनुसार भगवान् को 'सत् तत्व' के तल से उठाकर मानव, दया, अनुभूति मे सन्निविष्ट कर लिया जाता है। प्रेम ही भगवान है, यह इसी स्थिति का तथ्य है । जैनेन्द्र के साहित्य मे पारस्परिक प्रेम, सहानुभूति एव सेवा प्रादि के भावो मे ही भगवत् भक्ति की कल्पना की गई है।
ईश्वर . प्रेममय
जैनेन्द्र का साकार और सगुण ईश्वर प्रेममय है। प्रेम ही ईश्वर की प्राप्ति का एकमात्र माधन है । और उत्तरोत्तर साधन ही साध्य बन जाते है। जैनेन्द्र प्रेम को ही ईश्वर मानते है । जिस प्रकार गाधी सत्य को ही ईश्वर मानते है, उसी प्रकार जैनेन्द्र प्रेम को ही ईश्वर मानते है। यद्यपि यह सत्य है कि 'सत्य' से परे कुछ भी नही है । जो कुछ भी हे वह सत्य मे ही समाहित है। तथापि
१ जैनेन्द्रजी से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
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जैनेन्द्र का जोवन-दशन
सत्य निर्वैयक्तिक होने के कारण ही सहज ही ग्राह्य नही हो सकता। 'प्रेम' वैयक्तिक तत्व है। 'मूर्ति' ईश्वर प्राप्ति के मार्ग का अवलम्ब है। जनेन्द को तो ईश्वर से भी अधिक प्रेम प्रिय है क्योकि ईश्वर की एकान्तिक धारणा होभी सकती है। उसके नीचे स्वार्थ का सेवन भी हो सकता है, किन्तु प्रेम मे मभव नही है ।' ईश्वर के नाम पर विभिन्न सम्प्रदायो में सदैव सघप हात हा देखा जाता है। किन्तु प्रेम ऊच-नीच, गरीब-अमीर, देश-विदेश पोर जातिवाद के भेद-भाव को पार करता हुआ अभेद की स्थिति पर ही आसीन होता है। जब कि सासारिक प्रेम किसी प्रकार की सीमा को स्वीकार नही करता ना ईश्वर प्रेम के लिए बन्धन की कल्पना ही निरर्थक है। प्रेम तो मुक्त है। वह सबको अपने मे समेट लेता है, बाध लेता है। किन्तु बाधकर भी वह मुक्त है। यद्यपि यह विरोधाभास सा प्रतीत होता है कि प्रेम बन्धन भी हे ओर मुक्ति भी, किन्तु सत्य इसी विरोध में समाहित है। दो बध कर ही एक हो पाते है । ऐक्य मे ही मुक्ति है । जैनेन्द्र प्रेम के सिवा कुछ भी मानने को तैयार नही है। प्रम का अनिवार्य अर्थ हे सम्बन्ध । वह बध जो सबगे युक्त होता है। प्रेम गीत भाव अह यूवत' नही हो पाता। उसमे समपण की भावना गगाहा होगी। जैनन्द्र का विश्वास है कि ईश्वर को प्रेम के रूप में लिया जा मो) Titअन्य था ईश्वर तक उनकी दृष्टि में सर्वथा और सहज ही अनावश्य हो जाता है।' प्रेम मे ही सच्ची शान्ति एव सुख की अनुभूति हो सकती है।
ईश्वर-प्रेम वियोग प्रधान
जैनेन्द्र प्रेम की सयोगात्मक स्थिति की अपेक्षा वियोगात्मक स्थिति को अधिक महत्वपूर्ण मानते है । वियोग मे प्रेम की तीव्रता कम नही होती, वरन्
और भी द्विगुणित हो उठती है। जब तक ईश्वर की प्राप्ति नही होती तब तक वियोग पक्ष ही प्रधान रहता है । विरह प्रेम में ही प्रेम पलता है । 'जयवधन' मे जैनेन्द्र जी ने उपासक की उपास्य से दूरी के कारण उत्पन्न त्याग की पराकाष्ठा की ओर इगित किया है। विरह मे • 'भक्त किस शक्ति मे हराते-हसते
१ जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', दिल्ली, १६६६, प्र० स०, पृ० २६३ । २ जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', दिल्ली, १९६६, प्र० स०, पृ० २६३ । ३ प्रेम में इतना नि शेष आत्मसमर्पण हो सकता है कि अनायारा ईश्वर भक्ति
का फल मिल जाय, बिना ईश्वर को जाने या उसका नाम लिए प्रेम की परिपूर्णता मे ताभ पा जाने के उदाहरण अनेकानेक मिल जायेग । जनेन्द्रकुगार 'प्रश्न और प्रश्न', पृ० ८७ ।
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जैनेन्द के ईश्वर सम्वन्धी विचार
शहीद हो सकता है और हर यातना मे भगवान के प्रेम को देख सकता है । तब कष्ट ही उसे भगवान का भोग हो जाता है। जीवन मे जैनेन्द्र का ऐसा विश्वास हे कि 'हर व्यवित उसका ही है, जिसको वह कभी प्राप्त नही कर पाता।' जैनेन्द्र को पात्रो के जीवन मे लौकिक प्रेम के द्वारा ही अध्यात्म साधना की ओर उन्मुखता दृष्टिगत होती है। प्रेम मे लीनता तथा व्यथा का रस ही जीवन की शक्ति बनता है। प्रेम से बा-यता नही होती, वरन् सहजता ही रहती है।
ईश्वरवादी अपने विचारो और मान्यताओ के प्रचारक हो सकते है । वे अनीश्वरवादियो के विरुद्ध अपने मत के प्रतिपादन की चेष्टा करते है। किन्तु जहा आस्तिकता का लक्षण प्रेम , वहा प्रचार की आवश्यकता नही पडती । 'प्रेम मे व्यक्ति अनायास विस्तार पाता है। जैनेन्द्र की प्रास्तिकता 'अह' की पोषक नही है । इसलिए वे अपने को सुधारक या उद्धारक न मानकर ईश्वर का सेवक मानते हैं। सेवक का कर्तव्य दायित्वपूर्ण होता है । सेवा मे ही उसे परम आनन्द की उपलब्धि होती है । जैनेन्द्र के साहित्य मे 'पर' की स्वीकृति मे ही सेवा के दर्शन होते है। इसीलिए जनेन्द प्रानन्द और दायित्व मे कोई विरोध नही देखते ।
प्रेम का मानन्दगय रूप उपनिषदीय विचारधारा के अत्यधिक निकट है। डा० राया गन् । भारतीय दर्शन' मे उपनिपदो मे स्वीकृत ब्रह्म के 'आनन्द मय' सब पर पका नाला है । वस्तुत जैनेन्द्र का प्रेममय ईश्वर पारस्परिक विचारधारा गे पृथक् उनकी कोई भौतिक देन नही है।
हमारी पृथ्वी जिन परमारणो से बनी है, यदि उसमे उन्हे एक-दूसरे के साथ बाध रखने की शक्ति न हो तो सारी सृष्टि पल भर मे विनष्ट हो जाये। उसी प्रकार चेतन प्राणियो को परस्पर बाधने वाली शक्ति का नाम प्रेम है । यदि पारम्परिक प्रेम न हो तो जगत की अखण्डता नष्ट हो जाय । मानवमात्र का पति सद्भावना रखने से ही ईश्वर की प्राप्ति सम्भव हो सकती हे । रविन्द्रनाथ टैगोर भी प्रेमी-प्रेमिका के प्रेम को उत्तरोत्तर ईश्वरीय प्रेम मे ही परिणत हुआ पाते है । 'प्रेमी और प्रेमिका का भेद तब तक बना रहता है
१ सूर की गोगियो का वियोग पक्ष ही अधिक तीव्र और मर्मस्पर्शी है । २. जैनेन्द्रकुमार 'जगवर्धन', पृ० २०७-२०८ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ४६ । ४ जैनन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ४७ । ५ मा० राधाकृष्णन् 'भारतीय दर्शन', दिल्ली, १९६६, पृ० १५१ । ६ महात्मा गाधी 'यग इडिया' ५-५-२० । ५७ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
जब तक पूर्ण प्रेम मे दोनो एक नही हो जाते ।'' जैनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य मे स्त्री-पुरुष अथवा प्रेमी-प्रेमिका के परस्पर आकर्षण को काम तक ही परिमित न कर उसे उत्तरोत्तर इन्द्रियेत्तर विषय के रूप मे स्वीकार किया है।
लौकिक जीवन मे ईश्वरीय आस्था
जैनेन्द्र की दृष्टि मे ईश्वर मात्र व्यक्ति की आवश्यकतागो का ही पोषक नही है । वह विज्ञान की विभीपिका से सत्रस्त मानव के लिए एक समाधान हे । विज्ञान ने मानव को चाद तक पहुचा दिया है, किन्तु पडोसी के दुख-दर्द का अनुभव करने की प्रेरणा नही प्रदान की है। बोद्विकता की प्रगति के साथ-साथ हादिकता शुष्क होती गई है। हृदय से शून्य व्यक्ति सदैव अभावग्रस्त बना रहता है। वह अपने प्रभाव को नशीली वस्तुओ के सेवन से पूर्ण करने का क्षणिक प्रयास करता है। उसकी पशुता समर्पण के अभाव मे अहता को पुष्ट करती जाती है । एक ओर विज्ञान के तर्कवाद दूसरी ओर अथलोलुपता भी आधुनिक सभ्यता का दुरसाध्य रोग है । धन के पागलपन ने ही प्राज समाज में भेद भाव की भावना भर दी है। वस्तुत जैनेन्द्र की श्वर रागाची विचारधारा आधुनिक युग के लिए अत्यन्त ही उपयोगी है। भौतिकता की नकाचौंध मे उन्हे ईश्वर एकमात्र प्रवतम्ब प्रतीत होता है।
जैनेन्द्र की ईश्वरीय निष्ठा ही सामाजिक प्रेम और व्यवस्था का साधन है । वे प्राणी मात्र में ईश्वर की कल्पना करते है। अत ईश्वर के समक्ष केवल 'स्व' का विसर्जन ही पर्याप्त नही है । आत्मा की परमात्मा से एकाकार होने मे ही मुक्ति नही है, वरन 'स्व' का त्याग 'पर' के हेतु परमावश्यक है। परहित ही उनके जीवन का मूलादर्श है। ईश्वर की पाप्ति अर्थान मब मे अपनी प्राप्ति । इस प्रकार स्व पर मूलक भेद मिट जाने पर ही ईश्वर की प्राप्ति सभव है। जैनेन्द्र के अनुसार प्रेम अन्य के सत्कार और स्व के विमर्जन में ही फलित होता है । अपने को मिटाने में ही जीवन की सार्थकता है। जैनन्द्र प्रतिदिन के जीवन इस प्रकार की विनत भावना के मूल में ही त्यक्ति की प्राप्तिकता के दर्शन करते है। जैनेन्द्र ने स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में तथा राजनीतिक, आर्थिक
१ डा० राधाकृष्णन् 'रविन्द्र दशन', दिल्ली, १९६३, पृ० ५६-अनु० ज्ञान
वती दरबार । २ जैनेन्द्र कुमार 'प्रश्न और प्रश्न', पृ० २६ । ३ जैनेन्द्र कुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त', पृ० ४७ । ----- • प्रेम से बडी आस्तिकता और क्या है ? उस प्रेम के रूप में प्रतता और एकात्मकता का प्रमाण क्या हमारे ही भीतर गभित नही पडा है।'
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जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
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एव सामाजिक क्षेत्र मे 'स्व-पर' के भेद-भाव से ऊपर उठते हुए अद्वैतता अथवा अभेद की प्रतिष्ठापना की हे । ईश्वर की उपासना मे शिथिलता तभी आती है, जब व्यक्ति की वृत्ति स्वार्थपूर्ण हो जाती है । जैनेन्द्र ने जीवन मे धर्म पर विशेष रूप से बल दिया है। उनकी दृष्टि मे धर्म आस्तिकता अथवा समर्पण का ही प्रतिरूप है। प्रेम और समर्पण के मार्ग मे द्वन्द्व की सभावना नही रह जाती । जैनेन्द्र के अन्त्स मे केवल ईश्वर को जानने की जिज्ञासा ही नही है, वरन् वे भक्त-कवियो के सदृश्य प्रभु के समक्ष आत्म-समर्पण के हेतु विकल रहते है । जिस प्रकार भक्त भगवान के समक्ष स्वय को घोर पापी, दुष्ट
और नीचात्मा ही समझता है, उसके इस आत्म-निवेदन के द्वारा उसके व्यक्तित्व को नीचा नही समझा जा सकता। भक्त भावातिरेक के कारण ही स्वय को इतना दीन-हीन मानता है। जैनेन्द्र दार्शनिक है, तथापि उनके साहित्य मे अह से मुक्ति पाने के लिए अतिशय विनम्र निवेदन की झलक स्पष्टत दृष्टिगत होती है। साधु का हठ' मे माधु की ईश्वर के समक्ष गिडगिडाहट उसकी ईश्वर के प्रति शहा और विश्वास की अोर ही इगित करती है। जैनेन्द्र ने अपने उपन्यास तया कहानी के पात्रो के माध्यम से ही नही, निबन्धो मे भी प्रत्यक्षरूप से उनकी विनम्रता तथा समर्पण की उत्कट अभिलाषा के दर्शन होते है । ईश्वर साक्षात्कार के अभाव में उन्हें अपना जीवन निरर्थक प्रतीत होता है । उनका हृदय भगवान् मे खो जाने के लिए तडपता रहता है। यही नही, उनकी साहित्य-सृजन की प्रक्रिया भी ईश्वर के उपासना का ही अग है। भक्त के सदृश्य उन्हाने साहित्य के माध्यम से अपने हृदय के उच्छ वास को ही व्यक्त किया है। ससार के माया-जाल मे घिरे रहने के कारण ईश्वर का साक्षात्कार नही हो पाता । उनके मन में एक विक्षोभ और व्यथा है । व्यथा का मूल ईश्वर
१ 'अब तो मेरे लिए तेरी यह प्रार्थना ही सब कुछ है। यही प्रेम है, यही श्रेय
हे, यही ज्ञान है। यही मेरी साधना है और यही मेरी साधना का साध्य है। प्रभु, भगवान् मै ऐसा नही रहना चाहता । मै बिल्कुल तेरा हो रहना चाहता हु। मेरे रोम-रोम मे हरेक तुझे ही प्राप्त करे, तेरी ही स्फूर्ति पाये, किसी को मुझसे क्रोध की प्रेरणा न मिल सके।' -जैनेन्द्रकुमार 'साधु का हट', दिल्ली, १९६३, पृ० ११ । --'शायद वही है (ईश्वर) जिसके लिए मै जीना सार्थक मान सकता है। मेरा लिखना अन्त मे इसी प्रयोजन से जा मिलता होगा । अन्यथा अपने मे उसका दूसरा प्रयोजन मुझे नहीं मालूम होता है ।' --जैनेन्द्रकुमार 'परिप्रेक्ष', दिल्ली, १९६५ से उद्धृत ।
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जेनेन्द्र का जीवन-दर्शन
के से वियोग अथवा पाथक्य है । जैनेन्द्र सगुराग भवतो के सहश्य ससार मे द्वैत को एक सीमा तक आवश्यक मानते हैं। प्रात्मा-परमात्मा अथवा उपासक-उपास्य के द्वेत मे ही भक्ति की प्रगाढता भासित होती है। पर' के पभान म 'स्व' के समर्पण का प्रश्न ही नही उठता। जैनेन्द्र अपने मन में उठते हा यावेग को स्पष्टत व्यक्त करने में असमर्थ है, तथापि उनकी प्रगान मिठा भा विहता की स्थिति में प्रकट ही हो जाती है।'
जैनेन्द्र के अनुसार 'ईश्वर से पदाथ रूप मे कुछ पाना व्यय है । लेकिन पदार्थ के अतिरक्त भी बहुत पाना शेष है। वह स्वय अपने को पाता है। जैनेन्द्र के पात्रो मे समाहित विश्वास की अडिगता उनकी प्रास्तिकता को ही इगित करती है। जीवन मे अतत भगवान का सहारा ही डूबते को उबारने वाला होता है । विषम परिस्थितियो मे उनके पात्र भगवान को ही याद करते है । असत् की प्रतिष्ठा होते देवकर उन्हे ऐसा प्रतीत होता हे गानो उनका ईश्वर उनसे छीना जा रहा हो। सत्य के मार्ग मे चलकर ने काट भत सकते है, किन्तु असत् के मार्ग मे उन्हे शान्ति नही है।
___ लौकिक प्रेम में भी उत्तरोत्तर ईश्वरीय प्रम को ही ना की गई है। यदि प्रेम में ईश्वरोन्मुखता नही है तो वह मियाप्रपच मा । ती कारण है कि 'कल्याणी' मे जैनेन्द्र ने प्रभु प्रेम को ही सत्य माना है, बाकी गेम माया हे । 'सुखदा' मे तो जैनेन्द्र ने पूर्ण विश्वास के साथ प्रेम की सत्यता पर बल दिया है। उनकी दृष्टि में ईश्वर या परमश्वर--सब प्रेमही अपवा प्रेम मय है। प्रेम का क्षेत्र व्यापक है। उसकी परिधि में समस्त ब्रह्माण। समा जाता है । ब्रह्माण्ड चलता ही उसी के चलाए है। प्रेम का कोई भी सम्बन्ध अथवा
१ जैनेन्द्र कुमार 'परिप्रेक्ष', दित्ती, १९६५---'मुझे ठीक पता नही कि मैं
भगवान् के दर्शन पाना चाहता है। मानता एक उन्ही को हपर साक्षात् मे एक उन्ही के दर्शन नही हो पाते। - ऐसी परेशानी में दिन बीत रहे
हे जीना अकारथ हुआ जा रहा है।' २ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और समाधान', पृ० ४८ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', दिल्ली, १९६४, पृ० ४२ । ४ जैनेन्द्रकुमार (स्वीकार), पृ० ७० । ५ जैनेन्द्रकुमार कल्याणी', पृ० ८२ । ६ 'सत्य मैं उसी प्रेम को समझता ह, ईश्वर उसी प्रेम को समझना ह। ईश्वर
के ऊपर कहते है परमेश्वर है, परमेश्वर उसी को समझता हु ।' - 'मुग्वदा', पृ० १५० ।
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जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
रूप प्रपनी चरम सीमा पर पहुचकर ईश्वरीय प्रेम मे ही परिणित हो जाता है । यह स्थिति समर्पण द्वारा ही सम्भव होती है । प्रेम और ग्रह दो विरोधी तथ्य हे । जब 'मैं' 'पर' मे समर्पित होकर विलीन हो जाता है तभी प्रेम का लक्ष्य पूर्ण होता है । उस समर्पण मे अनायास ही ईश्वरीय प्रेम की उपलब्धि सभव हो जाती है । '
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ईश्वरीय श्रास्था द्वारा जीवन मे व्यवस्था
जैनेन्द्र के अनुसार ईश्वरीय आस्था जीवन मे व्यवस्था तथा सुख-शान्ति लाने का साधन है । ईश्वरीय आस्था के कारण ही समाज मे व्याप्त श्रेणी बद्धता सहज ही स्वीकार्य हो जाती है । क्योकि व्यक्ति स्वय को भाग्याधीन समझने लगता है । आस्तिक की दृष्टि मे भाग्यवश ही कोई गरीब है तो कोई अमीर है । प्रत्येक व्यक्ति के मन मे यदि यह विश्वास न हो कि सब ईश्वर की दया से होता हे तो जीवन मे प्रतिक्षरण स्पर्द्धा व द्वेष के कारण कलह मचा रहे । जैनेन्द्र की ईश्वरीय आस्था जीवन के सभी क्षेत्रो की परिचायिका है । आस्था कासकिय रूप धर्म है । वे राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शन आदि के मूल मे धर्माभिमुखता को अनिवार्य मानते है । धर्म अर्थात् ईश्वर का भय ही व्यक्ति को नैतिक प्राचरण से वचित रखता है । जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त ईश्वर-प्रेम मंदिर और मस्जिद तक ही परिमित नही है । उनके साहित्य मे हमे ऐसे स्थल कम ही प्राप्त होते है जहा परोक्ष रूप से पूजा अर्चना आदि की झलक मिल सके । कारण यह है कि वे प्रदर्शन से अधिक वास्तविकता को श्रय देते हे । प्रदर्शन मे सत्य विनष्ट हो जाता है अथवा उसका स्वरूप विकृत हो जाता है । किन्तु जैनेन्द्र के पात्रो के जीवन मे ईश्वर के प्रति निष्ठा शब्दो द्वारा प्रथना प्रवचन द्वारा अभिव्यक्ति नही प्राप्त करती वरन् प्रतिदिन के जीवन मे विषमता से जूझने तथा 'पर' की स्वीकृति अभिमानता मे ही उनकी आस्तिकता फलीभूत होते हुए दृष्टिगत होती है ।
१
'प्रेम मे इतना निशेष ग्रात्मसमर्पण हो सकता है कि अनायास ईश्वर भक्ति का फल मिल जाय, बिना ईश्वर को जाने या उसका नाम लिए प्रेम की परिपूरणता मे ईश लाभ पा जाने के उदाहरण अनेकानेक मिल जायेगे ।'
-- जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', पृ० ८७ ।
'ईश्वर नामक सज्ञा सुव्यवस्था मे सहायता तो अवश्य देती है..." - जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया' ( नई व्यवस्था, भाग १ ), तृ०स० दिल्ली, १९६२, पृ० १६७ ।
२
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
प्रार्थना का महत्व
जैनेन्द्र ईश्वर की उपासना के लिए प्रार्थना को अनिवाय मानते है। प्रार्थना के द्वारा व्यक्ति में आत्म-शक्ति का विस्तार होता है। गाधी जी ने अपने जीवन मे प्रार्थना पर विशेष रूप से बल दिया था। प्राथना उनके जीवन का एक अनिवार्य अग थी। उनकी दृष्टि में प्राथना की बेला में पारस्परिक भेद-भाव विनष्ट हो जाता है । सत खतील जिब्रान ने भी प्रार्थना की प्रगिवायता को स्वीकार किया था। उनकी दृष्टि मे प्रार्थना करते समय ऊचे उठकर व्यक्ति उन महत्ती आत्मालो से भेट करता है जो उस समय प्रार्थना रत होती है और जिनसे प्रार्थना-बेला के अतिरिक्त कभी भेट नही हो सकती।
जैनेन्द्र ने 'कल्याणी' के माध्यम से जिस पूजा गह की कल्पना की है, उसमे नीच-ऊच सभी का प्रवेश स्वीकार्य है । हिन्दू, मुसलमान, श्द्र आदि का प्रार्थना के मदिर मे निषेध नही किया गया है।
प्राथना के द्वारा व्यक्ति ईश्वर के प्रति पूर्णत समर्पित हो जाता है। उसमे अपना आपा भी शेष नही रह जाता है । वह भक्ति-भाव में विभोर होकर भगवान के नाम की रट लगा लेता है। यही नही, उसका सन पूगा वश अर्घ्य की भाति समर्पित हो जाता है । 'साधु की हठ' गीर्ष महानी म साधु प्रार्थना करता हुया ईश्वर के माय आत्मसात् हो जाने के लिए पता रहता है । वह चाहता है कि ईश्वर की भक्ति उसम इस प्रकार समाहित हो जाय कि इतर भावो के हेतु अवकाशहीन न रह जाय । जैनन्द्र की कुछ कहानियो मे (गवार' आदि में) भक्ति-भावना छद्म रूप से व्यक्त हुई है। उनमें ईश्वरीय आस्था प्रमुख नही है। किन्तु 'साधु की हठ' में मान्नु की अतिशय विनम्रता और समर्मण में ईश्वर से साक्षात्कार की कामना पूर्ण निश्छन्नता के साथ मुखरित हई है। उसकी भावविह्नता में सत्य का छिपावन होकर प्रात्म प्रकाशन की ही प्रधानता है। वह ईश्वर के विरह मे व्याकुल हाकर कहता है कि 'क्या मैने मुझे रोकर अपनी आत्मा के अध्यं की अजलि को तेरी स्वीकृति के समक्ष लिए बैठकर, तुझे सौ-सौ बार, हर हर बार, विश्वाग नही दिलाया कि
१ 'प्रार्थना से शक्ति आती है। जिस निर्बलता ने राम का बल पकडा हे,
उसका बल फिर क्यो हारे ? परमात्मा में विश्वास रखो वह भय से हमे तारेगे ।' -~~~-जैनेन्द्रकुमार सुनीता', दिल्ली, १६६४, प्र० स०, पृ० १६८ । २ सत खलील जिब्रान 'जीवन दर्शन' (अनु० दि प्रोफेट अनु० सत्यकाम
विद्यालकार) सशोधित सस्करण, १९५८, पृ० ७० ।
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जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
समिधा की भाति यज्ञ के हुताशन मे भस्म होकर भी मै तुझमे ही पहुंचना चाहता हू। सत खलील जिब्रान के अनुसार भी प्रार्थना का अर्थ ही अपनी आत्मा को विश्वात्मा के संघर्ष मे लाना है।
वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे प्रार्थना का महत्व विशेषरूप से दृष्टिगत होता है। उसमे लेखक की आस्तिकता साकार रूप धारण करके फूटी पडती है । जिस प्रकार सूर, तुलसी आदि कवियो की रचनायो मे अतिशय भावुकता के स्थल मे कवि का व्यक्तित्व कवित्व की मर्यादा को भूल जाता है । उसी प्रकार 'साधु की हठ' मे लेखक की भक्ति-भावना का पूर्ण परिचय प्राप्त हो जाता है। जीवन का सारा ज्ञान, मारी साधना, प्रार्थना की तन्मय अवस्था मे विलुप्त हो जाती है, इसीलिए साधु के माध्यम से उनकी प्रार्थना के प्रति आस्था प्रकट होती है। उनकी दृष्टि मे प्रार्थना ही सब कुछ है। यही प्रेम है, यही श्रेय है, यही ज्ञान है। यही मेरी साधना है, यही मेरी साधना का साध्य है। 'टकराहट' मे लेखक ने भारतीय आस्तिकता और पाश्चात्य जीवन के सत्य से उत्पन्न द्वन्द्व की ओर इगित किया है। जैनेन्द्र ने कैलाश के द्वारा प्राश्रम में होने वाली प्रार्थना के महत्व पर प्रकाश डालते हए बताया है कि प्रार्थना में व्यक्ति के मन का द्वन्द्व शान्त हो जाता है और वह ईश्वर की शरण में जाकर परमशान्ति का अनुभव करता है। उसकी दृष्टि मे जीवन की मर्यादानो को सहज भाव से स्वीकृत करने मे ही प्रात्मशाति की प्राप्ति हो सकती है।'
जैनेन्द्र की प्रास्थामुलक भावनात्मक तथा प्राध्यात्मिकता उनके साहित्य की रूढता ओर शुष्कता को दूर कर उसे सरस और ग्राह्य बना देती है, जिसके कारण वे लेखक होने के साथ ही दार्शनिक की आस्था को भी अपने में समा लेते है। जैनेन्द्र के अनुसार ईश्वर की भक्ति में जो नशा है, वह लौकिक नशो (शराब) मे सभव नही हो सकता । उन्हे तो प्रकृति की विराटता के मध्य एकमात्र उसी ब्रह्म की छाया ही दृष्टिगत होती है । लौकिक नशा पल भर के बाद समाप्त हो जाता है किन्तु ईश्वर की भक्ति जिसके हृदय में समाहित हो जाती है, वह आजन्म उसी मे डूबा रहता
१ जैनेन्द्रकुमार 'साधु की हठ' (जैनेन्द्र की कहानिया, भाग ६.) पृ० ११ । २ प्रार्थना में हम अपने को अलग मानते है, इसी कारण प्रार्थना मे बल
मिलता है। ---जैनेन्द्रकुमार 'टकराहट' (जैनेन्द्र की कहानिया, भाग ७), दिल्ली, १६६३, ४० स०, पृ० ६ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
है। वस्तुत जैनेन्द्र की ईश्वरीय प्रास्था कोरे विचार ओर तक का प्रतीक न होकर भक्तिमय प्रास्तिकता की अभिव्यक्ति है । उनके साहित्य का अध्ययन करते हुए कभी-कभी मन एकदम तन्मय हो उठता है और ऐसी स्थिति में लेखक का विचारक रप पीछे रह जाता है तथा श्रद्वालु लेखक का रूप प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने लगता है ।
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ईश्वर अज्ञय
उपरोक्त विशद् विवेचन के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहनते हे कि जैनेन्द्र की ईश्वरीय आस्था अज्ञेयवादियो के सदृश्य ही ईश्वर के स्वरूप को समझने मे असमर्थ हे । उनके अनुसार एक परम शक्ति प्रदृश्य रूप से सारे जगत का संचालन करती हे । व्यक्ति अपनी भावना और सबुद्धि के द्वारा उसके स्वरूप को समझने की चेष्टा करते हुए भी प्रतत परागय ही रहता है । 'सुखदा' मे सुखदा स्वीकार करती है कि मनुष्य का ईश्वर को जानने का समस्त प्रयत्न समुद्र के तट पर कौडिया खेलने वाले बालक के समय व्यय ही सिद्ध होता है । वह ईश्वर अपने निराकार रूप से समस्त ब्रह्माण में व्याप्त है | ara उसको अपनी कल्पना में सीमित करके निरपेक्ष मतव्य देना समय नही हो सकता । उसके सभव ग केवल हम सम्भावना ही कर सकते है, क्योंकि ईश्वर निरपेक्ष सत्य है, व्यक्ति का अभिमत सापेक्ष है। जैनेन्द्र ने गुखदा से व्यक्त किया है कि ईश्वर ऐसा सूत्रधार है, जो समस्त सृष्टि सुन को अपने हाथ में लिए हुए है । यद्यपि ईश्वर प्रज्ञेय है तथापि उसे जानन की व्यक्ति की जिज्ञासा कभी शान्त नही होती । सृष्टि ईश्वर का सत्य और प्रत्यक्ष रूप है। सृष्टि के प्रपच को देखकर ऐसा भान होता है कि व्यक्ति शतरंज की मोहर के सदस्य जड है और खिलाडी तो कही छिपा हुआ समस्त जीवो को माया के
१
' उसका नशा कभी नही चुकता । उसको चाहो उसको पाना वह नशा है जो उनरेगा नही । वह अशान्ति मे भी शान्ति देगा ।'
-- जैनेन्द्रकुमार 'टकराहट' पृ० ६ ।
२ - जैनेन्द्रकुमार 'सुखदा', पृ० १८ ।
३.
खिलाड़ी तो जाने ऊपर-नीचे, यहा वहा कहा छिपा बैठा है । और हम उसके खेल में कठपुतली के मानिन्द नाचते । नाचते है सो मन में बहला भी लेते है । लेकिन हमारी यह सब उछल-कूद, जोड-जुगत अपने मन तक की ही है । तार पीछे कही किसी और के हाथ में है । हम सामने भर होने के लिए है । - जैनेन्द्रकुमार 'सुखदा', पृ० २०३ ।
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__ जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार
प्रपच मे नचाता रहता है। जैनेन्द्र की आस्था भाग्यवादिता के रूप मे ही मुखरित होती है। उनके अनुसार व्यक्ति नाना सकल्प-विकल्प रचता रहता है, किन्तु होता वही है जो ईश्वर को स्वीकार होता है। श्री प्रभाकर माचवे ने भी जैनेन्द्र के विचारो को अज्ञेयवादियो के समकक्ष स्वीकार किया है । माचवे जैनेन्द्र के विचारो को स्पेन्सर आदि अज्ञेयवादी विचारको के सिद्धातो से पृथक् मानते हे । स्पेन्सर की विचारधारा विज्ञानसम्मत अधिक है । किन्तु जैनेन्द्र, तालस्टाय और गाधी जी की विचारधारा से सहमत है, जिसमे केट के 'परमात्म अस्तित्व' की नैतिक आवश्यकता का तर्क ही अधिक कर्मशील है।' जैनेन्द्र का दृष्टिकोण बौद्धिक से अधिक व्यवहार सम्मत है । बुद्धि के द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को न ही सिद्ध किया जा सकता और न ही प्रसिद्ध किया जा सकता है । सत्ता को बुद्धि के द्वारा जानने के प्रयत्न मे व्यक्ति का अहकार ही प्रकट होता है । परमात्मा को लेकर सदैव एक प्रश्नचिन्ह सामने उपस्थित रहता है। विश्व की विचित्रताप्रो के मूल मे एकमात्र वही है, किन्तु उसे कैसे जाना जाए? ससार मिथ्या हे । 'व्यर्थ प्रयत्न' मे परम तत्व को बरबस बुद्धि के द्वारा प्रत्यक्ष देखने की नेष्टा की गई है । ग्रन्थो के सहारे केवल यही जान पडता है कि वह यह नही है, वह वह नही है । तब यह और वह क्या है--- कैसे मालूम हो ? यही कैसे मालूम हो ?'२ अन्तत बुद्धि पराजित होती है और सबुद्धि ही सहायक होती है। जैनेन्द्र के अनुसार कभी-कभी ईश्वर की ओर से मिलने वाली निराशा ईश्वर को मिथ्या समझने लगती है। किन्तु जैनेन्द्र के अनुसार वह (ईश्वर) ऐसा झूठ हे जिससे ससार की समस्त असत्यता समाहित हो जाती है। ईश्वर को 'परम भक्ति' के रूप में स्वीकार कर लेने पर व्यक्ति का अहभाव विगलित हो जाता है । ईश्वर की भक्ति का नशा चढने पर वही सब कुछ प्रतीत होने लगता है । वस्तुत जैनेन्द्र की प्रास्तिकता तर्क से इतर समर्पण मे ही सत्य की खोज करती है । उन्होने ईश्वर को अनुभूति के स्तर पर ही स्वीकार किया है। 'काश्मीर की वह यात्रा' मे जैनेन्द्र को प्रत्यक्षरूप से ईश्वर के दर्शन नहीं हो पाते, किन्तु विराट प्रकृति के आकर्षण मे उन्हे एकमात्र ईश्वर के अस्तित्व की ही झलक मिलती है । अज्ञात ईश्वर उनके लिए अप्राप्य है किन्तु उसकी शक्ति
और रूप का अनुभव करते ही उनका हृदय आर्द्र हो उठता है । 'आत्मविभोरता' की स्थिति में प्रेम की अविरल धारा अश्रु बनकर प्रवाहित होने
१. प्रभाकर माचवे 'जैनेन्द्र के विचार', बम्बई, पृ० १३ । २. जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', सातवा भाग, तृ० स०, १९६३,
दिल्ली, पृ० १२७ ।
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जैनेन्द का जीवन-दर्शन
लगती है। अथ-प्रवाह ही मानो भक्ति की वह पराकाष्ठा है जहा पारितक अपनत्व को भूतकर ईश्वर की अनुभूति मे ही रम जाता है। उनके हदय में बस एक ही उच्छवास बार-बार उठता है कि 'हे अज्ञात, त् ही तू ही ।' भावना सदा ही अम्त को मुत रूप प्रदान करके स्वीकार गा लेती हे । उनकी दग्टि में एकमात्र वही है । (ईश्वर) जनेन्द्र के गनगार ' न जानना है कि मानव-प्राणी के लिए एक अकेला सत्य अनुभव बही ' । यद की है। शायद नही, सचमुच वही है । जीवन के पास उससे बडी गाना कोई गरी नही है, कोई दूसरी हो नही सकती है।'
ईश्वर भाग्यविधाता
जैनेन्द्र के साहित्य मे ईश्वर का चाहे जो स्वरूप भी हो, किन्तु उसके अस्तित्व पोर उसकी महत्ता प्रतिपल उनके हृदय में बनी ही सनी : । जनेन्द्र के अनुमार 'भाग्य विधाता का ही दूसरा नाम है।'' जैनेन्द सातिग मे भाग्य के समक्ष नतमस्तक हुआ व्यक्ति अपरोक्ष मप मे वर को माता को ही स्वीकार करता है।
१ उस अज्ञात के तट पर खडे होकर जी होता है, हम उसके अनन्त गर्भ की
नीलिमा मे पाखे फाड-फाडकर कुछ देखने की स्पर्धा म अधे बया बन क्यो नही। हम प्राख मदकर घूटने प्रा बैठे, विवशता के दो प्राग दर जाने दे और गद्गद् कण्ठ के गुहार दे, 'हे अज्ञात, तू ही है । हम मन्त्र और हमारा समस्त ज्ञात तेरे गर्भ मे है, और तू उरासे परे है, नाता है। तू ज्ञात नही है-- - इसमे तू ही है, तू ही सत्य है । तुझमे नेरी शरण में है।'
जैनेन्द्रकुमार काश्मीर की वह यात्रा', दिल्ली, १६५८, प०१२। २ जैनेन्द्रकुमार 'वह अनुभव' (जैनेन्द्र - प्रतिनिधि कहानिया), दिल्ली,
१६६६, पृ० १२८ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'परिप्रेक्ष्य', १९६५, प्र० स०, दिल्ली, पृ० १११ ।
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परिच्छेद-३
जैनेन्द्र और धर्म
जैनेन्द्र की धार्मिक दृष्टि
जेनेन्द्र का जीवन अध्यात्म और भौतिकता का समुच्चय है । भौतिकता यदि शरीर है, तो अध्यात्म उसकी आत्मा है । दोनो का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध हे । धर्म का अस्तित्व जीवन के स्वीकार्य मे ही सम्भव हे, और जीवन की सार्थकता धर्मरत होने मे है । जैनेन्द्र का साहित्य उनके व्यक्तिगत अनुभव का ही प्रतिनिधित्व करता है। उनका धार्मिक-बोध किसी मत या वाद से प्राबद्ध नही है । उन्होंने वेद, पुराण, उपनिषद् आदि धार्मिक ग्रन्थो के गभीर अध्ययन का कष्ट नही किया है, किन्तु धर्म का शाश्वत रूप जो कि आदिकाल से विश्व के सभी धर्मो म प्राप्त होता है, उनके साहित्य मे सहज ही देखने को मिलता है । उन्होने धर्म को ज्ञान से नहीं, वरन् अनुभव से प्राप्त किया है । उनका धर्म मानव-धर्म है। धर्म के इस व्यापक रूप के अन्तर्गत जीवन के विविध अग समाविष्ट हो जाते है। उनके साहित्य मे धर्म का अस्तित्व उसी प्रकार अलक्ष्य है, जैसे लकडी मे अग्नि ।
जैन दर्शन ___ जैनेन्द्र का साहित्य उनके युग की परिस्थितियो और उनके जन्मजात सरकारी का ही परिणाम है । यद्यपि वे स्वय को समस्त बन्धनो (परिस्थितिगत) मे मुवत' मानते है, किन्तु सामान्य दृष्टि से यह सम्भव नही हो सकता कि व्यक्ति नितान्त निरपेक्ष हो जाय । मनुष्य का जीवन और उसके विचार नितान्त
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
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नवीन नही हो सकते । जैनेन्द्र के वार्मिक विचार भी किसी नये प्रदश की स्थापना नही करते, किन्तु उनका महत्व सत्य को तत्कालीन आवश्यकता के मनुकुल नये ढंग से व्यक्त करने मे हे । जेनेन्द्र का जन्म जैन परिवार में हुआ है । जैन धर्म की श्रात्मा उनके सरकारो में समायी हुई है । जैनेन्द्र यदि स्वधर्म के रूप में किसी भी नम को स्वीकार किया है तो वह जैनवम ही है । जेनेन्द्र ने अपने जीवन को जेन आदर्श में ही ढालने का प्रयास किया है। साहित्य जीवन की प्रभिव्यक्ति है, प्रत जैनेन्द्र- साहित्य पर जैन चम प्रोर दशन का प्रभाव पडना स्वाभाविक ही है । अतएव जैनेन्द्र के धार्मिक विचारो को रामने के लिए जैन धर्म का स्वरूप और उसकी व्यापकता को समझना अनिवार्य है ।
जेनियो का विश्वास हे कि जैन धर्म भारतवर्ष में ही नही, वरन् विश्व मे पना महत्वपूर्ण स्थान रखता है ।' जैनियो की प्रहिसक और रहस्यवादी दृष्टि समस्त विभिन्नताओ को स्वीकार करके चली है । उसमें किसी मत का निषेध नही किया गया है और न ही किसी भी विचार को निरपेक्ष सत्य के रूप में ही स्वीकार किया गया है । जैनियो ने 'पट र नाटक माग की नस्वीकार करके बी' के मार्ग का अनुसरण किया है । जैनियो की रहस्यवादी सीट पाश्चात्य विद्वान् प्रान्स्टाइन की रिलेटिविटी का सिद्धान्त पयक नही है ।" भारतीय तथा पाश्चात्य दार्शनिको ने दोनो की शब्दावती में भी समानता कही दर्शन किए है | ग्राउन्स्टाइन के अनुसार सम्पूरण सत्य का ज्ञान मनुष्य की बुद्धि क परे है, हम केवल सापेक्ष सत्य को ही जान सकते है ।'
'
१
“It is true that according to the belief of the Tains than religion is a world religion' in the sense that it is a religion not only for human beings of all races and classes, but even for animals, Gods and denizens of hell" Winteinitz Calcutta (1933), (p 425)
२
३
४
Winternitz - Calcutta (1933)
डा० राधाकृष्णन ने स्याद्वाद की प्रग्रेजी मे 'रिलेटिविटी' से सम्बन्धित किया है और 'रिलेटिविटी' को हिन्दी में 'स्याद्वाद' के नाम से सबोधित किया गया है। डा० राधाकृष्णन 'इण्डियन फिलासफी'
'We can know only the relative truth, the absolute is known only to the universal observer. '
-DI R Krishnan
Indian Philosophy
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जैनेन्द्र और धर्म
___ जैन धर्म का उद्भव ब्राह्मण धर्म के पराभव का काल था। जैन और बौद्ध दर्शन का जन्म ब्राह्मण धर्म की परम्परागत रूढियो, अन्ध-विश्वासो और मिथ्या कर्मकाण्डो की प्रतिक्रिया का ही परिणाम है । ब्राह्मण धर्म उन दिनो जीवन के बाह्य कर्मकाण्डो तथा विविध मतवादो से इतना चिपटा हुआ था कि उसमे धर्म के प्रात्म-त्व को खोजना कठिन हो गया था। उस समय पूजा पाठ का बाहुत्य हो रहा था, किन्तु धर्म के प्रति लोगो की प्रास्था समाप्त हो रही थी। धर्म जीवन का अग न होकर मतवादो के प्रचार का माध्यम बन गया था। जैन दार्शनिको से पूर्व के समस्त भारतीय दार्शनिको ने 'ईश्वर के अस्तित्व', 'सृष्टि और सत्ता के सम्बन्ध' आदि अप्रत्यक्ष विषयो पर ही विचार किया था। उन्होने गूढ सत्य को खोजने का प्रयास किया था किन्तु जैन दार्शनिक जीवन के व्यावहारिक धरातल को ही अपने अध्ययन का विषय बनाकर चले है। उनका धर्म पारलोकिक न होकर प्रत्यक्ष जगत और मानव-व्यवहार मे ही निहित है। जैनदर्शन तर्क पर आधारित है,' अन्धविश्वासो पर नही । यही कारण है कि सैकडो वर्षों के बाद ग्राज भी अपनी उपयोगिता के कारण विश्व-व्यापी बना हुआ है। ____जीवन का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है, किन्तु मोक्ष की स्थिति तक पहुचने के लिए मार्ग मे आने वाली विभिन्न स्थितियो की अवहेलना नही की जा सकती । मोक्ष दि मजिल हे तो सत्य अहिसा, अपरिग्रह, प्रेम, त्याग आदि वे सोपान है, जिनके माध्यम से हम मजिल तक पहुच सकते है । प्रत जैन दार्शनिको ने सान्य से अधिक साधन पर बल दिया । साधन की विशुद्धता के अभाव मे साध्य की प्राप्ति की कल्पना निरर्थक है । जैनियो ने अज्ञात के रहस्य को जानने से अधिक वर्तमान जीवन के उत्कर्ष की ओर ध्यान दिया है । जैन दर्शन ही विश्व का एक ऐगा महत्वपूर्ण दर्शन है, जिसमे वर्तमान भौतिकता और अध्यात्मवादी प्रवृत्ति का अपूर्व ‘सगम दृष्टिगोचर होता है । विज्ञान मे वस्तु अथवा 'मुद्गल' पर विशेष बल दिया गया है। ___ जैन धर्म मे 'धर्म' शब्द का प्रयोग वस्तु के स्वभाव अथवा उसके धर्म के लिए हुआ है । वस्तु का प्रकृति के प्रतिकूल आचरण अधर्म का सूचक है। अग्नि का गुरण ताप उत्पन्न करना, जल का शीतलता प्रदान करना, मनुष्य का धर्म मनुष्यता है । मानव-धर्म से च्युत व्यक्ति मोक्ष अथवा ईश्वर की प्राप्ति नही कर सकता । जैनियो के वस्तु धर्म का तात्पर्य आत्म-धर्म है। वस्तु मे विभिन्नता अनिवार्य है, किन्तु धर्म शाश्वत है, वह वस्तु के मूल मे विद्यमान है । जिस प्रकार शरीर में निहित आत्मा का धर्म ही व्यक्ति का वास्तविक धर्म
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V.R Gandhi 'The Jain Philosophy', (1924) Bombay,
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
है, उसी प्रकार वस्तु के अन्त गर्भित गुण को ही उसका चम कहते हे । सब जीवो मे एक ही प्रात्मा का निवास है, अत रामस्त जीवधारियो का मूल धर्म एक ही है । शरीर की भिन्नता के सदस्य धर्म के बाह्य रूपो में भिन्नता हो सकती है, किन्तु ग्रात्म तत्व मे एकता प्रनिवाय है । जैनियो का यह प्रात्धम ही उनकी प्रमिक नीति और स्यद्वादी विचारधारा का मूल मावार हे । सब जीवो के प्रति प्रेम तथा सभी मतावलम्बियों के प्रति समान सादर की भावना जैन धर्म का मूलाधार है । प्रहिसा जैन धर्म का प्रारण है। उनके अनुसार प्रकृति के विभिन्न कार्य-कलाप अपना नियम तोड सकते हे गुम पश्चिम से निकल सकता है, चन्द्रमा से ग्रग्नि की वर्षा हो सकती है किन्तु जीवहत्या में धर्म कदापि स्थिर नही रह सकता । हिसा से बढकर कोई प्रधर्म नही है । "
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जैन वम का द्वितीय महत्वपूरण प्रग त्याग और ग्रपरिग्रह है । समस्त लोकिक इच्छा का त्याग, 'पर' के हेतु स्व सुख का त्याग, जैनियो के धर्म का उद्देश्य है । मानवता की सेवा प्रोर मानव मान के प्रति प्रेमभाव रखना ही धार्मिक व्यक्ति का लक्षण है । जेन नर्म में प्रति यह की प्रवृत्ति का निषेध किया गया है । कम-स-कम सर्च में ही जीवनयापन करना ही उनका गुनादर्श है । जैन तीर्थकर का कोई घर नही होता, वह प्रकति के मुक्त वातावरण में ही अपनी जीवनयात्रा पूरण करता है । उसका सम्पूर्ण जीवन एक कठोर तपस्या होती है । महावीर स्वामी का जीवन जैन धर्म की अपरिग्रही नीति का प्रत्यक्ष उदाहरण है | मनुष्य की इच्छा अनन्त है एक इच्छा के बाद दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है । प्रत जैनियो के अनुसार परिग्रही होकर ही हम संसार मे सन्तुष्ट रह सकते है ।
।
वस्तुन जैन धर्म जीवन के अन्य प्रादर्शो का समुच्चय है । वह सैद्वातिक और तात्विक होने से अधिक व्यावहारिक प्रोर विज्ञान सम्मत है ।
जैनेन्द्र के अनुसार धर्म का अर्थ और स्वरूप
जैनेन्द्र जैन धर्म से अत्यधिक प्रभावित है । जैनेन्द्र का साहित्य उनके इस प्रभाव का ही प्रमाण है । सभवत जैनेन्द्र ने जैन साहित्य का गंभीर अध्ययन किया है । अपने साहित्य में जैन धर्म के विभिन्न प्रगो और उपागो का भी उन्होने वरणन
१ विण्टरनिट्स 'दि हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर', पृ० ४२५ । - हिसा परमोधर्मो यतो धर्मस्ततो जय 'विजयधमसूरि' श्रात्मोन्नति दर्शन ।
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जैनेन्द्र मोर धम
किया है । कुछ जैन कथाए तो उनके जीवन का प्रग बन गई, उसके प्रभाव से उनका हृदय प्रद हो उठा। उनका जीवन विनम्रता और निरहकारिता का प्रदर्श बन गया । जेनेन्द्र के प्रनुसार जैन धर्म किसी विशिष्ट समय मे विशिष्ट व्यक्ति द्वारा नही बनाया गया था । यह तो जीवन-धर्म है । ईसाइयो ने ईसा को ही 'गॉड अथवा ईश्वर' माना है, किन्तु जैनियो ने महावीर स्वामी को अपना
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आदि पुरुष नही वरन नोबीमवा तीर्थकर माना है । उनके अनुसार मनुष्य ही समस्त सांसारिक वासनाओ और दोपो से मुक्त होकर कैवल्य को प्राप्त करता हे । कैवल्य प्राप्त व्यक्ति ही ईश्वर के सदृश्य है । महावीर स्वामी के तप पूत व्यक्तित्व ने जनेन्द्र को प्रत्यधिक प्रभावित किया है । वे उन्हे अमर विभूति मानते है । उनकी मृत्यु हमे उनसे दूर नही कर सकती । "
जैनेन्द्र हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकार है । साहित्यकार का भी एक धर्म होता है, उसे साहित्य का धर्म कहते है । साहित्य-सृजन की कुछ निश्चित मर्यादा होती है, उनसे हटकर साहित्यकार अपने साहित्य के महत्व को अक्षुण्य नही रख सकता | नेतृत्व करना, उपदेश देना ग्रथवा प्रचार करना साहित्यकार काम नहीं है। यही कारण हे कि जैनेन्द्र जैन-धर्म के समर्थक होते हुए भी उसके प्रचारक नहीं हो सके । जैन धर्मावलम्बियों की यह तीव्र अभिलाषा थी कि जैनेन्द्र जन-साहित्य की रचना करे अथवा अपने साहित्य द्वारा जैन-धर्म का प्रचार करे । किन्तु जैनेन्द्र के प्रनुसार जैन साहित्य लिखना ही जैन धर्मावलम्बी होने का सूचक नही है ।' धर्म तो आत्मा का गुण है । वह साहित्य की आत्मा में व्याप्त होना चाहिए, उसके प्रचार के द्वारा हम अधर्मोन्मुख हो जाते है, क्योकि प्रचार में ग्राग्रह होता है । प्राचीनकाल के साहित्य पर धर्म की ऐसी छाप पडी कि उसे हम वाड्मय कह सकते हे, साहित्य नही । जैनेन्द्र के अनुसार जिस धर्म के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धा होती है, उसका प्रभाव अनायास ही साहित्य में परिलक्षित होने लगता है । साहित्यकार को उसके लिए प्रयास नही करना पडता, क्योकि प्रयास में प्रचार का प्राग्रह रहता है। सच्चा धार्मिक
१ जैनेन्द्र 'मन्थन', दिल्ली, १९५३, पृ० २२१ ।
२
'क्या जो में लिखता हू वह साहित्य जैन नही है। क्या जैन धर्मग्रन्थो मे रंगत नामावली तथा शब्दावली के प्रयोग से जैन बन जाता । उस सूरत ऐसा भी तो हो सकता है कि वह साहित्य जैन तो हो साहित्य हो ही
न ।'
जैनेन्द्रकुमार ' परिप्रेक्ष', प्र० स०, दिल्ली, १९१५, पृ० ४२ ।
३. परिप्रेक्ष, पृ० ४२ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
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स्वय ही उस देश मे रग जायगा । यही कारण है कि जैनेन्द्र के साहित्य मे धर्म-तत्व को ढ्ढना सरल नही है । बाह्य वस्तु शीघ्र ही पकड मे या सकती है, किन्तु पात्रो मे अन्तनिहित सत्य के ज्ञान के लिए उनकी मात्मा के गुरण को समझना आवश्यक है । जैनेन्द्र ने अपने सैद्धान्तिक निबन्धो में प्रत्यक्ष रूप से जैन धर्म अथवा धर्म के अन्य विविध रूपों का वर्णन किया है, कि तू स्थूल सप्त से देखने पर हम उनकी धार्मिकता का पूर्ण ज्ञान नही प्राप्त कर सकते | जैनेन्द्र के उपन्यासो मे धर्म के किसी वाद का प्रचार नही किया गया है, उनके पात्रो का जीवन इस प्रकार से ढाला गया है कि वे अपने आचरण मे अपनी धामिकता प्रभास देते है |
जैनेन्द्र ने जैन धर्म की भाति वस्तु के स्वभाव को ही धर्म माना है, किन्तु व्यक्ति के स्वभाव को ही धर्म मान लेने से धर्म का स्वरूप स्पष्ट नही हो पाता । प्रत्येक व्यक्ति मे कुछ व्यक्तिगत भिन्नताए होती है तथा उसके प्रत्येक कर्म का धर्ममय होना भी प्रावश्यक नही है । जैनेन्द्र ने व्यक्ति या वस्तु की प्रात्म-प्रकृति को ही धर्म माना है ।" व्यक्ति के शरीर में ही उसकी सम्पूरणता नही रहती, शरीर तो स्थूल और बाह्य रूप है, किन्तु शरीर के अन्दर एक अत्यन्त सूक्ष्म तत्व आत्मा के रूप में विराजमान है । आत्मा जड जगत के समस्त बन्धनो से मुक्त हे । श्रात्म-तत्व की प्राप्ति ही जीवन का परम धर्म है । जेनेन्द्र के समस्त उपन्यास और कहानियो के पात्र उसी आत्मतत्व के साक्षात्कार म प्रयत्नशील दिखाई पडते है । 'जयवधन', 'कत्याणी', 'त्यागपत्र', 'परख' प्रादि उपन्यासो म ग्रह विसर्जन द्वारा श्रात्मतत्व की प्राप्ति का प्रयास किया गया है। धम की पूर्णता ग्रह के विसर्जन मे भी सम्भव हो सकती है। जब व्यक्ति 'पर' के हेतु 'स्व' का त्याग करता है और इस कर्म मे उसकी सन्त्री निष्ठा विद्यमान रहती है, तभी उसे अपने कर्म की सार्थकता का अनुभव होता है ।
जैनेन्द्र ने धर्म के शास्त्र सम्मत रूप को भी स्वीकार किया है । धर्म शब्द 'धा' धातु से निसृत है । 'धा' का अर्थ है धारण करना । धर्म की धारणा शक्ति के कारण ही सृष्टि टिकी हुई है । मनुष्य का धर्म सामारिक बन्धनो से मुक्त होकर उत्तरोत्तर ईश्वरोन्मुख होता है । हिन्दू धर्म में यह स्वीकार किया गया है कि धर्म की धारणा शक्ति की क्षमता 'आत्मा' में ही निहित है । अत प्रत्येक कर्म का मूल आत्मकेन्द्रित होना चाहिए और समस्त कर्मों का ईश्वर की
जैनेन्द्रकुमार,
१ जैन धर्म को भी इतना जानता है कि वह श्रात्म धर्म है' 'मन्थन', दिल्ली, प्र० स० १६५३, पृ० ६१ ।
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जैनेन्द्र र धर्म
प्राप्ति के हेतु ही किया हुआ समझना चाहिए ।"
सभी धर्मों के प्रति समान आदर की भावना रखते हुए भी जैनेन्द्र ने स्वधर्म को ही श्रेष्ठ माना है ।" जैनेन्द्र का धर्म जैन धर्म है । जैनी होने के कारण जैनेन्द्र स्वयं को जैन धर्मावलम्बी मानते है । जैन धर्म के अधिकाश आदर्शो का उन्होने सपने सृजनात्मक साहित्य मे प्रतिपादन किया है । ग्रहिसा, सत्य, अपरिग्रह, प्रान्तेय, ग्रहशून्यता आदि के उनके उपन्यासो मे स्पष्ट ही दर्शन होते हे । स्वधर्म जीवन का आदर्श होते हुए भी सीमित होना चाहिए । जब स्वधर्म को हम असीम मानकर चलने लगते है, तभी सघर्ष उत्पन्न होता है और यह विवादात्मक द्वन्द्व हिसा का पोषक हे । अपने धर्म को ही निरपेक्षरूप से महान धर्म मानना उचित नही है, क्योकि जिस प्रकार हमारा धर्म हमे प्रिय है और श्रेष्ठ प्रतीत होता है, उसी प्रकार दूसरे का धर्म उसे भी श्रेष्ठ प्रतीत हो सकता
| जैनेन्द्र जेनी होते हुए भी जैनेतर को अपना भाई समझना चाहते है । उनके नुमार जैन धर्मी 'मानवधर्मी' होकर ही सर्वसुलभ और उपयोगी हो सकता है । वह सच्चा जैन बनने के द्वारा ही साधारणतया सच्चा प्रादमी बन सकता है। सच्चा प्रादमी बनने के लिए उसे अपने जन्म अथवा जीवन की स्थिति को कार करना पडेगा । इसकी जैनेन्द्र को कोई जरूरत नही मालूम पडती ।" जैनन्द्र जैन धर्म की स्याद्वादी विचारधारा के प्रभाव के कारण ही विविध धर्मो की प्रनेकता को मिटाने के पक्ष मे नही है । हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म सब सत्य हे, " किन्तु उन सब की विभिन्नता एक
१ (क) गीता मे भी स्वीकार किया गया है—
सा चेष्टते स्वस्या, प्रकृते श्रपि,
प्रकृतिम् यस्ति, भूतानि, निग्रह, किम् करिष्यति ।
३
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५
१
श्लोक ३३, अध्याय २ ।
( ख ) -- जैनेन्द्रकुमार ' जयवर्धन' प्र० स० पृ० १९६, १६७, २१५ । या स्वधर्मो विगुण परधर्मात्स्वमुष्ठितात् ।
स्वधर्ममिधन श्रेय परधर्मो भयत्वह गीता ||३५|| अ० ३ ।
जैनेन्द्र 'मन्थन', पृ० ८१ ।
जैनेन्द्र 'मन्थन', पृ० ८१ ।
'अपना धर्म छोड़कर सब धर्मों को एक बनाने की कोशिश बेकार कोशिश है | धर्मों की एकता तो परमधर्म मे ही है ।'
- जैनेन्द्रकुमार 'मन्थन', पृ० ८५ ।
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जनेन्द्र का जीवन-दर्शन
परम वम में केन्द्रित हो जाती है और वह हे अहिसा' पति अपन बम का ऊचा कहते हे प्रोर मोलवी अपने धम को। सब का यही विश्वास रहता है कि मेरा बम ही ससार से पार दिलाने का एकमात्र सही माग है। उनकी 'समाप्ति' शीपक कहानी गधम के नाम पर होने वाले वाद-विवाद का स्पाट र देखने का मिलता है। नन्धि प्राचार्यो के अनुसार कुठधाम का जो सन्माग पहचाने वाला है, वह है, जो मेरे धम का है। बाकी पोर पाया नहो तो क्या है । जैनेन्द्र इस द्वन्द्वपूण मताग्रह को स्वीकार करने के पक्ष में नही है । उनके अनुसार किमी के धम पर प्राघात करना हिमा है। प्रपने वर्म के प्रति निष्ठा होने के साथ ही दुमरे बम के प्रति भी प्रादर होना चाहिए। सच्चा धार्मिक व्यक्ति विनम्र होकर ही स्वधम पालन करता है।'
धर्म और सम्प्रदाय
धर्म अपने विशुद्द रूप में प्रत्यक्त हे क्योकि वह प्रात्म-म । मान्मा का हम केवल अनुभव कर गकते है अथवा उगफै अस्तित्व का अनुमान लगा सकते है, किन्तु उस देख नही सकत । किन्तु प्रात्मा की गाnir Iरीर पर रही मम्भव है। अन्यथा बह प्रा के गश्य है। आ-महान शरीर भी वही कहलायेगा। प्रत दानो का सहअस्तित्व अनिवार्य है। प्रभाव मगर की कल्पना मामारिक दृष्टि से उपयुक्त नही है। मानव जीवन म प रग, गरीली-अमीरी, ऊ च-नीच प्रादि नाना विभिन्नताप तिगावर हाली है। मनुष्य अपनी अज्ञानता के कारण इन बाम भदा को ही मत्य मान बैठता है और गमस्त जीवो के प्रारगतत्व की ममानता के रहर य को भूल जाता है। मी अज्ञानता के कारण व्यक्ति-व्यक्ति में मघर्ष उत्पन्न होता है। धर्म . गावनात्मक स्थिति है। भावना स्वय मे निर्बल है । जैनेन्द्र के अनुसार कारी रामभावना में इतनी क्षमता नही है कि वह अपन का चिरस्थायी बनाए रख सके । प्रत धम के स्थायित्व के लिए सम्प्रदाय अथवा मस्या का अस्तित्व अनिवाय हे । प्राचीनकाल से आज तक यदि मानव-धर्म स्थायी रह गका है तो वह विभिन्न धामिक सस्थानो, धामिक ग्रन्थो आदि म सन्निहित हाकर ही अक्षण
१ स्वधर्म गे गीमित ओर आदश के असीम होने के कारण हमको एक परम
धर्म प्राप्त होता है। वह ले अहिमा ।' २ --जैनेन्द्र 'ममाग्नि' गम्पा० शिवनन्दनप्रगाद, दिल्ली, १९६६, १० २०६ । ३ -जैनन्द्र 'रामाप्ति', पृ० २०७ । ४ 'मन्थन', पृ० १६६ ।
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जैनेन्द्र और धर्म
रह सका है । धर्म प्रोर सम्प्रदाय आत्मा और देह के सदृश्य अकाट्य बन्धन से बधे है। उनके सम्बन्धो को बाह्य प्रहारो द्वारा नष्ट करना उचित नही है । जैनेन्द के अनुसार धर्म का सस्थाबद्ध रूप ही सामाजिक व्यवस्था के लिए उपयुक्त हो सकता है। ___जैनेन्द्र की धार्मिक विचारधारा समयानुकूल परिवर्तनशील है। युग की परिस्थितियो पोर मानसिक चेतना के परिवर्तन के साथ यदि उसमे परिवर्तन नही होता तो उसे स्वीकार करना कठिन प्रतीत होगा । सृष्टि के आदिकाल से ही आत्मतत्व के ज्ञान की जिज्ञासा मानव मे विद्यमान रही है । जीवन परिवर्तनशील है। जीवन में परिवर्तन होने के साथ-ही-साथ व्यक्ति विचारो और मान्यताप्रो मे भी परिवर्तन होना स्वाभाविक है। धर्म जीवन के विविध अगो का मूलाधार है । अत धर्म के बाह्य रूप सम्प्रदाय और सस्थानो मे भी अन्तर पाना स्वाभाविक है। जिस प्रकार शरीर नश्वर है, एक ही शरीर अनन्तकाल तक एक ही रूप मे विद्यमान नहीं रह सकता । इसके अतिरिक्त रोगग्रस्त तथा वृद्धावस्था के कारण अजित शरीर का नष्ट होना आवश्यक है अन्यथा वह शरीर ही बोझ बन जाता है। उसी प्रकार धार्मिक सम्प्रदायो की भी एक निश्चित प्रायु होती है। ममय-समय पर सस्थानो मे अनेको दोप उत्पन्न हो जाते है । अत धर्माचार्यों द्वारा धर्म के सम्प्रदाय रूपी शरीर का पुनर्निर्माण आवश्यक है । प्राधुनिक युग विज्ञान का युग है । अब लोगो की बाह्य कर्मकाण्ड मे प्रास्था समाप्त हो रही है। जैनेन्द्र वर्तमान मानसिक चेतना और परिस्थितियो से पूर्णत अवगत है। उन्हे धर्म की व्यापक शक्ति का पूर्ण ज्ञान है । उनके अनुसार धर्म कर्मकाण्ड मे ही सीमित नहीं रह सकता। धर्म का स्वरूप युग-विशेष की आवश्यकता पर ही निर्भर करता है, किन्तु धर्म के अस्तित्व को कभी भी नकारा नही जा सकता । धर्म तो आत्म धर्म है, जीवन धर्म है प्रत उसका रूप शाश्वत है। आत्मा के स्वरूप मे कोई अन्तर नही पाता। सभी सम्प्रदाय आत्म-धर्म से युक्त होकर ही सही माने जा सकते है । धर्म रहित सम्प्रदाय उसी प्रकार व्यर्थ हे, जेसे आत्मा रहित शरीर । जैनेन्द्र के अनुसार धर्म के सस्थागत रूप को स्वीकार करने के लिए अहिसा धर्म का पालन आवश्यक है। किसी भी सम्प्रदाय के अस्तित्व पर प्राघात नही किया जा सकता, क्योकि वे धर्म की प्राप्ति के विविभ मार्ग है, जो एक ही लक्ष्य की ओर सतत् अग्रसर हो रहे है। जैनेन्द्र का यह दष्टिकोण सत्य और उपयोगी प्रतीत होता है । उसमे द्वन्द्व के लिए स्थान
१ 'मन्थन', पृ.० १६६ । २ जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', दिल्ली, पृ० ११६ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
नही रहता। जिस प्रकार विभिन्न नदिया विभिन्न मार्गों से प्रवाहित होते हुए भी सागर में ही समाहित होती है। उसी प्रकार विभिन्न मतवाद मात्र 'ईश्वरप्राप्तक मार्ग ही है । लक्ष्य की प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य होना चाहिए । यदि हम मार्ग मे ही उलझे रह गये तो सत्य की प्राप्ति नही कर सकते । सत्य तो सर्वत्र एक है, चाहे वह भारत मे हो या विश्व के किसी भी कोने में हो। जैनेन्द्र ने धर्म को व्यक्ति के आचरण तक सीमित करके उसे सामाजिक और विश्वव्यापी बनाने का प्रयास किया है। 'अनन्तर' मे वनानि द्वारा जिस शान्तिधाम की स्थापना की योजना बनाई गई है, वह धर्म की सकीर्ण मनोवृत्ति की परिचायक न होकर विश्वव्यापी मानव-धर्म की स्थापना का प्रयत्न प्रतीत होती है। सस्था और सम्प्रदाय मे रहकर ही धर्म-भावना प्रगतिशील हो सकती है। 'अनन्तर' मे शान्ति-धाम किसी खास धर्म या मत का प्रवर्तक न होकर मानवमात्र की परस्परता को बढाने का एक महत्वपूर्ण साधन है । वस्तुत जैनेन्द्र की धार्मिक दृष्टि अत्यन्त उदार है । उनके साहित्य मे जहा कही भी उनकी धार्मिकता के दर्शन होते है, वे उनके विचारो की उच्चता और व्यापकता के ही दर्शन कराते है। उनका साहित्य उनके पात्मज्ञान (धर्म) का ही अभित्यक्त रूप है । आज मनुष्य की स्वार्थमयी दृष्टि ने सम्प्रदायो को पित और कलकित कर दिया है । 'सम्प्रदाय' शब्द से ही स्वार्थ की गन्ध आती है। एक राम्प्रदाय दूसरे सम्प्रदाय के समर्थको पर नाना आरोप करते है । इरा दुराग्रह में धर्म की मूल सवेदना सम्प्रदाय से छूट जाती है और वे कलह और सघर्ष के केन्द्र बन जाते है। जैनेन्द्र के अनुसार विभेद की विद्रोहात्मक स्थिति अधर्म की सूचक है। पर के लिए स्व का त्याग ही जैन धर्म का मूलाधार है । जैनेन्द्र के अनुसार यद्यपि परम धर्म मानव धर्म अथवा अहिसा धर्म है, किन्तु सामान्य रूप से किसी को किसी विशिष्ट मार्ग पर चलने के लिए विवश नही किया जा सकता। 'अनन्तर' मे जनेन्द्र ने अपनी इसी सदृदयता का परिचय दिया है। उनके अनुसार मत
१ 'वनानि एक सस्था स्थापित करना चाहती है, 'शान्ति धाम' । देश-विदेश
का प्रश्न उसमे न होगा, न किसी खास धर्म या मन्तव्य । उनका विचार है कि अपनी-अपनी सस्कृतियो ने भी मनुष्य की परस्परता मे बाधा डाली
है।' --जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर' दिल्ली, १६६८, पृ० ६७ । २ 'हम अपने मन से सबको नापते है। शायद हम विवश है। इसलिए हममे
से हर एक को नही चाहिए कि स्वय को लेकर जो भी चाहे हो, दूसरे को उस जैसा रहने दे।' -जैनेन्द्र 'अनन्तर', पृ० ६७ ।
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जैनेन्द्र और धर्म
भेद स्वाभाविक है, किन्तु अपने ही मत का आग्रह व्यक्ति अथवा सम्प्रदाय के अह का सूचक है। ऐसी स्थिति में उसका धर्म रूप विनष्ट हो जाता है। धर्म तो व्यक्ति के अह को गला देता है, उसे अत्यधिक विनम्र बना देता है। उसमे द्वन्द का प्रश्न ही नहीं उठता।'
जेनेन्द्र के अनुसार धर्म के सम्प्रदायगत होने की भी कुछ मान्यताए है, उनकी पूर्ति में ही धर्म के सम्प्रदायगत होने की सार्थकता है, अन्यथा वह समाज में विषमता ओर सघर्ष उत्पन्न करने मे ही सहायक होता है । कोई भी सम्प्रदाय धर्मगत होकर अवहेलनीय नही हो सकता, किन्तु आज धर्मतत्व विलीन होता जा रहा है। केवल निर्जीव शरीर के रूप मे सम्प्रदाय ही प्रचलित है। सम्प्रदाय सत्य की प्राप्ति का साधन है, उसे ही सत्य मानकर हम सत्य से विमुक्त हो जाते है । जैनेन्द्र के अनुसार सम्प्रदाय धर्म को घेरते नही फैलाते है। सत्य का जिज्ञासु व्यक्ति उत्तरोत्तर मौलिक शरीर के बन्धनो से मुक्त होता हुआ आत्मतत्व के रहस्य को जानने मे रत रहता है, भौतिकता उसे घेर नही पाती। उसी प्रकार सच्चा सम्प्रदाय मतवाद के द्वन्द्वो से परे मानव-हित के हेतु स्वय को बन्धन-मुक्त करता जाता है । उसका जीवन मानव सेवा मे ही समर्पित होता है।
___ वस्तुत जैनेन्द्र ने धर्म के सम्प्रदायगत रूप को स्पष्टत स्वीकार किया है। किन्तु उनकी आस्था मानव-हित मे ही केन्द्रित है। धर्म का गुण मैत्री उत्पन्न करता है । जैनेन्द्र के अनुसार 'धर्म वह है जिसे मानकर बुद्धि मे नम्रता आती है और विद्रोह नही रहता । धार्मिक सम्प्रदायो की यदि धर्म के प्रति आस्था नही है तो वे व्यर्थ है । जैनेन्द्र के अनुसार बाहृयाडम्बर से अधिक धर्म के प्रति आत्मिक श्रद्धा होनी चाहिए। आज लोगो की धर्म पर से श्रद्धा उठ गई है। मानव जीवन अर्थ और काममय ही हो गया है । यद्यपि अर्थ और काम भी जीवन के पुरुषार्थ है किन्तु उनका भी धर्ममय होना आवश्यक है।
धर्म और विज्ञान
आधुनिक युग विज्ञान का युग है । सामान्यत लोगो मे विज्ञान के सम्बन्ध मे एक भयावह दृष्टि व्याप्त है। उनके अनुसार वैज्ञानिक आविष्कारो
१ 'धर्म जिसे गला देता है, मत उसी को फुलाने लगा।'
-जैनेन्द्र . 'अनन्तर', पृ० ८५। २ जैनेन्द्रकुमार · 'मन्थन', पृ० १७१ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त', पृ० १३१ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
ने जीवन को मशीन के सदृश्य बना दिया है, उसकी पात्मिक शवित विलुप्त हो गई है। सामान्यत धर्म और विज्ञान दो विपरीत स्थितिया प्रतीत होती है। धर्म यदि हृदय की वस्तु हे तो विज्ञान बुद्धि और तक की। वर्म के द्वारा हम आत्मतत्व को जानने का प्रयास करते हे ओर विज्ञान द्वारा ब्रह्माड मे व्याप्त अरण-परमारण के अन्तनिहित सत्य को समझने का प्रयास किया जाता है। जैनेन्द्र धर्म और विज्ञान के सम्बन्ध मे एक नवीन दृष्टि अपनाकर चले है । उन्होने धर्म और विज्ञान के मध्य की खाई को भरने का प्रयास किया है। उनके अनुसार यदि वर्म आत्मा की वस्तु है तो विज्ञान शरीर की वस्तु हे। दोनो का अटूट सम्बन्ध होना चाहिए। जैनेन्द्र के अनुसार आज धर्म का अस्तित्व स्थिर रखने के लिए उसके प्रति सच्ची श्रद्धा अनिवार्य है। श्रद्वाहीन धर्म की कल्पना निराधार है । भारत धर्मप्रधान देश हे । सामान्यत भारतवर्ष को ही विश्व का एकमात्र वार्मिक प्रतिनिधि समझा जाता है किन्तु सत्यता इस से परे हे भारतवासियो मे यह दभ हे कि वे अपनी आध्यात्मिकता के कारण ही उद्योग मे पिछडे हुए है, किन्तु यह उनका भ्रम है। वर्म का दिखावा करते हुए भी भारतीयो की आत्मा वर्म से मुक्त हो गई है । जैनेन्द्र अपने युग की इस रिगति से पूरगत परिचित है। इसीलिए उनके उपन्यासो मे धार्मिक कमकाण्ड आदि के दशन नही होते । उन्होने धर्म के जिस रूप को स्वीकार किया है, वह विज्ञानसम्मत है। उनके अनुसार वैज्ञानिक की सत्य के प्रति आस्था कभी भी समाप्त या मन्द नही होती। धर्म मे सत्य के सम्बन्ध मे विविध मतभेद हो सकते है, किन्तु विज्ञान मे सत्य जो है वह है चाहे वह प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर हो सके या नही। वह सतत् कार्यशील रहता है। जैनेन्द्र के अनुसार प्रावुनिक युग मे एकमात्र गाधी ही धर्म के महान वैज्ञानिक हुए है । विज्ञान का विषय ‘पदार्थ' है । वह वस्तु के अनासक्त होकर उसके सार तत्व को ग्रहण करने में प्रयत्नशील है। धर्म मे वस्तु ओर निज के प्रति अनासक्त भाव के दर्शन होते है । विज्ञान जीवन से ही सबद्ध है। मानव उपयोगिता से पृथक् होकर विज्ञान का कोई महत्व नहीं है। जैनेन्द्र ने धर्म को विज्ञानमय बनाने के हेतु उसकी आत्मा को हो ग्रहण कियी है । कम के प्रति सतत् निष्ठा ही विज्ञान का धर्म है । वस्तु भली हे या बुरी इससे विज्ञान का कोई सम्बन्ध नही है। धर्म का यही स्वरूप जैनेन्द्र ने 'कल्याणी' म भी व्यक्त किया है। धम के विज्ञान-सम्मत रूप को स्वीकार करने में वर्म
१ जैनेन्द्रकुमार 'इतस्तत' १८६ । २ जैनेन्द्र कुमार 'इतस्तत' १६० । ३ 'उपयोगी कर्म में अपने को भूलकर लगे रहना ही धर्म है।'
-जैनेन्द्र कल्याणी', दिल्ली।
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जोन्म प्रोर गर्म
६७ के प्रचार का गाग्रह नही होता । आग्रह बाह्य जगत् की वस्तु है, किन्तु वैज्ञानिक विज्ञापन गे दूर अपनी प्रयोग-शाला मे कार्यरत रहता है। उसकी नवीन खोजो का अनायाम ही प्रचार हो जाता है, उसे पयास नही करना पडता । जैनेन्द्र इसी तथ्य को रष्टि में लेकर धर्म को भी सहज बनाना चाहते है, उसके प्रचार मे उनकी प्रारया नही। उनके अनुसार प्रास्था तो कर्म की धर्ममयता मे होनी चाहिए, पगार में नही, जैनेन्द्र ने एक वैज्ञानिक के सदृश्य 'काश्मीर की यात्रा' में अपने जीवन को एक प्रयोग माना है।
जैनेन्द्र के अनुसार वैज्ञानिक यदि मानव-धर्म की ओर खिचेगा तो एक ऐसे विश्वास प्रोर आस्था का जन्म होगा जो सामान्य प्रचलित अर्थ से भिन्न होगी। विश्वारा निश्चित रूप से वह है जो सौ फीसदी तर्काश्रित नही है। वैज्ञानिक की समस्त प्रगति उसके अन्तर में निहित अटूट आस्था का ही परिणाम है। विज्ञान नितान्त बुद्धि-सम्मत होकर मानव जीवन की उपयोगिता से तटस्थ हो जाता है। विज्ञान की मार्थकता आस्थापरक होने मे है । प्राय ऐसे उदाहरण देखने को मिलते है, जब कि वैज्ञानिक अपनी प्रगति की चरमावस्था मे मत हात हा देने जाते है। जैनेन्द्र के अनुसार धर्म आस्था का विषय है, किन्तु कभी-भी उसमें इतना तर्क-वितर्क उत्पन्न हो जाता है कि धर्म की मूल सवेदना पाट हो जाती है। विज्ञान का तर्क बुद्धि सम्मत और सत्य पर आधारित होता हे । अन्यात्मवादियो की ईश्वर के अस्तित्व के सम्बन्ध मे विविध धारणाए प्रचलित है। जैनेन्द्र ने इस सत्य को अपनी एक कहानी मे कोयले मे आग के अस्तित्व के आधार पर दर्शाया है । तत्वज्ञानी कभी भी अपने सत्य का पूर्ण प्रतिपादन किए बिना गन्तुष्ट नही हो सकता। इस प्रयास मे विवादियो मे मार-पीट तक की भी स्थिति या जाती है, किन्तु कोई भी हार मानने को तैयार नही होता । जैनेन्द्र धर्म में बाल की खाल निकालने के पक्ष मे नही है। उनके अनुसार 'मुक्का मुक्की द्वारा तत्व निर्णय ही काल-ज्ञापन का एक उपाय नही है, अन्य भी अनेक कर्म है। जीवन उनसे भी चलता है, बल्कि बहस की जगह उन कामो को करना कुछ कहला सकता है।" जैनेन्द्र की धार्मिक वैज्ञानिकता
१ जैनेन्द्र 'काश्मीर की वह यात्रा', पृ० ३६ । २ 'बुद्धि जिसको विश्वास का सहारा नही, बव्या होती है। यह विश्वास बुद्धि
का पूरक होता है । वह बुद्धि को नही, केवल उसके दभ का नष्ट करता है और इस तरह केवल उसे नम्रता, नाजुकता ग्रहणशीलता देता है।
जैनन्द्र ‘समय और हम' पृ० ११७ । ३ 'समाप्ति', पृ० ३०४-३०६ । ४. जैनेन्द्रकुमार . 'समाप्ति', पृ० ३०५ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
का आधार यही कर्मशीलता है, वाद-विवाद नही। जेन धर्म मे अन्यविश्वासो और मिथ्या आडम्बरो का उन्मूलन धम के तर्क सम्मत रूप द्वारा ही किया गया है । यहा तर्कजाल न बिछाकर, कोरी भावना मे बुद्धि का समावेश किया गया है।
धर्म और राजनीति ___ जैनेन्द्र के साहित्यिक-रचना का प्रारम्भिक काल राजनीतिक उथल-पुथल का काल था। चारो ओर गाधी का प्रभाव व्याप्त था । राजनीति को लोग धर्म से निरपेक्ष रखना चाहते थे। उनके अनुसार राजनीति के हिसात्मक धरातल पर धर्म को आरूढ नही किया जा सकता था। गाधी का जीवन आध्यात्मिकता और नैतिकता का स्पष्ट उदाहरण है। उन्होने अपना सारा जीवन देश की राजनीति मे ही लगाया था किन्तु राजनीतिक-परिवेश मे रहते हुए भी वे राजनेता नही थे। वह तो महान् धार्मिक और अध्यात्म पुरुष थे। उनके अनुसार राजनीति जीवन का अग होने के कारण जीवन-धर्म से विमुख नही हो सकती। धर्म-निरपेक्ष राजनीति मे मानव-कल्याण को विशेष प्रश्रय नही दिया जा सकता। उसमे राजनीति का तात्पर्य राजतत्र से लिया जाता है। जैनेन्द्र ने अपने जीवन की अाव्यात्मिकता को राजनीति मे ढालने का प्रयास किया है। जैनेन्द्र' गाधी के युग मे ही हुए है। वे गाधी के वाद से बधे हुए नही है, किन्तु युगीन चेतना से वे स्वय को पूर्णत तटस्थ नही कर सके। जैनेन्द्र के अनुसार धर्म की साधना राजनेता जिस प्रकार सफलतापूर्वक कर पाता है, उतना धर्म का नेता नही ।' धर्म भावात्मक है, राजनीति कर्मप्रधान है। धार्मिक सिद्धातो और प्रादर्शी का सक्रिय और व्यवस्थित रूप ही राजनीति है। जैनेन्द्र के अनुसार सामान्यत धम-निरपेक्षता के दो रूप देखने को मिलते है । एक वह रूप जिसमे धर्म के प्रति पूर्ण उपेक्षा भाव रहता है और दूसरा वह जिसमे किसी धर्म-विशेष को न स्वीकार करते हुए भी सभी धर्मों के प्रति समान आदर की भावना दृष्टिगत होती है। राजनीति मे जैनेन्द्र ने धर्म के जिस स्वरूप का समावेश करना चाहा है, वह उसका विज्ञानसम्मत रूप ही है। उसमे पूजा-व्रतादि को प्रश्रय न देकर धार्मिक श्रद्वा को विशेष महत्व दिया गया है । 'जयवर्धन' और 'मुक्तिबोध' मे तथा कुछ कहानियो मे उनकी इसी विचारधारा के दर्शन होते है। उनके अनुसार विभिन्न राष्ट्रो मे धर्म-युद्ध की स्थिति ही स्वीकार की जा सकती है। सीमा
१ प० जवाहरलाल नेहरू 'मेरी कहानी', पृ० ५३१ । २ जैनेन्द्र 'जयवर्वन', पृ० ३६६ ।
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जैनेन्द्र और धर्म
६६ विस्तार प्रोद्योगीकरण के विस्तार के हेतु होने वाला युद्ध पारस्परिक स्नेह को समाप्त कर देता है । जैनेन्द्र के अनुसार सघर्ष की स्थिति केवल सत् और असत्, न्याय और अन्याय के मध्य ही स्वीकार की जा सकती है। ऐसी स्थिति मे युद्ध धर्म भावना से अनुप्राणित होकर परिचालित होता है। क्षत्रिय का धर्म सत्य की रक्षा के हेतु युद्ध करना है। यही उनका धर्म है। जैनेन्द्र व्यक्ति के धर्म को ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि की सीमानो से मुक्त कर मानव धर्म के रूप में देखना चाहते है । वस्तुत जैनेन्द्र व्यक्ति की सार्थकता धर्ममय होने मे ही स्वीकार करते है। उनका विश्वास है कि 'गाधी के बाद हमने भौतिक पर ध्यान दिया है, नैतिक की तरफ दुर्लक्ष किया है, फिर भी उस नैतिक भाषा का उच्चार और उद्घोष करते आए है। ऐसे बाहर और अन्दर की स्थितियो मे फर्क पडा और हमारी साख टूट रही है ।'२ जैनेन्द्र के अनुसार नेता त्याग और सेवा-भाव द्वारा ही धर्मवत आचरण कर सकता है, जो व्यक्ति सेवा के हेतु पद की कामना करते है, वे वास्तव मे दुनिया को धोखा देते है । सेवाभावी के लिए पद का लोभ निरर्थक है, किन्तु राज्य-व्यवस्था के हेतु यदि नेतृत्व आवश्यक ही है तो यह
आत्म केन्द्रित होना चाहिए। उसमे शासक की अपेक्षा सेवक का धर्म प्रमुख होना चाहिए।
जैनेन्द्र की दृष्टि मे अहिसा
जैनेन्द्र की धार्मिक-दृष्टि व्यक्ति की ही समस्या का समाधान न होकर अन्तर्राष्ट्रीय और विश्वव्यापी समस्या का समाधान है । उसमे राष्ट्रवाद का निषेध किया गया है। जैनेन्द्र की अहिसक दृष्टि सत्य को सीमित करने के पक्ष मे नही है। उनके साहित्य की आत्मा अह-विसर्जन और अहिसा मे ही निहित है। जैनेन्द्र के मनुसार अहिसा एक अखड सत्य है, यह आत्मिक धर्म है। अहिसा धर्म के लिए कोई अपवाद नही है। क्योकि वह परम धर्म है । परम धर्म तो निरपवाद होता ही है। व्यक्ति, परिस्थिति और देश-काल आदि के भेद से उसके स्वरूप मे कोई अन्तर नही पडता । जैनेन्द्र ने स्वधर्म के पालन पर विशेष बल दिया है। स्वधर्म-पालन के मूल मे उनकी अहिसक नीति ही विद्यमान है।
१. जैनेन्द्र 'कालधर्म' (जैनेन्द्र की प्रतिनिधि कहानिया), दिल्ली, १९६६,
पृ० २३६-राज्य मानव धर्म के सिद्धातो के अनुसार चलना चाहिए।'
'काल धर्म', पृ० २३५ । २ जैनेन्द्रकुमार 'मुक्तिबोध', पृ० ५० । ३ जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', १९५६, पृ० १४७ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
उनके अनुसार जब तक हम अपूर्ण है, अश हे तब तक हमारा धर्म अहिसा हे। किसी के धर्म पर चोट करना हिसा ही है। जैनेन्द्र की अहिसक नीति शारीरिक हिसा तक ही सीमित न होकर मन और वर्णागत अहिसा मे भी व्याप्त है। ___अहिसा जैनेन्द्र की धार्मिक विचारधारा का मूलाधार हे । अहिसा वह प्राणतत्व है, जिसमे विमुक्त होकर वर्म टिक नही सकता । जैन धर्म में अहिसा पर बहुत पधिक जोर दिया है। उनकी प्रहिसक नीति तो विश्व-निरव्यात है । जैन धर्म मे अहिसा का बहुत काठोरता से पालन किया गया, उसमे लचक नही है। जैनेन्द्र ने अहिसा को मानव-वम मे अन्तर्निहित करके रचना की है। जैनेन्द्र के अनुसार अहिसा बाह्याचरण से अधिक आन्तरिक प्रेम और निष्ठा मे विद्यमारा होनी चाहिए। अप्रेम के वशीभूत होकर किया गया प्राणघात ही वास्तविक हिसा का द्योतक है, अन्यथा देह के मरने या मारने मात्र मे हिसा नही है।' कारण, प्रेम ही भगवान् है, वह प्रेम का घात भगवद् घात होगा, हिसा वही है। प्रेम निष्ठा, भगवद् निष्ठा अहिसा हे।
जेनेन्द्र ने स्व-वर्म-पालन मे होने वाली हिसा को पाप नही माना हे । सामान्यरूप से उन्होने जीव हिसा को बहुत बड़ा पाप माना है। विचारगत चोट भी उग्की दृष्टि में हिसात्मक ही है, किन्तु स्वयम पालन मे वही हिसा व्यक्ति का कतव्य हो जाती है, क्योकि स्ववर्म पालन ही मानव-धर्म है । यद्यपि हिसा का यह कर्म निरपेक्ष दृष्टि से स्वीकार्य नहीं है, किन्तु सापेक्ष दृष्टि से कतव्यच्युत व्यक्ति अवर्मोन्मुख ही समझा जायगा । वस्तुत जैनेन्द्र की विचारधारा गतिशीलता की परिचायक है। उसमे जडता और रूढिबद्धता नही है। कर्तव्य की पूर्ति के लिए हृदय के मधुर भावो का भी उत्सर्ग करना पड़ता है। जैनेन्द्र की 'निर्मम' कहानी इस बात का स्पष्ट उदाहरण है, उसमे हमे गीता के कर्मयोग आर निष्काम भाव के दर्शन होते है। शिवा सैन्य दल की हिसा से घबडा कर अपने हृदय की प्यास को प्रेम के द्वारा तृप्त करना चाहता है, किन्तु गुरु का
१ जैनेन्द्र कुमार 'जयवर्धन', दिल्ली, १६५६, पृ० १४८ ।
'देह के जीने मरने से उसका (अहिसा का) सम्बन्ध नही है। मैं सब बार बार मारू या सैकडो, हजारो, लाखो, करोडो मे, इस सबसे अहिसा का कोई सम्बन्ध नही है। पर अपने भीतर के प्रेम को मरने दू तो मुझसे
अपराधी कौन होगा ?' २ जैनेन्द्र कुमार 'जयवर्धन', पृ० १४८ । ३ साम्य गाधी 'गाधी विचार दोहन,' अहिसा का भाव दृश्य परिणामो से
अधिक अत करण की रागद्वेष-विहीन अवस्था मे है ।
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जैनेन्द्र पोर धम
आदेश उसे कर्तव्य बद्ध कर देता है। यह सत्य है कि पाचीन काल से ही स्व-धर्म पालन ही व्यक्ति का धर्म रहा है । गीता का गमरत ज्ञान अर्जन को स्वधर्मोन्मुख करने के लिए ही कृष्ण द्वारा प्रतिफलित हुगा । जैनेन्द्र की कहानियो ओर उपन्यासो में अन्यत्र भी इस कर्मनिष्ठा के दर्शन झाले है। उन्होने कर्मनिष्ठा में भी निष्काम भावना को प्रादुर्भूत करने का सपाग किगा है। निष्काम भाव से किया गया कार्य त्याग और परहित की भावना स मक्त होता है। कामनायुक्त कर्म में व्यक्ति स्वहित की अोर अधिक प्राकृष्ट होता है। इसलिए 'निर्मम' कहानी मे गुरु शिष्य को सन्मार्ग की प्रोग्रेरित करते हुए कहते हे.-"जाम्रो शिव का कर्म करो । शका न करो अाकाशा न करा।"
जैनेन्द्र के विचार --माधी और जैन दर्शन
जैन दर्शन का मुख्य सिद्धात 'स्याद्वाद' है । जैनेन्द्र के अनुसार 'स्याद्वाद' अहिसा का बौद्धिक प्ररूपण है। जो भी कथन अपने-माग । मापेक्ष्य हो वह निरपेक्ष भाव से पूर्ण नही हो सकता । इसलिए कथन के सामा प्रतिवाथन भी अनिवार्य है। यह भावना स्थात् की अपेक्षा रो प्रा । lr' के कारण अनेक वाद परस्पर प्रतिकूल न होकर अपनी प्रानी जगः ग ग हा गकते है। इसको अनेकात भी कहा गया है। स्याद्वाद में तनिक भि. पति प्रत्येक कथन स्वय अपने अस्ति अोर नास्ति दोनो मे वह परत ... गभिन्न है कि 'यह वस्तु नही है।'
स्याद्वाद अथवा अनेकात दोनो बौद्धिक क्षेत्र में अहिगा की पर्चा के केन्द्र के और यह अहिसा वही मूल तत्व स्व पर बोधक है । इमीनि पादाद पर टीका हो सकी है कि वह मन और प्राचार की शिथिलता का सूचक माना गया है। किन्तु जैनियो ने जितना स्याद्वाद पर बल दिया है उससे कम सम्यक दशन पर नही है । इसमे श्रद्धा की अविचलता का निदर्शन होता है । गम्यम् दर्शन प्राम, अप्त हे और हो सकता है । उसमे कही किसी समझौते की आवश्यता नही है।
१ 'जो चीज तुम्हे दु ख पहुचाती है, हिसा वही करने के लिए नग बान्य हो।
यश-प्रतिष्ठा जिससे तुम भागना चाहते हो वे ही तुम्हे चिनी ली है, किन्तु मै समझता हूं शिव का वह विराट उत्सर्ग का प्रबगर ।। तब जो तुम जैसे विरलो को मिलता है, तुम खोप्रोगे नही ।'
- जैनेन्द्र -- 'जैनेन्द्र की प्रतिनिधि कहानिया' (निर्मग), प० । २ गीता - २ अध्याय (श्लोक ११ मे पूरा अध्याय) ३ जैनेन्द्र की प्रतिनिधि कहानिया, पृ० ४६ ।
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जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन वह ऊपर से नीचे तक विरोधाभास लगाए हुए है । सम्यक् दर्शन का स्याद्वाद से मेल नही, किन्तु तत्व की भूमिका पर चाहे जैसा विरोव दीखता हो जीवन मे सामजस्य सहज फलित हो सकता है।' ___ जैन दर्शन मे एक अोर दृष्टि की मापेक्षता के दर्शन होते है, तो दूसरी ओर आग्रह प्रवान है । वस्तुत 'स्याद्वाद और सम्यक् दशन' परस्पर विरोधी है। यद्यपि जैन दार्शनिको ने व्यावहारिक भूमिका पर सामजस्य स्थापित करने का प्रयत्न किया है, किन्तु तात्विक दृष्टि से उनमे कोई सगति नही है। यही कारण है कि जैनियो की अहिसा का सिद्धात भी सैद्धान्तिक ही रह जाता है । जैनियो के विचार मे बौद्धिक निरूपण अधिक है, श्रद्धा का अभाव है। ____गाधी ने 'सत्याग्रह', द्वारा सिद्वात अोर व्यवहार मे सामजस्य स्थापित करने का प्रयास किया है । गाधी दर्शन अद्वैतवाद का पोषक है। जैन दर्शन द्वैतमूलक है। एक मे बौद्विक अभिमत प्रधान है तो दूसरे मे तात्विक सत्य की प्रवानता है । जैनियो मे बौद्धिक दृढता आती है, गाधी के सिद्वान्त मे कर्म की दृढता पाती है, बोद्धिक सकीर्णता नही आती है । जैनेन्द्र के अनुसार जैनी अहिसा की वारणा करुणामयी है। अद्वत से उद्भूत नही ह। इसलिए उसम जीव दया का अतिरेक भी हो जाता है । जैनी अहिसा मे जीवन की मरणशीलता कम हो जाती है जब कि गाधी जी की अहिसा ऐक्य मूलक है । जैनी अहिसा स्वकेन्द्रित होती है। जैन दर्शन मे 'ये करो, ये न करो' की प्रवत्ति बहुत अधिक मिलती है । निषेध के द्वारा जीवन की पूर्णता की प्राप्ति नही हो सकती। गाधी दर्शन मे व्यावहारिक जीवन की पूर्णता अथवा ऐक्य के दर्शन होते है । जैन दर्शन मे ग्रहीत अहिसा की जाती है और की जा सकती है, जब कि आस्तिक्य वाली अहिसा बाहर की नही जा सकती है अर्थात् अहिसा कर्म का विशेषण अथवा लक्षण नही रह जाती, प्रत्युत जीवन से तद्गत होती जाती है। उस अहिसा का स्वरूप बाहर से हिसा जैसा ही लग जाए तो असम्भव नही है । किन्तु जैन दर्शन मे हिसा को किसी भी स्थिति में स्वीकार नही किया जा सकता। गाधी दर्शन मे अद्वैत भाव की प्रधानता है जिसके कारण 'स्व पर' मे कोई अन्तर नही है। 'पर' को कष्ट से मुक्त करने मे 'स्व' द्वारा हिसा नही, वरन् अपरोक्षरूप से वर्म का ही सेवन होता है। गाधी जी ने अपने रुग्ण, मरणासन्न बछडे के कष्ट को असहनीय समझकर उसे जीव-मुक्ति देने मे ही धर्म का अश स्वीकार किया, किन्तु जैन धर्मी कभी भी ऐसा नही कर सकता।
जैनेन्द्र के साहित्य में 'हत्या' शीर्षक कहानी उपरोक्त तथ्य की सत्यता को
१ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर।
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जैनेन्द्र ओर धम
प्रमाणित करने के लिए बहुत ही उपयुक्त है। उसमे लेखक ने एक ओर पूर्ण अहिसक अर्थात् जैनी की 'स्व पर' मूलक करुणा की ओर इगित किया है तो दूसरी ओर आस्तिकता प्रधान अद्वैतमूलक सत्य की ओर सकेत किया है। अन्त मे अद्वैतवादी व्यक्ति आस्तिक होते हुए भी 'घोडी' की जीवनमुक्ति मे धर्म की झलक देखता हुआ उसे अपनी गोली का शिकार बना लेता है। घोडी के मालिक प्रोवरमियर के हृदय मे अपनी पुरानी घोडी के लिए घर के प्रात्मीय सम्बन्धियो के सदृश्य ही अपार प्रेम है । वे उसके कष्ट को देखकर बहुत दुखी रहते है किन्तु दूसरे अग्रेज सज्जन के हृदय मे भी दया कम नही है । किन्तु उनकी दया घोडी को मरता हुआ नही रहने देना चाहती ।' इस प्रकार उपरोक्त घटना द्वारा गाधी की अहिसा और जैन दर्शन की अहिसा का अन्तर स्पष्ट हो जाता है । जैनेन्द्र पर गाधी की ही अहिसा का प्रभाव लक्षित होता है। जैनेन्द्र ने भी कर्म से अधिक भावना पर बल दिया है। उनकी दृष्टि मे 'स्व-पर' भिन्न नही है। इसलिए 'पर' की दु ख से मुक्ति अनिवार्य है।
जैनेन्द्र-साहित्य मे अहिसा विविध सन्दर्भो मे दृष्टिगत होती है। उन्होने अपने उपन्यास के पात्रो के चित्रण मे अपनी पूर्ण अहिसक नीति का ही परिचय दिया है । वे किसी के हृदय के प्रेम को चोट नही पहुचाना चाहते। उनके पात्र स्वय तिल-तिल कर मर जाते है किन्तु अपने कारण किसी को कष्ट नही देते। 'परख' मे कट्टो तथा 'त्यागपत्र' की मृणाल उनके ऐसे ही पात्र है. जिनका जीवन कष्ट भेलने मे ही बीतता है । 'परख' अपने प्रेमी पात्र की प्रसन्नता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देती है। वह नही वाहती कि उसके कारण उसके प्रेमी की कष्ट हो । 'त्यागपत्र' मे मृणाल का जीवन व्यथा से पूर्ण है। किन्तु अपनी व्यथा को वह बाटना नही चाहती । वह नहीं चाहती कि उसके कारण उसका भतीजा कष्ट पाये । इन दोनो उपन्यासो मे जैनेन्द्र ने निज की व्यथा को सहने में ही अपनी अहिसक नीति का परिचय दिया है । 'सुखदा', 'विवर्त' मे भी जैनेन्द्र ने सुखदा और भुवन मोहिनी के पति को उनके प्यार की रक्षा के हेतु कष्ट सहते हुए दिखाया है, किन्तु उपरोक्त उपन्यासो मे इन उपन्यासो की स्थिति मे अन्तर है । उनके त्याग की चरम सीमा थी, त्याग सहर्प था, किन्तु इन उपन्यासो मे पुरुष पात्रो की दुर्बलता का ही परिचय मिलता है। यदि यह कहा जाय कि वे अपनी अहिसक नीति के कारण पत्नी के मार्ग में बाधा नही उत्पन्न करते तो उचित नही प्रतीत होगा । 'सुखदा' और 'विवर्त' के पुरुष पात्र बहुत कायर से प्रतीत होते है । अहिसा साहस मे है, विवशता मे नही ।
१ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया', पृ० ८५ ।
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जनेन्द्र का जोवन-दर्शन अपरिग्रह ___ जैनेन्द्र ने अहिसा के अतिरिक्त अपरिग्रह, सेवा, त्याग आदि भानो को भी जीवन की वर्ममयता के लिए आवश्यक माना है। पहिसा मे ही अपरिग्रह गर्भित होता है। व्यक्ति से लेकर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक जो परिग्रही प्रवृत्ति देखने को मिलती है, वह मनुष्य की परिग्रही प्रवृत्ति का ही परिणाम है । अधिक से अधिक बटोरने की अभिलाषा से ही हम एक-दूसरे की वग्तु का अपहरण करते हे और इस छीन-झपट मे हिसा का प्रवेश स्वाभाविक हे । वस्तुत जीवन की अहिसात्मक नीति के लिए अपरिग्रहिता अनिवार्य है। जैन धर्म मे अति सचय की प्रवृत्ति का निषेध किया गया है और दिगम्बर सम्प्रदाय के सिद्धान्त इस दष्टि से बहुत ही कठोर है। उनकी अपरिग्रही दष्टि जीवन को बहुत ही सादा और नीरस बना देती है। बाह्य-शुष्कता मन की समस्त कोमल भावनाप्रो को नष्ट कर देती है किन्तु अहिसक के लिए सहृदय होना आवश्यक है। जैनेन्द्र प्राने जीवन और साहित्य मे मव्यम मार्ग को अपना कर चते है। उनके अनुसार ईश्वरोन्मुख को छोडकर किसी भी मार्ग की एकोन्मुखता • वाभाविक नही है। वर्म हृदय की वस्तु हे प्रत अपरिग्रह की भावना हृदय म प्रादुर्भूत होनी चाहिए, क्योकि प्राय बाह्य जीवन मे अपरिग्रही दिया देने से व्यक्ति की वस्तु के प्रति बहुत अधिक आसक्ति होती है। अत अनामक्त भाव से ग्रहण की गई कोई भी निधि व्यक्ति को उसके धर्म से नही गिरा सकती। जैनेन्द्र के अनुसार 'अपरिग्रह की कृतार्थता वस्तु के अछूते रहने में नही है, वस्तु के मध्य खुले रहने मे हे ।' वस्तुत जैनेन्द्र ने किसी भी सिद्वात का अन्धानुकरण नही किया है। उनकी अपरिग्रही प्रवृत्ति मे मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ के दर्शन होते है। यह मनोवैज्ञानिक सत्य हे कि जब वस्तु या किसी प्रवृति पर अत्यधिक दबाव डाला जाता है तो उसमे विस्फोट होना स्वाभाविक होता है। जिस कार्य का अधिक से अधिक निषेव किया जाता हे उस कार्य की ओर उन्मुख होने के लिए हम अधिक लालायित रहते है। धन के या वस्तु के प्रतिनिपेव स उसकी कामना बढती ही जाती है। जैनेन्द्र के अनुसार हमारी प्रवृत्ति सहज होनी चाहिए। उनके अनुसार जैनियो की अतिअपरिग्रहता का ही परिणाम है कि आज अधिकाश जैनी निरपवाद भाव से वैश्यवर्गी है । जैन धम के मूत सिद्वात और जैनियो के वर्तमान जीवन मे बहुत अन्तर है और यह स्थिति स्वाभाविक ही हे । जैनेन्द्र के अनुसार यह प्रावश्यक नही कि जगल मे रहने वाला व्यक्ति
१ जेनन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', पृ० ११० ।
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जैनेन्द्र र धर्म
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अपरिग्रही हो ।" उसकी तृष्णा नही समाप्त होती । विवशता मे वस्तु का प्रभाव अपरिग्रह नही है । जब की वस्तु के होते हुए भी उसमे वासना नही होती तभी परिग्रह के वास्तविक रूप का प्रतिपादन होता है । अपरिग्रह प्रभावात्मक नही, वरन् सद्भावात्मक स्थिति है ।" जैनेन्द्र के उपन्यासो प्रोर कहानियो मे उनकी परिग्रही प्रवृत्ति विविध सन्दर्भों मे द्रष्टव्य है । जैनेन्द्र के जीवन मे भी उनकी परिग्रहिता के दर्शन होते हे । सदैव कम-से-कम भे ही वे कार्य करने मे सन्तुष्ट रहते थे । उनका जीवन ग्राडम्बर से दूर नितान्त सादा है । उनके अनुसार त्याग में अहशून्यता होनी चाहिए । सर्वसुख का त्याग करने वाले व्यक्ति में भी यदि अपने इस कर्म का बोध बना रहता है प्रोर वह यह सोचता है कि मेने यह त्याग किया है, तो वह कभी भी अपने लक्ष्य की प्राप्ति नही कर सकता । 'बाहुबली' मे बाहुबली समस्त राज्य - सुखो को त्यागकर भी कैवल्य गति नही प्राप्त कर पाता, किन्तु उसका भाई चक्रवती भरत राज्य भोग करता हुया भी सहज ही मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । वह ससार मे रहकर भी प्रनामवत, विनम्र और निरहकारी होता है, किन्तु बाहुबली को अपने तप और अविजित होने का बोध बना रहता है, जब वह अपने त्याग की महत्ता को भूल जाता है। तभी वह मुक्त पुरुष बन जाता हे। 'लाल सरोवर में वैरागी अत्यधिक विनम्र हे वह अपन महत्व से अनभिज्ञ है । त्याग, सेवा प्रौर परहित की भावना उसमे कूट-कूट कर भरी हुई है । उसे धन की प्रावश्यकता नही है, प्रत उसकी ( धन की ) प्राप्ति उसे कष्ट देती है, क्योकि धन समस्त प्रनर्थो का मूल है । परिग्रह यदि मानव हित की भावना से किया जाता है तो यह स्वीकार्य हो सकता है, किन्तु स्वार्थान् व्यक्ति की परिग्रही प्रवृत्ति सघर्ष का कारण है ।
सामान्यरूप से जैनेन्द्र ने धन के प्रति अनासक्ति मे ही अपरिग्रह के आदर्श की कल्पना की है, किन्तु भावना की पवित्रता के साथ ही साथ कर्मण्यता की भी वश्यकता अपरिहार्य है । जैनेन्द्र अपने जीवन मे अधिक कर्मशील नही रहे हे । जो कार्य ऊपरी दबाव के कारण हो जाता, उतना ही उनके लिए पर्याप्त होता है । पनीर से वे अधिक सचेष्ट नही है । उनके साहित्य में भी इसी प्रवृत्ति
१ जैनेन्द्रकुमार ' प्रश्न और प्रश्न', पृ० १११ ।
२ जैनेन्द्र ' प्रश्न और प्रश्न, पृ० १११ ।
३ 'बाहुबली' 'जैनेन्द्र की प्रतिनिधि कहानिया, पृ० १७८ ।
४ 'बाहुबली' 'लाल सरोवर', पृ० १७८ ।
"नेकानेक नर्थों का मूल यह स्वर्ण कहा मुझमे या गया । हे भगवान्, मुझको ऐसा कठोर दण्ड तुमने क्यो दिया ?",
पृ २६३ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
के दर्शन होते है । किसी के ऊपर आश्रित रहकर किसी प्रकार जीवनयापन करना अपरिग्रह नही, वरन् व्यक्ति की असली मनोवृत्ति का ही परिचायक है । जैनेन्द्र के मामा भगवानदीन के जीवन पर जैन धर्म के आदर्शो की गहरी छाप देखने को मिलती है, जैनेन्द्र उनके प्रभाव से मुक्त नही है । 'काशमीर की वह यात्रा' उनकी अपरिग्रही प्रवृत्ति का स्पष्ट उदाहरण है। भगवानदीन के आदेश से अमरनाथ की यात्रा मे वे अपने पास का एक-एक पैसा त्याग देते है। मार्ग के खर्च के लिए वे ईश्वर के आश्रित रहते है। उन्होने वहा अपने जीवन को साधु के जीवन मे ढालने का प्रयास किया था । यद्यपि साधु गृहस्थ धर्म के बन्धनो से मुक्त होकर दूसरो के सहारे जीवनयापन कर सकता है, किन्तु साधु के जीवन और गृहस्थ जीवन मे अन्तर है । धर्म समाज-सापेक्ष है । असामाजिक होकर धार्मिक व्यक्ति के कर्तव्यो की कोई सार्थकता नही है । ससार मे रहकर जीवनयापन के लिए धन का सग्रह आवश्यक है, किन्तु जैनेन्द्र एक स्थल पर कहते है--'कमाई एक चिन्ता का चक्कर है। सोचा कि जीवन वह जीकर देखना चाहिए, जहा स्वय जीविका प्रश्न न हो और आस्तिक चिन्ता का विषय न हो । वह जीवन बन्धन से हीन होगा और मुक्ति का क्या अर्थ है ?'' किन्तु जीवन के सघर्ष से घबडा कर ससार से मुक्ति लेने वाला व्यक्ति कभी भी महान नही हो सकता। मनुष्य का पुरुषार्थ कर्मशील होने मे है । 'अनन्तर' मे भी एक स्थल पर ऐसे ही विचारो के दर्शन होते है-- 'तुम जैसी कोई जो पैसे से समर्थ हो और मै उसकी सेवा पर होकर सर्वथा अपरिग्रही बन जाऊ २ उनके इन विचारो से यह स्पष्ट व्यक्त है कि जैनेन्द्र ने 'अनन्तर' मे प्रसाद को धन के प्रति आसक्त होते हुए भी अपरिग्रही होने के हेतु प्रयत्नशील बनाया है । सम्भवत यह जैनेन्द्र की अनिश्चित विचारधारा का ही परिणाम है । प्राय उनके सिद्वान्तो और पात्रो के आचरण मे भिन्नता मिलती है। स्वय धन के लिए प्रयत्नशील न होना पडे, क्योकि परिग्रह की प्रवृत्ति प्रयत्न मे से उत्पन्न होती है। किन्तु धन किसी-न-किसी स्रोत से बहकर आता रहे । इस प्रकार भावना
और कर्म दोनो मे दोष उत्पन्न हो जाता है । उपयुक्त उद्धरण को देखते हुए यह नही कहा जा सकता कि वह जैनेन्द्र के विचारो का प्रतिनिधित्व नही करता, वह किसी सामान्य पात्र द्वारा व्यक्त विचार होगे, क्योकि उनके जीवन और
१ जैनेन्द्र कुमार 'काश्मीर की वह यात्रा', पृ० ६७ । २ जैनेन्द्र कुमार 'अनन्तर', पृ० ६१ । ३ 'सास हम अनायास लेते है। उसके लिए प्रयत्न करना पडता है तब उसे
सास का रोग कहते है।' --जैनेन्द्र कुमार , 'मन्थन'।
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जैनेन्द्र और धर्म
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अनन्तर के प्रसाद के जीवन और विचारो मे कोई अन्तर नहीं है।
जैनेन्द्र के विचारो के सम्बन्ध मे एक निश्चित धारणा नही निर्धारित की जा सकती। उनके साहित्य का सैद्धान्तिक पक्ष उनके गभीर चिन्तन-मनन का परिणाम प्रतीत होता है, किन्तु उनके साहित्य सृजनात्मक पक्ष के यत्र-तत्र उनके सिद्धातो का अनुसरण नही हो पाया है। जब वे सिद्धात ओर रचना मे साम्य स्थापित करके चलते है तभी उनके विचारो मे परिपक्वता के दर्शन होते है। अपरिग्रह धर्म का अनिवार्य अग है । आदिकाल से ही ऋषि-मुनियो के जीवन और तत्कालीन साहित्य मे हमे अपरिग्रही प्रवृत्ति के दर्शन होते है, किन्तु समय के साथ उसके प्रयोग के ढग मे अन्तर आना स्वाभाविक था। राजा-महाराजाओ के युग मे समस्त सत्ता तथा अर्थ का केन्द्रीयकरण राजा के नियत्रण मे होता था, किन्तु प्रजातत्र मे सत्ता या धन व्यक्ति की केन्द्रित नही हो सकता। गाधी जी ने इसीलिए एक नवीन मार्ग का प्रतिपादन किया है । जैन तीर्थकर की कठोर अपरिग्रहिता से पृथक् गाधी जी की अपरिग्रही नीति ट्रस्टीशिप पर आधारित है । जैनेन्द्र के अनुसार इस नीति के पालन द्वारा अपरिग्रही का धर्म भी पूर्ण हो जाता है और सामाजिक आवश्यकताओ पर आघात नही पहुचता । उनके अनुसार जिस प्रकार मानव-शरीर की सार्थकता समष्टि की सेवा और कल्याण मे निहित होने मे है, उसी प्रकार व्यक्ति का धन समष्टि की आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन होना चाहिए । गाधी जी का जीवन अपरिग्रहिता का महान उदाहरण है, फिर भी उन्होने कभी मिलते हुए धन को अस्वीकार नही किया । जहा से भी धन मिला वे सचित करते रहे, उन्होने एकएक पैसे का हिसाब रखा । जैनेन्द्र के विचारो पर गाधी की ट्रस्टीशिप का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। 'अनन्तर' मे जैनेन्द्र की धार्मिक दृष्टि गाधीजी से पूर्णत प्रभावित प्रतीत होती है। उनके अनुसार धन का सग्रह पाप नही है, यदि व्यक्ति की उसके प्रति कोई वासना न हो । धन का सग्रह सार्वजनिक हित के लिए होना चाहिए । आजकल जिस प्रकार धार्मिक सम्प्रदाय प्रास्थाहीन हो गये है, उसी प्रकार बहुत से स्वार्थी व्यक्ति सार्वजनिक धन के स्वार्थ-साधन चाहते है। जैनेन्द्र ने सार्वजनिक राशि को व्यक्तिगत स्वार्थ से पृथक् रखने का
१ 'गाधी जी ने सब राजाओ को समाप्त करना चाहा था । और वह चाहते
वैसे आप ट्रस्टी बने ही है । भीतर से अनासक्त है, तो प्रजा की ओर से आपको मिला यह ट्रस्ट प्रजा का हित ही करेगा और आपकी आत्मा का भी अहित नही करेगा' --'अनन्तर', पृ० ११६ ।
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१०८
जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
प्रयास किया है।' 'अनन्तर' मे शान्ति धाम की स्थापना के हेतु सहायता, अमीरो के खजाने से प्राप्त होती है। जैनेन्द्र धार्मिक सस्थाओ अथवा अन्य जन हितकारी सस्थाओ के हेतु प्राप्त होने वाले धन के मूल मे आस्था के अभाव अथवा अविनय को नही स्वीकार करते, उनके अनुसार दबाव अथवा गर्व की भावना से दिया गया धन वार्मिकता पर आघात करता है।
वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार अपरिग्रह धम-नीति का अनिवार्य अग है। अपरिग्रही आचरण द्वारा हमे जीवन के सत्य का बोध हो सकता है । ससार मे कोई कुछ लेकर नही पाता और न कुछ साथ लेकर जा सकता है । वस्तु या धन के मग्रह मे व्यक्ति का मै प्रबल हो उठता है । 'यह मेरा हे', 'यह तेरा है' यही भावना सघर्ष की प्रेरक बनती है। जैनेन्द्र ने व्यक्ति की प्रात्यात्मिक चेतना के लिए अपरिग्रह को गावश्यक माना है । अपरिग्रह द्वारा हम बिना रक्त क्राति के साम्यवाद की स्थापना कर सकते है। जेनेन्द्र के अनुसार ससार मिथ्या है, मानव-शरीर नश्वर है । प्रत सचय की प्रवृत्ति निरर्थक ही सिद्ध होती है। अपार धनराशि के होते हुए व्यक्ति स्वय को उस समस्त राशि मे फैता नही मकता । धन का गर्व उसके अह को फुला सकता है किन्तु शरीर तो सीमित ही रहता है। जैनेन्द्र जीवन को तत्वज्ञानी के सदृश्य समझने का प्रयास करते है। उनकी दृष्टि मे परिग्रह परहित मे सन्निहित होकर ही सार्थक है, अन्यथा उसका कोई महत्व नहीं है।'
१ 'अनन्तर'--'आप लोग सार्वजनिक पैसा रखते है, जिसमे मेरा हक नही
पहचता और इसलिए पैसा मुझे पास लेना पडता है।', पृ० १४१ ।। २ 'रुपया जिसके पास गया उसका है । जी नही, समाज का है और धन
वाले सिर्फ खजाची है कि आज जो सेवक है उनके हुक्म पर रुपया देते
रहे।' --'अनन्तर', पृ० १६१ । ३ 'अनन्तर', पृ० १६० ।। ४ ‘पदार्थों को बटोर कर उनके बीच हमने रुकना चाहा, यही हमारी भूल
है। क्या कोई कभी रुक सका हे ?" --जैनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया',
पृ० २३४ । ५ 'जिसके पास सब कुछ है, वही उस सब जो कुछ को छोडकर दो हाथ भर
जगह ही बस अपना सका है। बिछी खाट पर गृहपति का अस्तित्व कितने सक्षेपस्थ में समाप्त मालूम होता है। बाकी जो कुछ है सो उसका होने के लिए नहीं है बाकी सब कुछ उससे पराया है। उसकी निजता इसमे आगे नही है ।---जैनेन्द्र ‘वह अनुभव' (जैनेन्द्र की कहानिया), पृ० १२७ ।
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जैनेन्द्र और धर्म
१०६
परहित ____ जैनेन्द्र के अनुसार मानव-धर्म परहित की भावना पर आधारित होना चाहिए, उसमे ग्रह विसर्जन के भाव सन्निहित होने चाहिए। जैनेन्द्र धर्म मे तप अथवा काया-क्लेश को मोक्ष-प्राप्ति का मार्ग माना गया है। उनकी धारणा हे कि शरीर को अधिक-से-अधिक कष्ट देकर व्यक्ति इन्द्रियो को सयमित कर लेता है, उसकी सासारिक विषयो मे वासना नही रहती। जैनेन्द्र के अनुसार हमारा ध्यान, जो त्याग किया है, उसकी ओर न केन्द्रित होकर, जिसे प्राप्त किया है, उस ओर केन्द्रित होना चाहिए । शरीर व्यक्ति की सम्पत्ति नही है, उसे समष्टि की सेवा मे रत होना चाहिए । धर्म सामाजिक कृत्य है। जैनेन्द्र के अनुसार जो लोग ससार से विरक्त होकर धार्मिक होने का प्रयास करते है, वह उनका ढोग है। ____ जैनेन्द्र के अनुसार काया-क्लेश के द्वारा हम अपनी आत्मा के रस को सुखा देते है। बूद का अस्तित्व समुद्र की अपेक्षा मे ही सम्भव है। समुद्र से पृथक् होकर उसका अस्तित्व स्थिर रही रह सकता । जैनेन्द्र के अनुसार जैन धर्म मे 'तप' ही कैवल्य प्राप्ति का मार्ग है। महावीर स्वामी ने तप द्वारा कैवल्य गति प्राप्त की थी, किन्तु वे तपस्या के बाद स्वय के न रहकर, समष्टि मानव बन गये थे। वे एक महान विभूति थे । वे अपवाद है । सामान्यत कायिक तपश्चर्या अह के पोषण में सहायक होती है । 'बाहुबली' मे बाहुबली अपने तपश्चर्या-काल मे ससार से विरक्त होकर जिन वन मे काया को क्लेश दे रहे थे। किन्तु व्यक्ति की महानता उसके ससार के प्रति सुगम होने मे है, ससार उससे लाभान्वित हो सके यही उसका धर्म है। यही कारण है कि जैनेन्द्र ने 'बाहुबली' को मानव धर्मी बनाने के हेतु उसे तपस्या से विमुख कर जनहित की ओर केन्द्रित किया है। तपस्या से मुक्त होकर वे मानव हो जाते है।
१ जैनेन्द्रकुमार 'इतस्तत' दिल्ली १६६२, पृ० १६६ ।
'काया क्लेश की उग्रता को जब तपस्या और साधन माना जाता है तो उसके नीचे धारणा यही है कि व्यक्ति स्वय अपना है, वह अपने को सुखा सकता, गला सकता है, मार सकता है, वह स्वय मे अपने को मुक्त कर सकता है। शेष अन्य पर है, वह स्वय स्वय है। यह एकान्तिक धारणा व्यक्ति को अपने सदर्भ से तोड देती है।' 'मैं सब के प्रति सदा सुप्राप्त होने की स्थिति में अब रहूंगा." बाहुबली ने निर्मल कैवल्य पाया था। ग्रन्थिया सब खल गई थी। अब उन्हे किस ओर से बद रहने की आवश्यकता थी? वे चहु ओर खुले सब के प्रति सुगम रहने लगे थे।' --'बाहुबली', पृ० १७६ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार धर्म का वास्तविक रूप 'स्व' के विसर्जन मे ही निहित है। आदिकाल से ही जितनी भी महान आत्माए हुई, उनका जीवन परहित के लिए ही समर्पित रहा है।
जीवन मे धर्म की आवश्यकता
जैनेन्द्र के अनुसार धर्म जीवन का अनिवार्य अग है। मानव जीवन के चार पुरुषार्थ है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष । मोक्ष जीवन का लक्ष्य है। अर्थ और काम जीवन के दो तट है, इन दोनो तटो के मध्य धर्म रूपी सरिता का प्रवाह ही जीवन को सफल बना सकता है। मानव जीवन के समस्त कर्मों की सार्थकता उसके धर्ममय होने मे है। किन्तु वर्तमान परिस्थितियो मे मानव जीवन धर्म से कटता जा रहा है। धन और उसका भोग ही उसके जीवन का लक्ष्य बन गया है। धन के ठेकेदार लोग बड़ी से बडी इण्डस्ट्री का निर्माण करते है, पैसा उनके पास खिचता आता है। उनका शरीर फूलता जाता है, किन्तु आत्मा सूखती जा रही है। मशीन के युग मे वे मशीन के सदृश्य ही निर्जीव होते जा रहे है। आज का साहित्यकार भी जीवन के यथातथ्य चित्रण में ही रत है, उसी मे उसे आनन्द मिलता है, किन्तु साहित्य का उद्देश्य कोरा यथार्थोन्मुख होने मे नही हो सकता । जैनेन्द्र ने अपने उपन्यास और कहानियो मे अधिकाशत ऐसे लोगो का चित्रण किया है, जिनके लिए अर्थ और काम प्रमुख है, धर्म का उन्हे कोई ज्ञान नहीं है, और न ही उसके प्रति उनमे कोई जिज्ञासा
_विवर्त', 'कल्याणी', 'अनन्तर', 'मुक्तिबोध' आदि उपन्यासो मे उन्होने अर्थलिप्सु व्यक्तियो का चित्रण किया है । पाश्चात्य सभ्यता के रगे हुए उनके पात्र भारतीय धर्म की आत्मा से मुक्त है। 'अनन्तर' मे जया अति मौलिकता से घबडाकर ही 'शाति धाम' की स्थापना करती है। उसके अनुसार जीवन भोगाभिमुख होता जा रहा है-उसने सकल्प बाधा है कि इस गिराव को
१ 'परहित सरिस धर्म नही भाई, पर पीडा सम नहि अब भाई।'
-तुलसीदास 'रामचरितमानस' । २ जैनेन्द्र ‘प्रश्न और प्रश्न', दिल्ली, १६६६, पृ० २६५ ।
जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर',--'ये धाम धाम (शाति धाम) मै नही समझता । जिसमे रहता हूँ वही समझता हू। रुपया समझता हू। यह भी समझता हू, कि सब मुझे उसी के लिए समझते है । मुझे और कुछ से मतलब नही
है।'
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जैनेन्द्र और धर्म
१११
रोकना होगा, जीवन को उसकी सही धुरी पर फिर से निष्ठ और प्रतिष्ठ करना होगा । वैज्ञानिक सुविधाओ के आधार पर विश्व - चिन्तन' का भार अपने ऊपर धारण किए हुए ऊपर से मजिल खडी होती जा रही है किन्तु अन्दर से उसका जीवन नीव रहित होता जा रहा है । जैनेन्द्र के अनुसार 'धर्म आवश्यक है, उसी तरह जैसे मकान के लिए नीव आवश्यक होती है । कर्म की सफलता के लिए धर्म की स्थिरता जरूरी है ।' विचारो के मूल मे धर्म का निवास अनिवार्य है । जैनेन्द्र की आध्यात्मिक चेतना स्व-कल्याण मे ही केन्द्रित न होकर विश्व - कल्याण की स्थापना के लिए प्रयत्नशील है । उनके अनुसार 'धर्म से निरपेक्ष होकर जगत जो धडाधड उन्नति करता जा रहा है, उससे सकट टलता नही दीखता, बल्कि कुछ बढ़ ही रहा है ।" धर्म की इसीलिए जरूरत है कि वह उन्नति की बागडोर अपने हाथ मे ले ।" जैनेन्द्र ने आधुनिक युग मे जीवन को धर्ममय बनाने के लिए विज्ञान के धर्म सम्मत रूप को ही स्वीकार किया है । विज्ञान का सत्य सर्वत्र अपवाद रहित है, उसमे सघर्ष की स्थिति होने की सम्भावना कम रहती है । 'अनन्तर मे उन्होने धर्म विज्ञान सम्मत स्वरूप को ही स्वीकार किया है। धर्म का विज्ञान सम्मत रूप व्यक्ति को कर्मशील बनाने मे सहायक होता और उसके धर्ममय होने के कारण आध्यात्मिकता का भी पोषरण होता जाता है ।
जैनेन्द्र के अनुसार सच्चा धर्म वही है जिसमे अन्तश्चेतना और आन्तरिक प्रह्लाद बढता हुआ मालूम हो । जिसमे चित्त सिकुडता, सिमटता हो वही
१. जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० ५६ । २ जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० ४१
--
-' इधर अध्यात्म का स्थान क्रमश विश्व और जीवन चिन्तन क्रमश लेता जा रहा है ।
३ (क) जैनेन्द्र कुमार ' इतस्तत', पृ० १६८ ।
(ख) 'विज्ञान मान लेता है कि जो है है । उससे झगडता नही उसके मार्ग मे उतरता है । ऐसे तथ्य को लेकर तह मे जाता है और उसी मे सतह से दूर हटता हटता सत्य के निकट पहुच जाता है । ऐसे, मानो कार्य के भीतर कारण को पकड़ लेता है । इससे घटना की हानि नही होती, ज्ञान की वृद्धि होती है । लगता है कि कर्ममय जगत मे उपराम पाकर यदि इसी तरह मनोमय जगत में उतरा जाये तो हानि नही होगी, वरन् कर्मण्यता के हित मे कुछ लाभ ही होगा ।' -- ' अनन्तर', पृ० १६ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
अधर्म है। धर्म का भाव आत्मा के पोषण मे ही फलित होता है। वस्तुत जीवन मे जिन कार्यों से प्रात्मतुष्टि और आनन्द की वृद्धि होती हे वही धर्म है। आत्मानन्द की प्राप्ति के लिए 'स्व' का विसर्जन अनिवार्य है। 'स्व' स्वार्थ से युक्त होकर 'पर' का निषेधक अथवा शोषक बन जाता है। धर्म आत्मा के विस्तार मे है। 'स्व' जितना अधिक 'पर' की ओर उन्मुख होता है उतनी ही उसमे त्याग और समर्पण की भावना जाग्रत होती है । चित्त के सिकुडने अर्थात् स्वकेन्द्रित होने से स्वार्थी वृत्ति ही विकसित होती है । 'स्वार्थ' धर्म का शत्रु है। वर्म का मूल परहित मे समाहित होना चाहिए।
जैनेन्द्र की दृष्टि मे मोक्ष
मानव जीवन मे धर्म का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति करना है। भारतीय दर्शन मे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चतुष्टय द्वारा जीवन की पूर्णता की ओर इगित किया है। वर्म जीवन का आधार है, नीव है, जिस पर जीवन रूपी मजिल आधारित है । मानव जीवन सतत यात्रा है। मोक्ष की प्राप्ति ही मजिल है। भारतीय दार्शनिक ने मोक्ष प्राप्ति पर अत्यधिक बल दिया है । मोक्ष जीवन की अन्तिम पहुच है, जहा पहुच कर जीवन के सारे कर्म बधन टूट जाते है और वह कर्मशून्य अर्थात् निस्पृह हो जाता है। अद्वैतवादी शकर की मुक्ति का स्वरूप एक ही महावाक्य मे समाहित है। 'अहम् ब्रह्मास्मि, जीव बसव वापर' जैनधर्मी कैवल्य की प्राप्ति को ही जीवन का लक्ष्य मानते है। जैन धर्म मे जीव और पुद्गल के सयोग को ही बन्धन माना गया है। अत जीव का पुद्गल से वियोग ही मोक्ष माना गया है। पुद्गल से वियोग तभी हो सकता है, जब नये पुद्गल का आश्रय बद हो और जो जीव मे पहले से ही प्रविष्ट है वह जीर्ण हो जाय । पहले को सवर और दूसरे को निर्जरा कहते है।
विनोबा भावे ने अपनी पुस्तक 'विचार पोथी' मे मोक्ष के सम्बन्ध मे कहा है--'आत्मदर्शन मोक्ष का आस्वाद लेना है। परमात्म दर्शन मोक्ष का पेट भर भोजन करना है । पहली बात का अनुभव इसी देह मे हो सकता है, दूसरी का देहात के अनन्तर।'
उपरोक्त विभिन्न दार्शनिको के सदृश्य जैनेन्द्र ने भी ब्रह्म जीव प्रादि तात्विक विषयो का विवेचन करने के साथ 'मोक्ष' अथवा मुक्ति पर भी अपने विचार व्यक्त किए है। किन्तु जैनेन्द्र के तात्विक विचार कोरी दार्शनिकता से पोषक न होकर व्यवहार सम्मत है। उन्होने जीवन की यथार्थता से विमुख होकर किन्ही
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त', पृ० १३१ ।
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जैनेन्द्र और धर्म
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सिद्धातो की प्रतिष्ठा नही की है। परम्परा के सस्पर्श मे रहते हुए भी वे परम्परागत विचारो से बधे हुए नही है। उनकी मोक्ष सम्बन्धी धारणा नितान्त मौलिक है।
जैनेन्द्र मोक्ष को मजिल न मानकर सफर मानते है । सफर का आनन्द तभी तक है जब तक कि मजिल का ज्ञान नही । मजिल को सोचकर चलने मे यात्रा मजिल के लिए होती है । जैनेन्द्र ने 'समय और हम', 'प्रश्न और प्रश्न' मे इन्ही विचारो की पुष्टि की है। उनका विचार है कि 'सफर जिसका काम है वह मुसाफिर मजिल को माने नही बैठेगा । मुझे तो यह लगता है कि जो मजिल को जान गया, वह कभी भी मजिल तक पहुचा नही ।
जैनेन्द्र के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति ससार के त्याग मे नही, वरन् उसके सहर्ष स्वीकार मे ही है । जैन दर्शन मे इस सूत्र 'सम्यग्दर्शन चरित्राणि' (मोक्ष मार्ग) मे ही मोक्ष का आदर्श स्वीकार किया है। यद्यपि जैनेन्द्र ने उपनिषद्, भागवत् प्रादि का दार्शनिक दृष्टि से अध्ययन नही किया है तथापि उपनिषदीय विचारो की झलक उनके साहित्य मे स्पष्टत मिलती है। जैनेन्द्र के अनुसार'ज्ञान, कर्म प्रोर भक्ति साधना के ये तीन वर्ग समझे जाते है। तीन ये तीन रहते होगे तब मुक्ति कैसे मिलती होगी, मै नही जानता ।२ जीवन प्रानन्द इकाई ही ज्ञान, कर्म और भक्ति की समग्रता मे ही जीवन का लक्ष्य पूर्ण होता है। तीनो मे से किसी एक के विकास द्वारा जीवन के खण्ड का ही विकास होता है । समष्टि का नही । व्यक्ति की पराकाष्ठा पर अह का विगलन हो जाता है। 'मै' की जीवन-यात्रा की सार्थकता 'पर' की स्वीकृति मे ही सम्पन्न होती है। जैनेन्द्र के जीवन-दार्शनिकता का मूल तत्व 'अह' का समष्टि मे खो जाना है। और यही तत्व उनके समस्त विचारो का आधार बिदु है।
वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार 'मोक्ष' का अर्थ ससार से मुक्ति नही वरन् 'अह' से मुक्ति पाना है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे मोक्ष मे कर्म से मुक्ति नही वरन् कर्म के लिए प्रेरणा होती है । जैनेन्द्र ने अपने नवीनतम सग्रह 'समय, समस्या और सिद्धान्त' मे भी स्पष्टत स्वीकार किया है कि 'मुक्ति' असल मे अह से मुक्ति है। अह का नाश नही हो सकता। अस्मित्व के निमित्त से तो अस्तित्व का बोध होता है। इसलिए जैनेन्द्र के अनुसार 'मुक्ति' अस्तित्व का वह विसदीकरण है, जहा उसके अस्तित्व से भिन्न अथवा विरुद्ध रहने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। ग्रह अपने चारो ओर फैले इन सम्बन्ध सूत्रो मे पूरी तरह खुलकर
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० २०६ । २ जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', पृ० ४८ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन बह जाने दे तो ऐसे वह मुक्ति की ओर बढता है । अपनी ओर लेने और सिमटने मे बन्धन का बोध होता है ।१ । ___ जैनेन्द्र के अनुसार मोक्ष के मार्ग मे मुक्ति मूलक रुकावट नही हे । वह एक ठहराव मात्र है। मृत्यु और जन्म से क्रम मे मोक्ष के लिए यात्रा चलती रहती हे । क्योकि मोक्ष के आगे कुछ नही है द्वार बन्द हे। जैनेन्द्र मोक्ष की मजिल तक पहुचने के लिए पग-पग चलकर जाना आवश्यक समझते है। हवा में उड कर नही अन्यथा पुरुषार्थ का कोई महत्व नही रह जायगा ।२
जैनेन्द्र मोक्ष की प्राप्ति के लिए चारो पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को आवश्यक मानते है। उसके अनुसार धर्ममय दृष्टि द्वारा अर्थ और काम के मार्ग द्वारा चलकर ही मोक्ष की मजिल प्राप्त हो सकती है।
जैनेन्द्र जीवन-सघर्ष से बचकर मिलने वाले मोक्ष को अच्छा नही मानते । जैनियो की मोक्ष सम्बन्धी धारणा भी जैनेन्द्र को अमान्य है । जैनियो के अनुसार आत्मा और शरीर दोनो भिन्न है, शरीर जड तत्वो से बना है, किन्तु आत्मा चेतन है। आत्मा 'स्व' की सूचक है और शरीर 'पर' का सूचक है। जैन दर्शन मे शरीर से अथवा 'पर' से छूटना ही आत्मा की मुक्ति है। इस प्रकार जैन तत्ववाद मे आत्म और 'शरीर' मे 'स्व' 'पर' का द्वैत भाव समाहित है। इसलिए उनमे विच्छेद की साधना का उपदेश दीखता है। मुक्ति का चित्र वहा सर्वथा विदेहता का है और शुद्ध आत्मा स्वरूपता के कैवल्य, सिद्ध रूप मे चित्रित किया गया है। जैन दर्शन मे मुक्ति व्यक्तित्व के काट छाट के मार्ग मे ही फलित होती है। उसमे जीवन की समग्रता और सत्यता का निषेध मिलता है। कर्म से मुक्ति और शरीर को तप द्वारा कृषित और विकार रहित करने पर ही मुक्ति सभव हो सकती है, किन्तु जैनेन्द्र जैनी होते हुए भी जैन दर्शन की एकागी मुक्ति को स्वीकार करने में असमर्थ है। उन्होने जीवन को समग्रता मे स्वीकार किया है। जैन दर्शन की एकागी दृष्टि को वे स्वीकार करने मे असमर्थ है । जैनेन्द्र ने अपनी कतिपय कहानियो मे भी इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए सत्यता की प्रतिष्ठा की है। 'बाहुबली' मे बाहुबली अपने शरीर को तप द्वारा अस्मि मात्र कर लेने पर भी कैवल्य नही प्राप्त कर पाता जब कि उसका भाई राज्य भोग करते हुए भी कैवल्य की प्राप्ति कर लेता है । कारण, बाहुबली के हृदय से तप द्वारा अपने 'अविजित' होने का अभिमान नही दूर
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त', पृ० ६६ । २ जैनेन्द्र कुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त', पृ० २०६ । ३ जैनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया', सपा० शिवनन्दनप्रसाद, पृ० १७६ ।
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जैनेन्द्र और धर्म
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हो पाता है । जैसे ही उसे अपने अभिमान का बोध होता है, उसके लिए मोक्ष का मार्ग कठिन नही रह जाता है । वस्तुत जैनेन्द्र के जीवन, धर्म और दर्शन सब का सार हे 'ग्रह से मुक्ति ।' ग्रह से मुक्ति प्राप्त होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति सम्भव हो सकती है । यही जैनेन्द्र की धार्मिक दृष्टि का सार तत्व है ।
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परिच्छेद–४
जैनेन्द्र की दृष्टि में भाग्य, कर्म-परम्परा एवं मृत्यु
भाग्यवादी जैनेन्द्र
जैनेन्द्र परम आस्तिक, विचारक और लेखक है। उनकी अटूट ईश्वरीय आस्था की गहरी छाप हमे उनके साहित्य मे दृष्टिगत होती है। मनुष्य रूपी सूक्ष्म यन्त्र का निर्माता ईश्वर है । अतएव ईश्वर ही अपनी स्वेच्छा से यत्र की गति को परिचालित करता है। जैनेन्द्र के अनुसार जीवन के सम्बन्ध मे व्यक्ति का समस्त मन्तव्य समुद्र के तट पर कौडियो से खेलने वाले बालको के निर्णय की भाति है। फिर भी बालको को (मनुष्य का) मस्तक मिल गया है और हृदय भी मिल गया है । वे दोनो निष्क्रिय होकर तो रहते नही। इसी से जो जानने के लिए नहीं है, उसे जानने की चेष्टा चली है।' वस्तुत जैनेन्द्र की दृष्टि मे मनुष्य निर्जीव, जड, यत्र नही है। उसमे विवेक, बुद्धि तथा पुरुषार्थ है। अतएव विधाता व्यक्ति की गति का अवरोधक नही है, वरन् सहयोगी है।
जैनेन्द्र के साहित्य मे कहानी और उपन्यास के पात्रो की अडिग ईश्वरास्था को देखते हुए ऐसा आभास होता है कि उनकी दृष्टि मे कर्ता-धर्ता एकमात्र परब्रह्म ईश्वर ही है। ईश्वर की अनन्त शक्ति के समक्ष मनुष्य बहुत ही तुच्छ है । अतएव जैनेन्द्र के पात्र अत्यधिक भाग्यवादी हो गए है। उनके जीवन का उतार-चढाव भाग्य की परिधि मे ही सम्भव हो सका है।
१ जैनेन्द्रकुमार 'सुखदा', प्र० स०, १६५२, दिल्ली, पृ० स० १८ ।
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जैनेन्द्र की दृष्टि में भाग्य, कर्म-परम्परा एवं मृत्यु
पाश्चात्य नियतिवादी और अनियतिवादी विचार
जैनेन्द्र की भाग्यवादी दृष्टि मे तथा पाश्चात्य नियतिवादी दार्शनिको मे किचित् वैभिन्य दृष्टिगत होता है । पाश्चात्य दर्शन के क्षेत्र मे दो पृथक् विचारधाराए दृष्टिगत होती है--(१) नियतिवादी और (२) अनियतिवादी । नियतिवादी विचारको के अनुसार यदि व्यक्ति के जीवन के भूत और वर्तमान को भली प्रकार जान लिया जाय तो उसके भविष्य के सम्बन्ध मे निर्णय दिया जा सकता है । नियतिवादियो के अनुसार मनुष्य की सकल्प-शक्ति स्वतन्त्र नहीं है, पूर्व निर्धारित है। उनका कहना है कि निर्णीत कर्म मे सकल्प-शक्ति प्रेरणा के साथ समीकरण करती है और प्रेरणा का स्वरूप व्यक्ति के चरित्र पर निर्भर है । अतएव व्यक्ति के चरित्र का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त कर लेने पर उसके आचरण के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है। नियतिवादी विचारक व्यक्ति के आचरण और प्रकृति की घटनाओ को एक ही नियम से सचालित होते हुए देखते है। नियतिवादी दार्शनिक अपने सिद्धान्तो की धुन मे यह भूल जाते है कि व्यक्ति प्रात्म-प्रबुद्ध प्राणी है । उसमे अनेको सम्भावनाए है और वह उन सम्भावनाप्रो को पूर्ण करने के लिए स्वतन्त्र है। उपरोक्त सत्य को सम्मुख रखते हुए कान्ट ने यह स्वीकार किया है कि सकल्प-शक्ति की स्वतन्त्रता नैतिकता की आवश्यक मान्यता है । नियतिवादियो के अनुसार पाश्चात्य और दृढ सकल्प का मानव जीवन मे कोई स्थान नही है। ___ जैनेन्द्र के विचारो और नियतिवादी दार्शनिको मे मूल अन्तर यह है कि जैनेन्द्र के पात्रो की सम्भावनाए नियति के कारण विनष्ट नहीं होती। जैनेन्द्र के साहित्य की सर्वप्रमुख विशेषता यही है कि वे पात्रो को भाग्य के सहारे छोड देते है और अपनी और भविष्य के सम्बन्ध मे व्यक्ति के चरित्र के सम्बन्ध मे कोई भविष्यवाणी नहीं करते। नियतिवादी भविष्य की घोषणा निश्चित रूप से कर देते है, किन्तु जैनेन्द्र के अनुसार भावी अज्ञेय है, व्यक्ति की पहुच से परे है । अतएव उस सम्बन्ध मे कुछ भी कहना व्यक्ति की क्षमता का उल्लघन करते हुए केवल अहता को पुष्ट करना है । जैनेन्द्र के अनुसार ब्रह्म सर्वव्याप्त है और वही भूत, वर्तमान, और भविष्य का ज्ञाता है । व्यक्ति अपनी सीमित शक्ति के कारण वर्तमान की यथार्थता मे ही जीवन व्यतीत करता है और भविष्य की सम्भावना मे आदर्शों की पूर्ति के स्वप्न देखता है। इस प्रकार जैनेन्द्र के पात्र अतिशय भाग्यवादी होते हुए भी अपने जीवन की सम्भावनाओ का हनन नही
१ शाति जोशी के 'नीतिशास्त्र' मे व्यक्त विचारो पर आधारित, प्रथम सक्षिप्त
सस्करण, दिल्ली, १९६३, पृ० स० ८२-८५ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
करते । व्यक्ति विधि का दास होते हुए भी कम के हेतु स्वतन्त्र है ।
जैनेन्द्र अतिशय भाग्यवादी
जैनेन्द्र के साहित्य मे पग-पग पर भाग्य अथवा विधाता की पुकार को सुनकर ऐसा प्रतीत होता हे कि जैनेन्द्र के पात्रो के हृदय मे भाग्य का भूत सवार है और यह शका भी उत्पन्न होती है कि अतिशय भाग्यवादिता कही पात्रो के जीवन को निष्क्रिय तो नही बना देती ? उनकी कुछ कहानियो मे बारबार बेचारे विधाता की याद करनी पड़ती है। 'राजीव और भाभी' मे ३-४ बार विधि के समक्ष व्यक्ति की विवशता का उल्लेख किया गया हे ।' सामान्यत हम नित्य-प्रति के जीवन मे भाग्य का सहारा लेकर मन को सान्त्वना देते है, यह सत्य है, किन्तु बहुत ही छोटी-छोटी बातो पर प्रतिपल विधाता को बीच मे लाना भी उचित नही प्रतीत होता । वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे किसी विशिष्ट परिस्थिति मे ही भाग्य-विधाता का स्मरण नही किया गया है, वरन अत्यन्त सामान्य स्थितियो मे भी विधाता का सहारा लेकर व्यक्ति की विवशता को वणित किया गया है। ---'कल्याणी' मे कल्याणी किसी के घर जाने में भी अपनी इच्छा-शक्ति पर विश्वास नही करती और कहती है---'अच्छा । भाग्य होगा तो क्यो न आऊगी ।२
भाग्यवादिता प्रास्थामूलक
जैनेन्द्र की भाग्यवादी प्रवृति इस तथ्य की ओर सकेत करती है कि वे
१
(अ) 'भाग्य ही तो है। जब वह खुले तो उस कोष मे से क्या-क्या नही
निकलेगा।' पृ० स० २६ । (आ) 'वही से भाग्य देव भी पलट कर बरस पड़ने लगे'--१० स० २६ । (इ) 'किन्तु जब सिर पर दुर्दैव ही खेल जाए तो विधाता के मन का . हाल भला कौन जान सकता है।'---१० स० ३१ । (ई) 'जब राजीव ने मोटर की बात मन मे पक्की कर ली तब सब
प्रपचो के रचयिता बाबा विरचि ऊपर बैठे-बैठे मुस्कराए होगे। कहते होगे-देखो लडके की बात--अरे,--हम फिर कुछ ठहरे ही नही । जो ये दुनिया के छोकरे हमे बिन बूझे ही सब करने लगेगे तो हो लिया काम ।'
--जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', पृ० स० ३१ । जैनेन्द्र कुमार 'कल्याणी', पृ० स० ७६ ।
२
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जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य, कर्म-परम्परा एव मृत्यु
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ईश्वर को ही सर्वोपरि मानते है । यदि ईश्वरेच्छा न हो तो व्यक्ति कुछ भी नही कर सकता । ईश्वरीय-आस्था मे व्यक्ति के अह का विगलन हो जाता है। अह का शून्य भाव ब्रह्म को ही सर्वोपरि प्रमाणित करता है । व्यक्ति केवल कर्ता है, किन्तु कर्म का फल भाग्याधारित है। ऐसी स्थिति मे व्यक्ति कर्म करता हुआ भी निराश नहीं होता, क्योकि वह वर्तमान तक ही परिमित है, भविष्य मे उसकी पहुच नहीं है।
जैनेन्द्र के अनुसार भाग्य का लेखा अर्थात् विधाता का नियम ससार मे व्यवस्था उत्पन्न करने का प्रसाधन है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य का नियम अतर्य नहीं है।' ईश्वर भी मनमानी पक्षपात नहीं करता । व्यक्ति अपने ही कर्मो का फल भोगता है । भाग्य व्यक्ति के सचित कर्मो का ही अभिव्यक्त रूप है । पूर्वजन्म के सम्बन्ध मे कोई नही जानता, किन्तु वर्तमान जीवन मे व्यक्तिव्यक्ति के मध्य दृष्टिगत होने वाले वैषम्य को देखकर, यही कल्पना की जाती है कि व्यक्ति के कर्म-फल के कारण ही परस्पर गरीबी-अमीरी, सुखी-दुखी होने का वैभिन्न्य दिखाई देता है, किन्तु भाग्य व्यक्ति के ही पूर्वजन्मो के कर्मो से बनता है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि भाग्य कोरी भावना का प्रतीक है, अधविश्वारा है, वरन् भाग्य का परिणाम तार्किक रूप से स्वीकार किया जा सकता है। जैनेन्द्र भाग्य को कर्मो के आधार पर तो स्वीकार करते है, किन्तु उसे पूर्वजन्म के सचित कर्मों का परिणाम नही मानते ।
भाग्य से विद्रोह नहीं ___ जैनेन्द्र के जीवन और साहित्य का प्रमुख आदर्श ईश्वरोन्मुखता है। उनकी दृष्टि मे भाग्य पर आश्रित रहने वाला व्यक्ति कर्म की उपेक्षा नही करता । कर्म उसका इष्ट है, किन्तु फल की प्राप्ति न होने पर वह भगवान को दोष नहीं देता, वरन् दुख मे भी आत्मानन्द की प्राप्ति करता है। जैनेन्द्र की अधिकाश रचनायो के पात्र भाग्य के कुचक्र पर उत्तेजित और ऋद्ध नहीं होते और न ही भाग्य से लडना श्रेयष्कर समझते है । 'त्यागपत्र' मे प्रमोद (जज) अपनी बुआ की स्थिति पर बहुत दुखी होता है, किन्तु बुअा को उस राह से मोड नही पाता। वह जानता है कि जो कुछ भगवान करता है, सोच-समझकर ही करता है। ईश्वरेच्छा का निषेध करके व्यक्ति आत्मा के सन्तोप से भी हाथ धो बैठता है। इसीलिए
१. भाग्य का तर्क यदि कठोर है तो ऐसा अकारण नही है 'यहा जो जैसा
करता है वैसा ही भरता है।' --जैनेन्द्र की कहानिया (वह रानी), दिल्ली, १९६४, प्र०स०, पृ०स० ४७ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दशन
वह (प्रमोद) कहता है कि 'जो हुआ ठीक हुआ, ठीक इसलिए कि उसे अब किसी भी उपाय से बदला नही जा सकता।' जैनेन्द्र भाग्य और दु ख के मव्य व्यक्ति की परस्परता के हेतु बहुत सतर्क रहे है। उनके अनुसार व्यक्ति स्नेह के आदानप्रदान के द्वारा अतिशय पीडा को झेलता हा भी स्वर्ग का अधिकारी होता है। वस्तुत भाग्य मे जो होना है, उसे तो टाला नही जा सकता कि पारस्परिक प्रेम मे मनुष्य का वश है अतएव वह नही समाप्त होना चाहिए।' ____ विवर्त' मे भी भुवन मोहिनी रेल-दुर्घटना के लिए जितेन को दोषी नही ठहराती। उसका विश्वास हे कि 'होता होनहार है और सब काल कराता है । 'वस्तुत उसकी दृष्टि मे गाडी पलटने और इसके बहाने कुछ लोगो की मौत होने की घटना पूर्व निश्चित थी, अतएव उसके लिए किसी व्यक्ति को दोषी नही ठहराया जा सकता । पुनश्च मोहिनी जितेन को समझाती हुई कहती है-- 'जो हुआ, हो गया। होनहार कब टला है । 'सुखदा' मे सुखदा भी अपने पति को किसी कार्य के लिए दोष नही देती और कहती है--'उन्होने कुछ नहीं किया। सब भाग्य के प्राधीन हुआ है। वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति का समस्त सोच-विचार व्यर्थ सिद्ध होता है। यद्यपि जैनेन्द्र के पात्र सतत् कर्मशील है तथापि वे भाग्य से लडने मे अक्षम है, क्योकि 'सोच विचार कुछ काम नही पाता। दिमाग सोचता रहता है, होनहार होता रहता है । सोचा जाता है वह होता ही नही ।५ ___आस्थाहीन व्यक्ति कर्म करते हुए यह अनुभव करता है कि कर्ता मै ही हु, श्रेय मुझे है । जैनेन्द्र के अनुसार 'ग्रह' तथा पुरुषार्थ की दुहाई देने वाले व्यक्ति के जीवन की लचक समाप्त हो जाती है । ऐसे व्यक्ति अपनी आकाक्षा के पूर्ण न होने पर तथा प्रयत्न मे फल की झलक न देखकर निराश होकर टूट जाता है, उसमे पुन कम से कम युक्त होने का उत्साह नही रह जाता। ऐसे व्यक्ति का जीवन उस सूखे वृक्ष की भाति होता है जो अपनी कठोरता के कारण तनकर खडा रहता है, किन्तु तूफान का एक झोका उसे दो टूक कर देता है, किन्तु झूमता हुआ लचकदार पेड टूटता नही, वरन् झुक जाता है । यही कारण है
१ स्नेह-क्या वह स्वय मे इतना पवित्र नही है कि स्वर्ग के द्वार उसके
लिए खुल जाए।--जैनेन्द्रकुमार 'त्यागपत्र', पृ० स० ४६ । २ जैनेन्द्रकुमार 'विवर्त', प्र० स०, १६५३, दिल्ली, पृ० स० २६ । ३ जैनेन्द्र कुमार 'विवर्त, पृ० स० ३० ।। ४ जैनेन्द्र कुमार 'सुखदा', प्र०स०, दिल्ली, १६५२, पृ० स० २०४, १७७ । ५ जैनेन्द्र कुमार 'विवर्त', पृ० स० ६२।
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जैनेन्द्र की दृष्टि में भाग्य, कर्म-परम्परा एवं मृत्यु कि जैनेन्द्र के पात्र विषम से विषम परिस्थितियो मे निराश होकर टूटते नही, वरन् स्नेह और प्रेम की धारा उनमे जीवन-शक्ति का प्रवाह करने में सक्षम होती है।
निष्काम-कर्म भाव
जैनेन्द्र के विचारो पर गीता की निष्काम कर्म-भावना का पूर्ण प्रभाव लक्षित होता है । 'गीता' मे अर्जुन को कर्म-शीलता का उपदेश देते हुए कृष्ण ने कहा है कि 'जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा मे अर्पण करके (और) आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है वह पुरुष जल से कमल के पत्ते के सदृश्य पाप से लिपायमान नही होता । व्यक्ति समस्त इन्द्रियो से कर्म-रत होते हुए भी यह माने कि 'मै कुछ नही करता है। जैनेन्द्र के अनुसार कर्तृत्व भाव से हीन रहने वाला व्यक्ति अपने समस्त कर्मो को ईश्वरेच्छा से सचालित होता हुआ स्वीकार करता है। उसके अनुसार विधाता ही सर्वोपरि है। उन्होने बार-बार अपनी रचनाओ मे इस सत्य की ओर सकेत किया है कि 'मै नही हू, क्योकि शून्य हैमै कुछ नही हू यह अनुभूति ही मेरा सब कुछ है। जैनेन्द्र के अनुसार इस प्रकार की निस्पृह भावना व्यक्ति को कर्म से विमुख नही करती, वरन् उसे कर्तृत्व के अहकार से मुक्त करती है । वस्तुत जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य का निर्णय व्यक्ति की प्रगति मे बाधक नहीं होता। पुरुषार्थ
जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त भाग्यवादिता कोई नई घटना नही प्रतीत होती है, क्योकि भारतीय, यूनानी, इस्लाम आदि सभी धर्मो तथा दर्शनो मे व्यक्ति की भाग्यवादिता का परिचय मिलता है। भारतीय दर्शन मे भी भाग्य १ श्री मद्भगवद्गीता-ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्ग त्यक्त्या करोति य ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रामिवाम्भसा ॥१०॥ श्री मद्भगवद्गीता--अध्याय ५, श्लोक १०, गीताप्रेस, गोरखपुर ।
श्री मद्भगवद्गीता--अन्य श्लोक १२ अध्याय ६।२७, २८।१०।६, ६।१२ २ श्री मद्भगवद्गीता-नैव किचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ।
पश्यन्विशृण्वन्स्पृशजिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपझ्वसन् ॥ प्रलपत् विसृजन् गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥६॥ अध्याय-५,श्लोक ८,६ ३ जैनेन्द्रकुमार . 'जनेन्द्र की कहानिया' (उपलब्धि तीसरा भाग), पृ० स०
१२६ । ४ हीरेन्द्रनाथ दत्त 'कर्मवाद और जन्मान्तर', स० १९८६, इलाहाबाद, पृ०
स० १०५।
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१२३
जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
को प्रधान माना है । यथा -- 'भाग्य' फलति सर्वत्र न विधा न च पोरुषम् ।' किन्तु दूसरी ओर पौरुषवादियों का भी प्रभाव नही है, जो कि पुरुषार्थ के समक्ष भाग्य को निरर्थक मानते है । उनके अनुसार 'उद्योगी प्रयत्नशील मनुष्य को ही सोभाग्य लक्ष्मी वरण करती है । भाग्य की दुहाई तो कायर लोग दिया करते है ।" उपरोक्त भाग्यवादी और पुरुषार्थवादी विचारको का मन्तव्य एक पक्षीय है | अतिशय भाग्यवादिता के द्वारा व्यक्ति की अकर्मण्यता का बोध होता है तथा पुरुषार्थ से तात्पर्य यदि कर्मशीलता से है तो प्रत्येक कर्मशील व्यक्ति को समान रूप से परिश्रम करते हुए भी समान उपलब्धि क्यो नही होती ? कोई थोडे से श्रम से ऊपर उठता जाता है और कोई अथक परिश्रम करके भी निराश रहता है, वस्तुत इस वैभिन्य के मूल मे प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना भाग्य ही दृष्टिगत होता है । वेदान्त रत्न श्रीयुत हीरेन्द्रनाथ ने अपनी पुस्तक मे ‘याज्ञवत्क्य स्मृति' के द्वारा इस समस्या का समाधान प्रस्तुत किया है । उनके अनुसार 'जिस प्रकार एक पहिया लगा रहने से रथ नही चलता, इसी प्रकार देव की सहायता के बिना पौरुष काम नही देता । उनकी दृष्टि मे नाव मे पाल लगा देने से ही काम नही बन जाता, उसके अनुकूल हवा की भी जरूरत होती है । खेत मे बीज बो देने से ही कमल नही खडी हो जाती, बरसात के पानी से उस बीज की सचाई भी होनी चाहिए । अतएव देव और पौरुष दोनो की प्रावश्यकता है । भाग्यवादी का पौरुष को एकदम उडा देना ठीक नही है, पौरुषवादी का दैव को एकदम स्वीकार कर देना भी ठीक नही है । इस दृष्टि से देव का अर्थ किस्मत या भाग्य नही है, देव तो पिछले जन्म के किए हुए सुकृत या दुष्कृत से बना हुआ है ।"
१ हीरेन्द्रनाथदत्त 'कर्मवाद और जन्मान्तर', पृ० स० १०६ । उद्योगिन पुरुषसहमुपेति लक्ष्मी दैवेन देयमिति का पुरुषा वदन्ति ।
२ दैव पुरुषकारे च कर्मसिद्धव्यवस्थिता ।
तत्र दैवभिव्यक्त पौरुष पौर्षदेहिकम् ॥३४७॥ केचिद्देवाद्धात्केचित्केचित्पुरुष कारत । सिद्धमन्त्यर्था मनुष्याणा तेषा योनिस्तु पौरुषम् ॥ ३४८ ॥ यथाह्येकेन चक्रेण रथस्य न गतिर्भवेत् ।
एव पुरुषकारेण रथस्य न गतिर्भवेत् । एव पुरुषकारेण बिना दैव न सिद्ध्यति ॥ ३४६॥
-- हीरेन्द्रनाथदत्त 'कर्मवाद और जन्मान्तर'
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जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य, कर्म-परम्परा एवं मृत्यु
१२३ भाग्य और पुरुषार्थ सहयोगी ___जैनेन्द्र के अनुसार पुरुषार्थ का अर्थ केवल शुभ करना ही नही है । वरन् शुभ के साथ ही ईश्वर के सहयोग को भी स्वीकार करना आवश्यक है। जैनेन्द्र की मान्यता है कि 'जब पुरुष अपने अह से विमुक्त होता है, तभी भाग्य से सयुक्त होता हे ।' भाग्य का सहारा लेकर कर्म करने से व्यक्ति को अदम्य उत्साह
और शक्ति प्राप्त होती है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे ऐसा व्यक्ति पशु तुल्य है जो केवल कर्म और पुरुषार्थ पर विश्वास करता है तथा भाग्य को उपेक्षणीय समझता है। पशु के कार्य मे त्वरा अधिक होती है । जैनेन्द्र के अनुसार यदि मनुष्य पशु से महान है तो इसी दृष्टि से कि उसमे स्नेह और सहयोग की भावना है। कोरा पुरुषार्थ अहता को फुलाने मे सहायक होता है जैसे कि कोरी भाग्यवादिता अकर्मण्यता की पोषक है । जैनेन्द्र के अनुसार पुरुषार्थ का तात्पर्य केवल सत्रियता से है, तत्व और सत्य से नही है। पुरुषार्थ की उपयोगिता भी सक्रियता के ही साथ है, शेष के साथ सहज स्वीकारता का सम्बन्ध है और उसका द्योतक भाग्य है। जहा तक सक्रियता प्रयत्नशील है, वही तक पुरुषार्थ की व्याप्ति है । जैनेन्द्र के अनुसार समस्त के पुरुषार्थ का समवेत रूप मान्य है। उनकी दृष्टि में राष्ट्रीय पुरुषार्थ भाग्य की सापेक्षता मे ही ग्राह्य हो सकता है । भाग्य वह पुरुषार्थ है जिसमे प्रत्येक तत्व भाग्य होता और जो व्यक्ति का नही है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे बौद्धिक स्तर पर ही भाग्य और कर्म से कार्यकारण के रूप समझ सकते है। वस्तुगत सत्य से इसका कोई सम्बन्ध नही है । ___जैनेन्द्र के साहित्य मे भाग्य की स्थिति कर्म के मध्य ही स्वीकार की गई है । जैनेन्द्र की मान्यता है कि 'भाग्य के प्रति अभ्यतर मे अर्पित होकर पुरुष जो भी पुरुषार्थ करता है, वह उसे उत्तरोत्तर मुक्त और समग्रही करता जाता है । भाग्य के प्रति अवज्ञा रखना अपने से शेष के प्रति अवज्ञाशील होना है ।
जैनेन्द्र पुरुषार्थ मे परमार्थ का योग अनिवार्य मानते है । यदि अर्थ परमार्थ मे नही जुडता तो वह सहज स्वीकार्य नही हो सकता। व्यक्ति के कर्मों की इति प्राप्त कर्तव्य मे ही है । जैनेन्द्र के अनुसार भाग्य ईश्वर का आदेश है। ईश्वर व्यक्ति के विपरीत कोई कार्य नही कर सकता । उन्होने सूर्योदय का दृष्टान्त देकर स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार सूर्य के सामने आने पर हम उसे सूर्योदय कहते है, किन्तु पीछे चले जाने पर सूर्य का अस्तित्व समाप्त नही होता, वरन् वह हमे दृष्टिगत नही होता । व्यक्ति की क्षमता असीम है। उसकी पहुच
१ जैनेन्द्रकुमार 'परिप्रेक्ष', पृ० स० ११४ । २ जैनेन्द्रकुमार • 'परिप्रेक्ष', पृ० स० ११८ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
वर्तमान तथा दृश्य जगत तक ही सीमित है, किन्तु ईश्वर सर्वव्याप्त है । भाग्य का प्रत्यक्ष प्रभाव न देखकर यह नही समझना चाहिए कि भाग्योदय नही हुआ । भाग्य का ज्ञात एकमात्र ब्रह्म ही है, व्यक्ति की स्थूल दृष्टि प्रजेय सत्य का बोध प्राप्त करने में असमर्थ है ।
प्रयत्न के द्वारा व्यक्ति की समग्रता को नही जाना जा सकता । जैनेन्द्र के अनुसार कार्य मे सफल न होने पर प्रयत्न की व्यर्थता नही सिद्ध होती । उनकी दृष्टि में भाग्य शायद पुरुष के अर्थ को ज्यादा जानता है ।' जैनेन्द्र के साहित्य मे उसी कर्म को सप्रयत्न के रूप मे स्वीकार किया गया है, जिसमे कामना का न हो ।
भाग्य को सहर्ष स्वीकार करने से व्यक्ति भाग्य के नियत्रण मे नही रहता । भाग्य सर्वथा अजेय है । अज्ञात के रहस्य को जात मे पूर्णत उतारने का दम्भ मिथ्या है | अज्ञात असीम है, ज्ञात ससीम है । असीम को ससीम मे बाधने के प्रयत्न मे व्यक्ति का अर्थ सिद्ध नही होता । प्रयत्न (कर्म) की धारा अनन्तकाल तक प्रवाहित होने के लिए है । विधाता का विरोध करने का दृढ सकल्प मन मे रखकर भी व्यक्ति अन्तत ईश्वरेच्छा पर अपने को समर्पित कर देता है । वस्तु जैनेन्द्र के साहित्य मे भाग्य की क्रूरता पर क्षोभ का भाव नही दृष्टिगत होता, क्योकि उन्हे भाग्य दुख ही नही सुख का वरदान भी प्रतीत होता है । सुख मे व्यक्ति विधाता को भूला रहता है और दुख मे उसकी याद करता है । 'त्यागपत्र' मे एक स्थान पर जैनेन्द्र ने भाग्य के समक्ष विनत होने वाले प्रमोद (जत) की भावो की अभिव्यक्ति करते हुए बताया है कि जो होता है उसके लिए विधाता को तो दोष दे नही सकता, क्योकि उन तक किसी प्रकार मै अपना धन्यवाद तक नही पहुचा सकता । वस्तुत जैनेन्द्र के पात्र किसी को दोषी न ठहराकर स्वयं को ही पतित मानते है । इस प्रकार वे अहता का निषेध करते हुए ईश्वर का ( भाग्य का ) सहयोग पाकर प्रसन्न रहते है । उनमे यह विश्वास समाया हुआ है कि जीव ब्रह्म का प्रश है अतएव जीव के दुख से विधाता निरपेक्ष नही हो सकता ।
कर्माकर्म भाव
जैनेन्द्र के साहित्य में भाग्य सम्बन्धी विचारो का विश्लेषरण करते हुए यह
१ जैनेन्द्रकुमार 'इतस्तत' पृ० स०, दिल्ली, १९६२, पृ० स० १६ । २ जैनेन्द्रकुमार 'विवर्त', प्र० स०, दिल्ली, १९५३, पृ० स० २१७ । ३ जैनेन्द्रकुमार ' त्यागपत्र', प्र० स, पृ० स० ४५ ।
४ जैनेन्द्रकुमार ' त्यागपत्र' प्र० स० पृ० स०४५ |
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जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य, कर्म-परम्परा एव मृत्यु
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ज्ञात होता है कि उन्होने पुरुषार्थ का निषेध नही किया है । ईश्वर को ही एकमात्र सत्य मानने के कारण उनके कर्म सम्बन्धी विचारो मे भी व्यक्ति के अह भाव के दर्शन नही होते । जैनेन्द्र के कर्म सम्बन्धी विचारो पर गीता की निष्काम कर्म साधना तथा कर्म-अकर्म की मान्यता का प्रभाव स्पष्टत दृष्टिगत होता है।
'श्रीमद्भगवद्गीता' मे अर्जुन को उपदेश देते हुए कृष्ण ने कहा है कि 'कम क्या है और अकर्म क्या है इस विषय मे बुद्धिमान पुरुष भी मोहित है । जो पुरुष कर्म मे अर्थात् अहकार रहित की हुई सम्पूर्ण चेष्टाप्रो मे अकर्म अर्थात् वास्तव मे उनका न होना पाना देखे और जो पुरुष अकर्म मे अर्थात् अज्ञानी पुरुष द्वारा किए हुए सम्पूर्ण क्रियाप्रो के त्याग मे भी कर्म को अर्थात् त्याग रूप क्रिया को देखे, वह पुरुष मनुष्यो मे बुद्धिमान है और वह भोगी सम्पूर्ण कर्मो का करने वाला है।''
जैनेन्द्र के अनुसार 'कर्म' मे 'अकर्म' की भावना व्यक्ति को व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख करती है तथा व्यक्ति स्वार्थ को भूलकर परमार्थ हेतु ही जीवनयापन करता है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे व्यक्ति का कर्म-शील होना ही कोई बडी बात नही है। कर्मशीलता के साथ ही उसमे कर्म के प्रति अनासक्ति का होना भी आवश्यक है। आसक्त भाव से किए गए कार्य मे स्वार्थ की झलक दृष्टिगत होती है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे 'कर्म से स्वार्थ पैदा होता है अकर्म से नि स्वार्थ है ।
जैनेन्द्र ने अपने उपन्यास 'जयवर्धन' मे कर्म तथा अकर्म के स्वरूप को जूट के उद्धरण द्वारा बहुत ही स्पष्ट रूप मे व्यक्त किया है। उनके अनुसार जैसे 'नारियल के जटाजूट और उसके बाद के खप्पर का मूल्य यही है कि भीतर गिरी है, गिरी अकर्म है तो कर्म तो वह जटाजूट ही है । इस दृष्टान्त द्वारा लेखक ने कर्म के मूल में निहित अकर्म की भावना का रूप दर्शाया है। ऊपर से आकर्षक न प्रतीत होने वाली वस्तु के भीतर भी वस्तु का मूल अर्थ
१ श्रीमद्भगवद्गीता--'कि कर्मकिम कर्मेतिकवयोऽप्यत्र मोहिता ।। तत्ते कर्म प्रक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥
-अध्याय ४ २. 'कार्यकर्ता का काम कार्य करना तो है ही, पर बड़ा काम अपने को अना
सक्त रखना है । अनासक्ति से काम मे हार नहीं मालूम होगी, वह सतत् होगी, और फल भी उसका मीठा और बड़ा होगा।'
-जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', दिल्ली, १६५६, पृ० स० २२० । ३ जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', दिल्ली, १९५६, पृ० स० २६२ । ४ जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', दिल्ली, १९५६, पृ० स० २२० ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
अथवा उसकी सार्थकता निहित होती है अतएव व्यक्ति को कर्म मे ही न अटक कर अकर्म के भाव की गहराई मे भी प्रविष्ट होना चाहिए, अन्यथा कोरा कर्म निरर्थक है । 'जयवर्धन' मे जैनेन्द्र ने अन्यत्र एक स्थल पर 'अकर्म' की अनिवार्यता पर प्रकाश डालते हुए बताया है। कर्म ठीक है, किन्तु वह अकर्म के साथ ही ठीक है नही तो बचाव और भरमाव होगा।'
पुनर्जन्म
_ जैनेन्द्र के साहित्य के सन्दर्भ मे उनकी भाग्यवादी नीति और कर्म-अकर्म के भावो की विवेचना करते हुए यह समस्या उत्पन्न होती है कि व्यक्ति के कर्मों का उसके जीवन से क्या सम्बन्ध है । यद्यपि यह सत्य है कि व्यक्ति अकर्म भाव को मन मे रखकर कर्म करता हुआ भी अनासक्त रहता है, किन्तु इस सत्य का भी निषेध नही किया जा सकता कि वह अकर्म अर्थात् कर्तृत्व भाव से हीन होकर कर्म करता रहता है। उसकी कर्मशीलता मे कोई अन्तर नही आता, केवल भावना मे ही अन्तर आता है और भावना की विशुद्धता के कारण कर्म और भी महान हो जाता है। ऐसी स्थिति मे प्रश्न उठता है कि विशुद्ध भावना से किए व्यक्ति के कर्मों का क्या होता है। उसने पूर्व जन्म मे जो निस्पृह भाव से कार्य किए होगे, उनका क्या प्रभाव दृष्टिगत हो रहा है और पुनर्जन्म मे क्या होगा? व्यक्ति शुभ कर्मों के द्वारा अपने जन्मो का सुधार कर सकता है कि नही ? विविध समस्याओ के समाधन हेतु जैनेन्द्र के पुनर्जन्म सम्बन्धी विचारो का विश्लेषण अनिवार्य है।
सस्कार समष्टि को प्राप्त
पुनर्जन्म मे जैनेन्द्र की पूर्ण आस्था है । उनके अनुसार जन्म और मृत्यु का चक्र अनन्त काल तक चलता रहता है। एक के बाद दूसरा क्रम समाप्त नही होता, अत मृत्यु के बाद भी जन्म का क्रम बना रहता है । मृत्यु मे जीवन का अवसान नही है । स्थूल शरीर बार-बार जन्मता और मरता है, किन्तु सूक्ष्म आत्मा अमर है। वह ईश्वर अर्थात् परमात्मा का अश है। परमात्मा ही एकमात्र पूर्ण शक्ति स्वरूप है, आत्मा उस अर्थ मे निरपेक्ष नही है, जिस रूप मे परमात्मा है । मृत्यु के अनन्तर आत्मतत्व ब्रह्म मे विलीन हो जाता है और उसके कर्म ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो जाते है। व्यक्ति अपने कर्मों के लिए स्वय उत्तरदायी नही होता वरन् मृत्यु के बाद उसके कर्मों का महत्व और बढ़ जाता है । व्यष्टि
१
जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', दिल्ली, १६५६, पृ० स० १२ ।
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जैनेन्द्र की दृष्टि में भाग्य, कर्म-परम्परा एव मृत्यु
१२७ के गुण-दोप युक्त कर्म समष्टि में व्याप्त हो जाते है ।'' पूर्व जन्म के कर्मफल तथा सस्कार व्यवित से छूटकर उसी प्रकार समष्टि मे विलीन हो जाते है, जिस प्रकार तालाब मे उठी लहर सारे सरोवर में व्याप्त हो जाती है। उसका पार्थक्य मिट जाता है । वस्तुत व्यक्ति के सस्कार जाति और जाति के समस्त ब्रह्माण्ड का अग हो जाते है। व्यक्ति के सब कार्यो के सस्कार समष्टि को गोरवान्वित करते है। दूसरी ओर उसके दुष्कर्म स्वय तक ही सीमित नही रहते, उसमे सामाजिक वातावरण भी दूषित हो जाता है। अत व्यक्ति के कर्म समाज को हानि पहुचाने के लिए भी उत्तरदायी होते है। इस प्रकार व्यक्ति का कर्म के प्रति दायित्व अधिक बढ जाता है।
जैनेन्द्र की दृष्टि मे जन्म और मृत्यु के अनवरत घटनाक्रम से ही समष्टि का जीवन अभिव्यक्ति पाता है। समष्टि का जीवन ही परम लक्ष्य है, व्यक्ति के जन्म-मृत्यु की कडी उसमे साधन रूप है। सस्कारो की ग्रधि समष्टि मे बिखर जाने के लिए ही होती है। पुनर्जन्म से इसका कोई सम्बन्ध नही होता। इस सम्बन्ध मे जैनेन्द्र के सस्कारो की तुलना खजूर के वृक्ष से करते है। पर प्रतिवर्ष पडने वाले वलय से करते है । वृक्ष के टूट जाने पर सम्भव हो सकता है कि वृक्ष की गुठली जमीन पर गिरकर किसी नये वृक्ष का बीज बन जाए, किन्तु उन वलयो का कोई महत्व नहीं होता। वे उस गुठली से उत्पन्न होने वाले पेड से कोई सम्बन्ध नही स्थापित कर सकते । ठीक इसी प्रकार व्यक्ति से पूर्वजन्म के सस्कार पुनर्जन्म की स्थिति के निर्धारण मे सहायक नहीं होते।
सच्चिदानन्द परमात्मा अखण्ड है, पूर्ण है, और व्यक्ति अपूर्ण तथा अतृप्त है । मृत्यु जीवन का अन्त नही, वरन् प्रगति का द्वार है । अपनी अतृप्त आकाक्षाओ, वासनामो की पूर्ति के लिए व्यक्ति बार-बार जन्म लेता है। जैनेन्द्र सस्कारो का एक जन्म से दूसरे जन्म मे सक्रमण स्वीकार नही करते, इसलिए
१ 'जन्म-मरण व्यक्ति भोगता है, लेकिन इस भोग के द्वारा मानो वह समष्टि लीला को ही व्यक्त कर रहा होता है।'
--जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ०स० ५६ । २, जरा सी ककरी डालिए तो सरोवर के तल पर सिहरन होती है, जो छोर
तक पहुचती है और फिर शान्त हो जाती है। इसी तरह सच पूछिए तो प्राप्त सस्कार मुझ तक नहीं रहता, मानो विश्व-चेतना मे समाकर वही पर्यवसान पाता है ।'
---जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ०स० ५६६ । ३ जैनेन्द्रकुमार . 'समय और हम', पृ०स० ५६७ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
व्यक्ति की प्रासक्तिया और अनुभूतिया चारो ओर तन्तु रूप मे फैलकर साहित्य, कला कृति आदि के रूप मे व्यक्ति के मरणोपरान्त भी जीवित रहती है । 'सुखदा' मे लाल के कथन से इसी तथ्य का बोध होता है--"हम तुम नही जीते सुखदा, जीता खुद जीवन है । वह इतिहास मे जीता है, विकास मे जीता है । वह हमारा तुम्हारा नही है, बल्कि हम उसमे है ।" "इस प्रकार जैनेन्द्र के अनुसार मृत्यु के द्वारा व्यक्ति अपना और कुछ का ही नही रहता, वरन् सब का और असत्य का हो जाता है । "
जैनेन्द्र के अनुसार जन्म-मरण का चक्र व्यक्तित्व के अथवा आत्मता के विकास की दृष्टि से कोई महत्व नही रखता । जैनेन्द्र की दृष्टि मे यह निश्चित रूप से नही कहा जा सकता कि आत्मा, जिसका पूर्व शरीर से सबध था, उसी मे प्रवेश करेगी, जिस प्रकार हर पतझड मे पत्ते वृक्ष से भर जाते है और बसत मे फिर हरे-भरे पत्ते खिल आते है । इस प्रकार वृक्ष का ही बार-बार नवजीवन होता है, तथा पतझड और बसत रूपी जन्म-मरण का क्रम तो वृक्ष रूप समष्टि से जीवन का साधनमात्र है । उसी प्रकार 'जन्म-मरण व्यक्ति भोगता हो, लेकिन इस भोग द्वारा वह समष्टि-लीला को ही व्यक्त कर रहा होता है । वस्तुत व्यक्ति का सम्बन्ध मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है। उसके वर्तमान जीवन के कर्मों का भावी जीवन से कोई सम्बन्ध नही होता । व्यक्ति के कर्म मृत्यु के बाद समष्टि मे व्याप्त होकर प्रमर हो जाते है ।
कम की स्थिति विभिन्न दार्शनिक सम्बन्धी सदर्भ
जैनेन्द्र के विचारो का उपरोक्त विवेचन करने के पश्चात् यह समस्या उत्पन्न होती है कि व्यक्ति के व्रत वर्तमान क्रियामारण कर्मों की क्या सार्थकता है ? तथा व्यक्ति का भाग्य सचित कर्मों के अभाव मे किस प्रकार निर्मित होता है ? जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त भाग्यवादी विचार धारा उनके पुनर्जन्म सम्बन्धित विचारो के साथ सगत नही प्रतीत होती है । भाग्य व्यक्ति के क्रियामाण कर्मो के पुण्य और पाप का सचित रूप ही है । प्रारब्ध व्यक्ति के सचि कर्मो का श है । यदि व्यक्ति अपने वर्तमान नाम और रूप से सर्वथा असम्बद्ध
१ जैनेन्द्रकुमार 'सुखदा', पृ० १७१ ।
२ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ६०१ |
३ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम' पृ० ५६८ ।
४ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम' पृ०५६८ ।
५ क्रियामाण कर्म से तात्पर्य वर्तमान जीवन के कर्मों से है ।
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जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य, कर्म-परम्परा एव मृत्यु
१२६ शरीर मे जन्म लेता है तो उसके पूर्व कर्मों के द्वारा किस प्रकार भाग्य का निर्माण होता है ? जैनेन्द्र के विचारो को लेकर जो समस्या उत्पन्न होती है, ठीक वही समस्या बौद्ध दार्शनिक नागसेन के दार्शनिक-विचारो मे भी दृष्टिगत होती है। भिनान्दर और मन्त की वार्ता के द्वारा पुनर्जन्म सबधी विचारो पर प्रकाश डाला गया है। उनकी दृष्टि मे नाम और रूप जन्म ग्रहण करते है। जिस नाम और रूप से व्यक्ति पाप या पुण्य करता है, उन कर्मों से दूसरा नाम और रूप जन्म ग्रहण करता है । भिनान्दर मन्त से पूछते है कि जब एक नाम और रूप से कर्म किए जाते है, तो वे कहा ठहरते है ? उपरोक्त समस्या के समाधान मे मन्त उत्तर देता है कि कर्म छाया की भाति नाम रूपात्मक व्यक्ति का पीछा करते रहते है । दिए की लौ का दृष्टान्त देते हुए समझाया गया है कि जिस प्रकार रात के पहिले पहर मे जो टेम होती है, वही दूसरे या तीसरे पहर मे वही रहती है, उसके घटने-बढने से लौ मे अन्तर नही आता है। ठीक उसी प्रकार किसी वस्तु के अस्तित्व के सिलसिले मे एक अवस्था उत्पन्न होती है, एक लय होती है--इस तरह प्रवाह जारी रहता है। एक प्रवाही की दो अवस्थाओ मे एक क्षण का भी अन्तर नही होता, क्योकि एक के लय होते ही दूसरी उत्पन्न हो जाती है। इसी कारण न (वह) वही जीव और न दूसरा ही हो जाता है । 'एक जन्म के अतिम विज्ञान (चेतना) के लय होते ही दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान उठ खडा होता है। इस प्रकार एक जन्म के बाद तुरन्त ही दूसरे जन्म की अवस्था का प्रारम्भ हो जाती है और उसके पूर्व कर्म साथ-साथ चलते है । 'छान्दोग्य उपनिषद्' मे तथा वादरायण आदि के द्वारा भी पुनर्जन्म और 'कर्म परम्परा' के सिद्धात को स्वीकार किया गया है।
जैनेन्द्र की दृष्टि और सामान्य अभिमत
उपरोक्त परम्परागत दार्शनिक विचारो के सन्दर्भ मे जब हम जैनेन्द्र के विचारो का विश्लेषण करते है तो उनमे कर्म परम्परा के सम्बन्ध मे कोई सगति नही दृष्टिगत होती । जैनेन्द्र ने व्यक्ति के पुनर्जन्म को कई बार अपने साहित्य मे स्वीकार किया है तथा वे यह भी मानते है कि व्यक्ति मृत्यु के द्वार से सीधे नया जन्म ग्रहण करता है, किन्तु उनके पूर्व कर्म सम्बन्धी विचारो की समस्या का समाधान फिर भी नहीं मिल पाता । जैनेन्द्र ने 'कल्याणी', 'रुकिया बुढिया' तथा 'मौत की कहानी' आदि उपन्यास तथा कहानियो मे यत्र-तत्र
१ राहुल साकृत्यायन 'दर्शन दिग्दर्शन', हजारीबाग सेण्ट्रल जेल, १९४२,
पृ० ५५४-५५ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
पुनर्जन्म के सम्बन्ध मे उल्लेख किया है । 'पुनर्जन्म' शब्द से ऐसा प्रतीत होता है कि किसी विशिष्ट व्यक्ति का ही फिर से जन्म होता है । पुनर्जन्म शब्द व्यक्ति सापेक्ष प्रतीत होता है, किन्तु जैनेन्द्र ने सम्भवत उसे कर्म की सापेक्षता से ग्रहण किया है । उन्होने व्यक्ति से इतर जन्म की परम्परा को स्वीकार किया है । उनके अनुसार जन्म के बाद मृत्यु और फिर जन्म का क्रम सतत् चलता है, किन्तु यह नही कहा जा सकता कि यह परम्परा विशिष्ट व्यक्तियो के सन्दर्भ मे चल रही है । तथा वलय रूप सस्कारो का महत्व के लिए कोई महत्व नही रह जाता है । यह सत्य है कि इस सिद्धान्त मे जैनेन्द्र ने व्यक्ति को स्वार्थ से परमार्थ की ओर उन्मुख होने का सन्देश दिया है, किन्तु व्यक्ति की दृष्टि मे उसका महत्व निशेष हो जाता है । ससार कर्म और भाग्य की आस्था पर चल रहा है । जन्म-जन्मान्तर मे एक-दूसरे से बध कर ही समग्रता का परिचय दे सकते है | अन्यथा विकास और प्रगति की समस्या फिर एक प्रश्न चिन्ह लगा देती है ।
सामान्यत प्रत्येक व्यक्ति का ऐसा विश्वास है कि जन्म-जन्मातर द्वारा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व मे परिमार्जन उत्पन्न कर सकता है । वह अपनी अपूर्ण अभीप्सा की पूर्ति के हेतु जन्म-जन्मान्तर तक प्रयत्न करता रहता है । कामना ही जन्म का मूल आधार है । यदि व्यक्ति के कर्म पूर्व अथवा पुनर्जन्म
सम्बन्धित नही है तो कामना की पूर्ति का प्रश्न ही नही उठता । सामान्यत जीवन मे विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न पूर्वजन्म के सचित कर्मों अर्थात् भाग्य के अनुसार ही सम्भव होता है ।
प्रतिभा अध्यवसायमूलक
जैनेन्द्र ने प्रतिभा के सम्बन्ध मे अपनी मौलिक दृष्टि प्रदान की है । उनके अनुसार 'प्रतिभा' व्यक्तिगत अध्यवसाय और अभ्यास का परिणाम है । पूर्व जन्म के सचित गुरणो के आधार पर प्रतिभा को स्वीकार करना व्यक्ति को निष्क्रिय नाना है । पूर्वजन्म का पुनर्जन्म पर कोई प्रभाव नही पडता ।' 'प्रतिभा को मे द्वन्द्वज मानता हू अर्थात गहरे मे उसका आधार प्रभाव है । प्रतिभाशाली केला हो जाता है और अन्य के साथ उसका सम्बन्ध समता और समवेदना का कम बन सकता है ।" विश्व मे सृष्टि का क्रम तो अनन्तकाल से चला आ रहा है । इस क्रम का खण्डन सम्भव नही है । जैनेन्द्र के अनुसार यदि यह
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ६७ ॥
२ जैनेन्द्रकुमार, 'समय, समस्या और समाधान', पृ० २३३ ।
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जैनेन्द्र की दृष्टि से भाग्य, कर्म-परम्परा एव मृत्यु
क्रम टूट जाय तो जीव-विज्ञान, प्रारण विज्ञान निरर्थक सिद्ध होगे । आनुवशिकता की श्रृंखला सतत् चलती रहती है। उनकी दृष्टि मे प्रानुवशिकता के कारण ही बच्चा अपने माता-पिता की सूरत तथा उनके गुणो को लेकर जन्म लेता है । इस प्रकार उसका जीवन स्वय मे एक विश्वखलित कडी नही है, वरन् उसका व्यक्तित्व माता-पिता के रज-वीर्य के गुरणो का सक्रमित रूप है । वस्तुत व्यक्ति का जन्म नवीनतम रूप से होता है, किन्तु उसकी चिद्गुणता का नही ।" वस्तु जैनेन्द्र की दृष्टि मे व्यक्ति की चेतना का प्रारम्भ किसी जन्म- विशेष से नही होता । चेतना अनन्तवादी है, केवल व्यक्तिमत्ता या निजता काल मे सीमित है, किन्तु वह भी मृत्यु के अनन्तर आत्मरूप मे अपरिमित, असीम ब्रह्माण्ड मे लीन हो जाती है ।
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जीव- वैज्ञानिक दृष्टि
जैनेन्द्र के उपरोक्त अनुवंशिकता के विचारो पर जीव- वैज्ञानिक और विकासवादियो का प्रभाव दृष्टिगत होता है । वैज्ञानिको ने वश-परम्परा (ला ग्राफ हेरिडिटी) सिद्धात के द्वारा पुनर्जन्म की सत्यता को प्रमाणित किया है, किन्तु वैज्ञानिको की दृष्टि वर्तमान को लेकर विश्लेषण की ओर उन्मुख होती है । अतएव वैज्ञानिक विचार-धारा पूर्णत सगत ही है ।
वश-परम्परागत गुणो की समानता स्वीकार करने पर उसमे भी कुछ अपवाद दृष्टिगत होते है । प्राय प्रतिभाशाली माता - पिता की सन्ताने अधिक कुशाग्र तथा प्रतिभा सम्पन्न नही भी होती । किन्तु जैनेन्द्र किसी स्थिति मे प्रतिभा को अलौकिक शक्ति की देन न जानकर साधना और अध्यवसाय का परिणाम ही मानते है ।
क्षतिपूर्ति
जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्तिगत साधना के अतिरिक्त क्षतिपूर्ति का सिद्धान्त भी व्यक्ति को विशिष्ट क्षेत्र मे विशिष्ट प्रतिभा प्रदान करने में सहायक होता है । उन धारणा है कि किसी अग की अक्षमता शरीर के दूसरे अग की शक्ति को अधिक सशक्त और सम्पन्न बना देती है । शरीर से हीन व्यक्ति प्राय बुद्धि से विलक्षरण देखे जाते है ।' ईश्वर अपनी ओर से किसी को मूर्ख अथवा प्रतिभासम्पन्न
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ६६ ।
२. जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ६८ ।
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जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन नही उत्पन्न करता । वस्तुत जैनेन्द्र ब्रह्म को ही एकमात्र निरपेक्ष शक्ति अथवा सत्ता के रूप मे स्वीकार करते है, आध्यात्मिक या व्यावहारिक दृष्टि से पुनर्जन्म नित्य सत्य नही है। वैज्ञानिक सिद्धातो के आधार पर अवश्य वह सिद्ध किया जा सकता है । अह के प्रकट और विलय होने का चक्र चलता रहता है, किन्तु अह के साथ व्यक्ति के सूक्ष्म मन, बुद्धि आदि का मृत्यु के बाद कोई सम्बन्ध नही रहता । उसकी चेतना ब्रह्माण्ड मे व्याप्त होकर अकाल की हो जाती है।
भारतीय दर्शन और पुनर्जन्म
जैनेन्द्र हिन्दु धर्म और विश्वासो के समर्थक है । उनका दर्शन आस्तिकता का पोषक है । भारतीय दर्शन मे आस्तिकता का मूल स्रोत वेदान्त है । वेदान्त मे आत्मा की अमरता के आधार पर पुनर्जन्म की स्थिति को स्वीकार किया है। 'वायु गध के स्थान से गध को जिस प्रकार ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादियो का स्वामी जीवात्मा भी जिस पहिले शरीर को त्यागता है, उससे इन मन सहित इन्द्रियो को ग्रहण करके, फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमे जाता है ।
स्वामी विवेकानन्द ने अपनी पुस्तक 'मरणोपरान्त' मे शोपनहायर के विचारो द्वारा पुनर्जन्म के विषय पर प्रकाश डाला है। उनके अनुसार • 'मृत्यू रूपी नीद मे से नया प्राणी बनकर दूसरी बुद्धीन्द्रिय को साथ लेकर पुन प्रकट होता है, नया दिवस उसे नये प्रदेशो की ओर ललचाता है । (यह क्रम) तब तक चलता है, जब तक कि बारम्बार के नये शरीरो मे अधिकाधिक भिन्न-भिन्न प्रकार के ज्ञान के द्वारा शिक्षित और उन्नत होकर वह अपना ही अभाव करके अपने को विलुप्त न कर दे।' उनके अनुसार 'यथार्थ मे तो नए प्रकट होने वाले प्राणियो के जन्म से जीर्ण होने वालो की मृत्यु से उसका सम्बन्ध रहता ही है । 'रामचरितमानस' मे गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी पूर्वजन्म व पुनर्जन्म को स्वीकार किया है। इसका प्रमारण कागभुषुण्डि की कथा
१ 'न जायते म्रियते वा कदाचिन्नाय भूत्वा भविता वा न भूय । अजो नित्य शाश्वतोऽय पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।'
-श्री मद्भगवद्गीता अध्याय २।२० २ शरीर यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर ।
गृहीत्वैतानि सयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥ अध्याय १५ ३. विवेकानन्द , ‘मरणोपरान्त' पृ० १२ ।
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जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य, कर्म-परम्परा एवं मृत्यु
से प्राप्त होता है । उपरोक्त विचारो के सन्दर्भ मे जैनेन्द्र के विचार पूर्णत असम्बद्ध प्रतीत होते है । उपरोक्त विवेचन के अनन्तर हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि पुनर्जन्म सम्बन्धी जैनेन्द्र के विचार सर्वथा मौलिक है । 'अतृप्तवासना' और अभीप्सायो की समस्या का समाधान करते हुए वे कहते है कि अतृप्तिया पूर्णता के लिए प्रयत्नशील न होकर साहित्य, कला आदि के रूप मे अमर हो जाती है । इस प्रकार जो मरता है वही मरता है, उसके द्वारा जो चरितार्थ हुआ रहता है, वह नही मरता, वह अमर बना रहता है।
जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति को पूर्वजन्म की स्मृति नही रहती, (यद्यपि उनके विचारो के अनुसार पूर्वजन्म की स्मृति के लिए कुछ भी शेष नही रहता) किन्तु वे यह अवश्य स्वीकार करते है कि पूर्वजन्म की स्मृति सम्भव होने पर व्यक्ति का वर्तमान जीवन और भी कष्टमय हो जायगा । 'रुकिया बुढिया' शीर्षक कहानी मे उन्होने इस तथ्य पर प्रकाश डाला है। जैनेन्द्र के अनुसार पुनर्जन्म सत्य है किन्तु उस सब घटित अतीत से अपने को सर्वथा तोडकर नए जन्म मे हम जीते है नही तो अपने अनन्त इतिहास का बोझ अपने माथे पर लेकर हम जी सकते है ? हमारा ज्ञान सकुचित है, यही हमारा वरदान है। हम परिमित है, यही हमारा धन्य भाग्य है ।
जैनेन्द्र के पुनर्जन्म सम्बन्धी विचारो को अशत विकासवादी विचारो के सन्दर्भ मे स्वीकृत किया जा सकता है । स्वामी विवेकानन्द के अनुसार पुनर्जन्मवादी यह मानते है कि 'सभी अनुभव प्रवृत्तियो के रूप में अनुभव करने वाले जीवात्मा मे सग्रहीत रहते है और उस अविनाशी जीवात्मा के पुनर्जन्म द्वारा किए जाते है और भौतिकवादी मस्तिष्क को सभी कर्मों के आधार होने के
और बीजाणुओ 'सेल्स' के द्वारा उनके सक्रमण का सिद्धात मानते है । "उसे (प्रवृत्तियो को) माता-पिता से पुत्र मे आने वाली आनुव शिक सक्रमण द्वारा समझते है। इस दृष्टिकोण से जैनेन्द्र के प्रेरक गुणो के सक्रमण का विचार विकासवादी ही प्रतीत होता है । जैनेन्द्र अपने विचारो की पुष्टि करते हुए
१ 'मरने के पहले जो होता है उसे जीना कहते है । "हम तुम नही जीते,
जीता खुद जीवन है, वह इतिहास मे जीता है, विकास मे जीता है । वह मेरा तुम्हारा नहीं है, मुझसे तुमसे नहीं है, बल्कि हम उसमे है। वह है, हम नही है।'
-जैनेन्द्रकुमार 'सुखदा' पृ० १७१ । २ जैनेन्द्र की कहानिया, भाग ७, ४० स०, दिल्ली, १९६३, पृ० १०३ । ३ विवेकानन्द --'मरणोपरान्त', पृ० ३२ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
कहते है कि, 'क्या प्रमाण है कि पेड का यह पत्ता वही है जो पिछली पतझड मे वृक्ष की उसी शाखा की किसी टहनी से टूटा था । जैनेन्द्र पूर्वजन्म को इसी रूप मे समझ पाते है। इसके अतिरिक्त उनके सम्पूर्ण जीवन-दर्शन मे अह के विगलन की भावना ही दृष्टिगत होती है, अत वे व्यक्तिमत्ता को विशेष महत्व न देकर उसे समष्टि के जीवन का साधन ही मानते है। जैनेन्द्र का पुनर्जन्म के सम्बन्ध मे अपना अभिमत है । इस सम्बन्ध मे वे अपने विश्वास पर ही अपनी मान्यताप्रो का निर्धारण करते है। भारतीय दर्शन मे पुनर्जन्म की परम्परा मे पूर्वजन्म की सम्बद्वता स्वीकार की गई है। पुराणो मे अनेको ऐसी कथाए मिलती है, जिनके द्वारा इस तथ्य की पुष्टि होती है तथा अाधुनिक युग मे भी यदा-कदा ऐसी घटनाए सुनायी पडती है, जिनसे पुनर्जन्म की सत्यता का प्रमाण मिलता है किन्तु जैनेन्द्र दो-एक घटनाओ को सत्य की सिद्धि के लिए पर्याप्त नही समझते ।' उनकी दृष्टि मे जो कुछ है सब सत्य है, अथवा सत्य मे ही समाहित है। अतएव कुछ विशिष्ट घटनाए सत्य को प्रमाणित करने के लिए घटित नही होती। ___सामान्यत हमारी यह मान्यता है कि पूर्वजन्म के कर्मों के फलस्वरूप ही हम सुख अथवा दुख भोगते है और पुनर्जन्म भी इस (वर्तमान) जन्म के कार्यो के अनुसार ही होता है, किन्तु जैनेन्द्र की ऐसी मान्यता है कि फल और कर्म विच्छिन्न नही हो सकते कि इस जन्म के कर्म अगले जन्म मे फल दे । 'कर्म
और फल की कडी एकसूत्रता मे ही देखी जा सकती है। उनका विश्वास है कि जिस प्रकार सरोवर मे छोटी-सी ककरी भी डालिए तो लहर पैदा होती है। वह दूसरी को फिर तीसरी को लहराती हुई तब तक नही रुकती जब तक किनारा नही पा लेती। इसी तरह माना यह भी जा सकता है कि कर्ता के रूप मे जिस कर्म को अपनाया है, उसका प्रभाव ब्रह्माण्ड तक फैले बिना नही रहता होगा।
इस प्रकार जैनेन्द्र का दृढ विश्वास है कि मृत्यु के अनन्तर व्यक्ति का कर्म अकाल का हो जाता है अर्थात् शून्य मे व्याप्त हो जाता है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे हमारी यह मान्यता तर्कसंगत नही है कि हम कर्म इस जन्म मे करते है और
१ 'समय और हम' (प्राक्कथन--वीरेन्द्रकुमार), पृ० ३६ । २ 'सत्य को सिद्ध करने के लिए क्या एक ही घटना आवश्यक है । सब कुछ क्या सत्य को ही नही सिद्ध कर रहा है।'
--जैनेन्द्र के साक्षात्कार के अवसर पर उपलब्ध विचार । ३ 'समय, समस्या और सिद्धात',
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जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य, कर्म-परम्परा एवं मृत्यु
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उसका फल अगले जन्म मे मिलता है । उनकी दृष्टि मे कर्म और फल मे ऐसी सम्बद्धता देखना उचित नही है । उनका विश्वास है कि मृत्यु के बाद क्या होता है, कोई देखने नही जाता ।
अपने विचारो को वे घड़े के उदाहरणो द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते है कि 'घडा टूट जाता है तो प्रश्न मन मे नही उठता कि फिर वह क्या पर्याय ग्रहण करता है । उनकी दृष्टि में जिस प्रकार घट का घटत्व हमारे लिए सामयिक प्रयोजन से अधिक महत्व नही रखता है, इसलिए उसकी समाप्ति मान लेने पर
कठिनाई नही होती । व्यक्ति के व्यक्तित्व मे भी इसी तरह सामयिक संघटना माना जा सके तो पुनर्जन्म आदि की कल्पना के लिए कही अवकाश नही रह जाता है । "
वस्तुत जैनेन्द्र का उपरोक्त अभिमत तर्कसगत प्रतीत होते हुए भी सापेक्षिक महत्व ही रखता है, क्योकि वे स्वय ही स्वीकार करते है कि इस जीवन के पार क्या होता है, कोई नही जानता । इस सम्बन्ध मे हम केवल अनुमान का ही सहारा ले सकते है, उसे निरपेक्ष सत्य नही मान सकते, क्योकि हमारी अपनी संस्कारगत मान्यता पुनर्जन्म की पूर्वजन्म से सम्बद्धता को स्वीकार करती है । वर्तमान मे हम इस विश्वास को लेकर ही जीते है कि जो जैसा करेगा उसका फल उसे कभी-न-कभी ( किसी भी जन्म मे ) मिलेगा ।
परलोक
जैनेन्द्र के पात्रो के मन में सदैव यह जानने की जिज्ञासा रहती है कि मृत्यु के बाद क्या होता है । 'कल्याणी' मे कल्याणी के समक्ष ऐसी ही विषम परि स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जब वह जानने के लिए उत्सुक होती है, कि मरने के बाद क्या होता है ? कल्याणी के मन में आत्मघात के कारण प्रेतयोनि के अस्तित्व के सम्बन्ध मे विविध जिज्ञासाए उत्पन्न होती है । मृत्यु के बाद आत्मा तुरन्त दूसरे शरीर मे प्रवेश करती है या कुछ काल प्रेतयोनि मे भी उसे रहना पडता है ।
१ जैनेन्द्र कुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त'
२
३
जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', दिल्ली, १९५६,
'मरता तो आदमी जरूर है, हर कोई मरता है, लेकिन मरने के बाद क्या होता है । मरकर आदमी की क्या गति होती है- क्या इस बारे मे किसी को कुछ भी पता नही है ? पुनर्जन्म क्या वह होता है ?"
रहना
'मरकर उसका जन्म तुरन्त हो जाता है या कुछ काल प्रेत योनि पडता है ? श्रात्मा तो नही मरती न ? और मौत भी दो तरह की होती है - स्वाभाविक और अकाल मौत । कोई अपघात कर ले या कोई मार डाला जाये तो श्राप क्या समझते है कि उसकी वैसी ही गति होगी, जैसी प्राकृतिक मौत वाले की ?' 'कल्याणी', पृ० ८० ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
प्रेतयोनि और परलोक मे अन्तर है । पुनर्जन्म की परिकल्पना को सत्य मानने पर हमारे समक्ष यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इस लोक के अतिरिक्त क्या परलोक है ? परलोक से तात्पर्य स्वर्ग और नरक से है जहा मृत्यु के बाद कुछ दिन रहकर व्यक्ति अपने पुण्य अथवा पाप कर्मों का फल भोग कर पुन धरती पर जन्म लेता है। परलोक मे जाने वाले व्यक्ति की आत्मा भटकती नही है, वरन् कर्मफल भोगने पर उसे पुन जन्म लेना पडता है, किन्तु प्रेतयोनि में जाने वाले व्यक्ति की आत्मा भटकती रहती है वह न जीवन मे रहता है न मृत्यु मे। प्रेतयोनि मे जाने वाले व्यक्ति की मृत्यु सहज रूप मे नही होती। वे आत्मघात द्वारा जीवन की विषमताओ से मुक्ति पाना चाहते है। इस प्रकार की अकाल मौत मे आत्मा शरीर से छूट जाने पर भी पूर्णत पूर्वजन्म की आपत्तियो से मुक्त नही होती। ___जैनेन्द्र के साहित्य में इस तथ्य पर कोई प्रकाश नही डाला गया है कि परलोक क्या है ? तथापि उन्होने परलोक के अस्तित्व को स्वीकार अवश्य किया है। जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे परलोक की कल्पना के मूल मे व्यक्ति के हित की झलक देखने की चेष्टा की है । जैनेन्द्र परलोक की परिकल्पना अवश्य करते है, किन्तु इस सम्बन्ध मे वे कोई तर्क-वितर्क करना उपयुक्त नही समझते । उनकी दृष्टि मे परलोक की कल्पना ही व्यक्ति हितार्थ पर्याप्त है, वह क्या है, वह क्या नहीं है इसका कोई महत्व नही होता। उनके अनुसार अनुमान निर्भर जो मान्यताए है उनके बारे मे किसी आग्रह-विग्रह की आवश्यकता नही है। उनके विचार मे परलोक की परिकल्पना से व्यक्ति की कर्मशीलता को बल मिलता है। परलोक की परिकल्पना इस प्रेरणा के रूप मे सार्थक हो सकती है अन्यथा परलोक इस धरती से परे कोई विशिष्ट लोक नही है। ___ जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे स्वर्ग और नरक का भी उल्लेख किया है। स्वर्ग और नरक क्या है, यह स्पष्ट नही हो पाता, किन्तु यह अवश्य सत्य है कि स्वर्ग और नरक के कारण व्यक्ति अपने कर्मों की श्रेष्ठता के हेतु सदैव सजग रहता है। परलोक की पूजी धर्म है। 'धर्मवेत्ता ही स्वर्ग का अधिकारी होता है। जैनेन्द्र के साहित्य मे स्वर्ग और नरक का उल्लेख होते हुए भी उसे उस जगह से परे की स्थिति के रूप में स्वीकार नही किया गया है। उनके अनुसार स्वर्ग और नरक यहा इस धरती पर ही है।" मृत्यु
जैनेन्द्र के साहित्य मे जन्म, पुनर्जन्म और कर्म-परम्परा का विवेचन करते
१ जैनेन्द्र से विचार-विमर्श के अवसर पर उपलब्ध ।
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जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य, धर्म-परम्परा एवं मृत्यु
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हुए उनके मृत्यु सम्बन्धी विचारो का विवेचन भी अनिवार्य प्रतीत होता है। जन्म और पुनर्जन्म के मध्य मृत्यु द्वार है, विश्रान्ति है, ठहराव है, किन्तु मौत के बाद फिर जन्म का क्रम अनवरत चलता रहता है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे मौत एक गूढ सत्य है । मौत के द्वार से जीवन के गुह्यतम रहस्यो का उद्घाटन होता है। मृत्यु की चेतना व्यक्ति के जीवन मे इस प्रकार व्याप्त है कि प्रतिपल उसके (मृत्यु) अस्तित्व का बोध प्राप्त करता हुआ भी व्यक्ति कर्म-रत रहता है। मृत्यु के बाद सब व्यर्थ है, मिथ्या है, किन्तु व्यक्ति की मौत से जगत की अनन्तता मे कोई व्यवधान नही पडता है । जैनेन्द्र की मृत्यु सम्बन्धी मान्यताओ मे उनके गहन चिन्तन की झलक मिलती है । जीव और मृत्यु के अन्तर्गत रहस्य का उद्घाटन करते हुए जैनेन्द्र ने व्यावहारिक जीवन मे व्यक्ति की मृत्युसम्बन्धी धारणाओ को अपनी रचनाओ द्वारा व्यक्त किया है।
जीवन के उन्माद मे उसकी चहल-पहल मे व्यक्ति मौत की सत्यता की ओर ध्यान नही देता, उसे ऐसा प्रतीत होता है मानो जीवन ही है उसके बाद मौत नही है। जैनेन्द्र के साहित्य मे अनेको बार मौत की सत्यता (महत्ता) पर प्रकाश डाला गया है । जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे ऐसी अनेको घटनाप्रो की ओर इगित किया है जब कि परिवार के कई सदस्य एक-के-बाद-एक मौत के ग्रास बन जाते है। मृत्यु का ऐसा दुर्दान्त रूप देखकर ही उन्हे स्वीकार करना पडता है कि मौत अकाट्य सत्य है । ससार मिथ्या है। जैनेन्द्र ने 'अनन्तर' कहानी मे सत्यता पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि मौत एक द्वारमात्र है, अन्यथा सब मिथ्या है केवल ब्रह्म सत्य है । 'रामनाम सत्य है, रामनाम सत्य है ।' मानो राम नाम सत्य के आगे मौत झूठ हो जाती है, मानो नियति के आधार पर हमारा एक उत्तर है । एक राम नाम से मिलकर ही सब मिथ्या हो जाता है। एक को श्मशान घाट पहुचाया जाता है और दूसरा जाने को तैयार हो जाता है, किन्तु व्यक्ति का कर्म (जीवित रहने के कारण) शेष है और और लोगो को भी मरना है । वस्तुत एकमात्र वही सत्य है और वह सत्य है ईश्वर ।
मृत्यु : एक अनिवार्य सत्य
जैनेन्द्र के अनुसार मृत्यु जीवन का अनिवार्य सत्य है । उसकी कल्पना जीवन के लिए बहुत ही सहयोगी तथा शान्तिदायक सिद्ध होती है। 'जगत के जीवन के लिए मृत्यु वरदान है ।' जन्म की एकपक्षीय धारा जीवन को गदला
१ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग २, 'अनन्तर,' चौथा सस्करण,
१६६६, पृ० स०१।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
कर देगी । जिस प्रकार तालाब की स्वच्छता के लिए निरन्तर स्वच्छ जल का आगमन और अस्वच्छ जल का निगमन अनिवार्य है उसी प्रकार जैनेन्द्र ने जगत की स्वच्छता और स्वास्थ्य के हेतु मृत्यु को अनिवार्य माना है ।' उन्होने 'मौत की कहानी' मे अपने विचारो को व्यक्त करते हुए बताया है कि - 'मोत का सिलसिला बन्द हो जायगा तो जन्म का सिलसिला भी रोक देना पडेगा । नही तो धरती पर ऐसी किचमिच मचेगी कि सास लेने को भी जगह न रहेगी ।"
मृत्यु की गोद मे केवल 'आत्मता' का ही प्रस्तित्व रहता है, व्यक्तिमत्ता ( निजता ) समाप्त हो जाती है। गरीबी और अमीरी का भेदभाव मौत मे समाप्त हो जाता है । 'भेद' जगत की सापेक्षता मे सम्भव होता है, किन्तु ससार की परिमिति से परे सब एक है, अभिन्न है ।
जैनेन्द्र ने जीवन मे और जीवन के अनन्तर भी एकमात्र स्नेह और पारस्परिक प्रेम को ही अनिवार्य माना है, क्योकि मौत के बाद कुछ भी शेष नही रहता, केवल व्यक्ति के स्नेह की स्मृति स्थायी रहती है । स्मृति के सहारे ही व्यक्ति मर कर भी अमर है और अविस्मरणीय हो जाता है । मौत के बाद व्यक्ति के समस्त सम्बन्ध छूट जाते है और वह किसी का न होकर शून्य सा हो जाता है । 'विवर्त' मे इस सत्य पर प्रकाश डाला गया है ।"
जैनेन्द्र के विचारो के मूल मे उनकी धार्मिक प्रास्था और नीति के दर्शन होते है । धर्मपूर्वक आचरण ही उनकी सबसे बडी नैतिक मान्यता है । उनकी 'मौत सिर पर है, यह यदि हम याद रखे तो धर्म प्राचरण सहज होता है ।' मृत्यु की सत्यता का बोध यदि व्यक्ति के मन मे बना रहे तो व्यक्ति धर्म के विमुख होकर क्षुद्रता मे नही गिर सकता ।
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'मै मृत्यु का कायल हू । जीवन से अधिक उसका कायल हू । वह परमेश्वर का वरदान है । मै मृत्यु को समाप्त नही चाहता हू । उसके बिना जीवन असह्य हो जायगा ।'
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-- जैनेन्द्रकुमार ' इतस्तत', पृ० ११३ । २ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', तृ० स०, १९६३, पृ० ६८ ।
३ 'यो हम कब एक दूसरे के है, कोई केवल अपना नही है, लेकिन क्षरण है कि हम आपस के रह ही नही पाते, कही किसी अपर के हो जाते है । तब मालूम होता है कि आपसीपन खिसककर प्रोढे कपडे के मानिन्द हमसे नीचे उतर गया है । हम किसी के भी नही रहे, अपने भी नही रहे, माने सिर्फ नही के हो गए है । क्या यही कृत कृत्यता है ? या कि यह मृत्यु है ।' - जैनेन्द्र कुमार 'विवर्त', पृ० २१७ ।
'जैनेन्द्र की कहानिया' (अनन्तर ), भाग २, पृ० ७ ।
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जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य, धर्म-परम्परा एवं मृत्यु
मृत्यु की सार्थकता
जैनेन्द्र मृत्यु को सार्थक बनाना चाहते है । मौत की सत्यता अथवा उसकी चेतना व्यक्ति को भयभीत रखने के लिए नही है । मौत से भयभीत हुए व्यक्ति के हृदय से कर्म के प्रति भावना की शुद्धता समाप्त हो जाती है । यदि व्यक्ति मृत्यु की चेतना द्वारा स्वकेन्द्रित होकर अधिकाधिक सुख भोग का प्रयत्न करता है, ऐसी स्थिति मे जब व्यक्ति जीवन मे लिप्त होने लगता है तब मृत्यु का आगमन उसके लिए बहुत कष्टमय प्रतीत होता है । अपने स्वार्थ के लिए जीने वाला व्यक्ति अपनी कामनाओ और उनसे चिपटा रहता है । जैनेन्द्र के अनुसार जो व्यक्ति निर्भीक होकर कर्म करते है, मृत्यु का भय उनकी सद्वृत्ति मे बाधक नही बनता । वे न तो मृत्यु की ओर आकर्षित होते है और मौत के आने पर उसका सहर्ष आलिंगन करते है । उन्हे यम का स्पर्श वरदान के सदृश्य प्रतीत होता है । प्रपनी जीर्णता को मृत्यु के द्वारा पुन नवीनता मे परिवर्तित करने
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खिन्न नही होते, क्योकि वे वह मानते है कि मृत्यु के अनन्तर भी जीवन का क्रम चलेगा । अतएव जीवन सार्थकता और सापेक्षिक पूर्णता के हेतु मृत्यु मे विराम अनिवार्य है ।" मौत न हो तो जीवन स्वय मे रुकावट प्रतीत होने लगेगा | जैनेन्द्र के अनुसार मौत के द्वारा व्यक्ति के जीवन को रास्ता मिलता
1
' दर्शन की राह " शीर्षक कहानी मे जैनेन्द्र ने जीवन और मृत्यु के गहन सत्य को उद्घाटित किया है। जीवन और मृत्यु के ऐसे कठोर सत्य को देखकर व्यक्ति सहसा स्तम्भित हो जाता है । जीवन मे शरीर को अत्यधिक महत्व देने तथा भोग-विलास का साधन समझने वाला व्यक्ति मौत के द्वारा 'पदार्थ' बन जाता है, किन्तु आश्चर्य यह है कि उसकी पदार्थता को देखकर भी शेष व्यक्ति सत्यता की ओर उन्मुख होने से बचाव करते है । गाडी से कुचला हुआ अधमरा व्यक्ति मृतक मे पदार्थवत् उठाकर डाल दिया जाता है और शेष दर्शक गाडी के लेट होने की चिन्ता मे ही व्यस्त रहते है । इस घटना को लेकर लेखक ने एक ऐसे व्यक्ति के जीवन की घटना का उल्लेख किया है, जो ऐसे हृदय - विदारक दृश्य को देखकर भी अपनी नवविवाहिता पत्नी के साथ भोग-विलास मे डूब जाना चाहता है, किन्तु आदर्शवादिनी पत्नी अपनी आत्महत्या के द्वारा
१
'जीवन का कुछ अर्थ ही नही अगर मौत उसके आगे फुलस्टाप की तरह बैठ जाए । इसलिए मृत्यु स्थाई वस्तु नही है ।'
-- जैनेन्द्र की कहानिया, पृ० ६८ ( भय-मौत की कहानी )
२ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', पृ० १०४ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
पति की आख खोलने में समर्थ होती है और उसका पति अन्त मे यह स्वीकार करता है--कि 'मृत्यु के द्वार मे से ही सत्य को प्राप्त करना होगा।' 'जीनामरना' शीर्षक कहानी मे भी इसी तथ्य की सत्यता पर प्रकाश डाला गया है कि मृत्यु के बाद शव की क्या स्थिति होती है । लेखक ने ऐसी स्थिति का चित्रण किया है जो मर्म को झकझोर देने में सहायक होती है। अस्पताल में गर्मी मे लाशे अधिक हो जाने के कारण बाक्स मे भर दिए जाते है, आलमारी भी इसी कार्य के हेतु प्रयुक्त होती है । 'भर दिये जाते है' सुनकर सहसा शरीर काप उठता है, किन्तु सत्य यही है । यह जैनेन्द्र के अन्तस् की गहनता का ही परिचायक है कि उन्होने जीवन के ऐसे यथार्थ सत्यो को स्पष्टत अभिव्यक्ति प्रदान की है। एक ओर जीवन की रगरेलिया दूसरी और मौत का कर सत्य'", · दोनो के मध्य व्यक्ति मन स्थितियो को व्यक्त करते हुए जैनेन्द्र ने बताया है कि व्यक्ति मौत की सत्यता की चाहे कितनी ही उपेक्षा करे, किन्तु वह सदैव जीवन के समक्ष एक व्यग्य-चिन्ह-सी दृष्टिगत होती है।
'तोलए' शीर्षक कहानी मे भी जैनेन्द्र ने जीवन और मृत्यु के गम्भीर सत्य का विवेचन किया है। मृत्यु की ओर पहुचता हुआ व्यक्ति जीवित व्यक्तियो के के लिए अर्थशून्य हो जाता है । जीवन मे उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है। मानव जीवन मे वही वस्तु यह व्यक्ति ग्राह्य है, जो कि उपयोगी है-अन्यथा प्राणयुक्त व्यक्ति भी तुच्छ पदार्थ की भाति इस लीला का अन्त करने के लिए विवश होता है, क्योकि मरने वाले को मरना तो है ही, परन्तु उसके कारण गन्दगी भी फैलती है और उसकी दिन-रात की खो-खो भी परेशान करती है। इस कहानी मे भी लेखक ने क्लब के भोग-विलासमय जीवन के समानान्तर मौत की सत्यता का चित्रण किया है । उनके अनुसार 'मरना जीवन को राह देता है। हम कही बन गये होते है । काम आ चुके होते है। ससार मे कुछ
ملہ سم
१ जैनेन्द्र की कहानिया (दर्शन की राह), भाग ७, तृ० स० ११८, १६६३ ।
जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया' भाग १०, 'जीना-मरना' प्र० १३६ । ३ 'वह गुस्सा सिर्फ इस पर था कि मौत है। मानो वह जिन्दगी के आगे व्यग
चिन्ह है । उसको सामने रखकर जिया कैसे जाए ? पर हमेशा पीठ पीछे भी उसे कैसे जिया जाय।
-जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', पृ० १३२ । ४ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ७, १९६३, दिल्ली, पृ० ११६ । ५ 'जैसे एक दिन होकर और कुछ दिन रहकर हम बिसर जाते है कि यह
होना रहना काल का ही खेल था उस खेल के लिए अब हमारा न होना सगत हो गया है।'
--जैनेन्द्रकुमार 'इतस्तत', पृ० १०६ ।
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जैनेन्द्र की दृष्टि में भाग्य, धर्म-परम्परा एव मृत्यु
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दिन रहकर व्यक्ति की मृत्यु अनिवार्य हो जाती है । इस प्रकार जैनेन्द्र ने उपरोक्त कहानी द्वारा इस तथ्य को प्रमाणित किया है कि मृत्यु अनिवार्य है ।
जैनेन्द्र के साहित्य मे उनकी मृत्यु सम्बन्धी विवेचना दो रूपो मे अभिव्यक्त हुई है । एक स्वीकारात्मक तथा दूसरा निषेधात्मक | जैनेन्द्र का विश्वास है व्यक्ति का आकर्षण जिस प्रोर होता है, उसकी विपरीत दिशा में ही वह भागता है । यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है जिसकी सत्यता व्यावहारिक जीवन मे स्पष्टत दृष्टिगत होती है ।
मृत्यु के द्वार से अमरत्व
जैनेन्द्र के अनुसार शहीद तथा परमार्थ की ओर उन्मुख रहने वाले व्यक्ति को मौत की कोई चिन्ता नही होती । वह अपने कर्तव्य मे इतना लीन रहता है। कि उसके समकक्ष निरर्थक सिद्ध होता है । जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियो मे जीवन की आहुति देने वाले पात्र सहर्ष मृत्यु का आलिंगन करते है, किन्तु मौत के लिए उत्सुक नही होते । उनकी दृष्टि मे 'मौत' ऐसी तुच्छ वस्तु है, कि उसका चाहना लज्जास्पद है । चाहने को मेरे पास बडी वस्तु है । "फासी" मे शमशेर मौत के प्राचल मे मुह छिपाकर जीवन सघर्ष से बचना नही चाहता, किन्तु जब मौत के द्वारा ही परमार्थ सम्भव हो रहा है तो वह उसकी उपेक्षा भी नही करता । यही जैनेन्द्र के साहित्य का अभीष्ट है । उनके अनुसार जीवन की सार्थकता मौत के सम्बन्ध मे विचार करने से अधिक उसे सामने लेने
है ।
जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति मर कर अमरत्व प्राप्त करने में आस्था रखता है । मृत्यु पर कोई विजय नही प्राप्त कर सकता, किन्तु मरकर व्यक्ति सहज ही अमर हो जाता है । जीवन और मृत्यु के बीच जैसे रेखा उनके लिए हुई ही नही । ' ' कहानी की कहानी' मे लेखक ने गाधी जी की मौत द्वारा उनकी
१
मेरी मौत मे दुनिया की अर्थ सिद्धि है, मेरी भी परमार्थ सिद्धि है । विश्व, का अर्थ सिद्ध करने व्यक्ति की मौत आती है । परमात्मा उसे भेजता है । व्यक्ति क्यो न उसे साथ ले ओर आगे बढे ।'
जैनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया', सम्पादक- शिवनन्दनप्रसाद, प्र० स०, पृ० २४ ।
२ 'मौत को सामने लो'-' -'जैनेन्द्र की कहानिया', (दर्शन की राह ), पृ०१३४ ।
३. जैनेन्द्रकुमार 'अनतर', पृ० ४७ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
अमरता की ओर इगित किया है । जैनेन्द्र के अनुसार जीवन की पूर्णता मौत मे भी जीवन की झलक देखने पर ही सम्भव होती है।'
मृत्यु का भय ___ जैनेन्द्र के साहित्य मे जब हम मौत के निषेधात्मक पक्ष का अवलोकन करते है तो हमे उनकी कई कहानियो मे उनके पात्रो के मन मे अवस्थित मौत के भय का सकेत मिलता है । 'मौत की कहानी' इस दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। इस कहानी मे लेखक ने मौत के पूर्व उत्पन्न होने वाले भय का बडा ही स्वाभाविक और जिज्ञासापूर्ण चित्रण किया है। तम्बाकू न खाने वाला व्यक्ति अनजाने मे तमाखू खा लेता है, उसकी जो प्रतिक्रिया होती है, उससे वह स्वय को शत-प्रतिशत मृत्यु के निकट आया हुआ ही अनुभव करता है । वह यह नही जानता कि उसकी समस्त विकृत चेष्टाओ का कारण तम्बाकू का नशा है। ऐसी स्थिति मे उसके द्वारा जो भावाभिव्यक्ति होती है, उससे उसके हृदय मे स्थित मृत्यु के भय से सम्बद्ध विचारो का पूर्ण परिचय मिलता है । जैनेन्द्र के अनुसार 'मौत कैसी होती है कोई नही जानता।३
_ 'मौत की कहानी' मे यम के भयावह रूप पर प्रकाश डालते हुए स्पष्ट किया है कि 'यम नाम का देव है, सचमुच बडा डरावना है। वास्तव में वह किसी अस्त्र-शस्त्र से आदमी को नही मारता, दर असल वह मारता ही नही है, आदमी उसे देखकर डर के मारे स्वय ही मर जाता है। 'पत्नी' शीर्षक कहानी मे भी लेखक ने मृत्यु के भय पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि प्रत्येक व्यक्ति इस सत्य से अवगत होता है कि उसे एक-न-एक दिन मरना अवश्य है, किन्तु मृत्यु की कल्पना ही उसे भयभीत कर देती है। व्यक्ति के अन्तर्निहित मार ने ही यम के
१ 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ८, पृ० स० ५२। २ 'जो पूरा जीता है वह मौत मे भी जीवन देख सकता है। वही जिसके पास जीने के लिए कुछ है और वही मरने के लिए है।'
-जैनेन्द्र की कहानिया, भाग २, पृ० ४५ । ३ जैनेन्द्र की कहानिया (मौत की कहानी), पृ० ६८ । ४ जैनेन्द्र की कहानिया (मौत की कहानी), पृ० ६८ । ५ 'यद्यपि वह जानती है कि मरना सब को है-उसको मरना है-उसके पति
को मरना है पर उस तरफ भूल से छत पर देखती है तो भय से मर जाती है।'
-जैनेन्द्र की कहानिया ।
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जैनेन्द्र की दृष्टि से भाग्य, कर्म-परम्परा एव मृत्यु
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रूप की कल्पना को भयकर और विकराल बना दिया है ।' अन्यथा यमराज तो व्यक्ति की विपदाओ से मुक्ति दिलाने मे ही सहायक है । मौत के सम्बन्ध मे अत्यधिक सतर्कता रखने तथा उस सम्बन्ध मे अधिक उपदेशादि देने से मौत की उत्तीर्णता नही व्यक्त होती वरन् मौत का मन ही प्रतीत होता है ।" जैनेन्द्र के अनुसार 'उसका ( मौत का ) श्राकर्षण है तो समझो उसका भय है ।'
जब व्यक्ति वैराग्य का बहुत अधिक उपदेश देता है और मन की सच्चाई को व्यक्त करना चाहता है, तब उसके मन मे निश्चय ही कोई अवश्य छिपा होता है । और वह भोग से भोग की ओर ही उन्मुख होना चाहता है । यान 'मौत पर" कहानी मे मौत के अस्तित्व और उसकी सत्यता पर लम्बा प्रवचन दिया गया है, किन्तु अन्त मे वही प्रवक्ता अपनी भावनाओ को नियंत्रित नही कर पाता और अतत भोगोन्मुख ही होता है । "
मौत से बचने और डरने वाला व्यक्ति सदैव जीवन से चिपटा रहता है । 'जयवर्धन' मे जैनेन्द्र ने बताया है कि 'मौत को सतत् भीतर लेकर जीना असल जीना है । यह जीना मर कर होता है ।" 'जैनेन्द्र - साहित्य का प्रमुख आदर्श त्याग और परमार्थ मे ही फलित होता है । यही कारण है कि उन्होने 'जयवर्धन' मे द्विज से सय व्यक्ति के बलिदान की भस्म से फूटने वाले जीवन को ही सच्चा जीवन माना है । उनकी दृष्टि मे जीवन पकडने मे नही छोडने मे है, भोग मे नही यज्ञ मे है । " जब व्यक्ति की वासना सासारिक भोगो मे लगी होती है, तभी वह मौत से चितित प्रतीत होता है ।
जैनेन्द्र के उपरोक्त विचारो में उनकी दार्शनिकता की स्पष्टत झलक मिलती है । दर्शन कोई विशिष्ट प्रक्रिया नही है । दर्शन जीवन के विविध शाश्वत सत्यों को गहराई से देखने की अन्तदृष्टि है । जैनेन्द्र ने जन्म-मृत्यु के आध्यात्मिक
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'यम का रूप विकराल है क्योकि वह हमारे ही भय का रूप है । कल्पना की विकृति है वस्तुत विधाता की ओर के ये जो यमराज है वही तो धर्मराज है ।'
- जैनेन्द्र कुमार ' इतस्तत', पृ० १०६ ।
२. ' मौत से घबडाना मौत बुलाना है'
-- जैनेन्द्रकुमार 'साहित्य का श्रेय और प्रेय' पृ० २३८ ।
३ जैनेन्द्र की कहानिया, भाग ८, पृ० १७६ ।
४. जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन' पृ० ११ । ५. जैनेन्द्रकुमार ' जयवर्धन' पृ० ११ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
तथा व्यावहारिक पहलू को बहुत ही व्यापक और सूक्ष्मदृष्टि से विवेचित किया है। समस्त विचारो के मूल मे उनकी ईश्वरीय आस्था की स्पष्टत झलक मिलती है । उनके साहित्य मे अभिव्यक्त त्याग, भोग आदि भावो के मूल मे उनका पारमार्थिक दृष्टिकोण ही लक्षित होता है । जैनेन्द्र इस सत्य से पूर्णत अवगत है कि मृत्यु के आने पर व्यक्ति का सर्वस्व यही रखा रह जायगा और वह भी अपनी मजिल पर पहुच जायगा । जीवन के सारे रिश्ते नाते तथा समस्त सम्पदा मौत के आने पर व्यर्थ हो जायगी।
जैनेन्द्र के अनुसार सत्य की प्राप्ति जीवन से पार जाने मे ही सम्भव हो सकती है। जीवन के पार जाने का एकमात्र यान मृत्यु ही है । मृत्यु मे व्यक्ति का अह नि शेष हो जाता है । 'उपलब्धि' मे लेखक ने इस तथ्य पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि व्यक्ति के अह का स्वरूप नमक की डली के सदृश्य है। नमक की डली यदि समुद्र में डाल दी जाय तो वह उसी मे समाकर अस्तित्व शून्य (अहशून्य) हो जाती है, इसी प्रकार व्यक्ति का अह मौत के द्वारा विराट मे लीन हो जाता है । व्यक्ति शून्य मे समा जाता है । इस प्रकार निश्चय ही मौत यम का क्रूर आघात न होकर ईश्वर की कृपा ही है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी निजता को छोडकर समष्टि का बन जाता है। अन्यत्र उन्होने यह भी स्वीकार किया है कि जीवन की उलझन मे मौत समाप्ति की भाति आकर अच्छा ही करती है। जैनेन्द्र के पात्रो को मौत के अधेरे मे परमेश्वर के दर्शन होते है। मनुष्य के पास सबसे बडा सत्य यही है कि ईश्वर है और वह ( व्यक्ति ) नहीं है। इस सत्यता की पुष्टि मौत मे ही होती है, इसीलिए मौत सत्य है।
१ क) 'एक दिन मौत आएगी और सब रह जाएगा।'
--जैनेन्द्र की कहानिया, पृ० १६७ । ख) 'मनुष्य का निश्चय मौत नाम की वस्तु के आने पर रखा ही रह जाता है।'
--जैनेन्द्रकुमार 'सुनीता', पृ० ३२ । २ अ) जैनेन्द्र की कहानिया, भाग ३ (उपलब्धि), पृ० १५७ । ब) जैनेन्द्र की कहानिया 'मौत जिसे कहते है जान गया है वह तेरा ही हाथ
है । ओ छलिया तू अधेरा बनकर इसी से आता है ताकि आखे तुझे न
पहचाने।' पृ० १५८ । स) जैनेन्द्र की कहानिया, पृ० १२६ ।
'मैं नही है क्योकि शून्य है और मैं शून्य हू । मैं कुछ नही हू यह अनुभूति ही मेरा सब कुछ है ।'
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परिच्छेद-५
जैनेन्द्र के अहं सम्बन्धी विचार
जैनेन्द्र के साहित्य में ग्रह की स्थिति ___ जैनेन्द्र-साहित्य की आत्मा अथवा उसका मूल स्वर उनके अह सम्बन्धी विचारो मे ही मुखरित हुआ है । जैनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य मे अहभाव विभिन्न सन्दर्भो मे व्याप्त है। अह ही वह बिन्दु है, जिससे उनकी समस्त साहित्यरचना प्रस्फुटित होती है। जैनेन्द्र का साहित्य वस्तु-जगत के आवेग और प्रदर्शन से अभिप्रेत न होकर अतस् की व्यथा से ही अनुप्राणित है । अन्तर्वेदना ही वह मूल स्त्रोत है, जहा से उनकी सम्पूर्ण साहित्य-सरिता प्रवाहित होती है । व्यथा अन्तर्मुखी है, किन्तु उसकी अभिव्यक्ति का आधार व्यक्ति की अहता ही है। अह अर्थात् मै के अस्तित्व द्वारा ही अत धारा बहिर्गत हो सकती है। वस्तुत अह आत्मजगत और वस्तुजगत के मध्य द्वार के सदृश्य है । जैनेन्द्र ने अह को द्वार मात्र ही माना है।' द्वार का कार्य आतरिक और बाह्य जगत मे सामजस्य स्थापित करना ही है । द्वार स्वय मे किसी जगत का प्रतिनिधि नही बन सकता, यही धारणा जैनेन्द्र के अह सम्बन्धी विचारो का आधार है। उनके साहित्य का प्रेरक तत्व अचेतन मन (अनकान्शस माइण्ड) नही है, वरन् अतस् व्यथा है। यही जैनेन्द्र की अह सम्बन्धी विचार का महत्वपूर्ण अग है, जो उनके साहित्य मे विभिन्न परिप्रेक्षो मे अभिव्यक्त हुआ है। मानव-शरीर और आत्मा का अन्तर
१
जैनेन्द्रकुमार · 'समय और हम', प्र० स०, १९६२, दिल्ली, पृ० ६ ।
'अह निजता और विश्वता के बीच द्वार'
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जैनेन्द्र का जीवन-दशन
और बाह्य जगत की समष्टि है । पीडा अह अर्थात् व्यक्ति की सापेक्षता मे ही सम्भव हो सकती है।
जैनेन्द्र की ग्रह सम्बन्धी विचारधारा उनके गहन चिन्तन और मनन का परिणाम है। उनका चिन्तन और मनन शास्त्रीय ज्ञान पर अवलम्बित न होकर स्वानुभव पर ही आधारित है। प्रात्मनिष्ठ होने के कारण जैनेन्द्र स्वानुभव को ही अपने विचारो की अभिव्यक्ति का आधार मानते है। उन्होने अपने विचारो के विश्लेषण के लिए भारतीय और पाश्चात्य दर्शन-शास्त्र अथवा मनोविज्ञान का मन्थन नही किया है। व्यक्तिगत जीवन के आस-पास के वातावरण के सूक्ष्म अध्ययन और अन्तश्चेतना के आधार पर ही उन्होने अपने विचारो की प्रतिष्ठापना की है। यद्यपि यह सत्य है कि विचारो की पुष्टि अथवा प्रामाणिकता के हेतु उन्होने किसी विशिष्ट दार्शनिक परम्परा को नही अपनाया तथापि सस्कारवश स्वाभाविक रूप से ही उन पर विभिन्न पाश्चात्य तथा पूर्वात्य दार्शनिक विचारो की झलक स्पष्टत दृष्टिगत होती है । व्यक्ति स्वय को परम्परा और परिवेश से पूर्णत मुक्त नही कर सकता, तथापि वह उस परम्परा मे अपनी मौलिक सूझ-बूझ की स्थापना के हेतु पूर्णत स्वतन्त्र है। वस्तुत जैनेन्द्र के विचारो पर अनायास ही भारतीय अद्वैत वेदात और साख्यदर्शन तथा कतिपय पाश्चात्य दार्शनिको की छाया परिलक्षित होती है । जैनेन्द्र ने आत्मगत जीवन से परे राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक आदि विभिन्न क्षेत्रो मे अह की विवेचना की है।
जैनेन्द्र के विचारात्मक निबन्ध तथा प्रश्नोत्तर रूप मे सग्रहीत विचार उनके आध्यात्मिक चिन्तन का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते है । 'समय और हम' पुस्तक मे उन्होने अह का आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक रूप प्रस्तुत किया है। उनके उपन्यास और कहानिया भी अह सम्बन्धी विचारो की व्यावहारिकता को प्रस्तुत करने में सहायक है। अह का स्वीकारात्मक अर्थात् अस्तित्वबोधक रूप और उसका निषेधात्मक अर्थात् अहकार सूचक रूप जैनेन्द्र के उपन्यास और विशेषत कहानियो मे परिलक्षित होता है । 'समय और हम' मे प्रश्नकर्ता ने उपोद्घात मे जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन को चार भागो मे विभाजित करके उनकी विवेचना की है । चारो विभागो मे परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से उनके अह सम्बन्धी विचार व्याप्त है । अह ही वह सूत्र है जो जीवन की विविधता मे व्याप्त होकर भी एकता की प्राप्ति की ओर प्रयत्नशील है । जीव ब्रह्म से तादात्म्य, अहता और आत्मता तथा परस्परता और अहिसा सम्बन्धी दृष्टिकोण मे जैनेन्द्र की अह दृष्टि ही अनुप्राणित है । जैनेन्द्र के साहित्य मे अह की विशद् विवेचना को दृष्टि में रखते हुए उसके स्वरूप को जानना अनिवार्य है । सर्वप्रथम प्रश्न उठता
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जैनेन्द्र के ग्रह सम्बन्धी विचार
१४७ है कि जैनेन्द्र की दृष्टि में अह क्या है तथा उन्होने अह को किन अर्थो मे स्वीकार किया है और उनकी विचारधारा परम्परागत दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक विचारधारा से कहा तक स्वतन्त्र अथवा प्रभावित है ?
जैनेन्द्र के साहित्य मे सामान्यत 'अह' शब्द सन्दर्भ सापेक्षता मे विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। अह का मूल भाव व्यक्ति के 'मै' भाव से सम्बन्धित है। 'मै' अस्तित्व बोधक है। समस्त सृष्टि एकमात्र 'मै' के अस्तित्व पर ही निर्भर है । 'मै' चेतना युक्त है । चेतन शक्ति के कारण ही व्यक्ति को अपने अस्तित्व का बोध होता है । चेतना के अभाव मे 'मै' का अस्तित्व अर्थहीन सिद्ध होगा। जड वस्तुओ का अस्तित्व भी चेतन जीव के अह-बोध द्वारा ही ग्राह्य हो सकता है । जैनेन्द्र ने अह को दो विशिष्ट अर्थो मे स्वीकार किया हैपहला अस्तित्वबोधक, दूसरा अहकार सूचक । प्रथम अर्थ मे सृष्टि-विस्तार का बोध होता है तथा द्वितीय अर्थ मे विनाश सूचक है । जैनेन्द्र साहित्य मे अह के इन दो रूपो को बहुत ही व्यापक रूप से मौलिकता का पुट देकर विवेचित किया गया है ।
अह का अर्थ : भारतीय और पाश्चात्य दर्शन
भारतीय दर्शन तथा मनोविज्ञान मे अह से समानार्थी विभिन्न शब्दो का प्रयोग प्राप्त होता है । दर्शन शास्त्र मे 'स्व' तथा आत्मतत्व और मनोविज्ञान मे इगो के रूप मे अह शब्द का प्रयोग किया गया है । फ्रायड मनोविज्ञान को छोडकर सामान्यत स्व और इगो दोनो ही अहबोधक है । स्व मै का पर्याय है तथापि मै अस्तित्वबोधक है और स्व आत्मता का सूचक है । इसी प्रकार सीमित मै अथवा अह भाव अहकार सूचक है । इगो द्वारा व्यक्ति की आत्मता से मेरी अधिक उसकी मानसिक सरचना का बोध होता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से व्यक्ति का मस्तिष्क चेतन, अवचेतन तथा अचेतन स्तरो मे विभाजित है। 'ईगो' व्यक्ति के अचेतन मन की अभिव्यक्ति का साधन है । वह चेतन मन से सम्बन्धित है।
उपरोक्त दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोणो मे भिन्नता लक्षित होती है । दर्शन व्यक्ति के 'स्व' को लेकर चलता है । उसके विवेचन का आधार व्यक्ति का आत्मतत्व है । मनोविज्ञान मे व्यक्ति की आत्मता से इतर मानसिकता को विशेष प्रश्रय प्राप्त हुआ है । एक का विवेचन अध्यात्मपरक (मेटाफिजिकल) है, दूसरे का वस्तुपरक (मेटीरियलिस्टिक), जैनेन्द्र का साहित्य अध्यात्म और भौतिकता की समष्टि है। इसलिए उनके साहित्य मे दर्शन और मनोविज्ञान का सामजस्य होना स्वाभाविक है।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
'अह' शब्द की सामान्य विवेचना करने पर प्रश्न उठता है कि 'अह' मात्र शरीर बोधक है अथवा मन से सम्बद्ध है या व्यक्ति की सम्पूर्णता से सम्बन्धित है । सामान्यत 'अह' भावबोधक है, किन्तु अहभाव शरीर की सापेक्षता मे ही सम्भव हो सकता है। शरीर के अभाव मे अह-चेतना का प्रश्न ही नही उठता। अतएव अह भाव के लिए शरीर के साथ चेतना अनिवार्य है । किन्तु शरीर और चेतना (कान्शेसनैस) स्वय मे प्राण तत्व (आत्मा) के अभाव मे पर्याप्त नही है । अात्महीन शरीर मे चेतना अविद्यमान रहती है । जैनेन्द्र के अनुसार शव के नेत्रो मे भी बिम्ब बनते है, किन्तु उसे उसका बोध नही होता है।' अतएव 'अह' का पूर्ण और वास्तविक ज्ञान समग्रता मे ही सम्भव हो सकता है । इस सम्बन्ध मे विचारको ने विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किये है ।
पाश्चात्य दर्शन
पाश्चात्य दार्शनिको ने अह अथवा सेल्फ के सम्बन्ध में विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किए है । श्रीमती राय ने अपने शोध-प्रबन्ध मे पाश्चात्य दार्शनिको के विचारो की पूर्ण विवेचना की है। अरस्तू ने अह को पारमार्थिक तत्व के रूप मे स्वीकार किया है। यह तत्व शरीर में रहते हुए भी उससे असम्बद्ध रहता है। डेकार्ट ने सर्वप्रथम इस तर्क की ही पुष्टि की है कि 'स्व' अथवा 'मै' का अस्तित्व है या नही, क्योकि पाश्चात्य दार्शनिको मे प्राय अह के अस्तित्व के सम्बन्ध मे सन्देह उत्पन्न होता रहा है। डेकार्ट महोदय ने स्व को विचारक के रूप मे स्वीकार किया है । उसके अनुसार 'मै विचार करता हूँ इसलिए मैं हैं।' इस प्रकार उन्होने अह को चिन्तनशील तत्व के रूप मे स्वीकार किया है । लाक ने 'स्व' को प्रत्यय के आधार पर स्वीकार किया है। डेकार्ट का चिन्तनशील 'स्व' बुद्धिपरक है, उसमे तर्क के द्वारा 'मै' की सिद्धि की गयी है, किन्तु जैनेन्द्र का अह अथवा मै अध्यात्मपरक है तथा लाक का प्रत्ययवादी दृष्टिकोण 'अह की आत्मता को सिद्ध करने में असमर्थ होता है । जैनेन्द्र के विचारो पर प्रसिद्ध दार्शनिक वर्कले के विचारो की झलक देखी जा सकती है। जैनेन्द्र ने 'अह' को अश के रूप मे स्वीकार किया है अतएव वह आत्मता से निरपेक्ष पूर्णत वस्तुसत्य नहीं बन सकता । इस प्रकार वह अनुभववादी विचार-धारा के आधार पर ही सिद्ध किया जा सकता है। वर्कले के अनुसार भी प्रत्यय के रूप में अह की
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', २ कमलाराय 'कान्सेप्ट आफ सेल्फ', प्र० स०, कलकत्ता, १९६६,
पृ० स० ८ ।
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जैनेन्द्र के ग्रह सम्बन्धी विचार
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कल्पना नही की जा सकती । प्रत्ययो का कोई कारण अवश्य है और वह है 'अह' ( माइसेल्फ) जीव (सोल) या 'आत्मा' (स्पिरिट ) आत्मा का ज्ञान प्रत्ययो के रूप मे नही हो सकता, क्योकि प्रथम जडवत है और आत्मा चेतन तथा सक्रिय है । अन्तत वर्कले ने आत्मा अथवा ग्रह के अस्तित्व को अन्तर्बोध ( नोशन) के आधार पर सिद्ध किया है । इस प्रकार वर्कले के अध्यात्मवादी विचारो से जैनेन्द्र मे साम्य प्रतीत होता है । जैनेन्द्र के विचारो पर भी आध्यात्मिकता की पूर्ण छाप दृष्टिगत होती है । जैनेन्द्र और वर्कले के विचारो के मूल में साम्य है, वह वर्कले के विचारो की प्राध्यात्मिकता के कारण ही सम्भव है । वस्तुत जैनेन्द्र के ग्रह सम्बन्धी विचारो पर वर्कले का ही प्रशिक प्रभाव लक्षित होता है । साराशत जैनेन्द्र के साहित्य का विवेचन करते हुए हम उनके विचारो को पूर्णरूप से किसी भी पाश्चात्य दार्शनिक के निकटस्थ नही रख सकते ।
भारतीय दर्शन
भारतीय दर्शन की परम्परा मे जैनेन्द्र के विचारो को मुख्यत अद्वैत वेदान्त, साख्य दर्शन और जैन दर्शन के संबध मे विवेचित किया जा सकता है। शकर के आत्म सबधी विचारो की छाप जैनेन्द्र के विचारो पर स्पष्टत परिलक्षित होती है। शकर के अनुसार 'आत्मतत्व', 'परमतत्व' अभिन्न है। आत्मा का स्वरूप है, आत्मा-परमात्मा मे जो भेद दृष्टिगत होता है, वह अज्ञान तथा भ्रम के कारण ही प्रतीत होता है । अन्यथा दोनो एक है। शकर ने पारमार्थिक सत्य से परे व्यावहारिक दृष्टि के आधार पर 'जीवात्मा' को बाह्य जगत का भोक्ता स्वीकार किया है। शकर की पारमार्थिक दृष्टि अद्वैतवादी होने के कारण आत्मा को अनेकता का हेतु नही मानती । जगत मे व्याप्त अनेकता का कारण माया है जो जीव मे आत्मा और ब्रह्म की एकता को स्थापित करने में असमर्थ है। शकर के अनुसार प्रज्ञान का अधकार दूर हो जाने पर आत्मा और ब्रह्म की अद्वैतता का बोध हो जाता है । जगत मिथ्या है, अतएव अनेकता भी असत्य है। एकता की प्राप्ति ही जीवन का परम लक्ष्य है । जैनेन्द्र-साहित्य पर अद्वैत वेदान्त का बहुत अधिक प्रभाव दृष्टिगत होता है । जैनेन्द्र साहित्य मे जीवन के
१. कमलाराय 'कान्सेप्ट ग्राफ सेल्फ', पृ० १५ ।
२. ' एक सत् और विप्रा बहुधा वदति । - ' एक अनेक वह और मै ।'
-- जैनेन्द्र 'अनन्तर', पृ० स० ८५ ।
३
डा० राधाकृष्णन् 'इण्डियन फिलासफी', पृ० स०४८३ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
प्रत्येक क्षेत्र मे अनेकता से ऊपर उठकर एकता की ओर उन्मुख होने की चेष्टा परिलक्षित होती है। शकर के अनुसार 'द्वैत' तथा अनेकता अविद्या का हेतु है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे जगत मिथ्या नही है । ससार इन्द्रिय गम्य है अतएव शरीरगत अहता भी भ्रम नही है । जैनेन्द्र आत्मगत एकता को स्वीकार करते हुए भी वस्तुगत अनेकता को अनिवार्य मानते है । जैनेन्द्र के अनुसार जीवात्मा व्यक्ति के होने की द्योतक है । अहता के माध्यम से ही अद्वैत सत्य का बोध हो सकता है । अन्तत जैनेन्द्र के साहित्य मे अद्वैतवादी आत्मगत एकता ही मूलत स्वीकार्य है। भिन्नता वस्तुगत है, किन्तु एकता आत्मगत है । सब प्राणियो के अन्तस् मे एक ही प्रात्मा का निवास है। इस प्रकार मूलत सब एक है। जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे एकता की प्राप्ति की ओर विशेषत निर्दिष्ट किया है । जैनेन्द्र की धारणा व्यावहारिक दृष्टि से बहुत ही उपयुक्त तथा महत्वपूर्ण है । सामान्य व्यक्ति आध्यात्मिक ज्ञान से अनभिज्ञ होता है । आत्मा और ब्रह्म की एकता का दर्शन उसे तात्विक-विषय प्रतीत होता है। जैनेन्द्र ने तत्व मे भाव का समावेश करके अपने विचारो को व्यावहारिक बना दिया है। शकर ने प्रात्मा को अह से इतर माना है । उनकी दृष्टि मे सामान्य रूप से हम जिस अह (मै) की परिकल्पना अस्तित्व-बोध के रूप में करते है, उसे जीवात्मा के रूप मे ही समझा जा सकता है । वस्तुत जैनेन्द्र का अहता और शकर की जीवात्मा समानार्थी है । जीवात्मा शरीरगत चेतना से तद्गत है । अहता अथवा मै और जीवात्मा को शकर ने शून्य (निगेटिव) रूप मे स्वीकार किया है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे अहता (मै) ससार के त्याग द्वारा नही, वरन् प्रेम और समर्पण भाव द्वारा ही सत्य का बोध प्राप्त कर सकती है। यही जैनेन्द्र और शकर की दृष्टि मे मूल मेद है। जैनेन्द्र के साहित्य मे अह के पार्थक्य को सासारिक क्रिया-कलाप के हेतु अनिवार्य माना गया है, किन्तु मूल तत्व समर्पण की भावना मे ही समाहित है। 'मै' 'पर' परस्पर प्रेम के द्वारा इस प्रकार एकत्व को प्राप्त कर लेते है कि उनके मध्य द्वैत भाव मिट जाता है । 'स्व' और 'पर' शून्यवत् होकर परमात्मोन्मुख हो जाते है। ब्रह्म की प्राप्ति आत्मोन्मुख होकर ही सम्भव है । जैनेन्द्र के साहित्य
१ डा० राधाकृष्णन् 'इण्डियन फिलासफी', वैल्यूम २, आठवा सस्करण,
लन्दन, १६५८, पृ० स० ४८० । 'अस्मि और अस्त के इस खिचाव के बीच यह हमारी सब सभवता है। उसी मे से आता है पुरुष का पुरुषार्थ । या तो अस्मि अस्ति मे डूब जाए या अस्ति अस्मि मे भरपूर हो जाए।'
---जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० ८५।
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जैनेन्द्र के अह सम्बन्धी विचार
१५१ मे शुन्यता भाव रूप मे स्वीकृत की गई है, अस्तित्व के निषेधात्मक रूप मे नही।
शकर ने अह को आत्मगत सत्य (सब्जेक्टिव) के रूप मे स्वीकार किया है। उन्होने वस्तुगत (आब्जेक्टिव) सत्ता का निषेध किया है । साख्य दर्शन मे अहगत अनेकता को सत्य रूप मे स्वीकार किया है । डा० राधाकृष्णन ने 'इडियन फिलासफी' मे साख्य दर्शन की अनेकता की ओर निर्दिष्ट किया है। उनके अनुसार साख्य दर्शन मे जीवात्मानो के अनेकत्व के लिए कोई विवाद नही है।' साख्य दर्शन मे प्रकृति और पुरुष दो पृथक् तत्व है । पुरुष भोवता है और प्रकृति भोज्य है। पुरुष को ही आत्म (सेल्फ) रूप मे स्वीकार किया गया है । पुरुष की स्थिति प्रकृति से पूर्णत स्वतन्त्र है । पुरुष अर्थात् प्रात्मा शरीर से तद्गत नहीं है।' पुरुष स्वय प्रकाश्य है । पुरुष आन्तरिक विषय है और प्रकृति वस्तु है। पुरुष के आत्मत्व तथा जीव के अह भाव मे अन्तर है । अहकार से युक्त पुरुष ही जीव (अह, मै) है । वास्तविक आत्मा जीव से परे और आन्तरिक है । वस्तुत जैनेन्द्र की आत्मगत एकता साख्य के पुरुष की समानार्थी ही है। ____ विशिष्टाद्वैतवादी रामानुज के अनुसार 'अह बुद्धि" के जाग्रत होने पर ही अहता (स्व) का बोध होता है । साख्य दर्शन की अनेकता जैनेन्द्र के अहभाव की पुष्टि करती है तथा पुरुष का निरपेक्ष रूप भी जैनेन्द्र की आत्मता के समकक्ष है, किन्तु साख्य दर्शन की अनीश्वरवादी विचारधारा जैनेन्द्र की आस्तिकता से सगत प्रतीत नही होती । जैनेन्द्र ने प्रकृति को अहयुक्त माना है इस दृष्टि से ही केवल उन्हे साख्य दर्शन के सम्पर्क मे समझा जा सकता है। साख्य दर्शन मे अनेकता पर प्रश्रय दिया गया है । जैनेन्द्र ने अनेकता को स्वीकार
१ डा० राधाकृष्णन् 'इण्डियन फिलासफी', पृ० २८१-२८२ । २ डा० राधाकृष्णन् 'इण्डियन फिलासफी', पृ० २८५। ३ कमलाराय 'कान्सेप्ट आफ सेल्फ', पृ० १८१ । ४ कमलाराय 'द पुरुष इज दि एटरनल सब्जेक्ट ऐण्ड प्रकृति इज दि एटरनल
आब्जेक्ट', प० स०१८१ । Vijnanabhiksu says that Purusa with ahamkara is the Jiva and not Purusa itself The Ego (Jiva is an item in the natural would while the Purusa is eternally one with itself The Empirical Ego is the mixture of free spirit and mechanism of Purusa and Prakrti.' 'Concept of Self' (p. 184)
Aham budhi consciousness is the characteristic essence of the Individual "Concept of Self' (P 188)
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
करते हुए भी उसे अन्तिम सत्य नही माना है । वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार 'अह भौतिक जगत का एक अनिवार्य सत्य है । शाश्वत सत्य आत्मा तथा परमात्मा है। ससार की स्थिरता तथा सक्रियता के हेतु ग्रह का अस्तित्व अनिवार्य है। जैनेन्द्र की अहता अश रूप होते हुए भी ब्रह्म से पृथक नही है।
जैनेन्द्र की दृष्टि मे प्रह
जैनेन्द्र की दृष्टि मे अह अशता अथवा खण्डता का बोधक है। पूर्ण अथवा समग्र और अखण्ड एकमात्र 'भगवत्-भाव' है। अह मे उस समग्रता का अश कम है । वह ससार की सापेक्षता मे ही पूर्णता प्राप्त कर सकता है । प्रत्येक व्यक्ति मे अपना निजत्व होता है, वही उसका अहभाव है । इस प्रकार अह सख्यातीत है । वही जगत मे अनेकता का हेतु है । मै तुम का भेद अनेकता के कारण हो विकसित होता है । अशरूप अह अखण्डता की प्राप्ति के हेतु प्रयत्नशील रहता है। जैनेन्द्र के साहित्य मे अनेकता के मध्य एकता को स्थापित करने के हेतु अह की भगवतोन्मुखता को अनिवार्य रूप से स्वीकार किया गया है।
अह का स्वरूप
जैनेन्द्र ने शकर के सदृश्य जगत को मिथ्या नही माना और न ही साख्य का निरीश्वरवादी दृष्टिकोण ही अपनाया है । जैनेन्द्र ने मानव जीवन की समग्र विवेचना की है । 'अह' का अस्तित्व जगत के अस्तित्व मे ही सम्भव हो सकता है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे अह की पार्थक्य और अस्तित्वमूलक अर्थवत्ता स्वीकार करते हुए यह प्रश्न उठता है कि अह का स्वरूप वस्तुमय (जड) है अथवा चेतन ? पाश्चात्य दर्शन मे अधिकाशत अह को वस्तु (आब्जेक्ट) रूप मे स्वीकार किया गया है। लाइबनीज आदि विचारको के अनुसार अह प्रत्ययगत तथा जड है। भारतीय दर्शन मे शकर ने ही विशिष्ट रूप से अह को आत्मरूप (सब्जेक्ट) मे स्वीकार किया है। जैनेन्द्र के साहित्य मे अह को कर्ता के रूप में स्वीकार किया गया है। अह मे भाव है जो 'पर' से पार्थक्य को इगित करता है। सब्जेक्ट और आब्जेक्ट का पूर्ण भेद स्पष्ट नही हो सकता,
१ जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', प्र० स०, दिल्ली, १९५६, प्र० स० २२४ । २ 'अस्तित्व स्वय मे प्रश्न नही होना चाहिए। प्रश्न होता है जब अस्तित्व
अलग होते है । हम सब अलग ही है। अस्तित्व की जगह हम अस्तित्व है। इस अस्मि के भाव मे अस्ति से अपना अन्तर डालते है।'
-जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० स० ८५ ।
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जैनेन्द्र के अह सम्बन्धी विचार
क्योकि एक ही वस्तु सन्दर्भ भेद के कारण कर्ता है और कृत्य भी है। पाश्चात्य दर्शन का विवेचन करते हुए श्री अलबरी कास्टल महोदय ने अह के सब्जेक्टिव और आब्जेक्टिव रूप की पूर्ण विवेचना की है। जैनेन्द्र के साहित्य का विवेचन करते हुए ज्ञात होता है कि अह चेतनजीव अथवा मानव प्राणी मे ही नहीं होता, वरन् जड पदार्थों मे भी अहता विद्यमान होती है। पेड, पौधे, ईट, पत्थर आदि जड पदार्थों में भी अहभाव होता है, क्योकि वे स्वय मे विशिष्ट है। किन्तु जड वस्तु की अहता तथा चेतन व्यक्ति की अहता मे अन्तर है। व्यक्ति चेतन प्राणी है, उसमे आत्मोन्मुख होने की क्षमता है । वह प्रेम, घृणा आदि भावो से युक्त तथा सवेदनशील है, किन्तु जड पदार्थ चेतना हीन है। पदार्थ की वस्तुता व्यक्ति की अहता द्वारा ही ज्ञात होती है। 'मै' ह के साथ ही मेरी सपत्ति भी मै से सबद्ध है। जैनेन्द्र के साहित्य मे प्रकृति को प्रतीक रूप मे वरिणत करते हए उसे अहभावना से युक्त किया है। 'तत्सत कहानी मे 'मैं' 'तम' का भेद वन के वृक्षो मे अह बोध को जाग्रत कर देता है। वे समष्टि रूप मे स्वय को नहीं समझ पाते । बास का वृक्ष केवल 'बास' ही है वह जगल नही है। इस प्रकार उनकी अह भावना ही उन्हे समग्र बोध से परे रखती है । उनके साहित्य मे प्रकृति अहता का विसर्जन करते हुए ही दृष्टिगत होती है। सूर्य पृथ्वी के आकर्षण तथा विराट् प्रकृति के विनत समर्पण मे अहता के विसर्जन का ही भाव प्रदर्शित होता है । जैनेन्द्र के अनुसार जड चेतन प्रत्येक मे एक ही आत्मा का निवास है। समस्त सृष्टि मे एक परब्रह्म की ही सत्ता व्याप्त है । अरस्तू के अनुसार जड, चेतन, पशु आदि मे भिन्न प्रात्माए निवास करती है।
उपरोक्त विचारो से इतर जैनेन्द्र ने अह के सम्बन्ध मे अपनी मौलिक विचारधारा प्रस्तुत की है । उन्होने अह को 'क्रास प्वाइण्ट" के रूप मे स्वीकार किया है। क्रास प्वाइण्ट से उनका तात्पर्य उस बिन्दु से है जिस बिन्दु पर काल और आकाश एक-दूसरे को काटते है। काल और आकाश अनन्त है, वे
१ 'मेरी सम्पत्ति, मेरी चीज आदि वह भी अपने आप मे अहशून्य है। उसमे
भी सब्जेक्टिविटी है।'-जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र के विचार', दिल्ली,
पृ० स० ६०। २ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र प्रतिनिधि कहानिया,' पृ० १६४ । 3 “Aristotle no doubt draws a line of distinction between the Plant soul, the animal soul and the human soul'
___Roy -'Concept of self'-(p 8) ४ जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', पृ० स० ५२८ ।
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जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन
प्रत्येक बिन्दु पर एक-दूसरे को काटते है। अतएव अह बिन्दु भी अनन्त हे । जैनेन्द्र के अनुसार अह बिन्दु का ब्रह्माण्ड से आकर्षण और अपकर्षण का सबध ही सम्भव हो सकता है। जैनेन्द्र की उपरोक्त मान्यता तथ्य को इतना सूक्ष्म बना देती है कि उसकी पकड सरलता से सम्भव नही हो सकती।' जैनेन्द्र के अनुसार कुल अस्तित्व अखण्ड है। कुछ मे जो खडितता की प्रतीति आई हे उसे हम दो आयामो मे विभक्त देखते है काल और आकाश । काल और आकाश के मध्य चेतन्य बिन्दु अह का स्वरूप लेता है । वह उन दो यथार्थों के मेल अथवा काट का ही बिन्दु हो सकता है । अह पार्थक्य पोषक है। काल और आकाश के मिलन-बिन्दु मे चेतना का प्रवाह होने से पृथक्ता अथवा 'मै' का बोध होता है । जैनेन्द्र के अनुसार समग्र सत्य मे किसी क्रिया की भी धारणा नही रखी जा सकती, किन्तु हर गति के लिए 'कही से' और 'कही को' बिन्दुनो की परिकल्पना आवश्यक है अर्थात् 'क्रिया' और 'चेतना' । वस्तुत जैनेन्द्र की उपरोक्त विचारधारा पूर्णत स्पष्ट तो नही हो पाती तथा पि उसमे इतना अवश्य स्पष्ट हो जाता है कि अह अशता का बोधक है। अखण्ड ब्रह्म जो कि क्रियाशून्य है, किन्तु 'अह' चेतना और क्रिया से युक्त होकर ही अपने पार्थक्य का बोध कर पाता है। मै 'ह' का बोधक है। मै के साथ ही साथ 'पर' की स्थिति भी अनिवार्य है। ऐसा नही हो सकता कि ससार मे केवल मेरा स्वत्व ही अस्तित्व रखता है। मेरे जैसे अनन्त अह की स्थिति ससार मे दृष्टिगत होती है। 'हू' और 'है' के बीच ही जगत की सारी प्रक्रिया घटित होती है। 'हूं' जगत की प्रक्रिया के सदर्भ मे ही सत्य है और सार्थक हे किन्तु शाश्वत सत्य जो है वही है, इतर सब मिथ्या है। 'है' ईश्वर का बोधक है, क्योकि वही एकमात्र सत्य है । जैनेन्द्र के अनुसार 'मै' का प्रारम्भ जन्म से और अत मृत्यु मे है। आयु 'मै' की होती है। ___'मै' का बिन्दु ही है जहा से चैतन्य का केन्द्र और क्रिया प्रारम्भ हुई । इस दृष्टि से जो 'स्व' निज अथवा अह का बिन्दु है वह अचिन्तय सार्थक हो जाता है । ग्रह की अमिष्टता और अवभीष्टता वहा से शुरू होती है जहा चेतन उस केन्द्र के चहु ओर बढने के बजाय वही केन्द्रित हो जाती है। इस प्रकार अह का केन्द्र विराट की ओर बढने की बजाय अपने मे सिमट कर और इतर से
१ जैनेन्द्र से साक्षात्कार करने के पूर्व 'अह क्रास प्वाइण्ट' की धारणा में अह
गत जडता का ही बोध होता था। उसके मूल मे निहित चैतन्य प्रक्रिया का ज्ञान नहीं हो सका था, किन्तु उनसे विचार-विमर्श करने पर 'अह' के स्वरूप को समझने मे सहायता मिली । (२० ५-७१)।
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जैनेन्द्र के प्रह सम्बन्धी विचार
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विच्छिन्न होकर अह के लिए खतरा है और जिसके कारण अह से बचने की आवश्यकता है । स्नेह से अह को मुक्त विस्तार मिलता है।'
अहं और प्रात्मा
जैनेन्द्र के साहित्य की ग्रह सबधी विवेचना करते हुए जैनेन्द्र की दृष्टि मे अह और आत्मा के अतर को समझना अनिवार्य है । प्राय दार्शनिक तथा व्यावहारिक क्षेत्र मे भ्रमवश अहता ओर अात्मता (आत्मा) को एक ही समझ लिया जाता है। ऐसी स्थिति मे शाश्वत सत्य और लौकिक सत्य के बीच अतर करना कठिन हो जाता है। जैनेन्द्र ने अहता और आत्मता मे स्पष्टत अन्तर व्यक्त किया है। उनकी दृष्टि मे अह शरीर इन्द्रिय और चेतना का समुच्चय है। वीरेन्द्रकुमार गुप्त ने जैनेन्द्र के ग्रह और आत्म सम्बन्धी भेद को बहुत ही स्पष्टरूप से व्यक्त किया है । उनके अनुसार जैनेन्द्र के अहता और आत्मता को प्रचचित लौकिक अथवा नैतिक अर्थ मे न लेकर वैज्ञानिक अर्थ मे ही लेना होगा। अहता अर्थात् अश का पूर्ण से भिन्न अस्तित्व और आत्मता अर्थात् प्रश का समग्न व्यक्तित्व । जैनेन्द्र व्यक्तिगत अस्तित्व के अह को सृष्टि और जीवन का केन्द्र मानते है क्योकि ग्रह की सत्ता के साथ ही सृष्टि और जीवन का प्रारम्भ होता है और उसके साथ ही उसके क्षय के साथ उसका विलय ।'
आत्मा चेतन होते हुए भी निष्क्रिय है। अह आत्मा की चेतन शक्ति का सक्रिय रूप है । अह अथवा जीव अनन्त है। प्रत्येक जीव मे अह बोध होने के कारण 'स्व' 'पर' के पार्थक्य की चेतना होती है। शरीर अथवा जीव को प्रात्मा की संज्ञा नहीं दी जा सकती और न ही आत्मा को अह युक्त माना जा सकता है। मानव प्राणी मे स्व-पर भेद की पूर्ण चेतना होती है । जो मै हू वह वह नही है। वस्तुत अह सीमित भाव है, क्योकि प्रत्येक व्यक्ति अह बोध से जाग्रत होते ही पर से पृथक् हो जाता है। जैनेन्द्र के अनुसार अह शरीरगत होते हुए भी शरीर में स्थिति किसी अवयव या अग से तद्गत नही है । अह वह है जो सुख-दु.ख को अपना करके उसे मानता है। 'वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार अह भाव जो व्यक्ति को अपने अस्तित्व का बोध कराने में समर्थ है । प्रह भाव अथवा मै की चेतना का स्रोत अथवा अवलम्ब आत्मा है।
अह अनेकता, वैभिन्य और द्वन्द्व मूलक है। प्रात्मा ऐक्य और अद्वैत तथा
१ जैनेन्द्र से विचार-विमर्श के अवसर पर उपलब्ध । २ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० २० । ३ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० २० । ४ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ०६३ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
प्रेम और अभेद मूलक है। जैनेन्द्र के अनुसार अहगत अनेकता अतिम सत्य नही है। आत्ममूलक अभेदत्व की प्राप्ति ही जीव (अहता) का परम लक्ष्य है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे एक 'परम ब्रह्म' का ही प्रकाश समानरूप से दीप्त होता है। अत बाह्य रूप मे जो भेद-भाव दृष्टिगत होता है, वह अतस् आत्मा के ऐक्य मे विलीन हो जाता है। जैनेन्द्र के जीवन और साहित्य का आदर्श अभेदत्व की प्राप्ति है। भेद अथवा द्वेत भाव जागतिक सत्य है। जैनेन्द्र ने अह के आत्मोन्मुख होने को ही परम आदर्श माना है। जैनेन्द्र के अनुसार समाज व देश में व्याप्त समस्त मतवाद आत्मोन्मुख होकर अस्तित्वहीन हो जाते है । जैनेन्द्र-साहित्य मे अह को केवल द्वार रूप मे ही स्वीकार किया गया है अतएव यदि अह रूपी द्वार पर ही स्थिर रहने वाला व्यक्ति आत्मरूपी लक्ष्य की प्राप्ति के मार्ग से विमुख हो जाता है और उसके लिए मोक्ष की प्राप्ति कठिन हो जाती है।
जैनेन्द्र की आत्म सम्बन्धी धारणा पर शकर और साख्य दर्शन का प्रभाव दृष्टिगत होता है। यद्यपि यह सत्य है कि उन्होने सप्रयास किसी भी दर्शन के सिद्धान्तो को ग्रहण नही किया है तथापि भारतीय दर्शन की आत्मा की सत्यता से भी तटस्थ नही है । शकर के अनुसार प्रात्मा कर्म से स्वतन्त्र है, शरीर तथा मन के बन्धन से भी स्वतन्त्र है। आत्मा और शरीर एक नही है। अह भाव शरीर मे है। शकर उस आत्मा मे जो समस्त अनुभव मे उपलक्षित होती है और उस आत्मा मे जो अन्तदृष्टि के द्वारा जाना गया एक निश्चित तथ्य है, एक आध्यात्मिक विषयी 'मैं' और मनोवैज्ञानिक विषयी 'मुझको' मे भेद करते है।' डा० राधाकृष्णन् के अनुसार शकर की दृष्टि मे अह प्रत्यय का विषय विशुद्ध आत्मा नही है, जो साक्षी है वरन् वह है जो क्रियाशील है, कर्ता तथा फलोपभोग करने वाला जीवात्मा है, जिसमे विषयनिष्ठ गुणो का समावेश है, ऐसी आत्मा विषय है। साख्य दर्शन मे पुरुष को नित्य तथा आत्मरूप माना गया है । देहस्थ क्रियानो का कर्ता पुरुष नही है। पुरुष निष्क्रिय है । साख्य के अनुसार जीव प्राकृतिक जगत का अश है। जीवन और आत्मा के सम्बन्ध मे शकर और वेदान्त मे बहुत साम्य दृष्टिगत होता है। उनमे मूल भेद प्राध्यात्मिक दृष्टि के कारण ही उत्पन्न होता है । जीव और आत्मा का स्वरूप तो जैनेन्द्र के साहित्य मे उपरोक्त रूप मे दृष्टिगत होता है, किन्तु साख्य दर्शन मे पुरुष परब्रह्म का अश रूप नही है, जब कि जैनेन्द्र ने वेदान्त के अशरूप आत्मतत्व को ही स्वीकार किया है। साख्य मे प्रकृति और पुरुष के मिलन से विक्षोभ
१ डा० राधाकृष्णन् 'इण्डियन फिलासफी', पृ० स० ४७६ । २ डा० राधाकृष्णन् 'इण्डियन फिलासफी', पृ० स० ४७६ ।
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जैनेन्द्र के अह सम्बन्धी विचार
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उत्पन्न होने पर सृष्टि की रचना होती है, किन्तु जैनेन्द्र के अनुसार अहता और प्रात्मता के मिलन से सृष्टि ही नही होती, वरन् दोनो (स्व-पर) परस्पर मिलकर स्वत्वहीन तथा शून्यवत् होकर ब्रह्मोन्मुख हो जाते है। यही जैनेन्द्र की अहता का परम लक्ष्य है। परस्पर समर्पण मे ही अहता का तिरोभाव सभव होता है। ___ जैनेन्द्र के साहित्य मे अह और आत्मा का विवेचन अधिकाशतः उनके निबन्धो द्वारा ही हुआ है। उपन्यास तथा कहानियो मे उन्होने अपने आदर्शों को व्यावहारिक जीवन के धरातल पर प्रस्तुत किया है किन्तु उनमे मनोविज्ञान के प्रभाव के कारण कुछ अन्तर अवश्य आ गया है। जैनेन्द्र के साहित्य का सैद्धान्तिक पक्ष दर्शनशास्त्र से प्रभावित हो उसमे शाश्वत सत्यो की विशद् विवेचना की गई है तथा आत्मा के सन्दर्भ मे शकर की पारमार्थिक दृष्टि का सहारा लिया गया है। शकर ने अपने दर्शन को पारमार्थिक तथा व्यावहारिक धरातल पर प्रस्तुत किया है। पारलौकिक जीवन के हेतु उन्होने पारमार्थिक दृष्टि को अपनाया है, किन्तु लोकिक जीवन के क्षेत्र मे उन्होने व्यावहारिक दृष्टि स्वीकार की है। कोरी पारमार्थिकता जीवन को व्यवहार तथा नीति-शून्य बना देती है। उसमे भले-बुरे, सत-असत् का प्रश्न ही नही उठता। अतएव व्यावहारिकता की स्वीकृति अनिवार्य थी। इन आदर्शों के समकक्ष जब हम जैनेन्द्र के अह सम्बन्धी विचारो को व्यावहारिक जीवन की पृष्ठभूमि मे देखते है तो हमे उनके विचारो की व्यावहारिकता तथा मनोवैज्ञानिकता स्पष्टत दृष्टिगत होती है। जैनेन्द्र के विचारो की विशिष्टता मनोवैज्ञानिक अथवा यथार्थ जीवन की घटनाओ मे पारमार्थिक सत्य का समावेश करने मे ही परिलक्षित होती है।
जैनेन्द्र की अहं दृष्टि और मनोविज्ञान
जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियो मे दर्शन के साथ ही साथ मनोविज्ञान का बहुत अधिक प्रभाव लक्षित होता है। अह के अश रूप तथा 'मै' 'तुम' के भेद का सैद्धातिक रूप मनोविज्ञान के सहारे ही पूर्णाभिव्यक्ति मे समर्थ हुआ है। मनोविज्ञान व्यक्ति जीवन के रहस्योद्घाटन का एक मात्र साधन है । व्यक्ति क्या है ? उसके विचारो और आदर्शों का मूल उद्गम क्या है -? आदि बातो का ज्ञान व्यक्ति का मानसिक विश्लेषण करने पर ही ज्ञात होता है। साहित्य निरा सिद्धांतमय नही है। उसमे दर्शन और मनोविज्ञान का शास्त्रीय से इतर व्यावहारिक रूप ही ग्राह्य हो सकता है। जैनेन्द्र के पात्रो की आत्मा मे अध्यात्मिक सत्य अन्तनिष्ठ है तो व्यावहारिक जीवन मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष मे प्रस्तुत हुआ है।
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फ्रायड मनोविज्ञान
मनोविज्ञान मे 'मै' अथवा ग्रह के हेतु 'इगो' शब्द का प्रयोग किया गया है । ' सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रायड ने मनोविश्लेषरण के द्वारा मानव जीवन के गुह्य रहस्य का उद्घाटन किया है । साहित्य पर फ्रायड के सिद्धातों का बहुत अधिक प्रभाव लक्षित होता है । यद्यपि जैनेन्द्र स्वय को फ्रायड के सिद्धात से परिबद्ध नही मानते, फिर भी उनके साहित्य मे फ्रायडीय मनोविश्लेषण की झलक पूर्णत दृष्टिगत होती है ।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इगो' शरीर तथा 'मानसिक सघटन" का सूचक है । मानव मस्तिष्क के चेतन, अर्धचेतन तथा प्रचेतन तीन पहलू है, जिनपर समस्त मानसिक सघटन आधारित है | चेतन-पक्ष वर्णनात्मक होता है । व्यक्ति का अभिव्यक्त रूप चेतन है । चेतना के द्वारा ही वह बाह्य जगत ( रियल्टी) से सम्बन्ध स्थापित करता है | चेतना प्रत्यक्ष - बोध ( परसेप्शन ) पर आधारित होती है, इसलिए उसका स्थायित्व होता है | चेतन के भीतर व्यक्ति का अचेतन मन विद्यमान है । फ्रायड के अनुसार व्यक्ति का चेतनपक्ष अर्थात कान्शस ही इगो है और अचेतन पक्ष 'इड' है । फ्रायड के अनुसार अवचेतन मन ही व्यक्ति की समस्त क्रियायों का प्रेरक स्रोत है । इगो अथवा ग्रह अचेतन (इड) का वह प्रश है जो बाह्य जगत के प्रभाव के कारण सशोधित हो जाता है । इगो के सशोधन मे प्रत्यक्ष-बोध का बहुत अधिक सहयोग रहता है । वस्तुत फ्रायड की दृष्टि मे इगो (ह) अत जगत की अभिव्यक्ति तथा बाह्य जगत से सम्बन्ध स्थापित करने की कडी है । फ्रायड की दृष्टि मे इगो का प्रात्मा अथवा परमात्मा से कोई सम्बन्ध ही नही है । इगो मानसिक सघटन का ही एक अश है। उसका स्वय मे कोई महत्व नही है । इगो का कार्य अचेतन मन इड की उधार ली हुई शक्ति के द्वारा अभिप्रेरित होता है । फ्रायड ने इगो को अवचेतन मन का सेवक माना है । अचेतन मन व्यक्ति की इच्छाओ का केन्द्र है । अचेतन के मूल में लिविडो अर्थात् काम प्रवृत्ति सक्रिय रहती है । फ्रायड के अनुसार ग्रह अर्थात् व्यक्ति की समस्त इच्छाओ की प्रेरक काम प्रवृति ही है । सामाजिक मर्यादा के कारण व्यक्ति अपनी दमित वासना की स्वच्छन्दाभिव्यक्ति मे असर्मथ होता है । अतएव
जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
२
१ सिगमंड फ्रायड 'दि इगो एण्ड दि इड', चोथा सस्करण, १६४७, पृ० १५ । 'दि इगो इज फर्स्ट एण्ड ए बाडी.. इगो'.. फ्रायड 'इगो एण्ड दि इड', पृ० ३१ ।
फ्रायड 'इगो एण्ड दि इड' ।
फ्रायड 'इगो एण्ड दि इड', पृ० २६ ।
३
४
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जैनेन्द्र के ग्रह सम्बन्धी विचार
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प्रचेतन मन व्यक्ति की काम वासना को सशोधित करके ही चेतन स्तर पर आने की अनुमति देता है । फ्रायड के अनुसार इगो का प्रतिनिधित्व प्रत्यक्ष-बोध (परसेप्शन) द्वारा होता है यथा अचेतन मन (इड) का प्रतिनिधित्व मूल प्रवृतिया करती है । अचेतन के सतही अर्थात् ऊपरी भाग मे स्थित इच्छाए सदैव चेतन स्तर पर पाने के हेतु प्रयत्नशील रहती है और अवसर मिलने पर अभिव्यक्त हो जाती है, किन्तु पूर्णत दमित इच्छाए अपने वास्तविक रूप मे अभिव्यक्ति प्राप्त करने में असर्मथ होती है। चेतन और अचेतन मन के संघर्ष के परिणाम स्वरूप सुपर इगो की उत्पति होती है। ___ फ्रायड ने व्यक्ति के अचेतन मन पर ही विशेष रूप से कार्य किया है। अचेतन मन मे दो प्रकार की मूल प्रवृतिया (इनस्टिन्क्ट ) सदैव संघर्ष रत रहती है कामेच्छा अथवा स्वरक्षा की प्रवृति और दूसरी विनाश की(डिस्ट्रक्टिव)प्रवृति । चेतन जगत मे यही प्रवृतिया प्रेम (लव) और घृणा के सशोधित रूप मे व्यक्त होती है । ये दो प्रवृतिया ही फ्रायड की दृष्टि मे व्यक्तित्व के निर्माण की आधारशिला है। कामेच्छा व्यक्ति की प्रबलतम प्रवृति है, उसके पूर्ण न होने पर व्यक्ति अपने 'पाब्जेक्ट' को विनष्ट करने लगता है । सामाजिक मर्यादा की दृष्टि से फ्रायड ने कामेच्छा के उदात्तीकरण (सब्लीमेशन) को आवश्यक बताया है जिससे व्यक्ति कला, सगीत आदि मे अपनी प्रवृतियो को स्थानान्तरित करके स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण करता है।
फ्रायड और जैनेन्द्र
फ्रायड के विचारो का स्पष्ट विवेचन करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि जैनेन्द्र के साहित्य मे फ्रायडीय मनोविश्लेषण का पूर्णत निषेध नही किया जा सकता, यद्यपि यह सत्य है कि दोनो के विचारो के मूल मे गहरा अन्तर है । फ्रायड वस्तुवादी विचारक है और जैनेन्द्र अध्यात्मवादी । फ्रायड और जैनेन्द्र मे यदि साम्य है तो वह काम-प्रवृत्ति की स्वीकृति मे ही दृष्टिगत होता है। जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियो मे स्त्री-पुरुष सम्बन्धी विवेचन की अतिशयता को दृष्टि मे रखते हुए नि सन्देह ही जैनेन्द्र के साहित्य पर फायड के प्रभाव को स्वीकार किया जा सकता है । तात्विक दृष्टि से जैनेन्द्र और फ्रायड के विचारो मे अन्तर है। जैनेन्द्र ने अह को बाह्य जगत और अन्त जगत के मध्य द्वार रूप मे स्वीकार किया है। उनके अनुसार प्रात्मजगत का वस्तु जगत से घनिष्ठ सम्बन्ध है। वस्तु जगत मे कर्मशील व्यक्ति ही आत्मोन्मुख होकर मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है । अन्तश्चेतना से प्रेरित होकर कर्म करता हुआ व्यक्ति पुन. आत्मोन्मुख होकर मोक्ष प्राप्ति का प्रयास करता है। व्यक्ति अथवा
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
अहता स्वय मे अपूर्ण है, इसलिए उसकी उपरोक्त प्रक्रिया सदैव चलती रहती है। जब अहता 'पर' मे समर्पण करके शून्यवत अर्थात् अहशून्य हो जाता है तभी उसे परम सत्य अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है।
जैनेन्द्र को मौलिकता
फायड ने अचेतन मन को अपराध की भावना अर्थात् पाप का मूल माना है। जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति अन्तस् प्रेरणा से कार्य करता है, किन्तु उनकी दृष्टि मे व्यक्ति के अन्तस मे पाप अथवा अपराध का भाव नही है । जैनेन्द्र के साहित्य की प्रमुख विशेषता यही है कि वे अहता के मर्मातिमर्म मे भगवत्ता का निवास मानते है । बाह्य और अत जगत् मे सदैव द्वन्द्व चलता रहता है। जैनेन्द्र के साहित्य का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि अन्त और बाह्य जगत के द्वन्द्व के कारण जो भावनाए अभिव्यक्ति प्राप्त करना चाहती है, वे अनैतिक अथवा अपराधमूलक नही है । अचेतन मन मे व्यक्ति की सुषुप्त चेतना निवास करती है। उसका निषेध नही किया जा सकता । जैनेन्द्र के अनुसार अन्त करण मे स्थिति भाव और प्रवृत्तिया हमारे व्यक्तित्व का ही अग है। उनके अनुसार अन्तस् भावो की अभिव्यक्ति का निषेध करना, व्यक्तित्व के समुचित विकास मे अवरोध उत्पन्न करना है। जैनेन्द्र के साहित्य मे चेतन और अचेतन मन का द्वन्द्व सतत् चलता रहता है । उनकी कहानियो उपन्यासो के पात्रो मे अधिकाशत अचेतन मन मे गहरा द्वन्द्व विद्यमान रहता है । जैनेन्द्र के साहित्य की समस्त कथावस्तु चेतन और अचेतन के द्वन्द्व स्वरूप ही विकासित होती है । जैनेन्द्र अह और काशस की उत्पति लाभ मानते है।' उनके साहित्य मे बाह्य और अचेतन अतरजगत मे जो द्वन्द्व दृष्टिगत होता है, वह चेतन और अचेतन के स्तर से ऊपर अहता और भगवत्ता का द्वन्द्व है। जैनेन्द्र के अनुसार अचेतन मे पाप नही है, वरन् भगवत् सत्ता का निवास है। चेतन अचेतन के द्वन्द्व मे पाप की अभिव्यक्ति न होकर अन्तर्भूत भगवत् भावना ही अभिव्यक्त होने के लिए बेचैन रहती है। जैनेन्द्र के विचारो मे उनकी आस्तिका पूर्णत छायी हुई है। यही कारण है कि वे फ्रायडीय अचेतन मन की परिकल्पना को स्वीकार करने में असमर्थ है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से चेतनअचेतन के द्वन्द्व मे सदैव चेतन मन अचेतन को दमित करने के लिए प्रयत्नशील रहता है और अचेतन मन चेतन स्तर पर आने के हेतु विकल रहता है । जैनेन्द्र साहित्य मे अहता और भगवत्ता का द्वन्द्व एक-दूसरे को अवदमित करने के हेतु
१
जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ५४३ ।
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जैनेन्द्र के अह सम्बन्धी विचार
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प्रयत्नशील नही होता। भगवत्ता की अभिव्यक्ति व्यक्तित्व की वास्तविकता को अभिव्यक्त करने में समर्थ होती है। यही कारण है कि जैनेन्द्र अचेतन मन को पाप का पुज नही मानते और व्यक्ति की सुषुप्त चेतना को अभिव्यक्ति का अवसर देकर उसे सहज और स्वस्थ बनाने का प्रयास करते है। अहचेतना भगवत चेतना का ही प्रतिनिधित्व करती है। जैनेन्द्र ने अह को बहुत ही व्यापक और गूढ तथा मौलिक रूप मे स्वीकार किया है। उनकी अह सबधी मौलिक दृष्टि उनके साहित्य मे एक अद्भुत शक्ति का प्रसार करती है, जिससे जैनेन्द्र-साहित्य समस्त हिन्दी साहित्य मे अपना अभूतपूर्व स्थान रखने में समर्थ हो सका है। जैनेन्द्र की प्रक्रिया एकागी नही है। उनके साहित्य मे अचेतन अथवा भगवत्भाव की अभिव्यक्ति करने वाले अहतत्व को सर्वस्व मानकर अह सम्बन्धी विवेचन को सीमित नही किया गया है। अन्तस् भाव बहिर्मुखी होने के अनन्तर पुन अन्तर्मुखी होने के हेतु भी प्रयत्नशील रहता है । यह आत्मोन्मुखता ही जैनेन्द्र के साहित्य का परम आदर्श है। जैनेन्द्र अह की आत्मोन्मुखता मे ही भगवत प्राप्ति का मार्ग दर्शाते है । आत्मा परमात्मा का अश है। प्रात्मोन्मुख होकर ही जीव समस्त भेद-भाव से ऊपर उठकर स्वत्व विसर्जन में समर्थ हो सकता है। मनोविज्ञान द्वारा व्यक्ति के मन मे झाकने का प्रयास किया गया है, आत्मा मे नही । जैनेन्द्र की आस्था मन से भी परे आत्मा मे भगवत्ता के दर्शन करती है । फ्रायड ने चेतन अह को अचेतन मन का अश माना है। जैनेन्द्र अचेतन को सर्वेश्वर नही मानते । उनकी दृष्टि मे परम सत्य ईश्वर ही है और समग्र आत्मा ब्रह्म का अश है और आत्मा मे सक्रियता अहता के कारण ही प्राप्त होती है।
जैनेन्द्र की रचनामो मे अहं की स्थिति
उपरोक्त विवेचन के परिणामस्वरूप हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि अहता और भगवत्ता का मिलन ही वह लक्ष्य है, जिस ओर उनकी अह सबधी समस्त प्रक्रिया उन्मुख होती है । जैनेन्द्र के जीवन और साहित्य का प्राण तत्व अह विसर्जन ही है। उनके साहित्य के रोम-रोम मे समर्पण-भाव ही ध्वनित होता हुअा दृष्टिगत होता है । उपन्यास, कहानी आदि उनकी समस्त रचनाओ मे द्वैत-अद्वैत की प्राप्ति की ओर उन्मुख है । इस प्रकार हमारे लिए यह जानना अनिवार्य हो जाता है कि वे कौन से मार्ग है, जिनके द्वारा जैनेन्द्र ने अहता का
१ 'भगवत्ता मे स्थिति ही है गति नही है । गति के लिए अहता का उदय हुआ
है।' –जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ५६७ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
विगलन किया है तथा पात्रो के मन मे किन तथ्यो को लेकर द्वन्द्व जाग्रत होता है ? इस दृष्टि से जैनेन्द्र के सम्पूर्ण कथात्मक साहित्य का मन्थन आवश्यक है ।
जैनेन्द्र साहित्य के अवगाहन तथा उसकी स्पष्ट ग्राह्यता के लिए जैनेन्द्र के ग्रह सम्बन्धी विचारो को जानना अनिवार्य है । उनकी साहित्य-रचना का मूल भाव प्रभाव ( मैं ) का विसर्जन हे । सामान्यत एकाकी मन अपनी महता को सामाजिक जीवन मे विगलित होते हुए न देखकर साहित्य के माध्यम से ही अपनी आत्माभिव्यक्ति तथा आत्मपरिष्कार करता है । जैनेन्द्र ने भी साहित्य-सृजन मे अपने अह भाव के परिष्कार का मार्ग ही खोजा है । जैनेन्द्र के साहित्य मे शून्यता, भाव, समर्पण आदि विविध रूपो मे ग्रहभाव की अभिव्यक्ति हुई है । जैनेन्द्र के साहित्य प्रभाव को बहुत ही व्यापक परिप्रेक्ष्य मे स्वीकार किया गया है । राजनीति, समाज, धर्म आदि विविध क्षेत्रो मे निहित अह सम्बन्धी विचारो को समझे बिना उनके सम्बन्ध में कोई भी विवेचन पूर्ण नही हो सकता | जैनेन्द्र के अनुसार जिस प्रकार व्यक्ति मे ग्रहभाव होता है, उसी प्रकार समूह की भी ग्रहता होती है । देश राष्ट्र आदि सभी 'स्व-पर' के भेद के कारण ग्रह-भाव से युक्त है। जीवन के व्यापक क्षेत्र मे जैनेन्द्र ने अपनी अहिसात्मक धारणा द्वारा स्व-पर के भेद को मिटाने का प्रयास किया है ।' जिस प्रकार व्यक्ति 'मैं' भाव के कारण 'पर' का निषेध करता है उसी प्रकार पूरे समूह का ग्रह भाव भी 'पर' का निषेध करता है । जैनेन्द्र ने अपनी श्रहिसक नीति के आधार पर विभिन्न मतवादो, दल तथा राष्ट्रगत महता का निषेध करते हुए समष्टि मानव प्रेम तथा आत्मीयता का भाव उत्पन्न करने की ओर बल दिया है । विचारो मे मतभेद होना स्वाभाविक है, किन्तु यदि कोई विशिष्ट सम्प्रदाय अपने ही मत अथवा सिद्धान्तो को सत्य मान कर दूसरे सम्प्रदाय के विचारो का खण्डन करता है तो इस प्रकार समाज मे द्वन्द्व ही बढ़ता है । जैनेन्द्र के अनुसार भौतिकता के वर्तमान युग मे नित्य प्रति होने वाले सघर्ष के मूल मे सामूहिक ग्रहता ही विद्यमान है । व्यक्ति की स्वार्थ भावना ही समूह की अहता को पुष्ट करने में सहायक होती है । जैनेन्द्र के पात्र सदैव त्याग और पर-हित की कामना के द्वारा अपनी ग्रहता को 'पर' के हित मे समर्पित करने के लिए तत्पर रहे है । उनमे पद का लोभ नही है । 'मुक्तिबोध', 'जयवर्धन' मे उनके इन्ही विचारो की झलक स्पष्टत दृष्टिगत होती है । प्रजातात्रिक नीति पर बल देते हुए उन्होने स्व-पर के भेद को वृहद्तर होने से बचाने का प्रयास किया है । सबको अपना हक मिले यही उनका मूलादर्श है । उनकी दृष्टि मे पर को
१ जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', पृ० ६१६-२० ।
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जैनन्द्र के अह सम्बन्धी विचार
उसी प्रकार होने का हक है, जैसे स्व को । अहिसा का मूलादर्श इसी तथ्य मे निहित है । जैनेन्द्र किसी क्षेत्र मे हठवादिता को प्रश्रय नही देते । उनकी यह दष्टि जैन दर्शन के अनेकान्त अथवा स्याद्वाद से प्रभावित है । जैन दर्शन मे प्रत्येक मत सीमित अथवा सापेक्ष दृष्टि से सत्य है, उसी प्रकार जैनेन्द्र के अनुसार विभिन्न दल सम्प्रदाय स्व तक ही सीमित रहने के लिए नही है। उन्हे पर की स्वीकृति भी करनी चाहिए। मतवाद के क्षेत्र मे वे किसी को खण्डित न करते हए सब को अपनी निजता के स्थायित्व का अवसर प्रदान करते है। यही जैनेन्द्र का सामूहिक अह है और अहिसा सामूहिक अह की सक्रियता प्रदान करने का मूलाधार है। श्री वीरेन्द्रकुमार गुप्त ने भी इसी सत्य की ओर इगित किया है।
जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति की अहता का विगलन सर्वाधिक काम-प्रवृति के द्वारा हुआ है । यद्यपि आत्म-समर्पण के विभिन्न मार्ग है, किन्तु जैनेन्द्र की दृष्टि में काम (सेक्स) के क्षेत्र मे व्यक्ति का स्व जितना शून्यवत् हो जाता है, उतना ही अन्य भाव के द्वारा नही । यही कारण है कि उनके साहित्य मे काम-भावना की अतिशयता दृष्टिगत होती है। जैनेन्द्र के साहित्य मे कामभावना की अतिशयता को देखकर सामान्यत वह आलोचना की जाती है कि उनके साहित्य मे कामुकता अधिक है, किन्तु कामुकता और काम-भावना मे बहुत अन्तर है। जैनेन्द्र के साहित्य का अवलोकन करते हुए यह बात पूर्णत स्पष्ट हो जाती है। समर्पण भाव : ___जैनेन्द्र ने मानव-मानव की परस्परता पर बहुत अधिक बल दिया है। वीरेन्द्रकुमार गुप्त के अनुसार परस्परता का महत्वपूर्ण अग नर-नारी सयोग अर्थात् सैक्स है । स्त्री-पुरुप सम्बन्ध को ही केन्द्र मे रखकर जैनेन्द्र ने अपने सम्पूर्ण साहित्य की रचना की है। जैनेन्द्र के अनुसार नर और नारी सृष्टि के दो अग है। दोनो स्वय मे अपूर्ण है । दोनो अपनी प्रशता अथवा अपूर्णता मे पूर्णता की
ओर उन्मुख होते है । उनके साहित्य मे स्त्री-पुरुष के मध्य जो आकर्षण दृष्टिगत होता है, वह उनकी अपूर्णता के कारण ही होता है। 'जयवर्द्धन' भे उन्होने स्पष्टत व्यक्त किया है कि स्त्री-पुरुष का आकर्षण .. एक प्रकार के खण्ड का अखण्डता के अश का पूर्णता के प्रति आकर्षण है । जीवात्मा परमात्मा का आकर्षण है।' उनका विचार है कि स्त्री और पुरुष जब परस्पर इतने लीन १ जनेन्द्र कुमार 'समय और हम', पृ०स० २६ (उपोद्घात से)। २. जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन' (१९५६), दिल्ली, पृ० ३२४ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
हो जाते है कि उनमे स्वत्व और परत्व का भेद मिट जाता है तथा वे स्वत्वहीन हो जाते है, तभी उन्हे प्रभेदत्व अर्थात् परमत्व का साक्षात्कार होता है । इस प्रकार उनकी अहता आत्मोन्मुखता मे विलीन हो जाती है । '
जैनेन्द्र के साहित्य मे 'अस्मि' और अस्ति का द्वन्द्व स्त्री और पुरुष को लेकर ही घटित होता है । अनन्तर में एक स्थल पर उन्होने स्पष्टत स्वीकार किया है कि मूल द्वैत वही है - 'स्त्री-पुरुष' । द्वैत यथार्थ जगत का सत्य है, पारमार्थिक जगत का सत्य नही है । अन्तिम सत्य अद्वैत है । ससार पुरुषमय है । यदि द्वैत को सत्य मान लिया जाय तो ससार द्वैत के स्थान पर द्वन्द्वमय ही रह जायगा, किन्तु मानव प्राणी शान्तिप्रिय है । ऊपर से कितना ही द्वन्द्व क्यो न चलता रहे, किन्तु उसकी अन्त्स आत्मा अभेदत्व तथा प्रेम और शान्ति के लिए तडपती रहती है । जैनेन्द्र के साहित्य का द्वन्द्व स्त्री-पुरुष अथवा स्व-पर अथवा
त और बाह्य जगत को लेकर ही फलित होता है, किन्तु सब के मूल मे प्रेम का अभाव, समर्पण की उपेक्षा ही विद्यमान है । जैनेन्द्र प्रेम के द्वारा ही पारस्परिक अलगाव अथवा द्वैत को दूर करने के पक्ष में है । 'अनन्तर' मे उनकी इस अद्वैतप्रियता के दर्शन होते है । उनके अनुसार ससार मे व्याप्त द्वैत भाव फटकर दो नही हो सकता, क्योकि उनके बीच स्नेह की विवशता है । स्त्री और पुरुष को स्नेह की चुम्बकीय शक्ति ही परस्पर विलग होने से वचित रखती है । जैनेन्द्र के अनुसार 'दोनो उसी मे सफल होने को विवश है । ( उसका हमे क्या अभिनन्दन करना चाहिए ? ) " स्त्री और पुरुष अस्ति के भाव से युक्त है, किन्तु यह 'मैं' 'पर' भाव स्थाई नही है । महता सदैव समर्पित होने के हेतु विवश है । 'स्व' 'पर' मे जहा होड है, वही परस्पर समर्पित होने की भी उत्कट लालसा है ।' 'स्व' 'पर' मे खोकर ही परम सत्य का बोध प्राप्त करने में सक्षम है ।
१ 'स्व' 'पर' के विभिन्न से बने उन सब द्वन्दो की समाप्ति वहा ही प्राप्य हो सकती है जहा स्व-पर भेद पहुचता ही नही है । उसी को भगवत - चेतना का स्तर कहा जाता है ग्रह उसमे विगलित होता है ।'
— जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ५३७ ।
२ जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० स० ३६ । ३ जैनेन्द्र 'अनन्तर' पृ० ३६ ।
४ ' एक मे दूसरे पर विजय की भूख है, किन्तु एक को दूसरे के हाथो पराजय
की भी चाहना है ही । दोनो मे परस्पर होड है, उतनी ही तीव्र जितनी
•
दोनो मे परस्पर के लिए उत्सर्ग होने की अभिलाषा ।'
- जैनेन्द्रकुमार 'सुनीता', १९६४, दिल्ली, पृ० स० १३६-१३७ ।
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जैनेन्द्र के अह सम्बन्धी विचार
१६५ जैनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य मे अहता और परता का द्वन्द्व विद्यमान है, किन्तु इस द्वन्द्व मे परस्पर वैमनस्य नही बढता, वरन् अन्तर्मन को व्यथा की टीस सालती रहती है। उनके अधिकाश पात्र अहता से पीडित तथा व्यथित है। उनका दुखी मन निरन्तर सहज होने का मार्ग ढूढता रहता है । अभावग्रस्त मन सदैव पूर्णता की खोज मे विक्षिप्त रहता है। जैनेन्द्र के साहित्य का जो विषय सामान्यत उनकी आलोचना का विषय है तथा सत्य की उपेक्षा करके आदर्श और मर्यादा का डका पीटा जाता है, वह निरा दम्भ है । जैनेन्द्र ने जीवन के ऐसे सत्य को उधार कर रख दिया है जो प्रत्येक आदर्शवादी तथा सन्यासी और पडित के मन को भी कुरेदता रहता है । अन्तर यह है कि लोग उस कुरेद को पाप समझ कर पचा लेते है और अभिव्यक्त करने का साहस नही कर पाते, किन्तु जैनेन्द्र ने बडे साहस के साथ जीवन के महत्वपूर्ण सत्य को दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य मे प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । यह सत्य है कि उनके साहित्य मे स्त्री-पुरुष सम्बन्ध के वर्णन की अतिशयता है, किन्तु यह अतिशयता कामुकता (ऐन्द्रियकता) की परिचायक नही है। यह तो लेखक की विशिष्टता की ही परिचायक है । लेखक ने एक क्षेत्र मे आत्मसात् होकर मानव जीवन की सत्यता को स्वानुभव की पीठिका पर चित्रित किया है । शास्त्रीय ज्ञान मे खटकने वाली बात हो सकती है, किन्तु स्वानुभव तो सत्यता को ही अभिव्यक्त करने मे समर्थ है।
प्रत्येक व्यक्ति में अपने अस्तित्व का बोध होते ही रिक्तता की अनुभूति होने लगती है । 'मै क्यो' का प्रश्न प्रतिक्षण उसे सालता रहता है । इस प्रश्न के साथ ही उसमे यह भावना जाग्रत होती है कि 'मै उसमे होऊँ' 'वह मुझमे हो' । इस प्रकार दोनो एक-दूसरे मे खोकर अपने अस्तित्व को सार्थक करना चाहते है। एकाकी अह अथवा द्वैत सभव ही नही हो सकता। जैनेन्द्र की समस्त कहानियो मे समर्पण-भाव कूट-कूट कर भरा हुआ है। 'एकरात', 'ग्रामोफोन का रिकार्ड','प्रियव्रत', 'मित्र विद्याधर','गवार', 'रत्नप्रभा','टकराहट', 'रानी महामाया', 'दिन-रात-सवेरा' एव 'अविज्ञान' आदि कहानियो मे 'स्व'-'पर' द्वन्द्व तथा समर्पण की भावना स्पष्टत दृष्टिगत होती है । 'एक रात'' शीर्षक कहानी मे जैनेन्द्र ने जयराज और सुदर्शना के समर्पण का जो स्वरूप प्रस्तुत किया है उसे देखते हुए मन आर्द्र हो उठता है । वासना कोसो दूर चली जाती है। जयराज प्रतिभाशाली व्यक्ति है। उसे चारो ओर से मान-सम्मान की प्राप्ति होती है,
१ स० शिवनन्दनप्रसाद 'जैनेन्द्र प्रतिनिधि कहानिया', प्र० स०, दिल्ली,
१६६६, पृ० स० १०६ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
किन्तु फिर भी उसके मन मे एक काटा चुभता रहता है। वह नही जानता कि ऐसा क्यो है ? उसके अचेतन मन मे जो काटा है वही उसे असन्तुलित किए रहता है। वह राष्ट्र-सेवा मे व्यस्त रहकर अपने मन के प्रभाव और सत्यता की उपेक्षा करता रहता है । सुदर्शना के उन्मुक्त समर्पण को भी वह सहसा स्वीकार नही कर पाता। उसकी उग्र अहता हठीली बनी रहती है किन्तु जिस क्षण सुदर्शना अपना स्वत्व जयराज की गोद मे समर्पित कर देती है, उस क्षण जयराज मे एक अद्भुत स्निग्धता का प्रसार होता है । वस्तुत अहता समर्पण के अभाव मे शुष्क और कठोर बनती है। सयम व्यक्ति का दम्भ है। एक रात' मे सुदर्शना का समर्पण इतना प्रतीन्द्रिय है कि उसमे वासना का लेश भी नही मिल पाता । आत्म-विसर्जन द्वारा वह इतनी पूर्ण हो जाती है कि विराट प्रकृति में उसके लिए कुछ भी अशेष नही रह जाता है । वह सर्वस्व स्व मे समाकर ब्रह्माण्ड की विराटता मे खो जाना चाहती है । 'ग्रामोफोन का रिकार्ड' आदि कहानियो मे भी पात्रो की समर्पण-भावना उत्कृष्ट रूप मे लक्षित होती है । जैनेन्द्र के साहित्य मे स्त्री-पुरुष की अहता अथवा 'मैं' 'पर' का भेद समर्पण मे तिरोहित होकर उन्हे शून्य बना देता है। उस शून्यता मे परब्रह्म की सत्ता का साक्षात्कार प्राप्त करने में समर्थ होते है। अहता की परमात्मोन्मुखता ही जैनेन्द्र का परम आदर्श है । 'अहता' और 'परता' का द्वैत ही द्वन्द्व का मूल है । जब द्वैत मिट जाता है और व्यक्ति स्वत्वहीन हो जाता है तभी उसे परब्रह्म की प्राप्ति होती है। अशता पूर्णता मे विलीन हो जाती है। जैनेन्द्र के अनुसार 'स्त्री' पर है तब तक उसे पराभूत करने की आवश्यकता हममे रहने ही वाली है। वही स्त्री मे पुरुष के प्रति । वह 'परता' प्रेम की सघनता मे मिट सकती है । तब परस्पर स्खलन की वासना रह नही जाती। काम वही तक है जहा तक भान है । प्रलय द्वन्द्व मे मात्र द्वैत की ही क्रीडा है । स्त्री जिस गुण की प्रतीक है, वह हममे आत्मसात् हो रहे तो परत्व भाव मिट जाय । वस्तुत जैनेन्द्र-साहित्य मे अहता का समर्पण सर्वाधिक स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध द्वारा ही विशुद्ध रूप मे सम्भव हो सकता है।
१ 'मैने अपने स्नेह को स्वीकार करना न चाहा। मैने इसे इकार कर शून्य
कर देना चाहा। आज तुमने मुझे सीख दी कि यह सब वृथा था, मेरा अहकार था। इस अहकार मे मुझसे यज्ञ क्या बनता ? राष्ट्र-सेवा क्या बनती ? आज मैने जाना, स्नेह अगीकरण के लिए है, अस्वीकरण के
लिए नही। ' -जैनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया', पृ० ११६ । २ जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', पृ० स० ३२४ ।
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जैनेन्द्र के ग्रह सम्बन्धी विचार
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जैनेन्द्र ने राधा-कृष्ण के प्रदर्श को अपने साहित्य में स्थापित किया है । उनके साहित्य मे राधा - कृष्ण तथा गोपी प्रेम का आदर्श स्पष्टत परिलक्षित होता है । पुराणो मे यह कथा प्रचलित है कि गोपियो में राधा के प्रति ईर्ष्या होती है तथा उसमे स्वय और कृष्ण के मध्य द्वैत भाव विद्यमान होता है । कृष्ण की अलौकिक माया के कारण रास लीला करती हुई गोपिया इतनी कृष्णमय हो जाती है कि उन्हे अपने स्वत्व का बोध भी नही रह जाता और वे कृष्णमय हो जाती है । यही है जैनेन्द्र का आदर्श, जिसके कारण 'मैं' भाव 'पर' में समर्पित होकर इतना लीन हो जाता है कि द्वन्द्व का प्रश्न ही नही
उठता ।
'सुनीता' मे हरिप्रसन्न स्वय को अविजित समझता है, किन्तु यह उसका विभ्रम है । जब तक वह अपने अन्तर्मन के रहस्य को नही खोलता, तब तक वह अतृप्त और बेचैन रहता है। सुनीता का पूर्ण समर्पण हरिप्रसन्न के अतृप्त मन के द्वन्द्व को शान्त कर देता है ।"
'कल्याणी' ग्रह विसर्जन के अभाव मे कभी भी सहज नही हो पाती। उसे अपना प्रस्तित्व सदैव पीडित करता है । उसका जीवन बोझ बन जाता है । वह डा० असारी की विवाहिता अवश्य थी किन्तु पति के समक्ष वह पूर्ण समर्पण मे असमर्थ होती है, क्योकि पूर्ण समर्पण तो प्रेम मे ही सभव हो सकता है । वह परिस्थितिवश अपने प्रेमी से दूर हो जाती है । अतएव उसकी 'मै' भावना उसे विक्षिप्त किए रहती है । उनके मन मे अन्तर्द्वन्द्व बना रहता है, जिसके कारण वह किसी भी कार्य मे सहज नही हो पाती तथा परिष्कार करने का प्रयत्न करती है । उसकी पूजा-अर्चना मे भक्ति भाव से अधिक मानसिक द्वन्द्व की ही अभिव्यक्ति होती है । सामान्यत व्यक्ति अपने मन की सत्यता को व्यक्त करने
असमर्थ होने के कारण उसे विभिन्न कार्यों मे प्रक्षेपित करता है । कल्याणी के समस्त क्रिया-कलाप उसके अहता की प्रभावग्रस्तता के ही परिणाम है । यदि वह प्रीमियर के समक्ष समर्पित हो सकती तो सम्भवत उसका मन इतना पीडित न होता और वह अपने गृहस्थ जीवन को भी व्यवस्थित बना लेती । 'त्यागपत्र' मे मृणाल का सामाजिक दृष्टि से जो अध पतन होता है, वह उसके आत्मविगलन का ही परिणाम है । वह स्वय को अधिक से अधिक कष्ट देकर
१. 'सकुचन मे से ही अहकार का उदय है, भय की भीति है । मानो कुछ उसके भीतर से व्यग्य करता हुआ उठता है—क्यो तू अविजित है ? तू जयी है ? रे तू तो अधम है, अधर्म है ।
-- जेनेन्द्रकुमार 'सुनीता', पृ० १२६ ।
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अपने मन के प्रेम को पुष्ट करती है । "
वस्तुत जैनेन्द्र- साहित्य मे बाह्यरूप मे जिसे हम पाप समझते है, अथवा भौतिक समझते है, उचित नही है । जैनेन्द्र के अनुसार जो पापी दिखाई देता है वह मूल मे दुखी ही है ।' 'पानवाला' कहानी मे पानवाला देखने मे दुश्चरित्र लगता है। महिलाओ की ओर उसकी ताक - भॉक मे शिष्टता ही प्रदर्शित होती है । उसकी पूरी कहानी से परिचित होने से पूर्व कौन कह सकता है कि उसके मन के कोने मे कितना गहरा दर्द भरा है जो उसे ऐसा कृत्य करने के लिए विवश किए हुए है । प्रेम के कारण वह स्वयं को त्रास देकर अपनी आत्मा का परिष्कार तथा प्रायश्चित करता है ।
जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन
इस और सैडिज्म
फ्रायड के अनुसार मानव के अचेतन मन मे दो प्रकार की मूल प्रवृत्तिया होती है-- पहली इरोस या काम भावना, जिसे प्रात्मरक्षा की प्रकृति भी कह सकते है और दूसरी सेडिज्म अर्थात् पर- पीडा रति । जैनेन्द्र- साहित्य में उपरोक्त दोनो प्रवृत्तिया दृष्टिगत होती हे । काम प्रवृत्ति ( लिबिडो ) का स्व-रक्षा ( सेल्फ डिजविग ) रूप जैनेन्द्र के साहित्य में अस्तित्व और सृष्टि विस्तार के रूप मे प्राप्त है । काम-भावना के द्वारा ही सृष्टि का विकास होना है । सेडिज्म अर्थात् पर पीडा रति द्वारा व्यक्ति की अता परता को त्रास देने में ही सन्तुष्ट होती है । काम अर्थात् स्त्री-पुरुष सम्बन्ध मे परपीडा रति ही विशेष रूप से सहायक होती है | त्रास देने और लेने मे ही आनन्द की उपलब्धि होती है । केवल काम-प्रवृत्ति के क्षेत्र मे त्रास देने में अहता का विगलन होता है, किन्तु इससे परे व्यक्ति स्वय कष्ट झेलकर ही आत्म-परिष्कार कर सकता है । जैनेन्द्र के साहित्य मे 'ग्रामोफोन का रिकार्ड', 'एक रात' एव 'विज्ञान' आदि कहानियो मे स्व को मिटा देने की उत्कट लालसा दृष्टिगत होती हे । 'ग्रामोफोन का रिकार्ड' मे पर- पीडन के प्रभाव मे मानसिक विक्षोभ मन को व्याकुल कर देता है और अन्त में 'मैं' को कुचल देने की अभीप्सा जाग्रत होती है । प्राय देखा जाता है कि काम भावना से ग्रस्त व्यक्ति पर
१ 'पशु पाप नही कर सकता, मनुष्य कर सकता है तो इसलिए कि वह उस पद्धति से आत्माविष्कार कर सके ।'
- जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', पृ० ५४४ । 'समय और हम', पृ० ५४४ ।
२ 'पापी को दुखी ही मानिए- - जैनेन्द्र कुमार ३ जैनेन्द्र की कहानिया [ भाग छ ], पृ० ५२ ।
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जैनेन्द्र के अह सम्बन्धी विचार
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(आब्जेक्ट) को मारने मे अपनी अहता की तुष्टि करता है तथा 'पर' (स्त्रीत्व) पीटे जाने मे ही सतुष्ट होता है । 'मृत्युदण्ड'' शीर्षक कहानी में पति द्वारा पत्नी के पीटे जाने मे एक प्रकार से काम भावना और अहता का ही पोषण होता है। कल्याणी को जब पीटा जाता है तो वह स्वय को अपमानित नही समझती वरन् इस प्रकार वह अपनी आत्मा का परिष्कार ही करती है। मानो ताडना ही उसका भोग्य है।
जैनेन्द्र के साहित्य मे पर-पीडन-रति से अधिक 'आत्म-पीडन' की भावना ही प्राप्त होती है, क्योकि उनके पात्र दूसरे को त्रसित करने से अधिक 'स्व' को विगलित और दलित करने में अधिक सन्तुष्ट होते है । जैनेन्द्र का आदर्श आत्म पीडन मे विशेषत फलित होता है। मृणाल स्वय को कष्ट देने के लिए ही अपने भतीजे के पास नही जाती। वह नहीं चाहती कि उसके कारण कोई अपमानित हो । अतएव वह स्वय सारे कष्ट झेलते हुए भी आत्मतुष्टि की प्राप्ति करती है। जैनेन्द्र के साहित्य मे आत्मपीडन की भावना सामाजिक स्तर पर भी दृष्टिगत होती है । 'साधु की हठ' शीर्षक कहानी मे आत्म-पीडन का उत्कृष्ट रूप प्राप्त होता है । साधु एक गृहस्थ के घर भीख मागने जाता है, किन्तु प्रतिफल मे उसे शरीरिक ताडना मिलती है तथा गृहस्वामिनी को भी अत्यधिक पीटा जाता है । बेचारा साधु बहुत दुखी होता है । उसके मन मे यही भावना जाग्रत होती है कि सम्भवत उसमे कही अहता छुपी है अथवा उसके आचरण मे ही दोष है, उसकी भक्ति मे दोष है जिसके कारण बेचारी गृहस्वामिनी को पति द्वारा बुरी तरह पीटा जाता है । साधु ईश्वर के समक्ष अपने को स्वत्वहीन तथा अहकारशून्य बनाने के हेतु प्रार्थना करता है। पति (दरोगा) के क्रोध मे उसे अपना ही दोष प्रज्जवलित होता हुआ दृष्टिगत होता है। इस प्रकार वह अन्तत स्वय पीटा
१ जैनेन्द्र की कहानिया, नवा भाग, प्र० स०, १६६४, दिल्ली, पृ० स० ७८ । २ जैनेन्द्र कुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ६, तृ० स०, १९६३, पृ० ५। ३ ... अोह प्रभु क्या मैने नही चाहा कि वह सब कुछ मुझमे से मिट जाय जो
तेरा नही है ? क्या अपने को तुझे सौप कर तुझसे नही प्रार्थना की कि मुझमे, मेरे रोम-रोम मे, मेरे अणु-अणु मे तू ऐसा रम बैठे कि किसी ओर भाव को कही स्थान ही न रहे ? . 'मैं क्या करू, जिससे वह व्यक्ति उस क्रोध के परिणाम से धुल जाय, जो मेरे कारण उसमे पैदा हुआ है ? उस बेचारे का अपराध नही। ...उसकी आत्मा को प्रात्म-पीडन और आत्मत्रास के भार से हलका कर देना होगा। अगर मै गुस्सा पैदा कर सकता ह तो गुस्से की मार भी जरूर मुझ पर पडनी चाहिए, लेकिन उस माता
को क्यो तू पिटने दे सका ?...। -जैनेन्द्र कुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया,' भाग ६, तृ० स०, १९६३, पृ० १४ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
जाकर उस व्यक्ति के अन्तस से क्रोध (अहकार) को नष्ट करना चाहता है। अन्त मे वह सफल भी हो जाता है। साधु के द्वारा जैनेन्द्र ने आत्म-पीडन का बहुत उच्चादर्श व्यक्त किया है । कोई भी व्यक्ति किसी को कष्ट देकर स्वय सन्तुष्ट नही हो सकता । पति भी जब तक विनम्र नही हो जाता तब तक उसकी (पति की) अहता उसे पागल बनाए रहती है। प्रेम और समर्पण मे ही अहता के परिष्कार की सम्भावना देखी जाती है । समर्पण अन्तत ईश्वरोन्मुख ही होता है। ___ उपरोक्त सैडिज्म (पर-पीडा) और काम-प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व प्रेम और घृणा की प्रवृत्तियो द्वारा होता है । प्रेम मे आत्मरक्षा की भावना होती है, किन्तु घृणा मे विध्वसात्मक प्रवृति जाग्रत हो जाती है, जिसे फ्रायड ने 'डेथ इन्स्टिक्ट' कहा है । जैनेन्द्र के साहित्य मे घृणा का प्रतिरूप ध्वसात्मक प्रवृति के रूप मे फलित होता है । जितेन अपने प्रेम-पात्र की अप्राप्ति तथा समर्पण के अभाव मे प्रतिक्रियावादी हो जाती है । उसकी अहता तोड-फोड मे ही तुष्टि प्राप्त करती है । जितेन द्वारा गाडी के पलटने भुवन मोहनी को जगल मे ले जाकर भयभीत करने मे उसकी उग्र अहता का ही प्रदर्शन होता है । किन्तु इस वसात्मक चेष्टा से अहता विगलित नही होता, वरन् और भी कठोर बनता जाता है। 'रत्नप्रभा'३ शीर्षक कहानी मे रत्नप्रभा का एकाकी जीवन उसे विक्षिप्त तथा कठोर बना देता है । किसी के स्वेच्छद हास-परिहास से उसके मन मे कचोट होती है । उसके अचेतन मन मे वासना का जो रूप सुषुप्त है, वह चेतन पर सतोष प्राप्ति का विकृत मार्ग ढूढता है। छोटे-से भोले बालक को वह कामोत्तेजक पुस्तके बेचने के लिए डाटती है। उसके मन मे कही से आवाज आती है कि वह ऐसी पुस्तके स्वच्छन्द रूप से क्यो बेचता है । उसका मन खुल नही पाता। उसमे कुठा होती है, इसीलिए वह बालक को पीटती है । वह उसे पीट कर अपनी अहता को पुष्ट करना चाहती है, इस प्रकार उसका अहभाव और भी उग्रतर होता जाता है। उसे आत्म-त्राण नही मिल पाता। उसके हृदय के प्रेम ने निषेधात्मक आचरण अपना लिया है। यही कारण है कि भोला बालक उसके वैभव की ओर भी आकृष्ट नही होता । रत्नप्रभा अपने वैभव के मद मे चूर होती है। बालक को लेकर वह एकान्त मे रहने के लिए नैनीताल भी जाती है, किन्तु वहा भी उसे सन्तोष नही
१ Fraud - ‘Ego and the Id' २ जैनेन्द्रकुमार 'विर्वत', १६५३, प्र० स०, दिल्ली, प.० २५६ । ३ जैनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया' (स० शिवनन्दनप्रसाद), दिल्ली, १९६६, पृ०
२७६ ।
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जैनेन्द्र के ग्रह सम्बन्धी विचार
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मिलता । और अन्त मे वह विषाद-रोग (मेलन कोलिया) से ग्रस्त हो जाती है, क्योकि कोई उसकी अन्तस्-पीडा को नहीं समझ पाता और न ही वह उसे खुलकर व्यक्त करने में समर्थ होती है । वह नही जानती की वह क्या चाहती है, फिर भी अन्दर से सब शून्य है । बीमारी की अवस्था मे जब अचानक वह बालक उसके सम्पर्क मे आता है तो वह फूट पडती है। उसका अन्तस् विगलित हो उठता है और वह बालक के नेत्रो मे छलकते स्नेह-रस मे सब कुछ पाकर तुष्ट हो जाती है। अन्तत बालक की विनत कर्मशीलता ही रत्नप्रभा के अह को परिष्कृत करके ईश्वरोन्मुख करने में समर्थ होती है। रत्नप्रभा का धन-मद चूर हो जाता है । अहकार के कारण ही वह अकिचन बालक का स्नेह प्राप्त करने मे असमर्थ थी। धन के वैभव से पूर्ण होते हुए भी वह स्नेह के अभाव मे शुष्क बनी रहती है। अन्त मे उसे ज्ञात होता है कि 'लक्ष्मी चचल है और अकिचन भक्ति ही व्यक्ति का सर्वस्व है। यह मै तुममे देख सकी । अहकार की जगह यह बात मुझ मे बसी रहे इसके लिए सदा तुम्हारा ध्यान धरूगी।३
जैनेन्द्र के साहित्य मे अहतप्त चेतना मानो सदा हारने को तडपती रहती है। प्रतिष्ठा और मान-सम्मान की प्राप्ति के अनन्तर भी मन मे एक रिक्तता बनी रहती है । व्यक्ति उसे कितना भी दबाना चाहे तथा स्वय पर विजय प्राप्त करना चाहे किन्तु वह सर्मथ नही हो पाता । एकान्त मे एकाकी अह विक्षिप्त हो उठता है, उसे अपनी अहता का बोध त्रास देने लगता है । समर्पण के अभाव मे सब कुछ व्यर्थ प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति मे जो चेष्टाए होती है, वे हिस्टीरिया की ही पर्याय होती है । हिस्टीरिया मे व्यक्ति की अह-चेतना इतनी
१ 'इस छद्मवेश मे क्यो जी, तुम क्यो आए ? यह तो परीक्षा का कायदा
नही है । लेकिन जब मैं तुम्हे पहचान गई हू, छलना मे आने वाली नही हूँ। मेरे ज्ञान की परीक्षा ही लेने आए हो न तुम, बैरागी ? मुझे मान पर चढाकर झुकते चले गये, झुकते चले गये । अब मै यह खेल समझ गयी हू, मेरे म्हाने चाकर राखो जी, प्रभु म्हाने...।'
---जैनेन्द्र प्रतिनिधि कहानिया, पृ० २६५ । २. मूल द्वन्द्व 'मै' और 'स्व' मे है उसी को कहिए अह का और अखिल का
द्वन्द्व । भगवान समष्टि मे व्याप्त है-'वह सागर है मै बूद हूँ' । यही मूल द्वन्द्व है।
-जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ५३६ । ३ जैनेन्द्र प्रतिनिधि कहानिया, पृ० २६६ । ४. जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ५३६ ।
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जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन
उग्र हो जाती है कि सामने ही समर्पण न मिलने पर वह अपने शरीर को ही नोचता खसोटता है। ऐसी स्थिति 'फोबिया'' मे भी पाई जाती है । 'दिन रात सबेरा'२ मे माननीय कवियत्री अपने अहता के बोझ को सहन नही कर पाती 'वह जैसे चाहती है कि शरीर ही न रह जाए, सब बर्फ की सिल ही बन जाए। सब सवेदन जडीभूत होकर शून्यवत् हो जाय । मै होकर जो तू को खोजना और याद रखना पडता है सो मुसीबत के सिवा क्या है ? मै ही मिटे तो कितना अच्छा कि सब 'उस' और 'तुम' को एक बार ही छुट्टी मिल जाए।' उसके मन मे यही चीत्कार उठता है कि 'मै क्यो, मै क्यो ? और वह स्वय को दलित होते हुए पाती है। हिपनोसिस की स्थिति मे वह स्वय नोचती-खसोटती है । उन्मादावस्था मे वह देखती है कि 'उसको दला और मसला जा रहा है उनका ही चेहरा पीडा से और आनन्द से विह्वल हुआ जा रहा है। अपनी ही काया दीखती है और हर घोरता, हर बर्बरता, हर अभ्यर्थना ओर हर पूजा मे उसे अपनी काया मे पुलक भरता भी दीखता है । इस प्रकार कवियत्री अपने अहता को विगलित करती है। उसका वहशीपन कामुकता नहीं, वरन् सहजता की प्राप्ति का प्रयास है। प्रत्यक्षत वह पुरुषो मे माननीय समझी जाती है। उसे उन पर ही उठाया जाता है, किन्तु उनकी अहता किन्ही चरणो मे विसर्जित होने के हेतु उन्मत्त रहती है। अतएव वह परिकल्पना मे नही पर की उपस्थिति की अनुमति करती है । जैनेन्द्र के अनुसार मानव जीवन के इस महत्वपूर्ण सत्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती । समाज मे व्यक्ति मर्यादित हो सकता है, वहा उसकी विवशता होती है, किन्तु एकान्त मे वह अपने अन्तस् मे आलोकित सत्य की अभिव्यक्ति किए बिना सहज नही हो पाता । जैनेन्द्र के अनुसार सत्य की उपेक्षा करके कभी भी सहजता और स्वास्थ्य की कल्पना नही की जा सकती। उनके साहित्य मे कामजन्य जो भी चेष्टाए घटित होती है, उनमे कही भी अपनी ओर से होता हुआ प्रयत्न दृष्टिगत नही होता। प्रयत्न मे व्यक्ति की ऐन्द्रिकता का भान होता है । ऐसा प्रतीत होता है कि वह स्व के प्रति बहुत सजग है, किन्तु 'नि स्व होकर घटित होने वाले भाव मे अन्तर्मन की जटिलता
१ जार्ज एलिन 'साइकोएनालिसिस-टुडे', प्र०स०, १६४८, ब्रिटेन, । २ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया, नवा भाग, प्र०स०, दिल्ली, १६६४ । ३ जैनेन्द्र की कहानिया, नवा भाग, प्र०स०, दिल्ली, १९६४, पृ० १७६ । ४ 'सभ्य व्यापार मे जिन्हे बर्बर और अमानुषिक मानते है, ऐसे काटने-नोचने
आदि के कृत्यो मानो परस्पर को आनन्द और तृप्ति देने वाले होते है। इस मिथुन योग मे मानो हमारा कब अहकृत लुप्त हो जाता है।'
-जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ०स० ५२५ ।
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जैनेन्द्र के ग्रह सम्बन्धी विचार
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ही सहजोन्मुख होती है ।" यही कारण कि जैनेन्द्र की दृष्टि मे पाप शरीर तक ही सीमित नही है । उनके अनुसार पाप पर के निषेध मे है सत्य के दुराव मे है, सत्य की स्वीकृति मे नही । जैनेन्द्र के साहित्य मे ग्रहचेतना से तप्त व्यक्ति फूट-फूट कर रोते हुए पाए जाते है । रोकर वे अपनी आत्मा का परिष्कार तथा स्वत्व का विसर्जन करते है ।
काम और ब्रह्मचर्य
जैनेन्द्र के साहित्य मे सदैव महता पराजित होते हुए भी दृष्टिगत होती है । उनकी रचनाओ मे ग्रह को विजित करने का दम्भ सदैव पराभूत हुआ है । ह को विजित करके ब्रह्मचर्य की प्राप्ति हो सकती है यह व्यक्ति का बल है । यदि कोई व्यक्ति काम की उपेक्षा करके स्वय को देवत्व के आसन पर प्रतिष्ठित करना चाहता है, तो उसे अन्तत निराशा और अशान्ति की प्राप्ति हो सकती है । सासारिक सम्बन्धो की उपेक्षा करके तथा इन्द्रियो को पूर्णत सयमित करके ब्रह्मचर्य की साधना करने वाला व्यक्ति अपनी अतृप्त वासना के कारण कही का भी नही रहता । उनके मन मे भावना बस मथती रहती है कि वह विजित है उसने स्व को वश मे कर लिया है । जैनेन्द्र के अनुसार ब्रह्मचर्य की प्राप्ति ब्रह्म की चर्या मे ही सभव हो सकती है। प्रत्येक जीव मे ब्रह्म का निवास है । पर के निषेध से ग्रह - रति बढती है। मानव प्राणी व्यावहारिक
१
'ऐसा नही प्रतीत होता कि हमने चेष्टा करके आवरणो को एक-एक कर हटाया है, मालूम ऐसा होता है कि जो सच ही था उसे सहज स्वीकार कर लिया है, विशेष चेष्टा की आवश्यकता नही हुई है । '
- जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ५४८ । 'नर-नारी का द्वन्द्व द्वैवत आदिम है, मौलिक है। इसी कुजी से मानव व्यवहार खुलेगा तो खुलेगा । दुनिया मे शान्ति और युद्ध का प्रश्न है। घटना के पट पर रखकर देखे तो वह हिसा-अहिसा का प्रश्न हो जाता है । पर दीखता है कि वह काम और ब्रह्म की चर्या से अलग प्रश्न नही है ।' — जैनेन्द्रकुमार 'अनन्त', पृ० ६६ । ३ ' हममे जितना जो है, वह अपने आप मे पर है । अब भगवान वह जो पर है, स्व मे भी है । ग्रह वह जो स्व मे ही है, पर मे एकदम नही है ।' - जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ५३६ । ४ 'जिसको दृढता समझा जाता है वह कही भीतर की रिक्तता तो नही है । मेरी स्वावलम्बिता कही मेरी स्व-रति तो नही है । अपने को बाटा नही है पूरी तरह सयुक्त जो रखा है— सो यह निपट ग्रह का अवलम्ब तो नही है ।' -जैनेद्रकुमार 'व्यतीत', दिल्ली, प्र० स०, पृ० स० १० ।
मे
२
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
जगत मे रहकर ही प्रतिभाशाली तथा महान बन सकता है, किन्तु ससार की उपेक्षा करके देवत्व को प्राप्त करने की अभिलाषा मात्र दम्भ नही है। जैनेन्द्र के साहित्य मे हमे ब्रह्मचर्य की नितात व्यावहारिक दृष्टि के दर्शन होते है। 'बाहुबली', 'विचारशील', 'व्यर्थ प्रयत्न', 'टकराहट' तथा 'जयवर्धन' आदि कहानियो मे जैनेन्द्र ने अहता का निषेध करते हुए समष्टि मानव की स्वीकृति को ही परम आदर्श माना है। बाहुबली राज-पाट त्याग कर अपने शरीर को तप से कृषित करता है, फिर भी उसे मोक्ष नही मिल पाता और ससार का भोग करने वाले भरत को केवल्य की प्राप्ति हो जाती है, क्योकि उसमे 'स्व' को विजित करने की अहता नही होती, वह स्वय को मानव-सेवा मे समर्पित कर देता है किन्तु बाहुबली के मन मे वह अहकार उत्पन्न हो जाता है कि मैं विजित है । यही काटा उसके केवल्य की प्राप्ति मे बाधक है। इसीलिए बाहबली तपस्या छोडकर सब के प्रति प्राप्य बन जाता है।'
'विचार शक्ति' मे राकेश आचार्य के सान्निध्य मे बहुत ही सयमपूर्वक रहता है । भक्तगण तक उनकी पूजा करते है किन्तु राकेश का मन भीतर से अशान्त और उद्विग्न बना रहता है। उसके मन मे अपनी अहता तथा झूठे ढोग का बोध होता है और वह अपने प्राण पाने के हेतु विकल रहता है। वह सहज बनना चाहता है । वह सोचता है कि क्या इन्द्रियो को वश मे करने के कारण ही पूज्य है। उसके मन मे अन्तर्द्वन्द्व चलता रहता है । कभी वह ससार की ओर झुकता है और कभी झूठी मर्यादा उसे अपनी ओर खीचती है । अन्तत वह ससार की उपेक्षा नही कर पाता। सासारिक स्त्री के समक्ष वह अपने मन के रहस्य को बार-बार छिपाता है, उसे 'माता' कहकर सम्बोधित
१ 'बाहुबली विजित है । यह वह बेचारा नही भूल सकता है।'
-जैनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया', पृ० १७८ । २ 'मै सब के प्रति सदा सुप्राप्त रहने की स्थिति में ही अब रहूगा।'
--जनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया', पृ० १७६ । ३ बाहर की ओर खुलने वाली सब इन्द्रियो को अपने मे प्रात्मस्थ करना
पडता है। इस सबसे ही क्या वह मनुष्य न होकर देव हो गया है ? या सामने पसारी जन मनुष्य से पशु बन गये है।
-जैनेन्द्र की कहानिया, नवा स०, पृ० १६१ । ४ 'ससार निन्दनीय और वन्दनीय नही है।'
-जैनेन्द्र की कहानिया, नवा स०, पृ० १३५ ।
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जैनेन्द के ग्रह सम्बन्धी विचार
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करता है, किन्तु अन्त मे सासारिक प्राणियो द्वारा ही उनका मद चूर हो जाता
'जयवर्धन' मे इला नहीं चाहती कि जय देवता बना रहे। उसे अलौकिक पुरुष बनाकर अतृप्त नही रहना चाहती। अन्तत उसका स्नेह ही विजित होता है। वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार ससार की उपेक्षा करके देवत्व की प्राप्ति की चेष्टा मे व्यक्ति की अहता का ही प्रदर्शन होता है जो कि सहज और स्वाभाविक नही है।
अहकार
जैनेन्द्र ने मानव जीवन मे कोने से परे अह के निषेधात्मक अहकारमूलक रूप का भी विवेचन किया है । अह भाव आत्मरति से परे प्रतिष्ठा, परिग्रह, पदलोलुपता के रूप मे भी फलित होता है । जैनेन्द्र के अनुसार अहकार हिसाकारी पर्याय है । ससार मे वही व्यक्ति वास्तविक रूप मे पूज्य और, माननीय बन सका है, जिसने स्वय को कुछ भी नही समझा । गाधी, ईसा आदि अपने लिए नही जिए और न ही अपने लिए मरे । उनका जीवन मानवता को समर्पित था । स्वार्थ भाव से युक्त व्यक्ति क्या देवता भी शान्ति नही प्राप्त कर सकता। जैनेन्द्र की 'भद्रबाह' शीर्षक कहानी मे इन्द्र अभिमान के कारण ऊपर उठने की लालसा मे नीचे नही देखना चाहता। वह स्वय को ही सर्वेश्वर समझता है किन्तु उसे चैन नही मिलता वह अविजित होने की लालसा मे व्याकुल रहता है, किन्तु इन्सान कुछ नया होकर ही अजेय बन जाता है । अभिमानी द्वन्द्व मानव जीतना चाहता है किन्तु वह नहीं जानता कि अहशून्य होकर ही किसी को जीता जा सकता है, क्योकि वास्तविक जय तो हृदय को जीतने मे है और वह प्रेम और नम्रता के मार्ग मे ही सुलभ हो सकती है। ___ वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिमानी व्यक्ति का मद प्रेम के समक्ष सदैव ही पराभूत हुआ है। उसके समक्ष सत्य एक है अनेकता स्थिर नही रह सकती । द्वेत
१ जैनेन्द्र की कहानिया, नवा स०, पृ० १३५ । २ 'जब वह कुछ नही चाहता तभी वह अजेय है।'
-जैनेन्द्र प्रतिनिधि कहानिया, पृ० १८६ । ३ 'अभिमान रखकर किसी का भाव तोडा नही जा सकता है। पर जिसके पास नही है, उसके पास आसू ले के जायगा तभी जीतेगा।।
-जनेन्द्र प्रतिनिधि कहानिया, पृ० १८७ । ४. 'प्रेम मे अस्तित्व गलता है।' जनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० १४० ।
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१७६
जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
प्रेम के आकर्षण द्वारा ही अद्वैत की ओर उन्मुख होता है । स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध हो अथवा भूत प्रकृति का सब के मूल मे प्रेम तत्व ही प्रधान है । 'मे' 'तुम' का भेद द्वन्द्व का मूल है जब तक द्वैत है तब तक व्यक्ति स्वय से ही समाहित सत्यता का ज्ञान नही प्राप्त कर सकता । जब तक व्यक्ति निस्पह भाव से परस्पर मिलकर रहता है तब तक प्रगति उसके चरण चूमती है अन्यथा 'मै' 'तुम' अहिसा के प्रेम तक मार्ग की उपेक्षा करके आपस मे ही विनष्ट होता है । 'नारद का अर्ध्य' कहानी मे अहकारी मानव-प्राणी के मन मे चारो ओर लहराती खेती को देखकर लोभ उत्पन्न हो जाता है और प्रेम से मिलकर काम करने वाले दो साथी स्वार्थमय परिग्रही प्रवृत्ति के कारण दो पृथक-पृथक् अग बन जाते है। 'अपना', 'मेरा' का क्रीडा दोनो के भीतर बैठ जाता है और दोनो ने झोपडे मे आग लगाकर अपने सयुक्त प्रेम को स्वाहा कर दिया ।' 'इस प्रकार द्वैत भाव के जाग्रत होते ही हिसात्मक प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है। अतएव जीवन मे सत्य की प्राप्ति के लिए द्वन्द्व से प्रेम और शान्ति के मार्ग को अपनाना ही श्रेयष्कर है और वह मार्ग 'अद्वैत' अर्थात् अभेद दृष्टि की प्राप्ति पर ही सुलभ हो सकता है। 'तत्सत्' कहानी मे वन के विभिन्न पेड पोधे एक-दूसरे से प्रश्न करते है कि 'वन क्या है ?' किन्तु कोई भी नहीं समझ पाता । बास अपने को केवल बास का वृक्ष समझता है सब स्व तक ही सीमित है। वे यह नही जानते कि उनकी समष्टि ही वन है । जहा उनकी अहता (मै तू का भेद) विलुप्त हो जाता है । उस एकत्व मे परम सत्य का ज्ञान प्राप्त हो जाता है कि वह है । 'सब कही है । सब कही है' 'हम नही है, वह है।'
जैनेन्द्र के उपरोक्त विचारो पर गेस्टालवाद की पूर्ण छाप दृष्टिगत होती है। गेस्टाल सिद्धान्त के अनुसार अनेकता अथवा रेखाए सत्य नही है। सत्य समष्टि मे समाहित है । जैनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य मे गेस्टालवाद के समग्रता के सिद्धात की छाप दृष्टिगत होती है ।
जैनेन्द्र के अनुसार अखण्ड ईश्वर की प्राप्ति स्वत्व के विसर्जन द्वारा ही हो सकती है। जब तक व्यक्ति अह चेतन से तृप्त रहता है तब तक वह सत्य
'परमेश्वर आदमी की इसी अपनी-अपनी मस्यता मे पढकर खड-खड हो गया । और उन खण्डो को लेकर आदमियो मे अस्मिता की उतावली मचने लगी।'
-'अनन्तर', पृ० ८५ । २ जैनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया', पृ० १६५ । ३ 'दूर तक उसकी तू-तू, मैं-मैं सुनाई देती थी।'
-जैनेन्द्र . 'प्रतिनिधि कहानिया', पृ० १६३ ।
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जैनेन्द्र के ग्रह सम्बन्धी विचार
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को जान ही नही सकता । 'मैं' अविजित समझने वाला व्यक्ति सदैव ग्रहता से पीडित रहता है । 'व्यर्थ प्रयत्न' मे चिन्तामरिण सासारिक विषय-वासनाओ से ऊपर उठकर स्वयं पर विजय प्राप्त करना चाहता है । वह अपने मन की दुर्बलता को विजित करना चाहता है, किन्तु उसका दभ उसे ही पीडित करता रहता है, क्योकि सत्य मै के समर्पण द्वारा ही प्राप्य है । समर्पण प्रेम मे सम्भव होता है । ज्ञानी झुकता नही, टूट जाता है । इसीलिए जैनेन्द्र ज्ञान को दम्भ मानते है । 'विचार' मे यदि व्यक्ति का अभाव बहुत अधिक सजग रहे तो व्यक्तित्व सन्तुलित हो जाता है । 'व्यर्थ प्रयत्न' मे चिन्तामणि के विचारप्रवाह मे उसकी हता बहुत उग्र रहती है । यही कारण है कि ग्रह का व्यक्तितत्व बहुत असन्तुलित रहता है ।
निष्कर्षत जैनेन्द्र के साहित्य मे ग्रह की सार्थकता अस्तित्व के अर्थ मे ही स्वीकार की गई है, अन्यथा ग्रह (जीव ) की ग्रहकार मूलक भावना का सदैव निषेध किया गया है ।
१. सोच-विचार मे मनुष्य का अहम् बहुत मिला रहे तो जड होती है उसी को कहते है 'सेल्फ काशस' । इस स्थिति में मनुष्य के व्यवहार का सरल भाव नष्ट हो जाता है ।
-- जैनेन्द्रकुमार 'सुनीता', पृ० स० १३५ ।
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परिच्छेद - ६
जैनेन्द्र और समाज
प्रेमचन्द युग
ईसा की उन्नीसवी शताब्दी साहित्य की दृष्टि से प्रत्यन्त महत्वपूर्ण है । प्रेमचन्द - युग मे मानवतावादी राष्ट्रीय भावनाओ को प्रोत्साहन मिला । प्रेमचन्द का साहित्य सामाजिक दृष्टि से बहुत अधिक महत्व रखता है । सामाजिक हित की ओर अधिकाधिक ध्यान केन्द्रित रखने के कारण ही वे युग-पुरुष बन गए । उन्होने अपने उपन्यास और कहानियो द्वारा सामाजिक कुरीतियों और तत्कालीन व्यवस्था की ओर दृष्टिपात करते हुए मानव जीवन की निराशाजनक स्थितियो मे आशा का सचार किया। उनके साहित्य का व्यापक परिवेश समाज की समस्या और उनके सुधार की भावना से ही तद्गत है । जीवन की यथार्थता उनके साहित्य में घटनाओ के कलेवर मे अभिव्यक्त हुई है । प्रेमचन्द की यथार्थ दृष्टि तत्कालीन स्थितियो का ही उद्घाटन करने में सक्षम है । उसमे आत्मनिष्ठ सत्य से अधिक स्थितिगत तथ्य का प्रभाव दृष्टिगत होता है । यही कारण है कि प्रेमचन्द के साहित्य में घटनाओ का बाहुल्य है । उनके पात्र त्याग सेवा, सहानुभूति, सहनशीलता आदि मानवीय गुणो के प्रतीक है । यथार्थ का आधार लेकर उन्होने अपना आर्दशवादी दृष्टिकोण का परित्याग नही किया है । सत्य तो यह है कि प्रेमचन्द साहित्य सामाजिक और नैतिक प्रादर्शो का ही प्रतिनिधित्व करता है । यथार्थ में ये इतना नही डूबे है कि आदर्श उनसे छूट गया हो ।
प्रेमचन्द की दृष्टि मे सामाजिक नीति और मर्यादा इतनी प्रावश्यक है।
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जैनेन्द्र और समाज
१७६ कि व्यक्ति उन सामाजिक मर्यादापो से परे जीवन के सत्य को समझने मे असमर्थ है । सत्य तो अन्तर्भूत ही हो सकता है। अतएव जीवन के सत्य का बोध प्राप्त करने के लिए बाह्य जीवन की घटनाप्रो और द्वन्द्वो से ऊपर उठना आवश्यक है । प्रेमचन्द का साहित्य तत्कालीन समाज का कोरा फोटोग्राफ तो नही है, तथापि उसमे सामाजिक जीवन की पूर्ण और स्पष्ट अभिव्यक्ति हुई है। उनकी कलादृष्टि तत्कालीन स्थिति के अग-प्रत्यग का स्पष्ट चित्र अभिव्यक्त करने में सक्षम है। उसमे समाज का एक-एक अग उभर कर स्पष्टरूप से प्रस्तुत हुआ है । घटनाओ के सदृश ही लेखक ने व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी ऐसे ऐगिल से देखा है, जिससे उसकी बाह्यावृत्ति पूर्णत प्रतिबिम्बित हो सकी है, किन्तु यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति एक वस्तु और स्थिति को एक ही कोण से देखे । दृष्टि-भेद के कारण अभिव्यक्ति के स्वरूप मे भी अन्तर पाना स्वाभाविक है। जैनेन्द्र के साहित्य मे सामाजिक मर्यादा का उल्लघन नही किया गया है, तथापि उन्होने समाज को इस दृष्टि से देखा है, जिसमे बाह्य स्थूलता से अधिक आत्मगत सूक्ष्मता ही लक्षित होती है। जैनेन्द्र के साहित्य में भी जीवन की यथार्थता आदर्श से असम्पृक्त नहीं है, किन्तु उनकी दृष्टि मे यथार्थ घटनाबद्ध न होकर सत्य से युक्त है और आदर्श किन्ही निश्चित मानदण्डो तक ही परिमित न होकर यथार्थ से ऊपर उठने की चेष्टा मे ही लक्षित होता है । वस्तुत जैनेन्द्र ने समाज की स्थितियो से अधिक सामाजिकपरिवेश मे जीने वाले आधार रूप व्यक्ति के अन्तर्द्वन्द्वो को अभिव्यक्ति दी है। उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति व्यक्ति और वस्तु के सर्वागो को उभारने से अधिक व्यक्ति की मन स्थितियो को चित्रित करने में सक्षम है। इस प्रकार जैनेन्द्र के पात्र हमे स्थितिगत क्षोभ न देकर अपनी अन्तर्व्यथा का रस देते है । वे जीते तो समाज मे ही है, किन्तु वे समाज के घात-प्रतिघात को स्वय ही झेल लेते है । अपनी पीडा को लेकर वे समाज पर उत्बुद्ध नही होते, यही कारण है कि जैनेन्द्र के पात्रो द्वारा हमारे समक्ष सामाजिकता गौण हो जाती है और अन्तर्द्वन्द्व प्रमुख हो उठता है। जैनेन्द्र ने सामाजिक समस्यालो से अधिक समस्याओ के उत्स को ही प्रकट करने की चेष्टा की है। आदर्शो की घिसी-पिटी सीमाओ मे चलती हुई व्यक्ति-चेतना अर्थात् 'स्व' को जानने का प्रयास किया। प्रेमचन्दयुग मे सामाजिक नीति और मर्यादा के कारण व्यक्ति के अन्तस् भावो की पूर्णाभिव्यक्ति सम्भव नही हो सकी थी। व्यक्ति समाज के सन्दर्भ मे ही अपने व्यक्तित्व का विकास करता है। अतएव समाज की उपेक्षा तो सम्भव हो ही नही सकती, किन्तु समय के साथ सामाजिक नियमो मे परिवर्तन उपस्थित होना आवश्यक है।
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१८०
जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
जैनेन्द्र को सामाजिक दृष्टि
जैनेन्द्र यथार्थान्मुखी आदर्शवादी लेखक है । आदर्श की धरती पर पैर टेक कर ही वे यथार्थ के उन्मुक्त परिवेश मे सचरण करते है। भारतीय संस्कृति के मूलभूत आदर्शों की रक्षा करते हुए ही उन्होने अपने कथा साहित्य की रचना की है । जैनेन्द्र के अनुसार अपनी संस्कृति और सभ्यता का उन्मूलन करने वाला समाज कभी भी प्रगति नही कर सकता। आज पाश्चात्य सभ्यता के प्रभावस्वरूप सामाजिक मर्यादाए समाप्त होती जा रही है। जैनेन्द्र के साहित्य मे स्त्री-पुरुष स्वातन्त्र्य का जो स्वरूप दृष्टिगत होता है, उससे यह अनुमान नही लगाया जा सकता कि जैनेन्द्र ने नितान्त स्वच्छन्दतावादी दृष्टिकोण को अपनाकर सामाजिक बन्धन को शिथिल किया है । जैनेन्द्र ने स्त्री-पुरुष सम्बन्ध मे अपनी स्वतन्त्र-दृष्टि द्वारा जीवन के प्राकृतिक और मूलभूत सत्य को उद्घाटित करने का प्रयास किया है। सत्य का समाज और मर्यादा से कोई सम्बन्ध नही है। जैनेन्द्र ने समाज के परिप्रेक्ष्य मे मानव-जीवन को जिस रूप मे देखा है, उसके मूल मे स्त्री-पुरुष का अर्धनारीश्वर भाव ही प्रधानत मुखरित हुआ है। स्त्री-पुरुष स्वय मे अपूर्ण है। अत उनका प्ररस्पर आकर्षण स्वाभाविक ही नही, अनिवार्य भी है। सृष्टि के आरम्भ से ही अर्धनारीश्वर की भावना मानव जीवन में व्याप्त रही है । रामायण, महाभारत, पुराण आदि ग्रन्थ इसके साक्ष्य है।'
प्रेमचन्द-युग के अन्तिम चरण मे साहित्य और समाज मे नवीन मान्यताओ को लेकर भावाभिव्यक्ति का प्रयास हुआ है। प्रेमचन्द की सामाजिक दृष्टि । सुधारवादी थी। समाज की आर्थिक विषमता से ऊच-नीच के भेद-भाव लेकर अनेको समस्याए उत्पन्न हो गई थी। उन्होने घरेलू जीवन से लेकर राजनैतिक परिवेश में व्याप्त द्वन्द्वो का विस्तृत विवेचन किया है । जीवन मे उत्पन्न विविध समस्यानो की भाति नैतिकता और अनैतिकता का प्रश्न भी समाज-सापेक्ष्य ही है। समाज मे जो प्रश्न नैतिक और अनैतिक का रूप लेता है, साहित्य मे वही श्लील और अश्लील रूप मे विवेचित किया गया है । समाज मे स्त्री-पुरुष सम्बन्ध निर्वैयक्तिक न होकर सम्बन्ध-सापेक्ष्य रूप में स्वीकार किया जाता है। स्त्रीपुरुष परस्पर भाई-बहन, माता-पिता, पति-पत्नी आदि सबध सूत्रो मे आबद्ध होते है। प्रेमचन्द ने अपने उपन्यास और कहानियो का कथानक पारस्परिक रिश्ते-नातो से ही ढूढा है । जैनेन्द्र ने पति-पत्नी, व भाई-बहन आदि सम्बन्धो
१ 'सीता-राम', 'राधाकृष्ण', 'शिव-पार्वती' की अर्धनारीश्वर की मूर्ति इस का
प्रमाण है।
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जैनेन्द्र और समाज
१८१ से परे स्त्री-पुरुष को उनके प्रकृत रूप मे स्वीकार किया है, यही जैनेन्द्र की मौलिक देन है।
जैनेन्द्र ने सामाजिक व्यवस्था को अनिवार्य रूप से स्वीकार किया है। व्यक्ति समाज मे रहकर ही अपने व्यक्तित्व का समुचित विकास करता है तथा समाज ही उसे मान और प्रतिष्ठा प्रदान करता है। यदि समाज न हो तो व्यक्ति का व्यक्तित्व स्वय मे अर्थहीन हो जाता है । 'त्यागपत्र' मे जैनेन्द्र ने सामाजिक मर्यादा का जो रूप पस्तुत किया है, वह उनकी सामाजिक दृष्टि को व्यक्त करने मे पूर्णत सक्षम है। 'मृणाल' समाज की क्रूर छाया के भीतर जीवनयापन करती हुई सामाजिक मर्यादा को अन्तिम सास तक बनाए रखती है। यद्यपि यह स्थिति कभी-कभी अतिरजनापूर्ण प्रतीत होने लगती है, किन्तु उसमे कही झूठ की दीवार नही खडी की गई है। समाज के क्रूर हाथो मे दया का कोई स्थान नहीं है। वस्तुत 'त्यागपत्र' मे जैनेन्द्र ने समाज के तिरस्कृत तथा नितान्त अवहेलनीय पक्षो को अपनी हार्दिकता के सस्पर्श से उभारने का प्रयास किया है, जिससे उनके द्वारा प्रस्तुत व्यक्ति के प्रति हममे गहरी सहानुभूति जागृत हो उठती है। मृणाल अपनी व्यथा को अन्तस् मे छिपाए हुए प्रतिष्ठित समाज की दृष्टि से दूर चली जाती है । वह स्वय टूट सकती है, किन्तु समाज मे स्वय को लेकर क्रान्ति उत्पन्न करना उसे स्वीकार नही है।'
'त्यागपत्र' मे मृणाल समाज की मर्यादा को प्रोढे हुए आत्मपीडन को ही प्रश्रय देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस विषम स्थिति मे ही उसके अन्तस् मे कोई ऐसी शक्ति अवश्य है, जो उसे सदैव जीवन से विमुख होने से वचित किए रहती है, और वह शक्ति है, उसका अन्तनिष्ठ प्रेम । अपने प्रेम को सार्थकता प्रदान करने के लिए ही वह अपने जीवन को नितान्त वस्तुता प्रदान कर देती है। मर कर वह प्रेम के प्रति कृतार्थ नही हो सकती थी। अतएव प्रेम की पीडा को लिए हुए ही वह अपने जीवन की इह लीला समाप्त करती है । वस्तुत जैनेन्द्र ने सामाजिक सत्य के मूल मे व्यक्ति सत्य को जीवन-शक्ति के रूप मे अन्तर्भूत किया है। वे कही भी व्यक्ति-निरपेक्ष होकर समाज का चित्रण नही करते । जैनेन्द्र के साहित्य का यह सनातन सिद्धान्त है।
परिवार और विवाह
ससार स्त्री-पुरुपमय है। सृष्टि के प्रारम्भ से ही ससार केवल स्त्री-पुरुष
१. 'मैं समाज को तोडना-फोडना नही चाहती हू, समाज टूटी कि फिर किसके
भीतर बनेगे।' - जैनेन्द्रकुमार . 'त्यागपत्र', पृ० स० ७२ ।
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१८२
जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन
के नाना सबधो द्वारा चल रहा है । कर्ता एकमात्र ईश्वर हे, किन्तु प्रत्यक्ष जगत् मे केवल यही दो व्यक्तित्व सक्रिय रहे है । आदिम युग मे मानव जीवन की कोई व्यवस्था नही थी । मनुष्य अपनी मूल प्रवृतियो को स्वच्छन्द रूप सन्तुष्ट करता था । सभ्यता के विकास के साथ स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध अधिक व्यवस्थित होने लगे है । ज्यो- ज्यो उनमे विवेक बुद्धि जाग्रत हुई वे जीवन की विविध समस्याओं की ओर उन्मुख हुए । परिवार व्यवस्था के क्रम में ही एक महत्वपूर्ण सोपान है । परिवार वह केन्द्र है, जहा स्त्री-पुरुष के विवाह के धार्मिक सस्कार को सम्पन्न करते हुए सन्तानोत्पति तथा शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक विकास की ओर उन्मुख होते हे ।
वैदिक काल से ही परिवार के व्यवस्थित रूप का प्रमाण मिलता है । रामायण महाभारतकालीन सभ्यता मे पारिवारिक व्यवस्था को पूर्ण प्रश्रय प्राप्त था । भारत मे बीसवी सदी से पूर्व अधिकाशत सयुक्त परिवार का ही प्रचलन या किन्तु समय के परिवर्तन के साथ-साथ सयुक्त परिवार विघटित होते गए । समाजवादी युग मे सयुक्त परिवार का कोई महत्व नही रह गया है । प्रेमचन्द के उपन्यास में विकाशत संयुक्त परिवार की घटनाए ही कथात्मक रूप मे ही प्रभिव्यक्त हुई है । घरेलू झगडे, कलह आदि का चित्रण उन्होने अपने उपन्यासो मे बहुत स्वाभाविक रूप से किया है । जैनेन्द्र के उपन्यासो मे सयुक्त परिवार का विशेषत उल्लेख नही हुआ है । उनके कथा साहित्य का निखार व्यक्ति के संदर्भ में ही दृष्टिगत होता है, परिवार के परिवेश मे नही । अर्थात् द्वन्द्व का कारण पारिवारिक समस्याए न होकर, प्रान्तरिक उत्पीडन से उद्भुत अन्तर्द्वन्द्व है । परिवार को उन्होने वैवाहिक जीवन के लिए अनिवार्य माना है । वे विवाह को किसी भी स्थिति मे उपेक्षरणीय नही मानते । अतएव विवाह के साथ परिवार का होना स्वाभाविक ही है । '
जैनेन्द्र भारतीय सस्कृति के पूर्ण समर्थक है । उनकी दृष्टि मे व्यवस्थाहीन समाज आदिम सभ्यता का ही प्रतीक हो सकता है । कृषिप्रधान युग मे सयुक्त परिवार ही विशेषरूप से प्राप्त होते थे किन्तु इस उद्योगवादी युग मे परिवार केवल पति-पत्नी तक सिमट गया है। इतना होते हुए भी जीवन नितात परीक्षण
१ 'विवाह ही है जो हमे ससार मे पहुचने का रास्ता देता है ।' बीस की पूर्णता होते ही इक्कीसवा वर्ष अपने आप उस पर आ जायगा । विवाह की ऐसी ही सहज परिरगति मैं मानता हू ।'
- जैनेन्द्रकुमार 'काम, प्रेम और परिवार', १६६१, प्र० स० दिल्ली, पृ०
स० २०-२१ ।
२ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० १३७ ।
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जैनेन्द्र और समाज
अथवा मुक्त प्रयोग नही हो सकता । उसके लिए अवलम्ब ही आवश्यकता है। मानवता इसी रूढ सस्था (परिवार) पर कायम है जो कि स्वय विवाह पर टिकी
है।
जैनेन्द्र ने विवाह को एक सामाजिक सस्कार माना है। स्त्री-पुरुष विवाह द्वारा ही परस्पर मिलते तथा सन्तानोत्पादन मे सहायक होते है । जैनेन्द्र के उपन्यास बौद्धिक युग का प्रतिनिधित्व करते है। उनमे व्यक्ति की अात्मिक समस्या और अन्तर्द्वन्द्व का विशेष रूप से विवेचन किया गया है । जनेन्द्र ने नाना सम्बन्धो से परे उन्हे मात्र स्त्री-पुरुष के रूप मे समझने की चेष्टा की है। उन्हाने स्त्री-पुरुष के अन्तर्मन की गहराई मे प्रवेश करके दलित भावो की सहजाभिव्यक्ति का प्रयास किया है। प्राचीन रूढिगत, पर्दा अादि प्रथानो पर उन्होने विचार नही किया है । युगानुरूप उनके पात्र प्रगतिशील तथा स्वच्छन्द विचारो के पोषक है। उनके अनुसार-'जीवन मूल्य तेजी से आर्थिक बनते जा रहे है। उस वेग मे जान पडता है कि परिवार और सम्मिलित परिवार का रूप छोटा हो जाने को बाध्य है। मालूम होता है कि यदि आर्थिक सभ्यता का दौरादौर रहा तो यह परिणाम घटित हुए बिना न रहेगा। लेकिन पारिवारिक इकाइया स्वय उस आर्थिक सभ्यता की बाढ को रोके हुए है।
वस्तुत जैनेन्द्र विवाह और परिवार को अनिवार्य रूप से स्वीकार करते है । उनके उपन्यास और कहानियो का कथानक वैवाहिक और पारिवारिक-परिवेश मे ही फलित हुआ है। उनके दो नवीनतम उपन्यास 'मुक्ति-बोध' और 'अनन्तर' की कथा मे पारिवारिक सम्बन्धो के मध्य होने वाले मतभेद को भी विशेषत प्रश्रय मिला है। पिता-पुत्र, तथा बेटी-दामाद के मध्य घटित घटनाप्रो को पारिवारिक स्तर पर ही चित्रित किया गया है। अन्य प्रारम्भिक उपन्यासो मे परिवार तो है, किन्तु परिवार की घटनाप्रो अथवा समस्याओ की ओर कोई ध्यान नही दिया गया है । वहा बाह्य घटना से अधिक मानसिक तनाव दृष्टिगत होता है। ___ जैनेन्द्र के उपन्यासो मे परिवार की स्थिति बहुत ही निर्बल है। उन्होने परिवार को वैवाहिक सस्कार सम्पन्न करने का हेतु-मात्र ही माना है। घर मे बाहर के प्रवेश द्वारा उन्होने परिवार को स्वस्थ बनाने का प्रयास किया है। परिवार के दायित्व को विवाह मे ही सीमित नहीं किया जा सकता । विवाह के परे बच्चो की शिक्षा-दीक्षा आदि के हेतु भी परिवार का अस्तित्व अनिवार्य है। व्यक्तित्व का समुचित विकास परिवार के सौहार्द्रपूर्ण परिवेश मे ही सम्भव हो सकता है । जैनेन्द्र के उपन्यासो मे परिवार का कोई उच्च आदर्श दृष्टिगत
।
१
जैनेन्द्र 'प्रश्न और प्रश्न', १९६६, प्र० स०, पृ० स० १७४ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
नही होता । 'सुखदा' में पारस्परिक तनाव के कारण बच्चे की शिक्षा स्वय मे एक समस्या बन जाती है । पारिवारिक तनाव की स्थिति मे व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो जाता है । जैनेन्द्र के पात्र व्यक्तिगत जीवन की मानसिक उलझन के कारण समाज मे अपना विशिष्ट स्थान नही बना पाते । जैनेन्द्र की रचनाओ मे उतना वैषम्य दृष्टिगत होता है कि उनके सम्बन्ध मे कोई निश्चित
fort नही बनाया जा सकता । 'कल्याणी' मे जो व्यथा है, वह 'मुक्त - प्रयोग' की स्वच्छन्दतापूर्ण परिस्थिति में सम्भव नही हो सकी है । भारतीय सस्कृति के आदर्श उसमे लुप्तप्राय हो जाते है । 'त्यागपत्र' मे एक विवाह सफल न होने पर दूसरा सभव नही हुआ है किन्तु 'मुक्ति प्रयोग' मे वैवाहिक अनुबन्ध भी प्रयोग मात्र रह गए है। एक के बाद दूसरे सम्बन्ध की ओर उन्मुखता ही प्रमुखरूप से दृष्टिगत होती है । उपरोक्त विरोधाभास को देखते हुए उनके विचारो के सम्बन्ध मे एक सुनिश्चित विचार निर्धारित करना कठिन हो जाता है । तथापि यह सत्य है कि जैनेन्द्र परिवार के अस्तित्व का खण्डन समाज के हित के लिए उपयोगी नही समझते । परिवार और विवाह समाज की बाह्य और अनिवार्य स्थितिया है । जैनेन्द्र के साहित्य में उत्पन्न होने वाली विषमता समाज को लेकर नही है, वरन् व्यक्ति की सच्चाई को लेकर उद्भूत हुई है । उनके सम्बन्ध मे यह कहना कि उन्होने समाज का विरोध किया है, उचित नही है । समाज सत्य है, किन्तु समाज के साथ व्यक्ति की सत्यता का निषेध नही किया जा सकता । समाज व्यक्ति से ही है और व्यक्ति की सार्थकता भी समाज मे ही सम्भव है ।"
विवाह और प्रेम
जैनेन्द्र के साहित्य की सबसे बडी समस्या विवाह मे प्रेम को स्वीकार करने के कारण ही उत्पन्न होती है । विवाह और प्रेम ( दाम्पत्य और रोमास ) को वे जीवन सरिता के दो समानान्तर किनारो के रूप मे स्वीकार करते है । उनके अनुसार वैवाहिक जीवन मे यदि बाहर से आने वाले प्रेम को निषिद्ध कर दिया जाय तो वैवाहिक जीवन मे एक घुटन सी उत्पन्न हो जायगी । वैवाहिक जीवन गवाक्ष है, कोठरी नही है । 'सुनीता' मे पारिवारिक जीवन की उदासीनता से मुक्ति पाने के हेतु ही सुनीता और श्रीकान्त के मध्य हरिप्रसन्न का प्रवेश होता है । 'सुखदा' मे सुखदा विवाह से पूर्व अपने भावी जीवन के सम्बन्ध मे जो
१ 'वैयक्तिक निरा कुछ भी नही होता, सब कुछ साथ ही सामाजिक होने को विवश है । '
— जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त' ( प्रकाशित) ।
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जैनेन्द्र और समाज
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स्वप्न देखती है, वे पूर्ण नही हो पाते । अभावग्रस्त स्थिति उसे बाहर से आए आकर्षणो की ओर उन्मुख करती है, क्योकि यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि विषम मन स्थिति मे व्यक्ति का झुकाव त्वरा और बाह्य आकर्षण की ओर ही अधिक होता है। लाल का भव्य व्यक्तित्व उसे इसीलिए प्रभावित करने मे सक्षम हो सका है, ऐसी स्थिति मे घर का वातावरण असन्तोषजनक हो जाता है। पति-पत्नी का आत्मिक मिलन सम्भव नही हो पाता। 'कल्याणी' मे कल्याणी और उसके पति का सम्बन्ध इतना शकाग्रस्त होता है कि उनमे एकदूसरे के प्रति समर्पण भाव जाग्रत होने का प्रश्न ही नही उठता। जैनेन्द्र के अन्य उपन्यासो मे पति की ओर से पत्नी को प्रेम सम्बन्ध की पूरी छूट रहती है। पति कभी भी पत्नी के प्रति उत्कुद्ध नही होते, किन्तु कल्याणी अपने पूर्व प्रेमी के प्रति अपने प्रेम-भाव को प्रकाशित करने में असमर्थ होती है । उसका प्रेम भीतर ही भीतर सुलगता रहता है। उसकी समस्त वेदना के मूल मे प्रेम की अप्राप्ति भी है । 'मुक्तिबोध' तथा 'अनन्तर' मे पति के जीवन मे प्रेमिका का प्रवेश होता है। __यद्यपि यह सत्य है कि दाम्पत्य जीवन को घर की दीवारो मे ही सीमित कर देने से जीवन बोझ बन जाता है। सुखी जीवन के लिए आवश्यक है कि पति-पत्नी एक-दूसरे के प्रति विश्वस्त हो, उनमे अप्रेम अथवा घणा का भाव नही होना चाहिए। जीवन में प्रत्येक स्त्री-पुरुष पति-पत्नी के अतिरिक्त बाहर से मिलने वाले प्रेम के भी प्रार्थी है। स्नेह और वात्सल्य के अतिरिक्त उनमे रागात्मक भाव की ओर भी उन्मुखता होती है। यह जीवन का सत्य है, सत्य को छिपाकर छल से कोई प्रादर्श साधना नही हो सकती। जैनेन्द्र के अनुसार समाज के नियम समय-सापेक्ष होते है। सत्य के मार्ग मे सदाचार बाधक नही बन सकता । सत्य को दृष्टि मे रखते हुए सदाचार का रूप भी परिवर्तित होना आवश्यक है।
जैनेन्द्र वैवाहिक जीवन मे प्रेम को अनैतिक कृत्य नही मानते । वे नि सकोच रूप से अपनी समस्त कहानियो और उपन्यासो मे ऐसी विचारधारा
१ 'सामाजिक मर्यादा सत्य की साधना की राह मे आप ही बनती है । आशय
कि समाज की मर्यादा स्वय स्थिर नही है, विकासशील है । सदाचार मे प्राचार को पीछे मानिए, सत् पहले है । सत् के अनुसन्धान मे आचार को आगे बढ़ते ही जाना है । इस तरह रूढ सदाचार और सजीव सदाचार मे हर कार्य मे कुछ अन्तर देखा जा सकता है।'
-जैनेन्द्रकुमार 'काम, प्रेम और परिवार', पृ० स० ६७ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
को आधार बनाकर चले है। उनकी दृष्टि मे वैवाहिक जीवन मे प्रेम सम्बन्ध की स्वीकृति से सामाजिक-मर्यादा भग नही होती । वे प्रादर्श नारी की परिकल्पना को किसी स्पष्ट मर्यादा-रेखा पर आधारित नही करते । इस सम्बन्ध मे सामाजिक हस्तक्षेप को भी वे उचित नही समझते। वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार मर्यादा का प्रश्न केवल वैवाहिक जीवन की स्वीकृति तक ही सीमित होता है। प्रेम मर्यादा के बधन से मुक्त है।
जैनेन्द्र की दृष्टि मे 'विवाह सामाजिक सस्था है, उससे परिवार बनता है। उसे केवल दो का निजी सम्बन्ध समझना और उस आधार पर विवाह को स्थापित करना गलत होगा। क्योकि तब उसकी पूर्णता सामाजिक न होकर कामुक होगी।'२ पति-पत्नी का सामाजिक होना आवश्यक है। देश, समाज और राष्ट्र के प्रति भी उनका कुछ कर्तव्य है जिसे घर की दीवारो से बाहर आकर ही पूर्ण कर सकते है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे 'विवाह दायित्व लाता है और प्रेम मुक्त है । उस पर जिम्मेदारी नही आनी चाहिए । जैनेन्द्र की विवाह और प्रेम मम्बन्धी परिकल्पना 'विवर्त' में ही सफल हो सकी है। वहा विवाह सौर प्रेम समानान्तर रूप से चलते हैं। दोनो सम्बन्धो मे प्रेम और आदर का भाव विद्यमान रहता है । प्रेमी और पति को लेकर मानसिक तनाव की स्थिति नही उत्पन्न होती। पति आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध तथा सुशिक्षित और नि शक प्रकृति के हे । इसीलिए पति की ओर से कोई दबाव नही उत्पन्न होता है। भुवनमोहिनी और जितेन के प्रेम सम्बन्धो के कारण परिवार पर कोई प्राच नही आती। जितेन की प्रेम-भावना अतृप्ति के कारण क्रान्ति मे स्थानान्तरित हो जाती है। जितेन की समस्त विस्फोटक कि याए अप्राप्ति मे से ही उद्भूत होती है, किन्तु उन समस्त क्रियाओ का भुवनमोहिनी पर कोई प्रभाव नही पडता। वह जितेन की विवशता को जानते हुए उसके प्रति अगाध स्नेह रखती है। जैनेन्द्र का लक्ष्य विवाह मे प्रेम द्वारा स्वस्थ वातावरण को उद्भूत करना है । वे पतिपत्नी की निकटता के लिए बाहर से आने वाले प्रेम को आवश्यक समभते है। राधा-कृष्ण और मीरा के जीवनादर्श की अोर इगित करते हुए यह मानते है कि विवाह और प्रेम मे, पति-पत्नी के मध्य आदर का भाव कम नहीं होता। मीरा राणा से घृणा नहीं करती, वह उनके द्वारा दिए गए सभी पदार्थों का
१ 'विवाह के अतिरिक्त समाज की गर्यादा दूसरी और क्या है ?'
__-~-जैनेन्द्र कुमार 'काम , प्रेम और परिवार', पृ० स० ११० । २ जैनेन्द्र कुमार 'काम प्रेम और परिवार', पृ० स० १६ । ३ जैनेन्द्र कुमार 'इतस्तत', पृ० स० ३५ ।
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जैनेन्द्र और समाज
हार्दिक श्रद्धा के साथ उपभोग करती है, किन्तु मीरा और राधा असामान्य आदर्श है। सामान्य जीवन मे उनके आदर्शो की परिकल्पना सम्भव नही हो सकती, क्योकि मीरा जीवनपर्यन्त कृष्ण की दीवानी रहती है। उसके जीवन मे परिवार का कोई स्थान नही रह जाता। जैनेन्द्र के पात्र भी अपने प्रेम के कारण ही विवाह से प्राप्त होने वाली विषम स्थितियो को सहर्ष ही झेलते है। 'सुनीता' मे वीरान जगल मे जब सुनीता हरिप्रसन्न के समक्ष पूर्ण-समर्पण करने के बाद लौटती है तो उनका मन शान्त रहता है । वह पुन अपने परिवार मे सुख-शान्ति का वातावरण उद्भूत करने में सक्षम होती है। सुनीता मे जैनेन्द्र का प्रादर्श अपनी पूर्णता मे परिलक्षित होता है । किन्तु राधा और मीरा के जीवन के साथ सुनीता के जीवन मे समता नही दिखायी जा सकती। राधा और मीरा मे अतृप्ति नही है। वे स्वेच्छा से कृष्ण के समक्ष पूर्ण आत्मसमर्पण करती है।
जैनेन्द्र के उपन्यासो का द्वन्द्व केवल प्रेम को लेकर ही नही उत्पन्न होता, उसमे 'घर-बाहर' के मध्य असन्तुलन की स्थिति ही विशेपत खटकती है। उन्होने विवाह मे प्रेम को दो-चार स्थलो मे ही घटित होते हुए नहीं दर्शाया है, वरन् उनका समस्त कथा-साहित्य इसी धुरी पर आधारित है। उनके अनुसार पति-पत्नी मे प्रेमी-प्रेमिका समाप्त नही हो सकते । अलग से उन्हे होना ही है। दोनो का होना बन्द नही होने वाला ।'
जैनेन्द्र की विवाह और प्रेम सम्बन्धी विचारधारा समसामयिक अधिकाश लेखको मे दृष्टिगत होती है। सुप्रसिद्ध विद्वान हैवलाक एलिस इस सम्बन्ध मे यह स्पष्टत स्वीकार करते है कि-'हर पुरुष और स्त्रियो मे दूसरे व्यक्तियो के प्रति कमोबेश कामात्मक रूप मे अतिरजित स्नेह रहने की क्षमता होती है। चाहे वह व्यक्ति अपनी केन्द्रीय स्नेह के प्रति कितना ही एकगामी हो ।३ एलिस के अनुसार दाम्पत्य जीवन मे प्रारम्भ मे सब कुछ अज्ञात रहता है । अत धीरे-धीरे पति-पत्नी के मध्य स्नेहपूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो सकता है और उनका बाहरी खिचाव कम हो जाता है।
वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार-'विवाह जीवन को विस्तार देता है, परिधीय केन्द्र नही देता। विवाह द्वारा हम अपने प्रेम का विस्तार करने का अवकाश
१. जैनेन्द्र कुमार 'इतस्तत', पृ० स० ६८ । २ रामेश्वर शुक्ल 'उल्का' हिन्दी प्रचारक, पृ० स० १८५ ।
तथा अज्ञेय 'नदी के द्वीप में। ३ हैवलाक एलिस 'यौन मनोविज्ञान', पृ० २७० ।
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जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन
पाते है । यदि विवाह प्रेम को घेरने वाली चीज हो जाय तो परिवार जेल है । स्वत्वमूलक परिवार जकडबन्द बन जाता है । उसमे जीवन का विकास अवरुद्ध हो जाता है । किन्तु विवाह द्वारा प्रेम बन्द नही होता, वरन् फैलने के लिए केन्द्र प्राप्त कर लेता है, तभी उसकी सार्थकता है । "
जैनेन्द्र का विश्वास है कि घर मे प्रेम आतिथ्य के रूप मे आता है । जिस प्रकार प्रतिथि का सत्कार गृहस्वामी और गृहस्वामिनी का धर्म हे इसी प्रकार बाहर से आए हुए प्रेम की स्वीकृति भी उनका धर्म है । स्वीकृति में तिरस्कार की भावना नही बढती, वरन् जीवन मे सहजता का समावेश होता है और पारस्परिक तनाव नही बढ पाता । प्राय देखा जाता है कि परिवार मे बाहर से आने वाले व्यक्ति पर बहुत कडी दृष्टि रखी जाती है, जिससे सहजता दबाव के कारण व्यभिचार में परिणत हो जाती है । जैनेन्द्र के अनुसार परस्पर विश्वास रहने के कारण आने-जाने वालो को बुरा नही लगता और परिवार का स्वास्थ्य बना रहता है । अविश्वास मे छल और कपट की भावना पैदा होती है । उस स्थिति मे व्यभिचार की ओर अभिमुखता बनी रहती हे । जैनेन्द्र के अनुसार विवाह मे बाहर अनुपस्थित रहे तो जीवन उदासीन हो जाता है । जहा प्रवेश निषिद्ध है, वहा उत्कर्ष नही । घर की सार्थकता बाहर बढने के लिए सुविधा देने मे है । जैनेन्द्र की उपरोक्त मान्यता उनके सम्पूर्ण साहित्य मे दृष्टिगत होती है । जहा कही परिवार टूटता है अथवा निर्बत प्रतीत होता है, उसके मूल मे शका जन्य अवरोध ही विद्यमान है । जैनेन्द्र का यह विश्वास है कि समाज की मर्यादा - रेखा किसी विशिष्ट स्थान या स्थिति पर खिची हुई नही मानी जा सकती । उनके अनुसार —- 'मर्यादा की रक्षा ( सामाजिकता की ) और सार्थकता ( प्रेम की ) — इससे सिद्ध होती है जहा इन दोनो का समन्वय बैठता हो वही मर्यादा की रेखा है । यदि सुरक्षा या सार्थकता अकेले चले तो प्रगति और असन्तुलन उत्पन्न हो जाएगा और उच्छ खलता आ जाएगी ।" जैनेन्द्र के अनुसार मर्यादा और प्रेम के बीच छल के प्रवेश से मर्यादा की सुरक्षा नही हो सकती । वस्तुत जैनेन्द्र प्रथम लेखक है, जिन्होने सामाजिक नियम, मान्यताओ का ध्यान रखते हुए भी जीवन मे प्रेम को अनिवार्य रूप से स्वीकार किया है । उनका विचार सामाजिक मान्यताओ को खण्डित करना नही है । आधुनिक लेखको के सह प्रचलित मान्यताओ को उखाड फेकना वे उचित नही समझते । उन्होने नवीनता के पोषण हेतु कोई कदम नही उठाया । उनके जीवन और
१ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार |
२ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
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जैनेन्द्र और समाज
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साहित्य का एकमात्र लक्ष्य सत्य का उद्घाटन करना है । जैनेन्द्र का साहित्य समाज का ही दर्पण नही है, वरन् वह व्यक्ति जीवन के अन्तर्द्वन्द्व को उभारने मे भी सहायक है ।
परिवर्तनशील मान्यताए
समाज मे रहकर उसकी मर्यादाओ की उपेक्षा नही की जा सकती । किन्तु उनकी दृष्टि में सामाजिक नियम भी पत्थर की रेखा नही है । जीवन परिवर्तनशील है । अतएव सामाजिक नियमो का भी परिवर्तनीय होना आवश्यक है । अन्यथा 'प्रगति' शब्द निरर्थक ही प्रतीत होगा । व्यक्ति सामाजिक प्राणी है । अतएव उस पर समाज की मर्यादाओ का लागू होना सगत है किन्तु जैनेन्द्र के अनुसार प्रेम सामाजिक मर्यादा के अन्तर्गत नही आता ।' वे समाज की मर्यादाको अन्तिम वस्तु नही मानते । उनकी ऐसी धारणा है कि 'स्व' से मुक्त होकर ही व्यक्ति अथवा समाज की प्रगति सम्भव हो सकती है । प्रेम के मार्ग मे जो लोग समस्त बन्धनो की उपेक्षा करते हुए आगे बढते जाते है, वे ही कालान्तर मे पूज्य बन जाते है । इस दृष्टि से मीरा का आदर्श स्पष्ट प्रमाण है । मीरा यदि प्रारम्भिक बाधाओ से विचलित होकर प्रेम से विमुख हो जाती तो आज वह इतनी मान्य नही हो सकती थी । जैनेन्द्र के जीवन और साहित्य का मूल स्वर प्रेम होने के कारण, किसी भी स्थिति मे अस्वीकार्य नही हो सकता | जैनेन्द्र के अनुसार समाज मे नैतिकता की जो दुहाई दी जाती है, वह केवल ऊपर से थोपी हुई मान्यता है उनकी दृष्टि में सच्ची नैतिकता तो परस्पर के विश्वास मे से फलित होती | विवाह के वर्तमान रूप मे सारा ध्यान विवाहेत्तर सम्बन्धो पर इतना केन्द्रित रहता है कि व्यभिचार कहकर हम उसी की दुहाई देते रह जाते है और समाज के शरीर मे विवाह की रूढ प्रणाली से रोग के गहरे कीटाणुओ की ओर से विमुख बने रहते है । विवाह के नीचे कितना सडाध, कलुष और मालिन्य उपजता और जमा होकर रोग उत्पन्न करता है, इसका हम लेखा-जोखा ही नही लेते। ऐसी स्थिति मे भी हम ऊपर से सामाजिक बने रहने का गर्व करते है । वस्तुत ऐसे मोटापे से क्या लाभ जो शरीर के रोग को छिपाए हुए हो । वास्तविकता यही है कि आज का समाज ऊपरी मर्यादा और आदर्श का चोला पहने हुए भीतर कालिमा से लिपटा है । अतएव यदि साहित्यकार उस कलुष के उक्त की ओर ध्यान केन्द्रित करता है
।
१ जैनेन्द्र कुमार 'काम, प्रेम और परिवार', पृ० १४३ ॥
२. जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
तो समस्या का निदान बाहर नही ढूढना पडेगा।
जैनेन्द्र के अनुसार 'सस्कृति स्वीकार पूर्वक ही प्रकृति को सस्कार दे सकती है, उसका इकार नही कर सकती । कामाकर्षण सर्वत्र व्याप्त है। नर-नारी योग पर सृष्टि टिकी है। क्यो न कहा जाय कि ब्रह्माण्ड टिका हे, कारण, वह
आकर्षण चर मे ही नही, अचर मे भी व्याप्त है।' ___ जैनेन्द्र के अनुसार सम्बन्ध के विस्तार मे पत्नी का सतीत्व भग नही होता वरन् और भी पुष्ट होता है। यही कारण है कि वे सती को पत्नी से अधिक महानता प्रदान करते है। उनकी दृष्टि मे सती विसर्जिता है और पत्नी केवल विवाहिता । अगर विवाहित होकर पत्नी विसर्जिता न हो जो कि सम्भाव्य ही नही, बल्कि अह है, तो सतीत्व से वह पत्नीत्व उल्टा पडता है । जब कि जैनेन्द्र के अनुसार बिना विवाह के एक कुमारी भी प्रेम मे किसी के प्रति विसजिता होकर आदर्श सती हो जाती है। जिन सतियो का पुराणो मे माहात्म्य है वे पत्नी की परिभाषा पर खरी उतरने वाली है । राधा सतीशिरोमणि समझी जाती है, पर कृष्ण के कारण, जो उनके विवाहित पति नही थे । वस्तुत जैनेन्द्र की दृष्टि मे पत्नी सामाजिक होती है और सती आध्यात्मिक ।
प्रेम-विवाह
जैनेन्द्र प्रेम और विवाह को समानान्तर रूप से स्वीकार करते हुए भी प्रेम-विवाह के पक्ष मे नही है । उन्होने अपने कथा-साहित्य मे प्रेम-विवाह को किसी भी स्थिति मे स्वीकार नही किया है । यद्यपि प्रेममूलक स्वतन्त्रता को देखते हुए उनका यह दृष्टिकोण असगत-सा प्रतीत होता है । जैनेन्द्र के अनुसार विवाह सामाजिक सस्कार है, अत उसमे समझौते के हेतु अवकाश रहता है। प्रेम विवाह व्यक्ति और समाज दोनो दृष्टियो से हानिप्रद है । उनके विचार मे विवाह जैसा पवित्र सस्कार माता-पिता के आदेशानुसार ही सम्पन्न होना चाहिए।' प्रेम-विवाह आवेग और भावावेष की स्थिति मे ही होता है । उस समय विवेक बुद्धि कार्य नही करती । प्रेम मुक्त होता है । वह दायित्व नही ग्रहण करता किन्तु
१ जैनेन्द्र कुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त' (अप्रकाशित)। २ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार । ३ 'विवाह मे प्रेम का आग्रह इतना अनिवार्य नही, जितना माता-पिता, गुरुजन, बन्धु-बाधव का सयोग और आशीर्वाद।।
---जनेन्द्र कुमार : 'काम, प्रेम और परिवार' पृ० स० ४० ।
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जैनेन्द्र और सगाज
१६१ जब प्रेम को विवाह मे प्राबद्व कर दिया जाता है तो उसमे पारस्परिक सोहार्द से अधिक तनाव की सम्भावना रहती है । गृहस्थी यथार्थ जगत की घटना है। प्रेम अतीन्द्रिय तथा प्रात्मलोक की अभिव्यक्ति है। जैनेन्द्र के अनुसार व्यवस्थित विवाह मे पारस्परिक तनाव होने पर भी एक-दूसरे के प्रति घृणा और तिरस्कार की भावना नही उत्पन्न होती। 'प्यार का तर्क' कहानी मे उन्होने प्रेम-विवाह का पूर्ण निषेध किया है। इस कहानी मे उन्होने प्रेम विवाह सम्बन्धी विचारो को बहुत स्पष्टता के साथ वणित किया है। जैनेन्द्र के अनुसार प्राप्ति की कामना मे प्रेम का पोषण नही होता । प्रेम मे त्याग अनिवार्य है। प्रेम-पात्र से दूरी होने पर भी आत्मिक स्तर पर मिलन-सुख का-सा आनन्द प्राप्त होता है, किन्तु प्रेम मे वैवाहिक बन्धन उत्पन्न करने से घृणा अथवा तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जो कि असह्यनीय है। प्रेम के अभाव मे जीवन किसी प्रकार सम्भव हो सकता है, किन्तु घृणा व्यक्ति के पारस्परिक स्नेह और प्रेम को सदैव के लिए विनष्ट कर देती है। विवाह रुमानी प्रेम पर नही टिक सकता । 'जिस प्रेम पर विवाह सचमुच टिका रह सकता है, वह व्यक्ति प्रेम नही, धर्म प्रेम होता है । वह कर्तव्य के नाते प्रेम होता है, रूप के नाते प्रेम नही हुआ करता।''
जैनेन्द्र विवाह के सम्बन्ध मे पुरुषार्य से अधिक भाग्य को महत्वपूर्ण मानते है । भाग्य के निर्णय पर व्यक्ति सन्तुष्ट रहता है, उसमे द्वन्द्व या आग्रह की स्थिति नही उत्पन्न हो सकती । पुरुषार्थ मे व्यक्ति का अह प्रबल रहता है और दोनो ओर से आग्रह होने के कारण जीवन तनावपूर्ण तथा असतोषजनक स्थिति से गुजरता है । जैनेन्द्र विवाह के हेतु स्वय वर के चुनाव को उचित नही मानते। वे विवाह मे धार्मिक वृत्ति को आवश्यक समझते है।
वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे प्रेम-विवाह को किसी भी स्थिति मे स्वीकृति नहीं मिल सकी है। उनके उपन्यासो मे प्रेम-सम्बन्ध अधिकाशत विवाह के बाद ही दृष्टिगत होता है । 'विवर्त' मे विवाह के पूर्व ही प्रेम सबध की परिकल्पना की गयी है, किन्तु प्रेम-विवाह सम्भव नही हो सका है। जैनेन्द्र के अनुसार प्रेम जीवन का अनिवार्य अग है। प्रेम के अभाव मे जीवन जडवत्
१. जैनेन्द्र कुमार 'प्रश्न और प्रश्न', पृ० स० १६६ । २ 'अपने को लेकर स्त्री या पुरुष को विवाह के क्षेत्र मे साथी चुनने के
लिए निकल जाना पडे, इस अवस्था को मै बहुत उन्नत सामाजिक व्यवस्था नही मानता।'
-जैनेन्द्रकुमार . 'प्रश्न और प्रश्न', १६६२, प्र० स०, पृ० १६८-६६ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
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हो जाता है, किन्तु प्रेम-विवाह द्वारा प्रेम मे उत्सर्ग के स्थान पर दायित्व का भाव बढ जाता है । व्यवस्थित विवाह के पश्चात् भी प्रेम स्थायी रहता है वस्तुत 'जैनेन्द्र ने प्रेम के स्थायित्व के हेतु प्रेम विवाह का निषेध किया है । 'त्यागपत्र' मे मृणाल का प्रेम-विवाह सम्भव नही हो सका है । मृणाल सामाजिक मर्यादा को स्थायी रखते हुए भी अपने ग्रन्तस् के प्रेम को विनष्ट नही होने देती । उसके हृदय मे अपने प्रेमी पात्र के प्रति घृणा की भावना नही जाग्रत होती ।
जैनेन्द्र के पात्र जीवनपर्यन्त भाग्य के थपेडे खाते हुए भी विवाह के दायित्व को सामाजिक मर्यादा के अन्तर्गत ही स्वीकार करते है । वैवाहिक जीवन चाहे कितना भी कष्टमय क्यो न हो जाय किन्तु वे अपने आदर्श से विचलित नही होते । 'त्रिवेणी' मे प्रेम-विवाह सम्भव न हो सकने के कारण त्रिवेणी का जीवन बहुत खिन्नतापूर्वक व्यतीत होता रहता है । विवाह के बाद भी उसका प्रेम विनष्ट नही होता । घर पर प्रेमी के आने से उसकी सारी मन स्थिति अभिभूत हो उठती । इसमे प्रेम की पीडा से छुटकारा नही चाहा गया है । प्रेम वात्सल्य में परिणत होकर सारा का सारा प्रभाव भाव से भर देता है । त्रिवेणी की कुझलाहट उसकी विपन्नता की ओर भी इगित करती है । निष्कर्षत जैनेन्द्र की दृष्टि मे प्रेम विवाह उचित नही है किन्तु विवाह के बाद भी प्रेम बना ही रहता है । प्रेम को जीवत बनाए रखने के लिए दूरी श्रावश्यक प्रतीत होती है । एलिस महोदय भी प्रेम-विवाह के पक्ष मे नही है । जैनेन्द्र के विचारो से उनमे स्पष्टत साम्य दृष्टिगत होता है । उन्होने प्रेम-विवाह के निषेध के हेतु समाज तथा परिवार की ओर से उत्पन्न होने वाली बाधाम्रो को आवश्यक माना है ।' जैनेन्द्र के विचारो पर भारतीय संस्कृति का भी प्रभाव लक्षित होता है । जैनेन्द्र के अनुसार विवाह को भोग में ही सीमित कर देना अनिष्टकर है ।"
विवाह विच्छेद
जैनेन्द्र ने जिस प्रकार प्रेम विवाह को अस्वीकार किया है, उसी प्रकार विवाह - विच्छेद ( तलाक) का भी पूर्ण निषेध किया है । जैनेन्द्र ने सामाजिकसमस्याओ को आध्यात्मिक स्तर पर सुलझाने का प्रयास किया है। पति-पत्नी का सम्बन्ध सामाजिक है, किन्तु बाह्य स्थूलता मे गर्भित सूक्ष्मता व्यक्ति की आत्मता का क्रोध कराती है । कोई भी व्यक्ति पूर्ण रूप से न अच्छा है और न
१ हैवलाक एलिस 'यौन मनोविज्ञान', प्र० स०, पृ० स० २५५ । २ जैनेन्द्र कुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया,' भाग ७, पृ० स० ११५ ।
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जैनेन्द्र और समाज
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ही बुरा है । स्त्री-पुरुष भी परस्पर दोषपूर्ण है। यदि एक-दूसरे के दोषो को देखकर सम्बन्ध विच्छेद की घटना घटित होती है तो उसे स्वाभाविक नही माना जा सकता । जैनेन्द्र के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति चाहे स्त्री हो या पुरुष, सदोष है, अतएव समाज और परिवार मे समझौते के बिना एक पग भी नही चला जा सकता।
जैनेन्द्र पति-पत्नी के आजन्म सम्बन्ध विच्छेद को उचित नही मानते । उनके अनुसार किन्ही विषम परिस्थितियो मे पति-पत्नी का साथ रहना पारस्परिक सहानुभूति को पूर्णतया विनष्ट करने वाला हो जाता है, तब उन्हे कुछ काल तक एक दूसरे से अलग रहना चाहिए । अलग रहने मे पारस्परिक सहृदयता पूर्णतया विनष्ट नही होती, केवल वैचारिक तनाव बना रहता है। तनाव मे दूरी उपयुक्त है किन्तु सम्बन्ध तोड देने से भविष्य मे प्रेम की सम्भावना का प्रश्न ही नही उठता । जैनेन्द्र का प्रमुख सिद्धान्त प्रेम को स्थायी रखना है। उनके अनुसार साहित्य का मूल स्वर प्रेम है । अप्रेम मे वे सुखी जीवन की कल्पना ही नही करते । 'विच्छेद' कहानी मे उन्होने वैवाहिक जीवन मे उत्पन्न होने वाले तनाव से बचने के लिए समझौते को आवश्यक माना है। वस्तुत जैनेन्द्र के पात्रो को वैवाहिक जीवन मे चाहे कितना ही कष्ट क्यो न सहना पडे किन्तु वे कानूनी रूप से सबधविच्छेद नही करते । व्यक्तिगत सम्बन्धो मे कानून को लाकर वे परस्पर की निष्ठा को विनिष्ट करना श्रेयस्कर नही समझते । कभी-कभी विवाह उनके समक्ष विवशता बन जाता है, किन्तु वे अपने आदर्शों से विचलित नही होते । यही कारण है कि उनकी प्रेमिकाए पति के प्रति घृणा या उपेक्षा का भाव नही रख पाती। उनके पति-पात्र भी अधिकाशत बहुत नम्र है । वे आन्तरिक पीडा की पूजी को सजोए हुए सारा जीवन व्यतीत कर सकते है, किन्तु सम्बन्धविच्छेद की कल्पना भी नहीं करते।' 'सुखदा' मे पति-पत्नी एक दूसरे से दूर चले जाते है, किन्तु प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धविच्छेद नही करते । ऐसी स्थिति में उनके हृदय का प्रेम समाप्त नही होता, वरन् प्रायश्चित मे परिणत होकर और भी सघन हो जाता है । 'त्यागपत्र' मे मृणाल सम्बन्धविच्छेद को आवश्यक नही समझती। पति के द्वारा घर से निकाल दिए जाने
१ 'मेरा मानना है कि दुनिया मे कोई दो व्यक्ति ऐसे नही हुए जो एक-दूसरे
के लिए जनमे कहे जा सके। खिचाव और तनाव तो स्त्री-पुरुष मे प्रकट और सहज है। सामन्जस्य इसलिए सहज नही है, उसे साधना होता है। उसके लिए सयम और अभ्यास की आवश्यकता है।'
-जैनेन्द्रकुमार . 'काम, प्रेम और परिवार', पृ० स० ६६ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन पर ही वह बाहर जाती है । वस्तुत विच्छेद स्वय मे श्रेयष्कर नही है ।
अन्तर्जातीय विवाह
जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियो मे प्रेम और विवाह को लेकर ही विशेष रूप से विवेचन किया गया है, किन्तु अन्तर्जातीय विवाह का सामाजिक दृष्टि से निषेध नही किया है । जैनेन्द्र की समस्त रचनाओ मे जातिवाद को लेकर कोई समस्या ही नही उत्पन्न होती । उन्होने कही भी यह नही प्रकट किया है कि जाति-भेद के कारण विवाह सम्भव नही हो सकता। विवाह के सम्बन्ध मे उन्होने अन्तर्जातीय विवाह को पूर्णत स्वीकार किया है । यही कारण है कि उन्होने जाति-भेद की समस्या को अपनी रचनाओ मे गम्भीरता से विवेचित नही किया है । 'कल्याणी मे उन्होने अन्तर्जातीय विवाह के कारण होने वाले लाभ पर भी प्रकाश डाला है । वस्तुत जैनेन्द्र छूत-अछूत, नीच-ऊच आदि के प्रश्न को लेकर सहज रूप से ही निर्मल सिद्ध कर देते है। जिस प्रकार उन्होने अपने साहित्य मे जाति-भेद के प्रश्न को सामान्य समझकर छोड दिया है, उसी प्रकार समाज के अछूत वर्ग पर भी अलग से विचार नही किया है । सत्यता यह है कि वे व्यक्ति को मात्र 'व्यक्ति' के रूप में ही समझने का प्रयास करते है। इसलिए उनकी दृष्टि मे जाति-भेद अथवा ऊच-नीच का भेद विशेष महत्व नही रखता।
काम भावना
'सृष्टि के मूल में' 'काम' है । सृष्टि ईश्वर की कामना का ही परिणाम है। ससार स्त्री-पुरुषमय है। उनके मध्य आकर्षण का केन्द्र काम-भावना ही है। एकाकी जीवनयापन की कल्पना निराधार है। जैनेन्द्र के अनुसार अकेलापन घेर लेता है तभी काम उससे उद्धार करने के लिए आता है। काम जीवन का अनिवार्य सत्य है। मानव जीवन की पूर्णता चार पुरुषार्थ, अर्थात् अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष की प्राप्ति मे ही सम्भव है। जैनेन्द्र के अनुसार मोक्षरूपी मजिल धर्मपूर्वक अर्थ और काम के मार्ग से गुजर कर ही प्राप्त हो सकती है। यद्यपि शुकदेव जैसे अपवाद शास्त्रो मे अवश्य मिलते है, जो बालब्रह्मचारी रहकर मोक्षोन्मुख हुए किन्तु सामान्यत इस जीवन मे काम की उपेक्षा नही कर सकते । जैनेन्द्र के साहित्य मे काम द्वारा भोगोन्मुखता को प्रश्रय न मिल कर उसके प्रेममूलक रूप को ही स्वीकार किया गया है । प्रेम मे आत्मदान के साथ शरीर-दान भी अनिवार्य ही नहीं, स्वाभाविक भी है । जैनेन्द्र के साहित्य मे 'प्रेम' शब्द का व्यापक अर्थों में प्रयोग किया गया है। अपनी
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जैनेन्द्र और समाज
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समग्रता मे प्रेम मे काम वर्जित नही है । राधा और मीरा के आदर्श को ही उन्होने प्रपने साहित्य मे विशेषत स्वीकार किया है । राधा-कृष्ण और मीरा भारतीय साहित्य ही नही, जीवन के ऐसे दो असामान्य और चिरन्तन आदर्श है, जिनके प्रेम के सम्बन्ध मे शका का प्रश्न ही नही उठता। उनके वैवाहिक जीवन मे भी प्रेम अपनी चरम सीमा पर आरूढ था । राधा और मीरा के प्रेम मे इन्द्रिय- उपेक्षा नही है, वरन् उनमे अतीन्द्रियता दृष्टिगत होती है । जैनेन्द्र के अनुसार अतीन्द्रियता इन्द्रियो की सम्पूर्ण स्वीकृति मे ही सम्भव हो सकती है । व्यक्ति इन्द्रियमार्ग से इतना परे चला जाए कि उसे स्थूल इन्द्रियगत आकर्षण का
ही न रह जाय । प्रतीन्द्रियता का बोध प्रात्मतत्व मे लीन होकर ही सम्भव हो सकता है । 'काम' इन्द्रियगत चेष्टा है, वह प्रेम का ही अग है । सामान्यत काम के सम्बन्ध में अत्यन्त ही अप्राकृतिक तथा अस्वास्थ्यकर दृष्टिकोण प्रचलित रहा है । यही कारण है कि काम प्रवृति अवदमित होती रहती है। नदी के प्रकृत प्रवाह के सदृश काम भावना का सहज प्रवाह हानिप्रद नही हो पाता, किन्तु बधे हुए जल के सदृश अवदमित काम वासना सहज मार्ग को छोडकर विकृत रूप मे प्रकट होती है । उस समय उसका स्वरूप विस्फोटक और विध्वसात्मक हो जाता है । ऐसी स्थिति में व्यक्ति मे अनेक शारीरिक विकृतिया तथा मनोविकार उत्पन्न हो जाते है ।
वस्तुत जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे काम के सहज प्रवाह को ही स्वीकार किया है । आधुनिक मनोवैज्ञानिको ने 'काम' के प्रति हमारे दृष्टिकोण को स्वस्थ बनाने का प्रयास किया है। साहित्य और मनोविज्ञान का घनिष्ट सम्बन्ध है, क्योकि दोनो मे व्यक्ति की समस्या पर प्रकाश डाला गया है। आधुनिक युग मे साहित्य पर मनोविज्ञान का अत्यधिक प्रभाव दृष्टिगत होता है । पात्रो की समस्या सामाजिक से अधिक व्यक्तिगत और मनोग्रस्त है । उपन्यासकार जैनेन्द्र के सम्बन्ध मे प्राय यही धारणा प्रचलित है कि उनकी रचनाए कामप्रधान तथा असामाजिक है । यह सत्य है कि जैनेन्द्र ही प्रथम लेखक है, जिन्होने जीवन के उपेक्षित पक्ष को नि सकोच रूप से समाज के स्तर पर अभिव्यक्ति प्रदान की है । बर्टेण्ड रसेल के अनुसार 'इस जमाने में दो प्रभावशाली विचार वाले लोग है, उसमे से एक प्रत्येक बात को आर्थिक सूत्र से प्राप्त करते है, दूसरा प्रत्येक बात को मैथुनात्मक सूत्र से प्राप्त करता है । इनमे पहला मार्क्स का विचार है और दूसरा फ्रायड का ।" जैनेन्द्र अर्थ और काम दोनो मे से किसी को अन्तिम नही मानते । अर्थ और काम तो जीवन की समानान्तर
१ एलिस की 'साइकालजी आफ सेक्स' से उद्धृत ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
रेखाए हैं, जिनके मध्य जीवन-यात्रा सभव होती है । जैनेन्द्र फ्रायड की भाति काम को भौतिक और दैहिक स्तर पर स्वीकार नही करते, वरन् उन्होने काम को आध्यात्मिक स्तर पर भी स्वीकार करके सामाजिक स्वीकृति प्रदान करने का प्रयास किया है । उन्होने सृष्टि के मूल मे भी ईश्वरीय शक्ति की कल्पना की है । जैनेन्द्र के अनुसार सम्भोग की स्थिति मे स्त्री-पुरुष इतने महशून्य हो जाते है कि उन्हे अपने अस्तित्व का भी बोध नही रहता । उस स्थिति मे सृष्टि सम्भवत ईश्वरीय शक्ति का परिणाम प्रतीत होती है ।" जैनेन्द्र की दृष्टि मे त्रास की चरम स्थिति ही परमानन्द की अवस्था है । परमानन्द ब्रह्मानन्द से परे कुछ नही है ।
फ्रायड के अनुसार सेक्स वह चीज है जिसमे लिंग भेद, प्रानन्दजनक, उत्तेजना और परितुष्टि, प्रजनन कार्य, अनुचित की धारणा और छिपाने की आवश्यकता सम्बन्धी सब बाते इकट्ठी या जाती है । जैनेन्द्र ने सेक्स को मात्र भोगाकाक्षा के रूप मे ही स्वीकार नही किया है । उनके समक्ष अर्ध-नारीश्वर का भाव ही वह मूल सूत्र है, जिससे स्त्री-पुरुष परस्पर बधे हे । उनके प्राक
रण के मूल मे निज की अपूर्णता ही विशेष रूप से दृष्टिगत होती है । स्त्री और पुरुष दोनो अपने मे अपूर्ण है । वे एक-दूसरे मे अपने प्रभाव की ही सम्पूति नही करते, वरन् वे पूर्णतया एकमेक होकर अपने ग्रह को विगलित करते है । उन्होने अपनी अर्धनारीश्वर सम्बन्धी धारणा को मनोविज्ञान, जीवविज्ञान और अध्यात्मवाद के आधार पर प्रस्तुत किया है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से स्त्री-पुरुष का एकाकीपन दुसह हो उठता है । काम मे स्त्री तथा पुरुष एक-दूसरे मे खो जाने के हेतु प्रत्यनशील रहते है । जैनेन्द्र के अनुसार जो अधूरा है, वह तृष्णार्त है, जो पूरा है, अर्थात् जिस समर्पण मे अपना कुछ भी बचाकर नही रखा गया है, अपना अग तक भी नही वह यथार्थ है । पवित्रता के लिए वह आदर्श बनता है ।' जैनेन्द्र ने फ्रायड के सदृश काम को शरीर की भूख के रूप मे अवश्य स्वीकार किया है, किन्तु उन्होने उसे केवल शरीर के स्तर तक ही सीमित नही रखा है । उनकी दृष्टि मे काम भावना वह केन्द्र है, जिसमे व्यक्ति का प्रभाव विस जित होते हुए दृष्टिगत होता है । हविसर्जन ही जैनेन्द्र के साहित्य और जीवन का मूल तत्व है । जैनेन्द्र ने कामभावना मे शारीरिक से अधिक आत्मिक स्थिति को स्वीकार किया है । काम भावना यदि शरीर तक ही केन्द्रित रहे तो उसमे
१ जैनेन्द्रकुमार 'काम, प्रेम और परिवार', पृ० स० ११६ । २ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
३ जैनेन्द्रकुमार 'काम, प्रेम और परिवार', पृ० स० ३३ ।
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तृप्ति की भावना नही उत्पन्न हो सकती। जब वह शरीर से आत्मा की ओर उन्मुख होती है, तभी उसमे विरिक्त और सन्तुष्टि की भावना जाग्रत होती है। जैनेन्द्र की भोग मे योगदृष्टि खोजने का एकमात्र यही आधार है, जो उनकी प्रेम
और काम सम्बन्धी विचारधारा को महिमान्वित करता है। उनकी दृष्टि मे.. 'अकेलेपन को लेकर व्यक्ति चलता है और उस भेट को किसी की गोद मे डालकर मानो सास और जीवन पा जाता है। यह मानवीय परस्परता अनिवार्य है। यह अकेलापन हो नही सकता कि वह दुकेलेपन को न ढूढे ।' जीवन मे काम की अनिवार्यता स्वीकार करते हुए जैनेन्द्र ने साहित्य मे भी उसकी अपेक्षा स्वीकार की है। उनकी दृष्टि मे 'अगर जीवन मे से सेक्स को बाहर निकाला जा सकता तो साहित्य, जीवन मर्म की शोध मे सृष्टि पाता है, जो जीवन के प्रतिफल मे सुन्दर, सुभग और समृद्ध करता है, वही उसको वहिष्करणीय कैसे मान सकता है ?' उनका साहित्य इसी सत्य की स्वीकृति मे फलित हुआ है । 'एक रात', 'रत्न प्रभा', 'निर्मम', 'राजीव' और 'भाभी' आदि कहानियो मे उन्होने स्त्री-पुरुष के नियक्तिक सम्बन्ध को ही स्वीकार किया है। वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार काम को वासना मानने मे घबडाने की जरूरत नही है । इसीलिए शब्द से अाशय इतना ही लेना चाहिए कि वहा ठहरना नही है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे देह रहते वासना से छुटकारा नही हो सकता। साराशत जैनेन्द्र की यह मान्यता है कि वासना या कामना हमको अन्य के प्रति उन्मुक्त करती है या अपने-आप मे इस अर्थ मे अभीष्ट ही है कि वह हमको अपने अह के व्रत से बाहर लाती और सम्बद्धता मे विस्तृत करती है। जैनेन्द्र उपरोक्त सम्बद्धता को व्यक्ति के हित के लिए आवश्यक मानते है । जैनेन्द्र के अनुसार 'पर' की स्वीकृति मे सामाजिकता स्वय ही गर्भित है।
जेनेन्द्र ने काम को 'यज्ञ' के रूप मे स्वीकार किया है । 'काम मे व्यक्ति झपट कर भोग लेना चाहता है, यज्ञ मे कही बिछकर मिट जाना चाहता है।" भोग मे योग का भाव भोग के समस्त अभावो को दूर कर देता है। 'सुनीता' तथा 'एक रात' आदि उपन्यास तथा कहानियो मे आत्मतुष्टि के अनन्तर एकदूसरे से दूर रहने मे उन्हे शान्ति ही मिलती है। कामजन्य छटपटाहट समाप्त हो जाती है। इसलिए जैनेन्द्र ने कामचर्या को ब्रह्मचर्या के रूप में स्वीकार
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त' (अप्रकाशित)। २ साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार। . ३ जनेन्द्र कुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त' (अप्रकाशित)। ४ जैनेन्द्र कुमार 'काम प्रेम और परिवार', पृ० १२३-२४ ।
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किया है, क्योकि उस अवस्था मे व्यक्ति की ग्रहचर्या पूर्णत विनष्ट हो जाती है । 'कामसूत्र' मे प्राचार्य वात्सायन ने काम सकल्प के भौतिक महत्व की अपेक्षा पारमार्थिक महत्व को प्रधान बताया है । उनके अनुसार वास्तविक सुखानुभूति का सम्बन्ध न तो इन्द्रियो से है और न मन से है, वरन् आत्मा से है । इस प्रकार वे 'काम' मे भौतिक जीवन की पूर्ति के साथ-साथ पारमार्थिक जीवन की उन्नति का स्रोत भी देखते है ।
स्त्री-पुरुष सम्बन्ध लिगत्व शून्य
जैनेन्द्र की अर्द्धनारीश्वर सम्बन्धी विचारधारा पर आचार्य वात्सायन के विचारो का प्रभाव स्पष्टत परिलक्षित होता है । उनके अनुसार प्रत्येक पुरुष के भीतर स्त्री की और प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष की सत्ता सतत् विद्यमान रहती है । वात्सायन की दृष्टि मे यही बात ॠग्वेद के 'अस्य भावीय सूक्त' मे इस प्रकार कही गई है कि जिन्हे पुरुष कहते है, वस्तुत वे स्त्रिया है । 'साख्यदर्शन '
इस द्वन्द्वको गुण-क्षोभ कहा गया है । जैनेन्द्र भी स्वीकार करते है कि 'हरेक मे स्त्री-पुरुषत्व दोनो रहते है नितान्त स्त्री और नितान्त पुरुष व्यक्तित्व पाता ही नही ।' उन्होने स्त्री-पुरुष के विशुद्ध पार्थक्य को स्वीकार नही किया है, ऐसी स्थिति मे स्त्री-पुरुष के मिलन मे लिगत्व-भेद को मिटाकर अतीन्द्रियता की प्राप्ति की कामना विद्यमान रहती है । जैनेन्द्र के कतिपय आलोचक, जिनकी उपरोक्त लिगहीन विचारधारा को नपुसकता का द्योतक बताते है । जैनेन्द्र के साहित्य मे लिगहीनता को सामान्य अर्थों मे नही ग्रहण किया गया है । उनके साहित्य मे लिगहीनता एक प्रतीतिमात्र है । उस प्रतीति को नपुसकता से जोडना सगत नही है । उनकी दृष्टि मे लिगहीनता की प्रतीति शरीर पर व्यान केन्द्रित रखते हुए नही हो सकती । उसके लिए व्यक्ति की आत्मोन्मुखता अनिवार्य है । 'जयवर्द्धन' मे काम द्वारा प्रकाम की ओर उन्मुखता के दर्शन होते है । जय के विचारो से स्पष्टत ज्ञात होता है कि 'कामचेष्टा के प्रभयन्तर मे जो अनिवार्य, आकुल आत्मचेष्टा है, वही उसका सार और रहस्य है ।' काम के क्षय के लिए जय आत्मोन्मुखता को अनिवार्य मानता है । उनकी दृष्टि मे आत्मा मे होकर पुरुष पुरुषातीत भी हो जाता है । उस अवस्था मे वह स्त्री से भिन्न नही रहता है । आत्मा मे लिगत्व नही है । भेद नही है, 'स्व' पर भेद
१ जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', पृ० ६२८ ।
जैनेन्द्र कुमार प्रतिनिधि कहानिया, स० शिवनन्दनप्रसाद,
पृ० ३७१ ।
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तक नही है । वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार पुरुषातीत अवस्था मे पुरुष मे स्त्रीत्व स्वय गर्भित हो जाता है और यही स्थिति स्त्री मे भी होती है। इस प्रकार जैनेन्द्र की दृष्टि मे लिगहीनता नपुसकता की पर्याय नही प्रतीत होती है । जैनेन्द्र ने लिगहीनता को व्यक्तित्व की समग्रता के अर्थ मे ग्रहण किया है । उन्होने महत् आदर्श को लिग की उभयता के पार देखने की चेष्टा की है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे यह आदर्श असामाजिक और अप्राकृतिक न होकर अत्यन्त ही व्यावहारिक है । प्रत्येक स्थिति मे अपने पुरुषत्व तथा स्त्रीत्व के प्रदर्शन मे से व्यक्तित्व का छिछलापन ही प्रकट होता है। जैनेन्द्र की कहानियो मे अधिकाशत यही स्थित दृष्टिगत होती है, जब कि उनके पात्र समर्पण द्वारा नितान्त अहशून्य हो जाते है और उन्हे अपने स्त्रीत्व अथवा पौरुष का ही बोध नही रहता। वे कालखण्ड से ऊपर, भौतिक द्वैत से परे अद्वैत की अनुभूति करते है । वस्तुत स्त्री-पुरुष सम्बन्ध मे कामभावना स्वत ही तिरोहित हो जाती है। जैनेन्द्र के अनुसार 'काम' अकेलेपन को खोने की औषधि के रूप मे आता है और रोग वह नही है । काम मे प्रेम द्वारा द्वैत को अभेदत्व की ओर उन्मुखता प्राप्त होती है ।
नैतिकता
जीवन मे काम को अस्वीकार करके ब्रह्मचर्य की साधना करना भी व्यक्ति का धर्म तथा अहकार है । सत्य की शक्ति के कारण ही मन का झूठ पराजित हो जाता है और व्यक्ति को टूटना पडता है । 'अकेला' शीर्षक कहानी मे साधु ब्रह्मचर्य की कामना करने वाला व्यक्ति स्वय को धोखा नही दे पाता है और कहता है, 'अकेला मै नही रह सकता, प्रिये । अकेला रहना मेरे लिए अधर्म है।' जैनेन्द्र के अनुसार झूठ के डडे पर चढकर समाज मे ऊचा उठने से अच्छा है, मन के सत्य को स्वीकार करके स्वय को समर्पित कर देना, क्योकि सत्य बाह्य आचरण मे ही नही, अन्तस् और बाह्य की समग्रता मे ही सम्भव है।
जैनेन्द्र की कतिपय कहानियो पर असामाजिकता और अनैतिकता का दोषारोपण किया जाता है इस दृष्टि से उनकी 'वि-ज्ञान' कहानी विशेष रूप से चर्चित रही है । यह कहानी साहित्य-जगत् मे अत्यधिक वाद-विवाद का विषय रही है। 'वि-ज्ञान' मे स्थूलत ऐसा प्रतीत होता है, मानो लेखक ऐसी काल
१. जैनेन्द्र कुमार . 'जयवर्धन', पृ० ३२४ । २. लव मेक्स वन आफ टू 'वृट्ज विटेल्स क्रिटिक आफ लव, प्र० स०,
लन्दन, १६३०, पृ० २५६ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन गर्ल्स तैयार करने के पक्ष मे है जो कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध स्थापित करने मे समर्थ हो सकती है। इस प्रकार जैनेन्द्र पर सामाजिक मर्यादाप्रो को भग करने तथा भ्रष्टाचार को बढाने वाली सस्थानो को प्रोत्साहित करने का प्रारोपण लगाया जाता है। इस दृष्टि से तो जैनेन्द्र के सम्बन्ध मे हमारी पूर्वोक्त सारी परिकल्पना उल्टी होने लगती है। क्योकि 'वि-ज्ञान' कहानी में नारी की पीडा को मूल मे न लेकर उसके शरीर को ही मुख्याधार बनाया गया है । शरीर की साधना मे मन अपने को पूर्णत तटस्थ रखता है। किन्तु क्या तन और मन कभी अलग हो सकते है ? तन और मन के द्वैत के कारण ही काम और प्रेम की समस्या उत्पन्न होती है । यदि शरीर और मन एक-दूसरे के पूरक रहे तो अतत प्रेम ही विजयी होगा । तन उस पर हावी नहीं हो सकेगा। 'विज्ञान' मे मन के ब्रह्मचर्य पर बल दिया गया है। किन्तु सच्ची ब्रह्मचर्य-साधना एक को ग्रहण करने और दूसरे को त्यागने मे पूर्ण नही हो सकती। इस प्रकार समाज मे व्यभिचार फैलने की सम्भावना अधिक रहती है। इसलिए शुन्य ब्रह्मचर्य साधना व्यक्तित्व की क्षतिग्रस्तता की ही परिचायक है । इस दृष्टि से कालगर्ल्स की शरीर-साधना अतत कोई महत्व नही रखती।
यह सत्य है कि प्राचीनकाल से ही नारी अपने रूपाकर्षण द्वारा राष्ट्रसेवा के हेतु प्रस्तुत रही है। रामायणकालीन मधुर भाषिणी वेश्याए प्राय सेना के साथ रहती थी, वही प्राय दूती का कार्य भी करती थी, किन्तु उस समय भी स्त्री के शरीर की ऐसी नाप-जोख भी होती थी, जैसी कि वैज्ञानिक वृति के प्रभाव के कारण 'वि-ज्ञान' कहानी मे दृष्टिगत होती है। प्रभावहीन काम की कल्पना अप्राकृतिक है । कालगर्ल्स के लिए जिस ब्रह्मचर्य की कल्पना की गई है, वह अत्यधिक दुष्कर है । स्त्री निरी वस्तु नही बन सकती, क्योकि उसके पास केवल शरीर ही नही है, हृदय भी है । यह सम्भव हो सकता है कि वह आत्मा की पिपासा को शान्त करने के लिए स्वय को किसी के समक्ष समर्पित कर दे।
उपरोक्त विवेचन मे 'वि-ज्ञान' कहानी के मूल में निहित स्त्री की ब्रह्मचर्यसाधना द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध स्थापित करने की योजना की निस्सारता ही मुखरित होती है और अन्त मे कहानी मे सेक्रेटरी द्वारा सत्य प्रकट हुए बिना नहीं रह पाता, क्योकि उसकी दृष्टि मे स्त्री केवल प्रयोजनवती ही नही होती, उसकी अर्थवत्ता प्रयोजन से परे है । सैक्रेटरी श्री एक्स० की अोर इगित करते हुए कहता है कि-'क्या आपके जीवन मे स्त्री प्रयोजन से अधिक बढकर कोई आई ही नही ?' इस प्रश्न के उत्तर मे श्री एक्स का यह कथन कि 'धन्यवाद, तुम जा सकते हो । क्योकि मे भी इस बारे मे चुप रहूगा । अतीत को काटकर मै
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अपने से अलग फेक चुका हू ।" "उनकी भुझलाहट तथा अपने ऊपर डाले Te अप्राकृतिक दबाव की ओर इंगित करता है । इससे स्पष्ट है कि उनकी प्रक्रिया सहज न होकर उनके रुग्ण मन की ही परिचायक है ।
वस्तुत जैनेन्द्र की 'विज्ञान' कहानी मे रुग्ण मानसिकता ही दृष्टिगत होती है । जितनी वैज्ञानिक वृत्ति दृष्टिगत होती है, उसमे प्रतिक्रिया ही है, सत्य नही है । इस कहानी मे प्रकृत मनुष्य क्षतिग्रस्त होता है, जो क्षतिग्रस्त है, वह निश्चय ही पूर्ण नही है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे विज्ञान और वैज्ञानिक वृत्ति अपने मे परिपूर्ण नही है। उसमे सवेदना और मनुष्यता के सस्पर्श की आवश्यकता बनी ही रहती है । यही कारण है कि अन्त मे ब्रह्मचर्यं का ढोग टूटता है और सत्य प्रकट हो जाता है । वस्तुत जैनेन्द्र ने काम की चर्चा करते हुए उसके मूल मे स्नेह की स्निग्धता को अनिवार्य रूप से स्वीकार किया है । 'विज्ञान' कहानी मे लेखक के विचार कहानी की घटनाओ मे नही प्राप्त होते है । लेखक की दृष्टि कहानी से तटस्थ होकर देखने पर ही प्राप्त होती है । वस्तुत जैनेन्द्र पर अनैतिकता अथवा असामाजिकता के प्रसार का आरोपण मिथ्या प्रतीत होता है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे सत्य पर ही नैतिकता का मानदण्ड निर्धारित किया जा सकता है । झूठ मे ही पाप पलता है ।
जैनेन्द्र ने अपने एक नवीनतम निबन्ध 'कला और अश्लीलता' मे सत्य के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि सत्य को सस्कृति की मर्यादा मे ही विवेचित किया जा सकता है । उनके अनुसार सत्य प्रकृति तक ही नही है, संस्कृति मे भी व्याप्त है । 'संस्कृति' शब्द मे प्रकृति का ज्यो का त्यो स्वीकार नही है, बल्कि उसके सस्कार की अनिवार्यता का भी सकेत है। जैनेन्द्र के साहित्य ने सत्य का नग्न प्रदर्शन वही तक स्वीकार है, जहा तक कि उसमे असत्य अथवा मिथ्याचार का मिश्रण नही है । जैनेन्द्र के अनुसार जीवन के सत्य और कला के सत्य मे अन्तर है । समाज मे जो मर्यादा होनी चाहिए वह कला मे उसी रूप मे उपयुक्त नही की जा सकती । उसमे बन्धन ढीला करना कला की दृष्टि से अनिवार्य है । जैनेन्द्र ने 'धर्माभिमुख कला को ही छूट
१. जैनेन्द्र कुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', प्र० स०, भाग १, पृ० स० ११२ । २ उपरोक्त विचार जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त हुए । उनके विचारो से यह स्पष्ट होता है कि वे 'विज्ञान' कहानी मे नारी शरीर को लेकर अभिव्यक्त वैज्ञानिक वृत्ति के पक्ष मे नही है ।
३. जैनेन्द्रकुमार 'कला और अश्लीलता' (प्रकाशित साप्ताहिक हिन्दुस्तान ), ८ नवम्बर १९७० ई०,
पृ०
स०७ ।
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की अविकारणी माना है। उनके अनुसार दिगम्बरत्व का आदर्श भी धर्मोंन्मुख होने के कारण ही स्वीकार्य हो पाता है । वस्तुत जैनेन्द्र कला के धर्मयुक्त रूप को स्वीकार करते है, किन्तु सत्य यह है कि धर्म की ओट मे ही समाज मे नाना व्यभिचार होते रहते है । धार्मिक मठो के अधिष्ठाता, धर्मगुरु
आदि धर्म के नाम पर समाज के वातावरण को दूषित करने में सहायक होते है । अतएव कला की धर्मोन्मुखता मे पवित्रता की भावना होना निश्चित नही है। धर्म से विमुख होकर कोई रचना कर सकता है, ऐसी स्थिति मे समाज द्वारा कलाकार की स्वतन्त्रता पर दबाव नही डाला जा सकता, किन्तु कलाकार की अमुक कृति को अमान्य ठहराया जा सकता है । इस प्रकार जैनेन्द्र कलाकार की स्वतन्त्रता को स्थायी रखते हुए भी समाज की मर्यादा की रक्षा पर विशेष बल देते है । समाज के नैतिक स्वास्थ्य की रक्षा के हेतु वे कवि अथवा लेखक की रचना की महता का स्वरूप निर्णय समाज पर ही छोड देते है।
जैनेन्द्र की नैतिकता का मानदण्ड बहुत ही व्यापक दृष्टिकोण का परिचायक है। सामान्यत नैतिकता को स्त्री-पुरुष सम्बन्ध मे सीमित रखा जाता है । किन्तु जैनेन्द्र इस रूढि से आगे बढ कर नैतिकता को जीवन के व्यापक परिप्रेक्ष्य मे स्वीकार करते है। उनकी दृष्टि मे पारिवारिक नैतिकता व्यक्ति को स्वार्थी बना देती है । सामाजिक और राष्ट्रीय नैतिकता ही व्यक्तित्व के विकास मे सहायक होती है । मर्यादा के घेरे मे आबद्ध व्यक्ति 'पर' की ओर उन्मुख नही हो पाता । 'अनन्तर' मे एक स्थान पर सकेत किया गया है कि समाज मे स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध को बहुत ही भयावह बना दिया है। 'अनन्तर' मे स्त्री के समग्र समर्पण से भयभीत 'प्रसाद' का मनोवैज्ञानिक मनोविश्लेषण बहुत ही स्वाभाविक रूप से प्रस्तुत किया गया है । सहज और अनायास रूप से सम्पन्न कार्य को अनैतिक नही कहा जा सकता । 'अनन्तर' मे अपरा की सहजता के समक्ष प्रसाद का असहज होना ही उसके मन की दुर्बलता की ओर सकेत करता है।
१ जैनेन्द्रकुमार 'कला और अश्लीलता', पृ० स० ७ । २ जैनेन्द्रकुमार 'कला और अश्लीलता', पृ० स० ७ ।
(क) 'स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध वह नही है, जिस पर नीति या धर्म को खडा होना चाहिए ।'
जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ५, पृ० स० ४२ । (ख) 'प्रादमी आदमी के बीच जिसने शका पैदा कर दी है, उसे, नैतिकता कहते है।
---जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० स० ६१ ।
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जैनेन्द्र और समाज
२०३ जैनेन्द्र के अनुसार हमारी नैतिक मान्यताए व्यक्ति के स्वास्थ्य से अधिक समाज की व्यवस्था पर आधारित है। किन्तु इस प्रकार व्यभिचार दूर होने के स्थान पर और भी पुष्ट होता है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे अनैतिकता का मूल कारण प्रेम के निषेध मे ही फलित होता है। प्रेम का अविश्वास करने और उसके प्रकट सचरण के मार्ग मे अवरोध लाने के कारण ही समाज मे अव्यवस्था उत्पन्न होती है। इसीलिए वे स्वीकार करते है कि-'हमारी नैतिक धारणाए साहस और श्रद्धा के स्पर्श से ज्वलन्त हो और केवल वे समाज व्यवस्था की चिन्ता से त्रस्त, भीत और कातर न हो।" उनकी दृष्टि मे वह सब प्राचार व्यभिचार है, जो हार्दिक नही है और जिसमे भय सचय है। वस्तुत जैनेन्द्र उस आचरण को ही नैतिक मानते है, जिसमे व्यक्ति की उपेक्षा की जाती है तथा अर्थ और पदलोलुपता ही प्रधान होती है।
वेश्यावृत्ति
सामान्यत वेश्या बनी नारी को कामुकता की प्रतिमा माना जाता है, मानो स्त्री स्वेच्छा से ही यह कलक अपने ललाट पर लगाती है। यदि 'वेश्या' शब्द तक ही सीमित रहता तो वह व्यक्तिगत समझा भी जा सकता था, किन्तु साथ जुडे हुए 'वृत्ति' शब्द से वेश्यावृत्ति की सामाजिकता का बोध होता है । जैनेन्द्र वेश्यावृत्ति के मूल मे स्त्री को दोषी न मानकर पुरुष को ही दोषी स्वीकार करते है । पुरुषो मे भी वेश्या की ओर तभी उन्मुखता हुई है, जब कि उनके पास अर्थ विद्यमान रहता है । जैनेन्द्र के अनुसार सृष्टि के प्रारभ मे नर और नारी दो ही थे । समाज मे वेश्या को स्थान तो अर्थवृद्धि होने पर ही आरम्भ हुआ था। वे वेश्यावृत्ति के मूल मे अर्थासक्ति को साध्य तथा कामवृत्ति को साधन के रूप मे स्वीकार करते है । जैनेन्द्र ने समाज मे फैली हुई ऐसी वेश्या-सस्थानो पर प्रकाश डाला है, जिनके सस्थापको को भोगवृत्ति के प्रति अनिच्छा होती है, किन्तु सस्था के द्वारा अधिक-से-अधिक धनोपार्जन की ओर उनकी दृष्टि केन्द्रित रहती है । इस प्रकार समाज से वेश्यावृत्ति का
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त', (अप्रकाशित) २ 'वेश्या पैसे के प्रारम्भ से पहले हो ही नही सकती "उजरत और कीमत
देकर जब भोग के लिए नारी को प्राप्त करते है, तभी तो उसे वेश्या कहते है। कीमत पैसे के रूप मे चुकाने की विधि ही न हो, तो वेश्या की स्थिति नही बन सकती।'
जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम,' पृ० स० ३४५ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
उन्मूलन बहुत कठिन प्रतीत होता है । जैनेन्द्र के अनुसार--'वेश्या वह नही है जो अनेक को प्रेम करती है। वेश्या वह है, जो पैसे के एवज-मे अपने को देती है । इन शब्दो द्वारा जैनेन्द्र ने वेश्या सम्बन्धी गम्भीर सत्य की ओर इगित किया है। सामान्यत वेश्या को अनेक पुरुषो से सम्बन्ध स्थापित करने के कारण ही हेय माना जाता है। किन्तु वेश्यावृत्ति के मूल मे निहित नारी की विवशता की ओर हमारा ध्यान नही जाता । वह अर्थ के लिए अपने को देती है । वेश्यावृत्ति के सदर्भ मे चर्चा करते हुए ज्ञात होता है कि पुरुष की कामुकता ही नारी को विवश बनाती है । जैनेन्द्र वेश्या को किसी भी शर्त पर अमान्य नही मानते । उनकी दृष्टि मे यदि समाज वेश्या को हेय मानता है तो वैश्य क्यो सम्मानीय हो सकता है ? वैश्य की अर्थलोलुपता वेश्या से कही अधिक घातक है । क्योकि वेश्यावृत्ति का स्वरूप तो समाज मे प्रकट है, किन्तु वैश्य तो सामाजिक दृष्टि से सम्मानीय बनकर समाज के शरीर मे झूठ, चोरी और बेईमानी का घातक विष फैलाता है । वस्तुत जैनेन्द्र की दृष्टि में वेश्यावृत्ति की जड मे शुद्ध अर्थासक्ति विद्यमान रहती है ।
वेश्यावृत्ति पूजीवादी नीति का ही परिणाम है। भारत मे ही नही, ग्रीक, बेबीलोन तथा रोम मे यह वृत्ति प्राचीनकाल से चली आ रही है। श्री पार्नर के अनुसार वेश्यावृति का मुख्य कारण समाज में व्याप्त गरीबी है।" उनके अनुसार पति भी पत्नी को बहुकेन्द्रित होने के लिए विवश कर देते है। जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियो मे वेश्यावृत्ति का जो स्वरूप दृष्टिगत होता है, उसके मूल मे गरीबी ही विद्यमान है । निर्धनता के कारण वेश्या बनी नारी समाज से तिरस्कृत होकर अपने पति की आर्थिक सहायता करती है। 'अधे का भेद' शीर्षक कहानी मे अधा भिखारी गली-गली गाकर भीख मागता है और उसकी पत्नी परिवार से दूर समाज के कीचड मे पडी गृहस्थी को चलाने
१ 'लेकिन अर्थ-व्यापार के विचार से अलग वेश्या के प्रश्न का विचार
पल्लवग्राही होगा, यथा मूलग्राही नही होगा, यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिये ।'
--जैनन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ३४७ । २ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम,' पृ० स० ३५१ । ३ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचारो पर आधारित । ४ 'पावरटी इज वन आफ द मेन रीजन बाई सो मेनी गर्ल्स एण्ड वीमेन
बीकेम प्रास्टीच्यट्' पार्नर ‘एलिमेण्ट्स आफ सोशलिज्म', न्यूयार्क ।
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जैनेन्द्र और समाज
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के लिए धनोपार्जन करती है। वह अपने हाथो से अपने पति की आखे फोड देती है, जिससे वह उसके कुकर्मो को देखकर दुखी न हो । उसकी आत्मा पतित नही होती । किन्तु बाह्य रूप मे वह जो कुछ भी करती है, किसी तरह ही सहन करती है । जैनेन्द्र ने अपनी इस कहानी मे वेश्या नारी का जो रूप प्रस्तुत किया है, वह मर्मातिमर्म को छू लेता है । वस्तुत जैनेन्द्र की दृष्टि मे वैश्या समाज-उपेक्षिता बनकर भी सहानुभूति की प्रार्थिनी बनी रहती है । 'बिखरी' कहानी मे पत्नी निर्धनता के कारण स्वय को ऐसी सस्था से सम्बद्ध कर देती है, जिसका लक्ष्य उसके माध्यम से अर्थोपार्जन करना है। 'त्यागपत्र' मे मृणाल सामाजिक मर्यादा की सुरक्षा के हेतु स्वय को समाज के उस उपेक्षित स्थान मे ले जाती है, जहा मानव जीवन की समस्त सवेदना तथा पारस्परिक सहानुभूति पूर्णत समाप्त हो जाती है। नारी केवल जडपदार्थ के रूप मे उपभोग्य बन जाती है । 'त्यागपत्र' मे मृणाल निर्धनता के कारण भी समाज के उस दलित स्थल को स्वीकार नही करती, वरन् स्वय को समाज से दूर रखकर समाज की व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करती है । वस्तुत जैनेन्द्र के उपन्यास
और कहानियो मे नारी अधिकाशत अर्थासक्ति के कारण ही वेश्यावृत्ति स्वीकार करती है । जैनेन्द्र अतत वेश्यावृत्ति के उन्मूलन का कोई निदान प्रस्तुत करने में समर्थ नही हो सकेगे । 'त्यागपत्र' की समस्या इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है । वस्तुत जैनेन्द्र सुधार के पक्ष मे नही प्रतीत होते । उनकी दृष्टि मे सामाजिक-सुधार के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति की मनोवृत्ति मे सुधार किया जाय ।
समाज में स्त्री का स्थान
जैनेन्द्र के साहित्य मे जहा स्त्री-पुरुष को उनके प्रकृत अर्थात् निर्वयक्तिक रूप मे स्वीकार किया गया है, वहा जैनेन्द्र के विचारो की मौलिकता तथा नवीनता स्पष्टत. दृष्टिगत होती है। किन्तु नारी को व्यक्तित्व प्रदान करते हुए उन्होने उसके स्वरूप को राजनीति, समाज, परिवार आदि विभिन्न परिप्रेक्ष्यो मे विभिन्न रूपो मे देखा है।
जैनेन्द्र के साहित्य का अध्ययन करने पर यह विदित होता है कि उनके नारी पात्र अत्यन्त स्वतन्त्र विचारो के है । उनमे भारतीय संस्कृति और मर्यादा की चेतना नही है, किन्तु सत्यता यह है कि जैनेन्द्र के पात्र भूत का स्पर्श करते हुए भी वर्तमान मे जीते है। अपनी संस्कृति की वे कभी भी उपेक्षा नही करते । भौतिकता के युग मे सामान्यत स्त्री-पुरुष मे होड लगी हुई है । स्त्री पुरुष से आगे बढ़ने के लिए तत्पर है किन्तु जैनेन्द्र के अनुसार स्त्री की पुरुष से
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प्रतिस्पर्धा उचित नही है ।' उनकी दृष्टि मे स्त्रियो के नौकरी करने का लक्ष्य स्वतन्त्रता और नौकरशाही का न होकर सहयोग का होना चाहिए । जैनेन्द्र के अनुसार स्त्री पुरुष की होड मे आगे नही बढ सकती, वरन् इस प्रकार लडखडा सकती है कि उसकी प्रगति का मार्ग ही अवरुद्ध हो जाय । जैनेन्द्र के उपन्यासो और कहानियो मे स्त्री पात्रो मे विवाह के घेरे से बाहर उन्मुक्त रूपसे सास लेने की कामना है, किन्तु सार्वजनिक क्षेत्रो मे वे पूर्ण स्वतन्त्रता के पक्ष मे नही है। 'सुखदा' मे सुखदा घर से बाहर निकलने पर स्वय मे एक हीनता का अनुभव करती है । उसे ऐसा प्रतीत होता है कि घर से बाहर राजनीति मे आकर उसने अपनी मर्यादा को भग किया है । जैनेन्द्र के नारी पात्र सार्वजनिक क्षेत्रो मे एक कुण्ठा लिए हुए ही अवतरित होते है । उनके मन की ग्रन्थि ही उन्हे राजनीति मे प्रवेश करने को विवश करती है।
जैनेन्द्र ने सामाजिक सन्दर्भ मे अति स्वातन्त्र्य का विरोध किया है, किन्तु पारिवारिक स्तर पर पत्नी की दासता का निषेध किया है । 'सुखदा', 'सुनीता, 'विवर्त' आदि उपन्यास उनका यह आदर्श प्रस्तुत करने के लिए पर्याप्त है। 'कल्याणी' तथा 'सुखदा' मे उन्होने स्पष्टत स्वीकार किया है कि पत्नी पति की सम्पत्ति नही है। पूजीवादी विचारक जड पदार्थ के रूप मे ही स्वीकार करते है। उनके अनुसार अन्य भौतिक पदार्थों के सदृश स्त्री की भी अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नही है। जैनेन्द्र के साहित्य मे २त्री-स्वातन्त्र्य की कामना क्रान्तिकारी रूप मे व्यक्त हुई है, किन्तु समाज की मर्यादा से बधी नारी कभी भी सामाजिक सीमा का उल्लघन नही कर पाती। जैनेन्द्र के उपन्यासो मे स्वतन्त्रता का जो रूप दृष्टिगत होता है, वह केवल प्रेम के सम्बन्ध मे व्यक्त हुआ है । प्रेम से इतर जीवन सभी दृष्टियो से मर्यादित है । 'त्यागपत्र', 'परख' आदि मे जीवन का जो आदर्श व्यक्त हुअा है, वह सामाजिक मर्यादा का पोषक ही है । जैनेन्द्र के अनुसार स्त्री का राजनीति में प्रवेश उचित नही है। उनकी दृष्टि मे स्त्री-प्रेम और प्रेरणा की मूर्ति है, प्रेम शक्ति है। प्रेमिका बनकर वह पुरुष को प्रगति की ओर अग्रसर करती है। 'मुक्तिबोध' मे उन्होने राजनीति में प्रवेश
१ 'स्त्री की आर्थिक स्वतन्त्रता की चाह को उचित नही मानता । स्त्री पुरुष
के भी स्नेह-भावना की जगह हिसाबी बुद्धि आ जाय तो जीवन लाभ की दृष्टि से उसमे कोई उन्नति नही कह सकूगा .।'
--जैनेन्द्रकुमार 'समय, समरया और समाधान', (अप्रकाशित) ।
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जैनेन्द्र और समाज
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करने वाली स्त्री को प्रभागिन तक कहा है। स्त्री का राजनीति में प्रवेश वही तक स्वीकार है, जहा तक कि वह पति अथवा प्रेमी की प्रेरणा स्रोत बनी रहती है। 'निर्मम' मे प्रेम के वशीभूत हुई नारी अपने समर्पण से शिवा के प्रति अपने प्रेम को स्थायित्व प्रदान करती है। 'ध्रुव-यात्रा' मे लेखक ने प्रेम और कर्तव्य का अद्भुत आदर्श प्रस्तुत किया है। प्रेमिका प्रेमी को गृहस्थी के बन्धनो मे बाधकर उसकी प्रगति के मार्ग को अवरुद्ध नहीं करती। वरन् स्वय कष्ट झेलते हुए आगे बढने का सदुपदेश देती है। पुरुष के जीवन मे कुछ महत्वाकाक्षाए होती है । स्त्री उनकी पूर्ति मे सहायक होती है । 'मुक्तिबोध' मे नीलिमा कहती है—'आदमी सपने के लिए जीता है और औरत उस सपने के आदमी के लिए जीती है।३ 'जयवर्धन' मे इला प्रतिक्षण जय के साथ रहती हुई भी राजनीतिक परिवेश मे उसके साथ कदम मिलाकर नही चलती, वह जय के साथ रहती है, परन्तु अन्तर्निहित हार्दिकता अथवा आत्मता की भाति ही, उसका बाह्म और सक्रिय रूप तो जय स्वय होता है। जैनेन्द्र की अर्ध नारीश्वर की भावना भी स्त्री पुरुष के इस अन्तनिष्ठ और बहिनिष्ठ व्यक्तित्व मे सदा ही समाहित हो जाती है। ___ जैनेन्द्र ने स्त्री के मातृत्व रूप को बहुत अधिक महत्व प्रदान किया है। प्रेमिका होने के साथ ही साथ वह माता भी है । दोनो भागो से वह प्रेम और स्नेह की वृष्टि करती है । आधुनिक सभ्यता मे आर्थिक विवशता के कारण माता घर से बाहर कमाने के हेतु जाती है। इस प्रकार वह अपने मातृत्व के कर्तव्य को पूर्ण नही कर पाती । यही कारण है कि जैनेन्द्र स्त्री का घर से बाहर आर्थिक क्षेत्र मे पुरुष की सहगामिनी के रूप मे आना उचित नही मानते। उनकी दृष्टि
१ (क) 'अभागिन है वह स्त्री जो स्त्री है और राजनीति मे आती है या उसका
विचार भी करती है।' –जैनेन्द्रकुमार 'मुक्तिबोध', पृ० ६२ । (ख) 'राजनीति स्त्रियो के लिए नही है।'
-जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', पृ० २७५ । २ 'मेरी और बच्चो की चिन्ता जरूर तुम्हारा काम नही है । मैने कितनी बार तुमसे कहा कि तुम उससे ज्यादा के लिए हो।'
-जैनेन्द्रकुमार 'ध्रुवयात्रा', पृ० स० ६४ । ३. जैनेन्द्रकुमार 'मुक्तिबोध', पृ० ६३ ।। ४ 'मै नही चाहूगा कि माता कमाने के लिए दफ्तर मे जाय और धाय काम करने के लिए बच्चो को अपना दूध पिलाने प्राय ।'
-जैनेन्द्रकुमार . 'काम, प्रेम और परिवार', पृ० स० १५१ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
मे 'स्त्री की सार्थकता मातृत्व है । मातृत्व दायित्व है । वह स्वतन्त्रता नही है । स्त्री निपट स्वच्छन्द रहना चाहती है, तो उसके मूल मे यही अभिलाषा है कि माता बनने से वह बची रहे और पुरुष के प्रति उसका प्रेयसी रूप ही प्रतिष्ठित रहे। वस्तुत जैनेन्द्र की दृष्टि मे स्त्री मातृत्व से बचकर स्वय मे अपूर्ण रहती है । जैनेन्द्र की कहानियो मे मातृत्व की प्रबल आकाक्षा दृष्टिगत होती है। पति का अतिशय प्रेम और सहानुभूति प्राप्त करके भी नारी स्वय मे अभावग्रस्त रहती है । मातृत्व मे ही उसकी पूर्ति निहित है, जो कोरे प्यार मे उपलब्ध नही हो पाती। 'ग्रामोफोन का रिकार्ड' और 'मास्टर जी' मे नारी की विक्षुब्धता वात्सल्य भाव की पूर्ति के अभाव के कारण ही प्रकट हुई है। मातृत्व के साथ ही जैनेन्द्र की कहानियो मे वात्सल्य भाव की भी अभिव्यक्ति हुई है। इस दृष्टि से उनकी कई कहानियो—'फोटोग्राफी', आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है ।
वस्तुत जैनेन्द्र ने व्यक्ति और समाज के विविध पक्षो को साहित्य मे अपने विचारो और आदर्शो की छाया मे विवेचित किया है।
१ जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० ७१ ।
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परिच्छेद-७
जैनेन्द्र और व्यक्ति
जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति
जैनेन्द्र-साहित्य मानव-जीवन और व्यक्ति की समस्याओ का अमित भडार है। मानव विराट् अखण्ड ब्रह्म का अश है । अह ब्रह्म का अश रूप है । अह का साकार प्रतिनिधित्व, व्यक्ति के द्वारा ही होता है, क्योकि अह भावना है, उसका प्राधेय व्यक्ति ही है । ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है, किन्तु ईश्वर का अस्तित्व भी जीव के द्वारा ही चरितार्थ होता है । व्यक्ति है, अतएव उसमे अपने अखण्ड रूप को जानने की जिज्ञासा भी अनिवार्य है । व्यक्ति अपूर्ण है, ब्रह्म पूर्ण और अखण्ड है । व्यक्ति को केन्द्र मे स्थित करके ही जीवन की बहुमुखी धारा विकसित होती है । जैनेन्द्र का सम्पूर्ण साहित्य व्यक्ति की व्यथा से आपूर्ण है । व्यक्ति की आत्मा मे झाककर उसके आत्मस्थ सत्यो का उद्घाटन तथा अन्त बहिर्द्वन्द्व से उत्पन्न विषम परिस्थितियो को चित्रित करना ही उन्हे श्रेयकर रहा है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे व्यक्ति ही वह आधार-बिन्दु है, जिसपर समस्त जीवन की भीति प्रारूढ है । जो समष्टि मे है, वही व्यष्टि मे है । अतएव जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यष्टि द्वारा समष्टि की अर्थात् समस्त मानव जाति के सान्निध्य की प्राप्ति का प्रयास दृष्टिगत होता है। ___जैनेन्द्र व्यक्तिवादी साहित्यकार है। जैनेन्द्र से पूर्व प्रेमचन्द के उपन्यास समाज की समस्याओं को ही आधार बनाकर लिखे गए है । व्यक्ति और व्यक्ति-जीवन के द्वन्द्वो की ओर उन्होने विशेष ध्यान नही दिया। उनके उपन्यासो मे व्यक्ति की अपेक्षा घटना का प्राधान्य था । द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद मनो
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
विज्ञान के विकास के साथ-साथ व्यक्ति का महत्व बढता गया । मनोविज्ञान द्वारा व्यक्ति के आन्तरिक सघर्ष को समभाने की चेष्टा की गई है । व्यक्ति का बाह्यरूप ही उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व का परिचायक नही है । जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे व्यक्ति के समग्र रूप की अभिव्यजना की है । अचेतन मन अथवा अन्तनिष्ठ चेतना व्यक्ति के समस्त व्यवहारो की नियामक है । जैनेन्द्र के अनुसार अचेतन मन व्यक्ति की कुत्साप्रो और जुगुप्साम्रो का केन्द्र न होकर, उसकी अभीप्सायो का स्त्रोत है। जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति के अन्तर्तम सत्यो की स्पष्टतम अभिव्यक्ति दृष्टिगत होती है । उनके साहित्य मे व्यक्ति जीवन का वही रूप दृष्टिगत होता है, जैसा कि हम व्यावहारिक जीवन मे देखते और विचार करते है । व्यावहारिक जीवन मे व्यक्ति सत्यता पर आवरण डालकर अपने हृदय रूप को ही व्यक्त करता है, जिससे उसका वास्तविक रूप प्रकट नही हो पाता । साहित्य का कार्य व्यक्ति की अन्तनिहित सत्यता का उद्घाटन करना है। व्यक्ति समाज मे अपने गुण-दोष मे व्यक्तित्व को प्रकट करने मे सकोच करता है । वह अपने आचरणो को बहुत ही सशोधित तथा आदर्श रूप मे व्यक्त करता है। किन्तु व्यक्ति का जीवन निर्दोष नही है । वह सद्-असद् गुणो का मिश्रण है । जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति मे राग, द्वेष, प्रेम और घृणा आदि मानवीय भावनाओ का होना स्वाभाविक ही है । उनके साहित्य मे अभिव्यक्त, व्यक्ति न देवता है और न ही पशु है । वह तो निरा व्यक्ति है । व्यक्ति का आदर्श पशुत्व से उठकर देवत्व की प्राप्ति की ओर उन्मुख होना है। व्यक्ति के सम्बन्ध मे जैनेन्द्र की दृष्टि नितान्त अछूती और सहजता की परिचायक है। उनकी दृष्टि मे व्यक्ति सदैव उर्वता की ओर उन्मुख है । वह न तो आदर्श की सीमा मे आबद्ध होकर जडित और चेतन शून्य है और न ही पाशविक प्रवृत्तियो से युक्त दानव है । मनुष्य देवता और दानव के बीच की स्थिति है। ____ जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति के स्वरूप समाज मे उसके अस्तित्व, तथा उसकी अतनिष्ठ भावनाओ का पूर्ण प्रकाशन दृष्टिगत होता है । जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति के यथार्थ जीवन का बिम्ब ही नही प्रस्तुत किया गया है, वरन् उनमे व्यक्ति के आदर्शमय जीवन की सम्भावनाप्रो की ओर भी लक्ष्य किया गया है । उनके साहित्य मे व्यक्ति यथार्थ और आदर्श की पूर्ण इकाई है। जैनेन्द्र के पात्र यथार्थ जगत के व्यक्ति है, पुराण पुरुष नही है। उनकी जिन कहानियो का विषय पौराणिक है, उनमे भी मानवीय भावो और कृत्यो का उद्घाटन किया गया है । अहनिष्ठ देवत्व मे आत्मसमर्पण के भावो की प्रेरणा जाग्रत की गई है। उनकी दृष्टि मे मनुष्य देवतापो से भी ऊपर है, क्योकि उसकी सम्भावनाए अनन्त है । प्रात्मदास द्वारा वह स्वर्ग के राज्य को भी तुच्छ सिद्ध कर सकता
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जैनेन्द्र और व्यक्ति
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है । जैनेन्द्र के पात्रो की अतिशय सहजता पाठक के भावो और विचारो के साथ साधारणीकरण करने में समर्थ होती है । प्रेमचन्द के पात्रो का जीवन प्रदर्श की सीमा मे आबद्ध है । उनके व्यक्ति पात्र निर्दिष्ट आदर्शो का ही अनुसरण करते है । जिस प्रकार 'रामचरितमानस' मे तुलसीदास कभी यह नही भूल पाते कि- राम भगवान है उसी प्रकार प्रेमचन्द के पात्र भी अपने आदर्शो की लक्ष्मण-रेखा पार करने का साहस नही करते, यदि उनसे कभी ऐसी त्रुटि
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जाती है तो वे श्रात्महत्या करके अथवा शहीद होकर प्रायश्चित के लिए तत्पर रहते है । मानव जीवन निरे आदर्शों की निश्चेष्ट प्रतिमूर्ति नही है । यथार्थता हटकर बनने वाला प्रादर्श नितान्त अप्राकृतिक प्रतीत होता है। जैनेन्द्र आदर्श के लोभ मे व्यक्ति - जीवन की सम्भावनाओ का दमन नही करते और न ही पूर्व नियोजित प्रादर्शों की सीमा मे परिबद्ध होकर उनके व्यक्ति पात्र जीवन की सहजता और यथार्थता का निषेध ही करते है । प्रेमचन्द के पात्रो का आदर्श महत्वपूर्ण होता है । किन्तु उनकी महत्ता मानव जीवन के अन्त द्वन्द्व का समाधान नही प्रस्तुत करती । साहित्य का उदेश्य आदर्श की प्रतिष्ठा करना है, किन्तु आदर्श की प्राप्ति यथार्थ की भूमि पर ही सम्भव हो सकती है । प्रेमचन्द ने समाज की विभिन्न समस्याओ पर प्रकाश डाला है । उनका लक्ष्य व्यक्ति के बहिर्जगत को रूपायित करना है, जैनेन्द्र का आदर्श अन्त जगत से सम्बद्ध है।
व्यक्तिवादी जैनेन्द्र
व्यक्तिवादिता हठवाद
अहित नही सहन कर
(समर्पण) ही उनके
जैनेन्द्र व्यक्तिवादी उपन्यासकार है, किन्तु उनकी को प्रश्रय नही देती । वे व्यक्ति के हितार्थ समाज का सकते । वृहद्तर स्वार्थ के हेतु लघुतर हित का त्याग साहित्य का परम आदर्श है । उनका व्यक्ति ग्रहनिष्ठ अथवा अहकारी नही है । उनके अन्तस् मे स्वत्व के समर्पण का भाव निहित है। वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यष्टि की स्वीकृति द्वारा समष्टि की उपेक्षा नही की गयी है, वरन् व्यष्टि द्वारा समष्टि की ओर उन्मुख होने की चेष्टा सतत् दृष्टिगत होती है ।
जैनेन्द्र की व्यक्तिवादी दृष्टि साहित्य मे प्रचलित पूजीवादी व्यक्तिवाद से नितान्त भिन्न है । सन् १८५० के बाद से हिन्दी मे एक महान् परिवर्तन होने लगा था । प्रथम महायुद्ध के बाद परिवर्तन का एक दौर पूरा हो गया । उस युग मे देश की आर्थिक परिस्थितियो के कारण जो विद्रोह उत्पन्न हुआ वह धर्म, दर्शन, समाज, नीति और राजनीति आदि द्वारा विभिन्न रूप धारण करके विरुद्ध उठते हुए व्यक्त हुआ । ' यह विद्रोह सामन्तवाद और साम्राज्यवाद
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
पूजीवाद का विद्रोह था भारत मे पूजीवाद के विकास के साथ व्यतितवाद का विकास हुआ और · साहित्य मे व्यक्तिवादी भावना ही अनेक रूपो मे अभिव्यक्त हुई । उपरोक्त व्यक्तिवादी विचारधारा का अभ्युदय सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियो के कारण हुआ था किन्तु जैनेन्द्र की त्यविततादी दृष्टि साहित्यिक-स्तर पर स्वीकृत है । साहित्य मे बाह्य जीवन और घटनायो का चित्रण अधिक होने के कारण व्यक्ति के अन्तर्भूत भावो और विचारो की अभिव्यक्ति का अवसर नही रहता था। जैनेन्द्र-साहित्य मे व्यक्तिवाद व्यक्तिस्वातन्त्र्य की समस्या को लेकर नही चला है । उसका प्रमुख विषय व्यक्तिजीवन हो समग्र स्वीकृति से सम्बद्ध है । जैनेन्द्र से पूर्व बाह्य घटनाग्रो के विश्लेषण मे अन्त जगत की उपेक्षा होती रही है। समूह, समाज और संस्था
आदि की तुलना मे व्यक्ति गौण माना जाता है । इस प्रकार वाद-विवाद प्रमुख हो जाता है और व्यक्ति-जीवन गौण । जैनेन्द्र का आदर्श व्यक्ति-जीवन को प्रमुखता प्रदान करना है।
पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के कारण मानव जीवन के प्रति प्रास्था विलुप्त हो गई है। विज्ञान की प्रगति उत्तरोत्तर तीव्रतर होती जा रही है । भौतिकता के विकास के साथ बाह्य जीवन अधिकाधिक सम्पन्न प्रोर समृद्ध हो गया है, किन्तु अन्तश्चेतना भौतिकता की चकाचौध मे विलीन हो गई है । आधुनिक युग मे राजनीति, धर्म और समाज में व्याप्त समस्त द्वन्द्वो का मूल कारण 'पर' का निषेध है। परिणामस्वरूप मतवाद, वाद-विवाद तीव्र गति से बढता जा रहा है। वादो के इस द्वन्द्व मे व्यक्ति का अस्तित्व क्षीण होता जा रहा है और वाद प्रधान हो गया है । जेनेन्द्र-साहित्य मे व्यक्ति वाद-विवाद से ऊपर है। उनकी दृष्टि मे समाजवाद, साम्यवाद, पूजीवाद सबके मूल मे धार्मिक दृष्टि अनिवार्य है । धार्मिक भावना व्यक्ति की नैतिकता का कवच है । उनके व्यक्तिवादी विचार मानवीय भावो और आदर्शों के सरक्षक है । प्रत्येक वाद प्रारम्भ मे व्यक्ति के हित का ही नारा लगाता है, किन्तु अन्तत उनकी स्वाथ-दृष्टि ही प्रमुख हो जाती है। मानव समाज का हित गौण हो जाता है । पूजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद मे व्यक्ति और समाज के हितो का पूर्ण रूप से ध्यान रखा गया था किन्तु अन्तत वे अर्थप्रधान हो गए है । उनमे परमार्थ का प्रभाव
१ हिन्दी साहित्य, तृतीय खण्ड---भारतीय हिन्दी परिषद्, प्रयाग, प्र० स०
१९६६, पृ० स० १६८-१७४। २ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ८, (वह क्षण), तृ० स०,
१६६४, दिल्ली, पृ० स० ६५ ।
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जैनेन्द्र और व्यक्ति विलुप्तप्राय हो गया है। पारमार्थिक दृष्टि
जैनेन्द्र का मूलादर्श व्यक्ति के जीवन मे पारमार्थिक दृष्टि की प्रतिष्ठापना करना है । परमार्थ ही जैनेन्द्र के साहित्य की प्रमुख नैतिकता और लक्ष्य है। जैनेन्द्र के साहित्य मे नीति और अनीति का प्रश्न अहिसा और हिसा के सन्दर्भ मे प्रादुर्भूत होता है । उनके साहित्य मे व्यक्ति के पारस्परिक स्नेह और प्रेम मे, चाहे वह स्त्री-पुरुष सम्बन्ध मे हो अथवा किसी भी मानवीय सम्बन्ध को लेकर फलित हो, अनैतिक नहीं है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे जहा प्रेम है, वहा पाप और अनैतिकता की कल्पना सर्वथा त्याज्य है । प्रेम पवित्र है । जैनेन्द्र की पाप और पुण्य की दृष्टि सकीर्णता की पोषक नहीं है, उनकी दृष्टि मे पाप का मूल 'अहनिष्ठा' तथा 'पर' के निषेध अथवा अप्रेम मे ही विद्यमान है। मानव-नीति
जैनेन्द्र-साहित्य मे व्यक्ति के अन्तर्जगत और बाह्य जगत् की समष्टि की झलक दृष्टिगत होती है । अन्त जगत् का विवेचन करते हुए उन्होने यथार्थवाद
और प्रादर्शवाद का अवलम्ब लिया है । यद्यपि यथार्थवाद बाह्य जीवन से सम्बद्ध है, किन्तु जैनेन्द्र के साहित्य मे उसकी सीमा व्यक्ति की निजता मे ही केन्द्रीभूत है। जैनेन्द्र ने बाह्य-स्थितियो का बहुत विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है। उन्होने समाज, धर्म, राजनीति और अर्थ-नीति के सन्दर्भ मे व्यक्ति-जीवन को घटित होते हुए दर्शाया है । जैनेन्द्र ने शोषक-शोषित, श्रम-पूजी, मशीन-उद्योग तथा विभिन्न राजनीतिक वादो के सन्दर्भ मे व्यक्ति जीवन की ही विवेचना की है । व्यक्ति अकेला जीवित नहीं रह सकता। उसके लिए सामाजिक, राजनीतिक आदि व्यवस्थाप्रो का होना आवश्यक है । व्यक्ति समाज, राज, राष्ट्र और विश्व से ऊपर 'मानव' है । अतएव उनके साहित्य मे राष्ट्रवाद, समाजवाद, साम्यवाद आदि के मूल मे 'मानव-नीति' का ही प्राधान्य है । वे विश्व के स्तर पर पडौसी को भूल जाना उचित नही समझते । यद्यपि यह सत्य है कि बृहदतर हित के हेतु लघुतर हित का त्याग सराहनीय है, किन्तु पडौसी के दुख-दर्द की उपेक्षा करके होने वाली विश्व-प्रगति मानवता से विपरीत है । वस्तुत जैनेन्द्र के व्यक्ति सम्बन्धी दृष्टिकोण को व्यक्तिगत और सामाजिक परिप्रेक्ष्य मे व्यक्त किया गया है। जीवनादर्श : दार्शनिक दृष्टि
आदर्श और यथार्थ दो जीवन-दृष्टि है। एक आत्मगत सत्य को स्वीकार
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
करती है, दूसरी बाह्य जगत की सत्यता को स्वीकार करती है । 'यथाथ' समयसापेक्ष्य सत्यता (रियल्टी) का सूचक हे । 'आदर्श' श्रात्मगत सत्य होने के कारण यथार्थ के सदृश परिवर्तनीय नही हे तथापि व्यक्ति भेद के कारण यादर्श की मान्यताप्रो मे भी अन्तर दृष्टिगत होता है । एक लेखक की ष्ट मे जो नितान्त यथार्थ है, दूसरे की दृष्टि मे वही आदर्श हे । भारतीय तथा पाश्चात्य दशन मे 'शाश्वत सत्य' की खोज के हेतु प्रात्मगत प्रादर्शवादी दृष्टि (सब्जेक्टिव प्राइडियलिज्म) ही विशेषत दृष्टिगत होती है । ईश्वर, जीव, ग्रात्मा आदि विषयो की सत्यता का बोध आत्मचेतना द्वारा ही सुलभ हो सकता है ।
भारतीय दर्शन मे चारवाक दर्शन को छोडकर शेष सभी दर्शनो मे प्रदर्श नीतिपरक जीवन को ही परम आदर्श के रूप मे स्वीकार किया गया है । अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष मे, मोक्ष की प्राप्ति को ही मानव जीवन का लक्ष्य माना गया है । उनकी दृष्टि मे भौतिक जगत से इतर प्राध्यात्मिक जगत ही एकमान सत्य है । वस्तुगत माया-मोह प्रादि नाना विकारो का केन्द्र हे । श्रात्मोन्मुख व्यक्ति समस्त सासारिक बन्धनो से मुक्त होकर ईश्वरीय साक्षात्कार के हेतु प्रयत्नशील होता है | अद्वेतवादी शकराचार्य के अनुसार जगत मिथ्या है । गौतमबुद्ध ने संसार को दुखमय माना है । बौद्ध तथा जैन धर्म मे ससार से मुक्ति प्राप्त करने का प्रयत्न विशेषत दृष्टिगत होता है । जैन धर्म में भी कैवल्य की प्राप्ति हेतु त्याग, तपश्चर्या, ब्रह्मचर्य आदि पर बल दिया गया है, किन्तु चारवाक दर्शन मे भौतिक सुख को विशेष महत्व प्रदान किया गया है । चारवाक दर्शन मे अर्थ और काम को ही प्रधानता मिली हे । श्रात्मा, ईश्वर, स्वर्ग, कर्म और मोह की धारणाओ का निराकरण करके चारवाक ने त्याग अपरिग्रह, सन्यास, परोपकारिता आदि की उपेक्षा की है । उनकी दृष्टि मे भौतिक सुख ही एकमात्र सत्य है ।" 'गीता' मे यह समझाने का प्रयास किया गया है कि अपनी चेतना के उच्चतम स्तर मे रहकर भी व्यक्ति कम कर सकता है । इसलिए उसने सदाचार के प्रश्न को उठाकर कर्तव्य का सन्देश दिया है । कर्तव्य के सन्देश के मूल मे जगत की सत्यता की धारणा ही दृष्टिगत होती है। गीता अकर्म एव कर्म त्याग या कम सन्यास को स्वीकार नही करती । गाँधीजी ने व्यक्ति के दुर्बल तथा उन्नत दोनो पक्षो पर ध्यान आकृष्ट किया है । मनुष्य पशुता से ऊपर उठकर आत्मानन्द की प्राप्ति कर सकता है ।
'नीतिशास्त्र', पृ० स० ३२२ ।
१ शान्ति जोशी २ शान्ति जोशी 'नीतिशास्त्र', पृ० स० ३२१ ।
३ 'श्रीमद्भगवद्गीता', प्रत्याय २, श्लोक ४६-५० ।
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जनेन्द्र और व्यक्ति
२१५ जैनेन्द्र की दृष्टि मे प्रानन्द और यथार्थ __हिन्दी साहित्य मे भारतीय दर्शन की परम्परागत विचारधारामो की पूर्णत अभिव्यक्ति की गई है। भारतीय दर्शन में नैतिकता का विशिष्ट स्थान है। आदर्श मे भी नैतिकता का पर्याप्त स्थान है । जैनेन्द्र से पूर्व के उपन्यासकारो ने अपने साहित्य मे नैतिकता को विशेषत प्रश्रय दिया है। मानव जीवन के अन्तस् और बाह्य का द्वैत साहित्य मे आदर्शवाद और यथार्थवाद के रूप में प्राप्त होता है । जैनेन्द्र का साहित्य वाद की पारिभाषिक सीमा से उन्मुक्त है । उसमे जीवन की यथार्थ और आदर्श-दृष्टि समानरूप से परिलक्षित होती है । यथार्थ की अतिशयता मे उनके पात्र अपनी आत्मशक्ति को क्षीण रही करते । वस्तुजगत, जिसका हम उपभोग करते है, जो इन्द्रिय-जगत का उपभोग विषय है, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। भारतीय दर्शन मे समस्त इन्द्रियो को वशीभूत करके परम सत्य की ओर उन्मुख होने की चेष्टा दृष्टिगत होती है, किन्तु जैनेन्द्र के पात्र जीवन की यथार्थता की उपेक्षा नहीं करते । उनकी दृष्टि मे वस्तुजगत जीवन का स्थूल और व्यावहारिक सत्य है । स्थूलता से ही सूक्ष्मता की ओर उन्मुख हुआ जा सकता है । जैनेन्द्र के साहित्य मे यथार्थ का जो स्वरूप स्वीकार किया गया है, वह प्राप्य है और वर्तमान से सम्बद्ध है। आदर्श अप्राप्य और असीम है। कोरा आदर्श आकाशीय कुसुम के सदृश होता है । आदर्श महान है, किन्तु महानता की प्राप्ति के हेतु निम्नता अथवा तुच्छता का निषेध नहीं किया जा सकता है । जैनेन्द्र के पात्र यथार्थ की धरती पर जीते और मरते है।' व्यक्ति ससीम है, आदर्श असीम है । अतएव व्यक्ति की अपूर्णता यथार्थ है और पूर्णता अर्थात् आदर्श की प्राप्ति ही उसका लक्ष्य है। यदि व्यक्ति को आदर्श का पुतला बनाकर चित्रित कर दिया जाय तो उसके समक्ष करने के हेतु कुछ शेष नहीं रह जाता। जगत की यथार्थता अथवा उसका अस्तित्व कर्म-कौशल मे ही निर्भर रहता है । पूर्णता की प्राप्ति होने पर कर्म अकर्म का प्रश्न ही नही उठता।
कतिपय साहित्यकारो के अनुसार कोई भी कलाकार या तो यथार्थवादी हो सकता है या आदर्शवादी। दोनो का मिश्रण किसी एक रचना मे सम्भव नही है । उसके अनुसार साहित्यक-निर्माण मे यथार्थोन्मुख प्रादर्शवाद या आदर्शोन्मुख
१ जैनेन्द्र कुमार 'सुखदा', प्रथम स०, १६५२, दिल्ली, पृ० स० १६० । २ 'कल्पना मे हम दिमाग को रख सकते है । पर इस पर पाव नही टिका
सकते । डग रखकर बढना धरती पर होता है।' -जैनेन्द्रकुमार . 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ८, (प्रणयदश) पृ० स० १३५।
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जनन्द्र का जीवन-दशन
यथार्थवाद नाम की वस्तु नही हो सकती। किन्तु मानव जीवन अखण्ड धारा है । वह आदर्श और यथार्थ के खण्डो मे विभाजित नही हो सकती। महादेवी जी के अनुसार किसी भी युग मे आदर्श और यथार्थ या स्वप्न और सत्य कुरुक्षेत्र के उन दो विरोधी पक्षो की तरह परिवर्तित करके खडे नही किए जा सकते, जिनमे से एक युद्ध की आग मे जल जाय और दूसरे को पश्चाताप की अग्नि में जल जाना पड़े। वे एक-दूसरे के पूरक रहकर ही जीवन को पूर्णता दे सकते है । अत काव्य उन्हे विरोधियो की भूमिका देकर जीवन मे एक नई विषमता उत्पन्न कर सकता है, सामान्जस्य नहीं ।
वस्तुत प्रादश और यथार्थ जीवन की विपक्षीय धाराए न होकर एक-दूसरे की पूरक हे । जयशकर प्रसाद ने यथार्थ और आदर्श की समन्वित दृष्टि अपने निबन्ध मे प्रस्तुत की है । उन्होने आदर्श की प्राप्ति के हेतु यथार्थ की उपेक्षा नही की है। उनके अनुसार-'यथार्थवादी साहित्य मे व्यक्ति की दुर्बलतायो की ओर इगित किया जाता है । उनकी दृष्टि मे यथार्थवादी साहित्य मे लघुता और दुख की प्रधानता तथा दुख की अनुभूति आवश्यक है।''
यथार्थ व्यथामूलक
जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त यथार्थवादी दृष्टि 'प्रसाद' के प्रादर्शो के समकक्ष प्रस्तुत की जा सकती है। यद्यपि 'प्रसाद' और जैनेन्द्र मे साम्य का कोई प्रश्न ही नही उठता तथापि मानवीय वेदना और प्रभाव का सादृश्य दोनो मे दृष्टिगत होता है। जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे यथार्थता का जो स्वरूप अभिव्यक्त किया है, वह मानव-आत्मा की वेदना और पीडा से सम्बद्व है। जैनेन्द्र के साहित्य मे यथार्थ स्थिति से अधिक मन स्थिति के दर्शन होते है। उनके उपन्यास और कहानियो के अध्ययन से मन मे यथार्थ जीवन की वीभत्सता, कुत्सा आदि का प्रकृत रूप दृष्टिगत नही होता । वह तो मानव-व्यथा से अपूर्ण है। उनके पात्र आदर्श के प्रतीक होकर हमारे मन मे श्रद्वा और भक्ति की भावना जाग्रत नही करते, वरन् उनका व्यक्तित्व हमारे हृदय को सहानुभूति और करुणा
اس
१ डा० जयनारायण मण्डल 'हिन्दी उपन्यासो की यथार्थवादी परम्परा',
प्र० स०, १९६८, पटना, पृ० स० ४। २ महादेवी वर्मा 'साहित्य की आस्था तथा अन्य निबन्ध' चयनकर्ता गगा
प्रसाद पाण्डेय, इलाहाबाद, १६६२, पृ० स० १४२ । जयशकर 'प्रसाद' 'काव्य कला तथा अन्य निबन्ध', इलाहाबाद, १० म० १३८ ।
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जैनेन्द्र ओर व्यक्ति
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से प्राई कर देता है । जैनेन्द्र के पात्र अपने महिमान्वित व्यक्तित्व से पाठक को चकाचो नही करते, वरन् जीवन की सहजता मे पूर्णत लीन कर देते है, जिससे जीवन की सत्यता के प्रति आखे खुल जाती है । जैनेन्द्र के अनुसार सम्माननीय नही नही हे जो महान है, प्रतिष्ठित है वरन् वह भी है जो पापी दिखायी देता है, परन्तु व्यथा मे पूर्ण है । '
'त्यागपत्र' में मृणाल का जीवन मानो व्यथा का गहरा सागर है । उसमे जितना ही डूबते जाम्रो उतनी ही गहरी पीडा का अनुभव होता है । जैनेन्द्र के साहित्य में वह समाज के नितान्त उपेक्षित, घृणित स्थल मे पहुचकर भी सम्माननीया बनी रहती है। उसके प्रति मन मे आक्रोष नही उत्पन्न होता । वरन् हृदय मे पीडा की गहरी टीस जाग उठती है जो समस्त चेतना को झकभोर देती है । वह एक-के-बाद-एक विषमस्थिति का सामना करती है । सामाजिक दृष्टि में व्यभिचारिणी समझी जाने वाली उस नारी की आत्मा की विशुद्धता और पवित्रता पर तनिक भी ग्राच नही आती । वस्तुत जैनेन्द्र के पात्र जितना अधिक पा रहे होते है उतनी ही प्रानन्द-सृष्टि मे सक्षम होते है । एक प्रोर पीडा मर्म को कचोटती है तो दूसरी ओर वही आत्म-तृप्ति भी देती है । वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति के कर्मों से ही उसकी नैतिकता तथा महानता का बोध नही होता, निष्कलुष आत्मा ही व्यक्ति का वास्तविक स्वरूप व्यक्त करने में सक्षम हो सकती है ।
पूर्णतावादी विचार
जैनेन्द्र के प्रदर्शवादी विचार पूर्णतावाद' के सदृश प्रतीत होते है । पूर्णता - बाद मे साहित्यिक यथार्थ और आदर्श के सदृश बुद्धि और भावना का द्वैत दृष्टिगत होता है । जैनेन्द्र का प्रादर्श प्रतत आत्मोन्मुख होना है । पूर्णतावादियो ने भी प्रात्मकल्याण, आत्म-साक्षात्कार तथा आत्मसन्तोष की ओर विशेषत ध्यान आकृष्ट किया है । पूर्णतावादियो की दृष्टि मे 'मनुष्य का स्वभाव अनेक प्रवृतियो, इच्छाओ और भावनाओ का जन्म स्थल है। इस स्वभाव मे कुछ भी ऐसा नही है जो पूर्णरूप से बुरा अतएव त्याज्य हो ।” उनके अनुसार आत्मा का रूप न तो केवल ऐन्द्रिक है और न केवल बौद्धिक । इस दृष्टि से ब्रेडले के अनुसार - - प्रात्मा का अपने पूर्णरूप मे सन्तुष्ट होना अर्थात् सम्पूर्ण आत्मा
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ५४६ ।
२. शान्ति जोशी 'नीतिशास्त्र' प्र० स०, १९६६, दिल्ली, पृ० स० २८७ ।
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का सन्तोष ही, आत्मसन्तोष है ।'
वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्तित्व की पूर्णता ही विशिष्टत लक्षित होती है । उनके अनुसार आदर्श जीवन पूर्णता का परिचायक है । यह आदर्श यथार्थ जीवन की घटनाओ से प्राप्त हो सकता है । आधुनिक साहित्य में मनुष्य के समग्र व्यक्तित्व का विवेचन किया गया है । जैनेन्द्र का साहित्य सामाजिक परिवेश के भीतर से व्यक्ति की आत्मा मे सिसकते हुए स्वर को ध्वनित करने मे सक्षम रहा है । सुधारवादी लेखक बाह्य समस्याओ मे ही उलझे रह जाते है, किन्तु व्यक्तिवादी लेखक व्यक्ति के साथ आत्मसात् होकर ही उसके जीवन की सत्यता को अभिव्यजित करता है । जैनेन्द्र ने बहुत गहराई से मानव - श्रात्मा मे झाने का प्रयास किया है ।
जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
व्यक्ति अपूर्ण
जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति अपूर्ण है । अतएव उसमे गुण-दोष का सम्मिश्रण होना स्वाभाविक ही है । व्यक्ति पूर्ण सत् स्वरूप नही हो सकता । पुनर्जन्म के मूल मे व्यक्ति की अपूर्णता ही विद्यमान है। 'पूर्णात्पूर्णमिदम्' एकमात्र ब्रह्म ही है । व्यक्ति के पूर्ण होने का तात्पर्य मोक्ष की प्राप्ति है किन्तु मोक्ष की प्राप्ति के पश्चात् व्यक्ति कर्माकर्म शून्य हो जाता है । सासारिक व्यक्ति अनन्त इच्छाओ और लालसानो का भण्डार है । वह अपनी अपूर्ण इच्छाओ की पूर्ति के हेतु बार-बार जन्म लेता है, यही कारण है कि जैनेन्द्र के द्वारा विरचित व्यक्ति अपूर्णता के प्रतीक है । वे किसी महत् आदर्श के प्रतीक नही है । जैनेन्द्र के पात्र ऐसे साचे मे नही ढले है, जो सब ओर से सम प्रतीत हो । व्यक्ति जड नही है अत उसमे असमानता का होना स्वाभाविक है । प्रेमचन्द ने पात्रो को आदर्श का जो चोला पहना दिया है, वे अन्तत उसी आदर्श के घेरे में घुटते हुए भी मानवीय सहज क्रियाओ और प्रवृत्तियों की पूर्ति से वचित रहते है । जैनेन्द्र के पात्रो के जीवन मे कुछ भी असम्भाव्य नही है । 'एकरात' कहानी में जयराज का आदर्श व्यक्तित्व जीवन की यथार्थता की स्वीकृति के अभाव मे अपूर्ण और अतृप्त रहता है । प्रेम की प्राप्ति ही उसे पूर्ण सन्तोष प्रदान करती है । प्रेमचन्द की दृष्टि मे काम, (सेक्स) व्यक्ति की न्यूनतम प्रवृति का परिचायक है । किन्तु जैनेन्द्र स्त्री-पुरुष के सहज सम्बन्धो मे अनैतिकता का लेश भी नही देखते । प्रेमचन्द के अनुसार साहित्य का उद्देश्य व्यक्ति के
'नीतिशास्त्र', प्र० स०, १६६६, दिल्ली, पृ० स०
१ शान्ति जोशी
२८७ ।
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जैनेन्द्र और व्यक्ति
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उज्जवल पक्ष की अभिव्यक्ति करना है। इस प्रकार उनके साहित्य मे व्यक्ति की हीनता अवदमित रह जाती है । जैनेन्द्र के साहित्य मे महानता का कल्पित आदर्श नही प्रस्तुत किया गया है, वरन् व्यक्ति चरित्र के प्रक्षिप्त अशो को उभारने का प्रयास किया गया है । जैनेन्द्र ने आदर्श की निश्चितता से अधिक उसकी सम्भावना पर बल दिया है । आदर्शवादी दृष्टि 'क्या है' से अधिक 'क्या होना चाहिए' पर आधारित है। आदर्शवादी लेखको ने मानव जीवन की कुरूपताओ के बीच मानव जीवन और चरित्र के उज्जवल पक्ष को उद्घाटित करने की चेष्टा की है । डा० सर्वजीतराय के अनुसार--'अभाव के कारण ही व्यक्ति दुखी होता है। आदिकाल से ही मानव जाति उर्ध्ववेत्ता बनने की ओर प्रयत्नशील रही है, क्योकि अादर्श की सीमा मे आबद्ध व्यक्ति पूर्ण होते हुए भी अधिक सवेदनीय नही हो पाता । जैनेन्द्र के अनुसार यथार्थ (सत्य) की अभिव्यक्ति अश्लीलता की परिचायक न होकर व्यक्तित्व की पूर्णता की सूचक है । गुण यदि व्यक्ति के आदर्श स्वरूप का द्योतक है तो दोष भी उसके जीवन का यथार्थ सत्य है । जैनेन्द्र के अनुसार दुर्बलता तथा क्षुद्रता व्यक्ति की प्रकृति है । प्रकृति का निषेध करके महान बनने का दम्भ मिथ्या है । ऐसी महानता के यदा-कदा टूटने का भी भय रहता है, क्योकि उसके अन्तस् मे अतृप्ति बनी रहती है। मानव-प्रकृति का निषेध करके प्राप्त होने वाली महानता बाह्य रूप मे आदर्श और मर्यादित प्रतीत होती है, किन्तु भीतर-ही-भीतर मन का छल व्यक्ति को कुरेदता रहता है और वह अन्तर और बाह्य के द्वन्द्व मे शान्ति नही प्राप्त कर पाता । छल और कपट के भाव व्यक्ति को कर्म मे आत्मसात् होने से वचित रखते है। 'दिन, रात और सवेरा' में मान और प्रतिष्ठा के मध्य रहने वाली कवियत्री अपनी अन्तस् की यथार्थता को अभिव्यक्त नही कर पाती। समाज की मर्यादानो से बाहर वह स्वय मे होती है, जहा उसे सारी मान-प्रतिष्ठा मिथ्या प्रतीत होती है, क्योकि वह अपनी अहता को बाह्यरूप मे विसर्जित करने में असमर्थ रहती है। 'टकराहट', 'विचारशक्ति', 'ग्रामोफोन का रिकार्ड', 'रत्नप्रभा' व, 'गवार', 'अकेला' आदि कहानियो मे व्यक्ति के अन्तस् के यथार्थ रूप का उद्घाटन किया है। स्त्री और
१ 'सभी धर्मों मे मानव जीवन और स्वभाव पर अकुश लगाने की चेष्टा की
की गई है । ताकि उसके भीतर का छिपा हुआ पशुत्व मुह न उठा सके ।' --डा० सर्वजीतराय 'हिन्दी उपन्यास साहित्य मे आदर्शवाद', प्र० स०,
१६६६, इलाहाबाद, पृ० स० १२ । २. जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ६, प्र० स०, १९६४, दिल्ली,
पृ० स० १७२-१८१।
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जैनेन्द्र का जोवन-दशन
पुरुष स्वय मे अपूर्ण है। पूर्णता अर्थात् स्त्री-पुरुष के परस्पर सयोग द्वारा ही जीवन का लक्ष्य पूर्ण हो सकता है । जैनेन्द्र यथार्थता को पाप अथवा अनं तिक नही समझते । सत्यता पर आवरण डालकर सत्य का निषेध नही किया जा सकता । जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति का आदर्श कृत्य मे न होकर कृत् की भावना मे सन्निहित होता है । उनकी दृष्टि मे नैतिकता का मूल भानदण्ड मानव, मानव की परस्परता है । पारस्परिक स्नेह और सहानुभूति मे मर्यादा की सीमा उपस्थित करना नैतिकता नही है । मानव जीवन का उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति हे, किन्तु मन की व्याकुल, अपूरण तथा अतृप्त अवस्था में मादक्ष की प्राप्ति सम्भव नही हो सकती । मोक्ष की प्राप्ति के हेतु मन की विवान्ति अनिवार्य है। जैनेन्द्र के अनुसार--'प्रादमी मे जो है उस सब को स्वीकार नही करेंगे तो उसे ह्रस्व ही करेगे, महान न बनाएगे । आदमी मे से कुछ अलग काटकर उसको पूरा नही किया जा सकता। जैनेन्द्र की दृष्टि मे पाप-पुण्य का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है, वह स्त्री-पुरुष के सम्बन्धो तक ही परिमित नही है । स्त्री-पुरुष सम्बन्ध तो स्वाभाविक और सहज है। जिस प्रकार व्यक्ति गुणो के सम्बन्ध मे अपूर्ण है, उसी प्रकार जैविक दृष्टि से स्त्री-पुरुष के रूप मे अपूर्ण है अतण्व दोनो का मिलन सामाजिक दृष्टि से अपरिहार्य नही है।
साभान्यत जिन सामाजिक मर्यादापो के पालन मे व्यक्ति गर्वानुभूत होता है, उसे जनेन्द्र मिथ्या ढोग और अभिमान का सूचक मानते है । उनके अनुसार 'नर-पुगव और नर केसरी ऊपरी शोभा के लिए हो सकते है, जाति की स्वास्थ्य शक्ति और सौष्ठव उनसे नहीं है। क्योकि समाज में कुछ ऐसे व्यक्ति होते है जो बाह्य रूप मे आदर्श के प्रतीक होते है, किन्तु भीतर-ही-भीतर अपनी दुश्चरित्रता का विष फैलाये रहते है। वे छद्मरूप मे अपनी वासना को शान्त करते है, किन्तु समाज के समक्ष अपनी महानता का ढोग रचते है। ऐसे पुरुष समाज सुधारक होकर भी समाज और जाति के स्वास्थ्य को नष्ट करने के भागी होते है ।
व्यक्ति देवता नही
जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति का देवता बनने का प्रयास कोरा दम्भ है। उत्तरोत्तर देवत्व अर्थात् सद्गुणो की प्राप्ति मनुष्य का आदर्श है, किन्तु देवता
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ५५७ । २ जैनेन्द्र कुमार 'सुखदा', पृ० स० १६१ । ३ जैनेन्द्र कुमार 'सुखदा', पृ० स० १०१ ।
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जैनेन्द्र और व्यक्ति
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बनकर स्वयं को सहज मानवीय भावनाओ से परे रखना नितान्त अप्राकृतिक है । जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति देवता बनने के लोभ मे मानवीय भावो और प्रवृत्तियो का दमन नही करते। कोरा आदर्श व्यक्ति को जड बना देता है तथा व्यक्तिगत भेद को मिटाकर सभी को आदर्श की पक्ति में आसीन कर देता है । 'टकराहट' तथा ' जयवर्द्धन' में कैलाश और ऐसे पात्र है जो स्वय को मानवीय दुर्बत से दूर रखकर जनहित करना चाहते है । वे अपने जीवन मे प्रदर्श की ऐसी पाचीर खडी कर लेते है, जिसमे उनका जीवन शुष्क-सा प्रतीत होने लगता है और वे यन्त्र- पुरुष के सदृश कर्म करते है । कैलाश ने एक ऐसे ग्राश्रम की स्थापना की है, जिसमे रहकर व्यक्ति जड हो जाता है, उसकी मूल प्रवृत्तियो के विकास का प्रवसर नही मिलता । जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति जडीभूत होकर शान्त नही हो सकता । उसके अन्त मे हलचल बनी ही रहती है । स्वय से बचकर आश्रम में रहना मिथ्या है । तपस्वी बनने मे व्यक्तित्व का ह्रास होता है । व्यक्तित्व का समुचित विकास तो सहजता मे ही सम्भव है ।' 'जयवर्धन' में इला जय को देवता नही बनने देना चाहती । वह प्रेम चाहती है । प्रेम की प्राप्ति के हेतु उसका मानवीय रहना ग्रनिवार्य है । इला के प्रेम कारण ही जय का जीवन कठोर नही हो पाता । 'टकराहट' में भी लीला श्राश्रम में शान्ति प्राप्त करने आती है, किन्तु वहा रहकर वह अपने प्रति छल नही कर पाती और वापस चली जाती है । वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार 'व्यक्तित्व में खुरच कर और छीलकर कुछ निकाला नही जा सकता ।" "विचार - शक्ति', 'विज्ञान' ग्रादि कहानियो मे लेखक ने इस तथ्य की सत्यता पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि त्याग और सयम आदि के ऊपर 'व्यक्ति' है । इस सत्य का निषेध करके वह पूर्णता की प्राप्ति नही कर सकती । शब्दो की लपेट मे
१ जेनेन्द्र कुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ७, तृ० स०, १९६३, पृ० स
१४ ।
२ जैनेन्द्र कुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ७, तृ०स० १६६३, पृ०स०६ । ३ जैनेन्द्रकुमार ' मन्थन', प्र० स०, दिल्ली, पृ० स० १२२ ।
४
'सभ्य हो, सयमी हो, उदात्त हो, त्यागी हो। इन सब के नीचे मै बता देना चाहती हू कि तुम प्रादमी भी हो। इस सत्य से आाख बचाकर तुम भागना चाहते हो, तो जाओ, मैं कब रोकती हू ।... कोई फरिश्ता हो सकता, यह भूल मैं तुममे टिकने न दूगी ।'
-- जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया, भाग ८ तृ० स०, १६६४, पृ० स० १३५ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
सच्चाई छिप जाती है, किन्तु सत्यता शब्द मे ही सीमित नहीं होती। व्यक्ति नेता और प्रवक्ता बनने पर भी व्यक्ति ही रहता है । देवता बनने के लोभ मे व्यक्ति का व्यक्तित्व विकृत और विकारग्रस्त हो जाता है । मानसिक स्वास्थ्य के हेतु छल का निर्णय अनिवार्य है। जैनेन्द्र के अनुसार- 'व्यक्तित्व की पूर्णता के लिए सत्य की स्वीकृति अनिवार्य है।'
दलित भी माननीय
प्राचीन साहित्य मे महत् प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति ही कथा का नायक होने का अधिकारी था। किन्तु आधुनिक सभ्यता और सस्कृति के नवीन उन्मेष ने जीवन के साथ साहित्य की धारा को भी नवीन मोड प्रदान किया है । आधुनिक समाज मे जागित भेद का कोई महत्व नही रह गया है । दलित और निम्नवर्गीय व्यवित भी साहित्य के उच्चासन पर आरूढ होने का अधिकारी है। वस्तुत जैनेन्द्र महान और प्रतिभाशाली व्यक्ति को ही पूज्य नही मानते, वरन् उनकी दृष्टि मे व्यथा से पूर्ण भिखारी और चोर तथा डाकू भी उतना ही महान है जितना आदर्शवादी नेता अथवा सुधारक । निम्नता तथा क्षुद्रता की अभिव्यक्ति करने वाले पात्र हृदय मे पीडा उत्पन्न करके हमारे प्रात्मीय बन जाते है। क्योकि उनकी आत्मा अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक होती है, उनमें प्रेम, दया और त्याग की भावना कूट-कूटकर भरी होती है । 'अधे का भेद' कहानी मे अधे भिखारी के जीवन को देखकर कौन कह सकता है कि उसके अन्तस् मे कितनी गहरी व्यवस्था छिपी हुई है और वह उस सारे उफान को दबाए हुए गलियो मे बच्चो के साथ गाता फिरता है । भिखारी के जीवन का इतिहास जानने के हेतु गदी बस्ती मे तथा समाज के उपेक्षणीय स्थलो पर जाना पड़ता है। उसकी जीवन-गाथा का रहस्य हृदय को सहसा झकझोर देता है। भिखारी की पत्नी वेश्या होते हुए भी कम सम्माननीया नही है, क्योकि उसका पेशा परिस्थिति और विवशता का परिणाम है, किन्तु उसके सस्कार बहुत उच्च है । कष्ट झेलकर भी वह प्रात्म-परिष्कार करने में समर्थ है जिससे उसकी आत्मा की पवित्रता पर व्यवसाय की कालिमा की छाया भी नही पड पाती । वस्तुत जैनेन्द्र
१ । तुम भी प्रवक्ता और तत्वज्ञाता के वाक्यो के नीचे जो हो वही हो। सत्य लपेट मे नही होता।'
जैनेन्द्र कुमार जैनेन्द्र की कहानिया', पृ० स० १२५ । २ जैनेन्द्र कुमार प्रतिनिधि कहानिया, स० शिवनन्दनप्रसाद, १९६६, प्र०स०,
पृ० स० ५७ ।
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जैनेन्द्र और व्यक्ति
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के अनुसार व्यक्ति की महानता कर्म मे न होकर उसकी भावना मे ही निहित होती है । जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति के पापी प्रथवा पुण्यात्मा होने का दायित्व उसी पर नही है । परिस्थिति की विवशता भी व्यक्ति को सद् ग्रसद् कर्मो की और उन्मुख करती है ।' 'चोरी' शीर्षक कहानी में लेखक ने यह दर्शाया है कि किस प्रकार व्यक्ति न चाहते हुए भी चोरी करने के लिए विवश होता है । सामाजिक विषमता तथा अव्यवस्था के कारण सज्जन व्यक्ति को भी चोरी करनी पडती है । ' 'फासी' शीर्षक कहानी मे शमशेर डाकू ही नही, सहृदय बेटा भी है। उसके हृदय में प्यार, ममता आदि भावो का आगार है । उसमे अतिथिसम्मान की भावना भी विद्यमान है किन्तु कर्तव्य के मार्ग मे उसकी भावुकता बाधक नही बनती । शत्रु के समक्ष वह क्रूरता की प्रतिमूर्ति है, तो मा के समक्ष भोला बालक है | क्रूरता उसका दोष नही है, वरन् आभूषण है ।' 'साधू की हठ' कहानी मे दारोगा घर आये साधु के कारण अपनी पत्नी को बहुत बुरी तरह पीटता है, किन्तु साधु की अतिशय सहनशीलता उस निष्ठुर व्यक्ति के हृदय की करुणा और दया को जाग्रत कर देती है। वस्तुत प्रत्येक व्यक्ति सन्त और दुष्ट दोनो है ।" न कोई बहुत निन्दनीय है और न ही कोई विशुद्धत भला ही है । उपरोक्त कहानी 'साधु की हठ' मे दारोगा की क्रूरता का कारण उसका निसन्तान होना है । अतएव निष्ठुरता उसकी विवशता है । सहृदयता मानवीय सस्कार है, यही कारण है कि अन्तत मानवीय गुणो की ही जय होती है ।
जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति व्यक्ति के बीच श्रेणी - विभाजन करना नितान्त असंगत है । उनकी दृष्टि मे व्यक्ति का आदर्श अच्छाई और बुराई से ऊपर उठना है, किन्तु अच्छाई और बुराई का लेबिल लगा लेने से परस्पर द्वेष की भावना उत्पन्न हो जाती है ।
व्यक्ति : टाइप नहीं
जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त व्यक्ति प्रतीक है । न वह 'टाइप' है, न
'पापी पापी नही है, पुण्यात्मा पुण्यात्मा नही है... किसी के कुछ होने के लिए सहसा दोष मै उसको नही दे पाती ।' - जैनेन्द्रकुमार
'सुखदा', पृ० स० ७२ । २ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ६, पृ० स० १५० । ३ जैनेन्द्रकुमार : 'प्रतिनिधि कहानिया', स० शिवनन्दनप्रसाद, पृ० स० २२ ।
४. जैनेन्द्रकुमार : 'जैनेन्द्र की कहानिया' भाग ६, पृ० स० २७-२८ । ५. जैनेन्द्रकुमार : 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ६, पृ० स० १६२ ।
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जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन
चरित्र । किन्ही निश्चित मान्यताओ की सीमा मे वे व्यक्ति की कल्पना नहीं करते । प्रेमचन्द के पात्र 'टाइप' है । उपन्यास प्रारम्भ करते ही हमारे मन मे उनके पात्रो के सम्बन्ध मे एक निश्चित अवधारणा बन जाती है कि अमुक पात्र अमुक 'टाइप' का होगा । उनके उपन्यास का नायक दोषयुक्त नही हो सकता, किन्तु जैनेन्द्र के अनुसार अत्यन्त प्रतिष्ठित व्यक्ति भी दोषयुक्त हो सकता है तथा निम्नतम व्यक्ति भी आदर्श गुणो का प्रतीक बन सकता है । जैनेन्द्र के पात्रो के सम्बन्ध मे कोई भी धारणा पहले से निश्चित नही की जा सकती। उनके पात्र सदैव अपने अधूरे व्यक्तित्व का ही परिचय देते है। जैनेन्द्र के अनुसार किसी भी व्यक्ति का हम सब कुछ नही जान सकते, क्योकि शेष जीवन मे भी उसमे परिवर्तन सम्भव हो सकता है। अतएव उसके सम्बन्ध मे अन्तिम निर्णय देना उचित नही है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे जिस प्रकार ब्रह्म अज्ञेय है और उसके सम्बन्ध मे हमारी सम्भावनाए सदैव बनी रहती है, उसी प्रकार व्यक्ति का भविष्य अज्ञेय है । अज्ञेयवस्तु के सम्बन्ध मे निश्चित नही कहा जा सकता । जैनेन्द्र के अनुसार 'महान पात्र पाठक की रुचि और कल्पना को बाधते नही है, बल्कि स्फूर्त करके मुक्त करते है। उनके प्रति बराबर एक चाह, एक उत्सुकता बनी रहती है मानो वे मुट्ठी मे समाने के लिए नही है । __ वस्तुत जैनेन्द्र के व्यक्ति न तो 'टाइप' होकर निश्चेष्ट हो गए हैं और न ही अपने मे सीमित है । जैनेन्द्र का आदर्श एक का हर एक मे हो जाना हे । उनके अनुसार व्यक्ति स्वय को नही, वरन् अपने माध्यम से सत्य की झाकी को मूर्त करता है।
व्यक्ति और मनोविज्ञान
जैनेन्द्र का व्यक्तिवादी दृष्टिकोण मनोविज्ञान से प्रभावित प्रतीत होता है। किन्तु मनोविज्ञान से प्रभावित होते हुए भी उसकी (मनोविज्ञान की) मनोविश्लेषणात्मक नीति उन्हे ग्राह्य नही है । उन्होने मनोविज्ञान को साहित्य के स्तर पर जिस रूप मे स्वीकार किया है, वह व्यक्ति के मन से विज्ञान अर्थात् उसकी प्रकृति की सत्यता का उद्घाटन करने में सक्षम होता है। किन्तु सत्यता का प्रकटीकरण अपनी समग्रता मे ही सम्भव हो सका है । मनोविज्ञान द्वारा व्यक्ति की मानसिक चेतना का इस प्रकार मनोविश्लेषण किया जाता है कि व्यक्तित्व का सम्पूर्ण रूप स्पष्ट नहीं हो पाता ।
१ जैनेन्द्र कुमार साहित्य का श्रेय और प्रेय' पृ० स०, १९५३, दिल्ली,
पृ० स० १८१।
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जैनेन्द्र और व्यक्ति
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यथार्थ : प्रकृतिवाद का पर्याय नही
निष्कर्षत जैनेन्द्र के साहित्य मे आदर्श और यथार्थ की नितान्त मौलिक दृष्टि प्राप्त होती है । उन्होने यथार्थ का जो स्वरूप स्वीकार किया है, वह प्रकृतिवादी साहित्यकारो के सदृश नग्नता का घिनौना चित्रण नही। जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त यथार्थ सत्य से सम्बन्धित है । उसमे यथातथ्य चित्रण होते हए भी वीभत्सता को स्वीकृति नही मिलती है। यथार्थवाद यथार्थ के नाम पर उत्तरोत्तर प्रकृतिवाद की ओर उन्मुख हुआ प्रतीत होता है । उसमे बन्धनहीनता फैशन बन गई है। जैनेन्द्र का साहित्य फैशन के बहाव से दूर निजता की वास्तविकता से युक्त है । यथार्थवादियो का नारा है कि घिनौना, फूहड, वीभत्स सब चलेगा, केवल आदर्श नही चलेगा । जैनेन्द्र का आदर्श से कोई विरोध नही है । उनकी दृष्टि मे आदर्श का निषेध व्यक्ति को पूर्णता प्रदान करने मे कदापि सफल नही हो सकता। जैनेन्द्र के पात्रो का आदर्श उनके स्वप्नद्रष्टा होने मे है । स्वप्न अर्थात् सम्भावना मे ही उनके पात्र अपने आदर्श जीवन की परिकल्पना करते है । इस प्रकार आदर्श प्राप्ति द्वारा व्यक्ति की सम्भावनाओ का हनन् नही होता। जैनेन्द्र के अनुसार 'जो हम है वही हमारा जीवन नही है। जो होना चाहते है, हमारा वास्तव जीवन तो वही है । जीवन एक अभिलापा है।"
परस्परता
जैनेन्द्र-साहित्य का सर्वोपरि आदर्श है कि व्यक्ति, व्यक्ति के भेद को मिटा दिया जाय । इस अभिन्नता से उनका तात्पर्य परिस्थितिगत समानता से न होकर हृदयगत समानता और एक्य से ही है । व्यक्ति मे अन्तर हो सकता है, किन्तु पारस्परिक भावो मे अन्तर होने के कारण मतभेद नही उत्पन्न होता । जैनेन्द्र की दृष्टि बहुत ही व्यावहारिक है । इसलिए वे व्यक्ति को आदर्श मे नही वरन् व्यवहार में केन्द्र मानकर चलते है । आदर्श बाहर नही, व्यक्ति-चित्त मे निहित होता है ।' उनका विश्वास है कि विशिष्ट मान्यताए प्राप्त करने से व्यक्ति स्वय को समाज का आदर्श समझने लगता है । उसके मन मे यह भाव जाग्रत हो जाता है कि वह सदाचारी है, अतएव उससे कोई त्रुटि हो भी नही सकती। सदाचार की ओट मे वह स्वार्थ का बीज बोने मे ही सहायक होता है। आधुनिक समाज मे ऐसे ही गण्यमान्य व्यक्ति अधिक है, जिनके मन मे स्वार्थ,
१. हर्षचन्द्र 'सूक्ति सचयन', प्र० स०, १९६५, दिल्ली, पृ० स० ११३ । २, जैनेन्द्र कुमार , 'समय और हम', पृ० स० ६४ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
लोलुपता आदि दूषित भावनाए भरी हुई है, किन्तु ऊपर से वे आदर्श बने रहते है। व्यक्ति की ऐसी प्रवृत्तियो के कारण ही जैनेन्द्र आदर्श को मानव के अन्तस् मे खोजना श्रेयस्कर समझते है ।
आत्म-परिष्कार
जैनेन्द्र के साहित्य मे भले-बुरे की आलोचना के स्थान पर आत्म-निरीक्षण और आत्म-परिष्कार पर ही बल दिया गया है । उनके अनुसार दूसरे की आलोचना करने से एक ओर तो 'पर' का निषेध होता है, दूसरी ओर 'स्व' का अहभाव पुष्ट होता है, किन्तु आत्मनिरीक्षण द्वारा व्यक्ति अधिकाधिक विनम्र तथा सहनशील बनता है। जैनेन्द्र के साहित्य मे हार्दिकता और प्रासादिकता का आधिक्य है । आत्मगत स्नेह, सहानुभूति और आत्मसमर्पण का भाव ही वह शस्त्र है, जिससे उनके पात्र अन्य पर विजय प्राप्त करने में समर्थ होते है। वस्तुत जैनेन्द्र की व्यक्ति सम्बन्धी दृष्टि व्यावहारिक जीवन की सत्यता पर आधृत है, आदर्श की थोथी भूमिका पर नही। ___ जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति यथार्थ जीवन की गहराई से ही प्रादर्श की ऊचाई की ओर उन्मुख होता है । आदर्शवादी साहित्यकार व्यक्ति के पूर्ण रूप को अपने साहित्य मे विवेचित करते है। किन्तु जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति अपूर्ण है, यही कारण है कि वह है।
व्यक्ति और समाज
व्यक्ति समाज की सापेक्षता मे ही अपने अस्तित्व को स्थिर रख सकता है। समाज से बचकर अलग रहने मे व्यक्ति के स्वरूप और उसकी प्रकृति का कोई महत्व नही रहता । अतएव व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसकी निजता के साथ ही साथ सामाजिकता का ज्ञान भी अनिवार्य है। राजनीति, समाज, धर्म, अर्थ आदि विभिन्न क्षेत्रो की सापेक्षता मे ही व्यक्ति जीवन की सार्थकता सम्भव है । जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति अन्तर्मुखी होते हुए भी समाज के प्रति उत्तरदायी है । वह समाज का अविभाज्य अग है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे 'व्यक्ति जीवन का उद्देश्य अपनी निजत्व को समग्र एव समग्र को निजत्व मे देखना है।" जैनेन्द्र के साहित्य मे समाज की सीमानो और मर्यादापो का पूरा १ जैनेन्द्र कुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ६, तृ० स०, पृ० स० ११० । २ जैनेन्द्र कुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ६, तृ० स०,पृ० स०११-१३ । ३ जैनेन्द्र कुमार 'कल्याणी', १९५६, १० स० ८५।
जैनेन्द्र कुमार 'विवर्त', पृ० स० ४० ।
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जैनेन्द्र और व्यक्ति
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ध्यान रखा गया है । समाज की पृष्ठभूमि पर ही व्यक्ति-जीवन का विकास होता है। व्यक्ति स्वय मे ही सीमित नही है। उसकी सार्थकता 'पर,' के सन्दर्भ मे ही सम्भव है । जैनेन्द्र के साहित्य मे 'स्व' पर अर्थात् व्यक्ति, व्यक्ति की परस्परता की ओर विशेषत दृष्टिपात किया गया है । सामाजिक प्राणी विभिन्न द्वन्द्वो के मध्य जीवनयापन करता है। राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक स्थितिया जीवन मे नाना द्वन्द्वात्मक रूप उत्पन्न करती है। ___त्याग की भावना से युक्त होकर ही व्यक्ति समाज का हित कर सकता है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे वही व्यक्ति समाज को नया मोड और नई चेतना दे सकता है, जिसमे समाज की ओर से प्राप्त होने वाली यातनायो को सहने की क्षमता है। उनकी दृष्टि मे गाधी और ईसा एक महान आदर्श है। समाज धर्म की प्रतिष्ठा मे ही ईसा को सूली पर चढना पडा था। वस्तुत व्यक्ति समाज से निरपेक्ष नही हो सकता। समाज से स्वतन्त्र होकर चलने मे समाज द्वारा प्राप्त होने वाले दण्ड से नही बचा जा सकता तथापि पारमार्थिक व्यक्ति स्वय कष्ट झेल करके ही 'पर' के हित मे रत रहता है ।।
विभिन्न जीवनदृष्टि
व्यक्ति और समाज के जीवन की अभिव्यक्ति के लिए विभिन्न विचारधाराए प्रचलित है। ये विभिन्न धाराए जिस दृष्टि से व्यक्ति-जीवन की समस्यानो और व्यवस्था का विवेचन करती है, उनका तत्कालीन साहित्य पर प्रभाव पडना अनिवार्य है। साहित्य युग की देन है । आधुनिक युग मे साहित्य के स्तर पर तीन प्रमुख विचारधाराए और जीवन-नीतिया दृष्टिगत होती है। पहली मनोवैज्ञानिक धारा है, जिसके प्रणेता फ्रायड है। फ्रायड ने व्यक्ति के मन का विश्लेषण करते हुए उसके चेतन-अचेतन मन के रहस्योद्घाटन का प्रयत्न किया है। दूसरी ओर कार्लमार्क्स ने भौतिक जगत की विषमताओ से आक्रान्त मानव जाति के वर्ग-भेद को मिटाने का प्रयास किया है । प्रथम फ्रायडीय दृष्टि व्यक्तिवादी थी। दूसरी मार्क्सवादी दृष्टि वस्तुवादी अथवा समाजवादी है। मार्क्स-दर्शन का मूलाधार व्यक्ति न होकर सामाजिक और आर्थिक विषमता से उद्भूत समस्याए है। उनकी दृष्टि अर्थ प्रधान होने के कारण तथा राजनीति के सस्पर्श से विश्वव्यापी बन गई है। मार्क्स के समानान्तर चलने वाले जिस दर्शन मे मानव जीवन और साहित्य तथा राजनीति को सबसे अधिक अभिभूत
१. जैनेन्द्रकुमार · 'जैनेन्द्र की कहानिया, भाग १, तृ० स०, १९६२, दिल्ली,
पृ० स० १८६ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
किया है, वह गॉधी-दर्शन है । गाधी और मार्क्स मानव जीवन प्रोर समाज को लेकर ऐसे मोड पर पहुचते है, जहा वे एक न होकर भी नही बन पाते।
मतवाद
मानव समाज मे विभिन्न वाद-प्रतिवाद दृष्टिगत होते है। विभिन्न वादो का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति और समाज की समस्याओं का समाधान करना है । साहित्य का काय मानव जीवन के सन्दर्भ मे विभिन्न वादो का विवेचन प्रस्तुत करना है। जैनेन्द्र के साहित्य मे किसी वाद-विशेष का सहारा नहीं लिया गया है । उनकी दृष्टि मे केवल-हित प्रधान है, वाद-विवाद की सकीर्णता उन्हे ग्राह्य नही है। विभिन्न साहित्यकार अपने साहित्य द्वारा विभिन्न वादो का प्रचार करते है । साहित्य का कार्य प्रचार करना नहीं है, केवल दृष्टि-दान करना है। यशपाल के साहित्य मे मार्क्सवाद का स्वर विशेषत मुखरित हुआ है। उन्होने मार्क्सवाद को स्वीकार करते हुए गाधीवादी नीति का विरोध किया है । जैनेन्द्र के साहित्य मे आग्रह की प्रवृति कही भी लक्षित नही होती । जैन धर्म के प्रभाव के कारण वे दृष्टि-विशेष को सत्य मानकर अन्य का निषेध करना उचित नही समझते । विभिन्न वाद स्वार्थपूर्ण दृष्टि रोकर अपने मत को अन्य पर थोपने का प्रयत्न करते है, किन्तु साहित्य का आदर्श राजनीतिक वाद-विवाद से पृथक है। साहित्य मे वाद आग्रहमूलक न होकर मानव-हित का पोषक होता है।
जैनेन्द्र के साहित्य मे मानव जीवन की विविध समस्याओं पर विचार किया गया है। गरीबी-अमीरी, शोषक-शोपित, उद्योग वर्ग, प्रौद्योगीकरण, मजूरमालिक, प्रजातन्त्र आदि विषयो पर विशेष रूप से विचार किया गया है। अमीरी तथा पाश्चात्य सभ्यता के रग मे डूबे हुए समाज और सभ्यता के बीच तडपते और अन्तिम सास लेने वाले व्यक्ति से लेकर, समाज में विषाक्त फैताने वाले पूजीवाद का उन्होने सूक्ष्म विवेचन किया है । उनके साहित्य म विषय की विशुद्धता से अधिक उसकी गहनता दृष्टिगत होती है । अर्थनीति से इतर राजनीति मे हिसात्मक नीति का उन्मूलन करके अहिसक नीति द्वारा देश में शान्ति और शासकहीन राज्य की स्थापना की ओर उन्होने विशेषतया ध्यान आकर्षित किया है।
जैनेन्द्र ने मार्क्सवाद, समाजवाद, साम्यवाद की विविध स्थितियो का सर्वक्षण करते हुए अपने साहित्य मे गाधी की सर्वोदय नीति को ही स्वीकार किया है । जैनेन्द्र का साहित्य भारतीय संस्कृति का पोषक है। उनकी रचनामो मे भारतीय सस्कृति और सुरक्षा का प्रयत्न पूर्णत लक्षित होता है। फ्रायड और मार्क्सवादी धाराए उनके साहित्य और विचारो को पूर्णत, अभिभूत नहीं कर
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जैनेन्द्र पोर व्यक्ति
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पाती । जैनेन्द्र की अनुभवगम्य दृष्टि उन्हे सिद्धान्त से अधिक व्यावहारिकता को
आधार बनाने की ओर उन्मुख करती है। यही कारण है कि वे किसी प्रचलित सिद्धान्त पोर प्रादर्श को अपने अनुभव की कसौटी पर परखे बिना स्वीकार नहीं करते।
आथिक वैषम्य
जैनेन्द्र के साहित्य मे सामाजिक और आर्थिक विषमता का स्पष्ट स्वरूप दिखायी देता है । उन्होने अपने निकट की परिस्थिति से आत्मसात् होकर उसमे निहित सत्य के उद्घाटन का प्रयास किया है । बडे-बडे शहरो जहा चारो ओर चहल-पहल तथा भव्य प्राकर्षण के दृश्य दिखायी देते है, वही गरीबी भी दुबकी हुई कराहती रहती है। दिल्ली के बाजार है जहा अमीरी तनकर अपना प्रदर्शन करती फिरती है और जहा गरीबी अपने को अमीरी वाणी मे छिपाए, शर्माए चलती है। उनकी रचनाओ मे भव्यता व दारिद्रय के वैषम्य का बडा ही मर्मस्पर्शी चित्र प्राप्त होता है, जिससे जैनेन्द्र की सूक्ष्म पर्यवेक्षण-शक्ति तथा गानव जीवन के प्रति उनकी अटूट निष्ठा परिचय प्राप्त होता है। 'अपना प्रदर्शन अपना भाग्य'' शीर्षका कहानी इस दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण तथा उपयुक्त है । इस कहानी म जैनेन्द्र ने धार्मिक विषमता से उत्पत्र गरीबी के कारण मौत के शिकार बनने वाले बालक का ऐसा मन्तिक चित्र प्रस्तुत किया है जो सहसा पापाण-हृदय को भी झकझोर देने में समर्थ है। उपरोक्त कहानी मे लेखक ने साम्राज्यवादी अग्रेजो के शासन-काल की सभ्यता और संस्कृति का चित्र प्रस्तुत किया है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे व्यक्ति का हित ही प्रधान है, इस दृष्टि से उन्होने मानव-पीडा के विविध स्त्रोतो की ओर दृष्टिपात किया है। मानव को पशु समझने वाली उस अगरेज जाति की ओर भी उन्होने इगित किया है, जो घोडे के सदृश किसी हिन्दुस्तानी व्यक्ति पर भी कोडे मारने मे नही हिचकिचाते थे। इस बहानी मे लेखक ने विषमता का वह चित्र प्रस्तुत किया है, जिसमे सपन्नता के कारण आवश्यकता से अधिक सुख-सुविधा प्राप्त करने वाले कुछ ऐसे व्यक्ति है, और कुछ ऐसे है जो या तो साहब की 'मार' से मर जाते हे अथवा नैनीताल की पहाडियो मे ठडक से सिकुड कर प्राण त्यागने
१ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग २, चौथा स०, १६६६, दिल्ली,
पृ० स० १३६ । २ 'हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कहानिया', स० गणेशपाण्डेय, प्र० स०, १९५६, पृ०
स० ८०।
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जैनेन्द्र का जीवन-दशन को विवश होते है। अगरेजी राज्य के अनन्तर भी गरीबी और अमीरी का का भेद कम नही हुआ है । गरीब आज भी समाज का उच्छिष्ट अग है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य प्रप्रेम और घृणा की गहरी खाई उत्पन्न करने का एकमात्र कारण धनिक वर्ग की झूठी शान और प्रतिष्ठा है। यही कारण है कि जैनेन्द्र ने अपने साहित्य में प्रतिष्ठित माने जाने वाले व्यक्तियो को ही विशिष्टता नही प्रदान की है। उनकी दृष्टि मे निर्धन व्यक्ति भी अपनी आत्मा की उच्चता के कारण सम्माननीय स्थान प्राप्त करने का अधिकारी है । यद्यपि अमीरी पाप नही है, किन्तु अमीरी के कारण ही व्यक्ति की नैतिकता और आत्म-चेतना का पतन हो जाता है। धनिक समाज मे चोर, बेईमान, चरित्रहीन व्यक्ति का सच्चा निर्णय नही हो पाता, क्योकि वे पैसे के बल पर ईमानदार और चरित्रवान् बने रहते है।
जैनेन्द्र के साहित्य मे समाज के ऐसे वर्ग पर भी प्रकाश डाला गया है जहा सज्जनता के पीछे दुष्कर्मो की बू मिलती है । जैनेन्द्र की 'एकटाइप' तथा 'आतिथ्य' कहानी इस तथ्य की पुष्टि मे प्रस्तुत की जा सकती है। 'एकटाइप' मे एक ऐसे व्यक्ति का परिचय प्राप्त होता है, जो सचमुच टाइप ही है। वह रेल मे सफर करते हुए पूरे समय तक 'शान्ताकारम् भुजग शयनम्' का पाठ अपने ढग से करता रहता है। उसे देखकर कोई नही विश्वास कर सकता कि उसकी सादगी के पीछे ही कोई कालिमा हो सकती है। किन्तु जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे ऐसे व्यक्तियो के जीवन का रहस्योद्घाटन किया है, जो हर भाति सम्भ्रान्त दीखते है, देखते ही उनके भीतर आदर होना स्वाभाविक है। उनके जीवन मे और उनके मन मे शका का कीडा कही नही दीखता। किन्तु थोडी आमदनी होने पर भी वे ऊपरी आमदनी के सहारे लम्बे खर्च करते है और बडे गर्व के साथ कहते है कि 'तनखाह बीस (रुपए) से ही शुरू हुई थी, लेकिन उसी के भरोसे कौन रहता है। ऐसे ढोगी भद्र व्यक्तियो के प्रति जैनेन्द्र के
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१ 'बतलाने वालो ने बताया कि गरीब के मुह पर, छाती, मुट्टियो और पेरो
पर, बर्फ की हल्की-सी चादर चिपक गई थी। मानो दुनिया की बेहयाई घटाने के लिए प्रकृति ने शव के लिए सफेद और ठण्डे कफन का प्रबन्ध कर दिया था ।
--'हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ कहानिया', सम्पा० गणेश पाण्डेय, प्र० स०८६ । २ 'शान्ताकारम् भुजगशयनम् पद्मनाभ सुरेसम् ।'
-जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ६, पृ० स० ३७ । ३ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ६, पृ० स० ३४-३६ ।
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जैनेन्द्र और व्यक्ति
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हृदय मे घोर वितृष्णा और अनुताप है, जो कि उनके साहित्य मे स्पष्टत व्यक्त हुआ है। 'आतिथ्य' कहानी मे लेखक ने ऐसे व्यक्ति का चित्रण किया है, जिसकी दृष्टि मे मुनाफा और स्वार्थ प्रमुख है, मित्रता गौण है । वह अपनी
आमत्रित अतिथि (मित्र) को अपनी गोशाला, डेरी आदि के सम्बन्ध मे सविस्तार परिचय देता है, किन्तु अतिथि-सत्कार के नाम पर मित्र के बच्चो को छटाक भर दूध देने मे वह अपनी असमर्थता ही व्यक्त करता है । प्रस्तुत कहानी द्वारा लेखक ने व्यक्ति की स्वार्थी मनोवृत्ति का बहुत ही स्पष्ट रूप व्यक्त किया है।
सदाचरण
जैनेन्द्र के साहित्य मे सदाचरण की ओर भी दृष्टिपात किया गया है । जैनेन्द्र के अनुसार भ्रष्टाचार को दूर करने का ठेका लेने वाले नेता अथवा सुधारक सही रूप मे समाज का सुधार नहीं कर सकते, क्योकि समाज मे दुराचार और सदाचार की मान्यताए जीवन के बाह्य स्वरूप पर आधारित है । आधुनिक युग में वही व्यक्ति सदाचारी और सम्भ्रात समझा जाता है, जिसके पास अधिकाधिक धनार्जन करने के साधन है तथा जिसका जीवन-स्तर ऊचा है । भ्रष्टाचार को दूर करने का ठेका भी ऐसे ही व्यक्ति लेते है, जिनके पास किसी भी वस्तु का प्रभाव नहीं है । अपने मे पूर्ण होकर वे सुधार करना चाहते है । आज सदाचार का मानदण्ड लम्बी-चोडी दावते देने तथा जी खोलकर स्वागत और सत्कार करने मे है । खर्च करने मे सदाचारी वृत्ति का हास होता है। जैनेन्द्र के अनुसार आधुनिक युग मे सदाचार के प्रसार का कार्य राजनेतामो तक ही परिमित हो गया है, किन्तु जैनेन्द्र की दृष्टि मे राजनीतिक होकर सदाचारी बने रहना सम्भव नही है । उनका विश्वास है कि यदि अर्थवृद्धि से सदाचार बढता हुआ माना जाता है तो दुराचार भी आमदनी को बढाने चढाने की चेष्टा मे ही होता है । 'चक्कर सदाचार का' कहानी जैनेन्द्र के विचारो की प्रतिनिधित्व करने मे पूर्णत समर्थ है। मिस्टर वर्मा की सदाचार के प्रसार की नीति के प्रति अरुचि तथा उदासीनता इसी तथ्य को द्योतित करती
१. जैनेन्द्रकुमार : 'जनेन्द्र की कहानिया, भाग ६, पृ० स० ११५ । २ 'सदाचार बिना बढी-चढी आय के हो नही सकता । बढी-चढी पाय के लिए ही दुराचार किया जाता मालूम होता है।' -~-जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानियाँ', भाग १०, प्र० स०, १६६६,
पृ० स० १५७।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
है कि वे समाज-सुधार और सुधारक- सस्थाओ मे विश्वास नही करते । उनका विश्वास है कि सुधार के लिए आवश्यक है हृदय परिवर्तन । अन्तस् से होने वाली सुधारेच्छा ही सत्य है । ऊपर से सुधार की प्रचारक वृत्ति द्वारा भ्रष्टाचार की ही वृद्धि होती है । जैनेन्द्र के अनुसार 'ससार का तथा राष्ट्र का भला नेता नही कर सकता, क्योकि उसमे राष्ट्रीय नीतियो का बाहुल्य होता है । 'उनकी दृष्टि मे यदि सुधार सम्भव हो सकता है तो गाधी और ईसा जैसे शहीदो के द्वारा ही हो सकता है । वस्तुत अर्थ-वृद्धि द्वारा जीवन स्तर को बढाते हुए सुधार करने के प्रयत्न मे व्यक्ति के अपने ही पाप को छिपाने का भाव लक्षित होता है ।
पैसा और व्यक्ति
जैनेन्द्र की दृष्टि मे समाज के स्तर को बढाने के लिए आवश्यकता है, पारस्परिक स्नेह, दया और ममता की । उनके साहित्य का प्रवलोकन करते हुए यह ज्ञात होता है कि जब तक हमारा अमीरी के प्रति मिश्या दम्भ समाप्त नही होगा, तब तक परस्परता की कल्पना करना निरर्थक है । जैनेन्द्र के हृदय में व्यक्ति के तिरस्कार और अर्थ के सत्कार को लेकर गहरा विक्षोभ है, क्योकि ससार मे प्राय ऐसा घटित होते हुए देखा जाता है कि मार्ग मे पडा हुआ पैसा उठा लिया जाता है और दुख से कराहता हुआ व्यक्ति छोड दिया जाता है । पैसे की शक्ति का ज्ञान प्रबोध बच्चे को भी होता है, क्योकि पैसे से व्यक्ति का हित जुड़ा होता है । पैसे की शक्ति ने ही गरीब और अमीर के बीच गहरी खाई उत्पन्न कर दी है, जिससे व्यक्ति, व्यक्ति को पहचानने में असमर्थ हैं । जैनेन्द्र की दृष्टि मे जब तक हमारी अर्थ मानसिकता के स्वरूप में अन्तर नही आयेगा, तब तक मानव जीवन यो ही तिरस्कृत होता रहेगा और सचित धन समाज का कोढ बना रहेगा । उनकी दृष्टि मे मालदार बनने की इच्छा मनुष्यता की निधि मे नकाब लगाकर चोरी करने की इच्छा से कम या भिन्न नही है । '
पूँजीवादी दृष्टि
जैनेन्द्र के साहित्य मे पूजीपतियो के प्रति उनका गहरा प्रकोप प्रभिव्यक्त हुा है। समाज में उत्पन्न प्रार्थिक वैषम्य का दायित्व पूजीपतियों पर ही है ।
१ जैनेन्द्रकुमार ' सोच-विचार', पृ० स० ८८ ।
२ जैनेन्द्रकुमार 'सोच-विचार', पृ० स० ८८ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'सोच-विचार', पृ० स० ६३ ।
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जैनेन्द्र मोर व्यक्ति
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पूजीपति वही है, जो पूजी बढाने की ही कला जानता है । खर्च करने की नही जानता है । इस प्रकार केन्द्रीभूत पूजी समाज के शरीर को विषाक्त करने मे सहायक होती है । जैनेन्द्र के अनुसार जिस प्रकार शरीर के स्वास्थ्य के हेतु रक्त का समुचित प्रवाह अनिवार्य है, उसी प्रकार समाज रूपी शरीर के स्वास्थ्य के हेतु धन का सचित वितरण अनिवार्य है । सरकारी मोहर लगने पर ही पूजी की सार्थकता निर्भर करती है, अन्यथा वह स्वयं मे जड है । जैनेन्द्र ने अपनी रचनाओ मे 'सरकारी मोहर' शब्द का बार-बार प्रयोग किया है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि धन के सरकारी सरक्षरण को वे उचित नही मानते । 'विवर्त', 'सुखदा', 'सुनीता', 'जयवर्धन' मे पूजीपतियों की कटु आलोचना की है ।' जैनेन्द्र के अनुसार पूजी स्वय मे दोष नही है, किन्तु उसकी वृद्धिकारक प्रवृत्ति समाज के शरीर मे गहरा घाव है । पूजी वृद्धि का सर्वोत्कृष्ट साधन उत्पादन क्षेत्रका प्रधिकृत करना है । पूजीपतियो की दृष्टि मे स्वार्थ की भावना बहुत प्रधिक होती है । प्रतिष्ठा एव ऐश्वर्य के समक्ष देश व राष्ट्र का हित भी उनकी दृष्टि में गोरा होता है। जैनेन्द्र ने भौतिकता के रंग में रंगे हुए अर्थवृद्धि के लिए सचेष्ट रहने वाले समाज का चित्रण करते हुए स्पष्ट किया है कि ऐसे व्यक्तियो को श्रम भी नही करना पडता और पूजी बढती जाती है । सामाजिक सस्था को दानस्वरूप कुछ सम्पत्ति देकर वे प्रेम को बहुत प्रतिठित समझने लगते हैं, 'अनन्तर' मे प्रादित्य ऐसा ही व्यक्ति है, जिसका लक्ष्य जीवन स्तर को बढाना है। धर्म, नैतिकता, परमार्थ ग्रादि भावनाए उसकी दृष्टि मे निरर्थक है ।"
'विवर्त' में भी लेखक ने ऐसे परिवार का चित्रण किया है, जहा प्रतिक्षण सुख भोग में व्यतीत होता है। उनके जीवन मे प्रभाव नाम की कोई वस्तु ही नही होती। वे अपने सुखमय जीवन में कभी अपने से नीचे देखने का कष्ट नही करते । जैनेन्द्र ने ऐसे व्यक्तियो पर गहरा व्यग्य किया है। एक प्रोर आवश्यकता से अधिक धन होने के कारण जीवन क्रीडा बन जाता है । दूसरी चोर कुछ रुपयों के लिए बेटिया बेची जाती है । समाज मे यह भेद धन के कारण ही उत्पन्न होता है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे पूजीपतियो की स्वार्थमयी दृष्टि ने समाज मे ऐसा विप फैला दिया है, जिसे दूर किए बिना समस्त मानव -सस्कृति का विनाश निश्चित है । ऐसी विषम स्थिति मे जागरूक क्रान्तिकारी समाज के भीतर व्याप्त अर्थ की शक्ति का विस्फोट करने के लिए विवश है । 'सुखदा '
१. जैनेन्द्रकुमार 'सोच-विचार', पृ० स० १४५ ।
२. जैनेन्द्रकुमार 'अन्तर, १६६८, प्र० स०, दिल्ली ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
मे लाल ऐसा ही क्रान्तिकारी व्यक्ति है, जिसकी दृष्टि मे पैसे ने अपने दात से काट-काट कर जगह-जगह समाज के शरीर मे जो घाव कर रखे है उन घावो का धोना और बहा देना ही उनका प्रमुख शौक है। धन के इस प्रकार पूजीकृत होने से गरीब गरीब होते गये है, अमीर अधिक अमीर होते गये है । इस प्रकार गरीबी और अमीरी दो ऐसे किनारे बन गये है, जिनमे मिलन अर्थात् पारस्परिक प्रेम की कोई सम्भावना ही नही दृष्टिगत होती। जैनेन्द्र के अनुसार पूजी ने व्यक्ति को प्रादमियत से अधिक हैसियत से जोडकर झूठी मर्यादा और प्रतिष्ठा को बढाने मे ही सहयोग दिया है । जैनेन्द्र के साहित्य द्वारा धनी वर्ग के प्रति उनकी घोर वितृष्णा का भाव लक्षित होता है।
जैनेन्द्र के साहित्य मे पूजीपतियो के विरुद्ध हिसात्मक वृत्ति भी लक्षित होती है, किन्तु इस वृत्ति द्वारा लेखक का उद्देश्य पूजीपतियो के प्रति अपने प्राक्रोष को ही व्यक्त करना है। 'विवर्त' और 'सुखदा' मे हमे जैनेन्द्र के इन्ही विचारो की झलक मिलती है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे पूजीवादी सभ्यता मे आदमी की नही, वरन् पैसे की पूजा होती है । वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य का अवलोकन करते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि धनिक वर्ग की झूठी और छली सभ्यता के प्रति उनके मन मे तनिक भी आस्था नही है। उनका आदर्श मानवमानव की परस्परता मे ही पूर्ण होता है। उन्होने अपने साहित्य द्वारा समाज के इस दोष को दूर करते हुए प्रेममय भावो के प्रसार का प्रयत्न किया है।
साम्यवादी दृष्टि
उपरोक्त स्थितियो को देखते हुए प्रश्न उठता है कि क्या जैनेन्द्र अपने साहित्य द्वारा समाज की विषमता का उन्मूलन करते हुए आर्थिक समानता लाना चाहते है । क्या वे ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते है, जिसमे समस्त मानवता एक ही साचे मे ढली हो। इस तथ्य की पुष्टि के हेतु जैनेन्द्र के साहित्य मे साम्यवादी और समाजवादी प्रभावो को देखना अनिवार्य है।
मार्क्सवाद एक राजनीतिक तन्त्र होने के पूर्व एक दार्शनिक दृष्टि है। कार्ल मार्क्स के अनुसार मानव जीवन की विषमता और समस्त दुखो का एकमात्र कारण आर्थिक विषमता है । अर्थ जीवन की सुख-सुविधाओ का आधार है । उसके अनुचित विभाजन के कारण ही मानव जीवन मे अशान्ति और विद्रोह की भावना जाग्रत होती है । मार्क्सवादी नीति का विश्व साहित्य पर बहुत अधिक प्रभाव लक्षित होता है । जिस प्रकार फ्रायड ने मनोविश्लेषणवादी
१ जैनेन्द्रकुमार 'सुखदा', पृ० स० १०७ ।
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जैनेन्द्र प्रोर व्यक्ति
२३५ विचारो के आधार पर व्यक्ति के अन्त मन को व्याख्यायित किया है, उसी प्रकार मार्क्स द्वारा बाह्य जीवन के द्वन्द्वो को 'अर्थ' के आधार पर विवेचित किया गया है। ___मार्क्स की समाजवादी नीति का आदर्श समाज से आर्थिक विषमता को दूर कर मानव-एकता की स्थापना करना है, जहा शोषक और शोषित का भेद पूर्णत समाप्त हो जाय । समाजवाद द्वारा वर्गहीन समाज की स्थापना की जाती है। इसमे सारी सत्ता स्टेट मे केन्द्रित हो जाती है तथा व्यक्तिगत सत्ता को (पूजी) प्रश्रय नहीं मिल पाता । समाजवाद का कार्य समाज मे क्रान्ति उत्पन्न करके परिवर्तन लाना है । सभ्यता का विकास तथा विज्ञान की प्रगति द्वारा जीवन को अधिकाधिक सुखमय बनाना ही समाजवादी अथवा साम्यवादी नीति का उद्देश्य है । उन्होने जीवन-स्तर के बढाने पर विशेष बल दिया है। मार्क्स के अनुसार हमारा साहित्य, संस्कृति, कला आदि का उद्देश्य व्यक्ति की आर्थिक स्थिति को अधिकाधिक समृद्ध बनाना है । मार्क्सवाद मे नैतिकता पर बल नही दिया गया है, उसमे भौतिकता तथा औद्योगिक प्रगति पर अधिक ध्यान आकृष्ट किया गया है तथा एकता के हेतु रक्तक्रान्ति को अनिवार्य बताया गया है।
वस्तुत समाजवाद मे सामाजिकता पर बल दिया गया है और व्यक्ति-हित की अवहेलना की गई है। उनकी दृष्टि मे 'चेतना' और भौतिक पदार्थ मे कोई अन्तर नही है । दोनो के संघर्ष के परिणामस्वरूप भी भौतिक-सभ्यता का विकास होता है।
उपरोक्त साम्यवादी दृष्टि का विवेचन करते हुए जब जैनेन्द्र के साहित्य का अवलोकन करते है, तो हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि मार्क्सवाद और जैनेन्द्र की दृष्टि मे मूलत अन्तर है । एक भौतिकता प्रधान है, दूसरे मे आध्यात्मिकता का प्राचुर्य है । मार्क्स की दृष्टि मे समस्या का मूल कारण आर्थिक है, जैनेन्द्र की दृष्टि मे मानव जीवन के समस्त शब्दो का मूल कारण
"The socialism solution, as it ought to be clear from our analysis of the process of accumulation of wealth, is to abolish private ownership of the means of production and to cstablish over the ownership of the whole community 'J. P Naran-Soc , Sar & Democracy-1964 Bom
(P.13). २. महात्मा गाधी 'दि वायस आफ टूथ', पृ० २४२ । ३. जयप्रकाश नारायण . 'सोशलिज्म सर्वोदय एण्ड डेमोक्रेसी', पृ०स० १५३ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
पारस्परिक प्रेम का आधार है । जैनेन्द्र के अनुसार मार्क्स का दृष्टिकोण सराह - नीय है, किन्तु वह अपने लक्ष्य की पूर्ति के हेतु जिन साधनो की कल्पना करता है, वे प्रग्राह्य है ।' जैनेन्द्र की दृष्टि मे मार्क्सवादी नैतिकता प्रकृत्त नही है । उनकी दृष्टि मे जबर्दस्ती धन का अपहरण करके समता लाने की नीति प्रनेतिकता तथा अनौचित्य को बढावा देती है । जैनेन्द्र ने अपने साहित्य में अर्थ की आवश्यकता का निषेध नही किया है किन्तु उसकी प्राप्ति के लिए धर्म को आवश्यक बताया है । जैनेन्द्र ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की समष्टि में ही व्यक्ति की पूर्णता को स्वीकार किया है । उनके अनुसार अर्थप्राप्ति की वममूलक दृष्टि ही मानव कल्याण में सहायक हो सकती है । उनके अनुसार प्रथ धर्म के स्थान पर राजनीति से जुडकर कभी भी व्यक्ति के हित का पोपक नही हो सकता ।
जैनेन्द्र के साहित्य में भी वर्गहीन समाज की स्थापना पर बल दिया गया है । 'सोद्देश्य' कहानी मे वे साम्यवादियो की भाति ऐसे राज्य की स्थापना करना चाहते है, 'जिसमे जो दीन हे, वे दीन नही रहेगे, जिनके हाथ में श्रम है, वे ही विधाता होगे ।" जैनेन्द्र के द्वारा कल्पित वर्गहीन समाज मे व्यक्ति की सम्भावनाए विनष्ट नही होती । उनका आदर्श व्यष्टि और समष्टि, भौतिक और आध्यात्मिक, धर्म और प्रर्थ आदि दो किनारो के मध्य सामजस्य स्थापित करना है । जैनेन्द्र के अनुसार वस्तु के अधिकाधिक उत्पादन प्रोर वितरण रो ही जीवन की समस्त समस्याओ का समाधान सम्भव नही हो सकता । वे सुखमय जीवन के लिए आत्मगत सुख और शान्ति को अनिवार्य मानते ह । जैनेन्द्र की दृष्टि मे व्यक्ति, समाज और राष्ट्र ही नही वरन् विश्व के मूल मे प्रेम ही प्रधान है ।" जैनेन्द्र पर गाधी जी के आदर्शों की गहरी छाप दृष्टिगत होती हे ।
१ 'मार्क्स से मै सर्वथा सहमत हो सकता हू, लेकिन हिसा को गलत और अहिसा को ठीक समझने से छुट्टी नही पा सकता ।'
-- जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ७७ । २ मार्क्स के अनुसार -- ' धर्म जनता के लिए अफीम हे तथा समाज का रोग है ।' 'मार्क्सवाद और मूल दार्शनिक प्रश्न', पृ० स० ८६, ६० ।
३ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० १८८ ।
४ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया, भाग ७, पृ० स० ४६ | ५ ' वर्गहीन समाज वह होगा, जो प्रेम की शक्ति से चलेगा ।'
-- जैनेन्द्रकुमार ' समय और हम', पृ० ८३।
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जैनेन्द्र और व्यक्ति
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गावी जी भी अधिकतम संख्या के अधिकतम सुख मे विश्वास नहीं करते। इनकी दृष्टि मे मानवमात्र का सुखी होना अनिवार्य है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे भारत जैसे गरीब देश के लिए जीवन स्तर बढाने से पूर्व गरीबी को दूर करना आवश्यक है।
ट्रस्टीशिप
गरीबी को दूर करने के लिए अमीरो से धन छीनने का कार्य समता की दृष्टि से पूर्णत सफल नही हो सकता। ऊपर से थोपा गया कोई भी नियम, कानून अधिक स्थायी नही होता । जब कि हृदयगत प्रेरणा चिरस्थायी होती है । गाधी जी सम्पत्ति के इस अपहरण को अनैतिक कृत्य मानते है। उनकी दृष्टि मे हृदय परिवर्तन-द्वारा ही मानवता का सच्चा हित सम्भव हो सकता है। वे यह आवश्यक नही मानते कि अमीर गरीब हो जाय और उसका धन छीन लिया जाय । उनके अनुसार व्यक्ति का निजी सम्पत्ति पर अधिकार उसी प्रकार होना चाहिए, जिस प्रकार ट्रस्टी का ट्रस्ट के धन पर होता है । इस प्रकार समाज मे समानता की भावना ही उत्पन्न होती है तथा रक्तक्रान्ति की आवश्यकता भी नही पडती। गाधी जी ने साधन और साध्य दोनो की विशुद्धता पर बल दिया है। गाधी जी की इस अपरिग्रही नीति का जैनेन्द्र के साहित्य पर बहुत अधिक प्रभाव लक्षित होता है । जैनेन्द्र के अनुसार, 'अपना कहने को हमारे पास कुछ भी नही होना चाहिए ।" जैनेन्द्र अर्थ के स्टेट मे केन्द्रित होने की नीति के प्रबल विरोधी है। ऐसे समाजवाद को वे राजकीय पूजीवाद (स्टेट कैपिटलिज्म) की सज्ञा देते है। जैनेन्द्र के अनुसार कानून के जोर से सम्पत्ति पर से निजी अधिकार उठा देने और सार्वजनिक अधिकार बना देने से जड और नौकरशाही का ऐसा कसा शिकजा ही खडा हो सकता है, जिसमे मानव-सम्भावनाए खिलने के बजाय मुरझा जायगी । इस प्रकार मानव-विकास कुल मिलाकर घाटे मे नही रहेगा।" जैनेन्द्र के अनुसार गरीबी और अमीरी के भेद को पूर्णत मिटाया
? 'I do not believe in the doctrine of the greatest good for
the greatest number
- Mahatma Gandhi 'The Voice of Truth' (P 230, 237) २ 'ग्रेटैस्ट गुड आफ पाल', पृ० स० २३७ । ३ जैनेन्द्रकुमार . 'समय और हम', पृ० स० ४०६ । ४. जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० स १४२ । ५. जैनेन्द्रकुमार . 'समय, समस्या और सिद्धान्त' (अप्रकाशित)।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
नही जा सकता । समाज मे गरीब और अमीर सदैव बने ही रहेगे। यान्त्रिक समानता उत्पन्न करना नितात अस्वाभाविक है। जैनेन्द्र के अनुसार ट्रस्टीशिप की भावना ही राष्ट्र का कल्याण करने में समर्थ हो सकती है। धन-सचय का निषेध करते हुए उन्होने अर्थ की परमार्थोन्मुखता पर बल दिया है। पूजीपति को वे सम्पत्ति का सरक्षक ही समझना चाहते है, उपभोक्ता नही। ___ जैनेन्द्र के साहित्य मे ट्रस्टीशिप की भावना स्पष्टत लक्षित होती है। 'कल्याणी' तथा 'अनन्तर' मे इस तथ्य पर विशेषत बल दिया गया है। कल्याणी भगवान के मन्दिर के नाम से जो धन सचित करती है, वह परमार्थ हेतु ही प्रयुक्त होता है । 'अनन्तर' मे 'शान्ति धाम' की जैसी व्यवस्था व्यक्त की गई है, उसपर गाधी जी का प्रभाव स्पष्टत परिलक्षित होता है। उसमे व्यक्त किया गया है कि 'समस्त एकत्रित धन समाज का है और धन वाले सिर्फ खजाची है । पूजीपति का कार्य समाज की आवश्यकतानुसार धन का व्यय करना है।३ 'जितना जिसके पास अतिरिक्त है, छोडना होगा। वस्तुत जैनेन्द्र ने पूजी का निषेध न करके व्यक्ति की स्वार्थमयी प्रवृति की ही अवहेलना की है। जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति भाग्य और परिस्थिति के अनुसार भी गरीब तथा अमीर दिखायी देते है। भाग्य के परिणाम का निराकरण सभव नही हो सकता। यही कारण है कि जैनेन्द्र की दृष्टि मे पूर्ण समता सभव नही हो सकती। __मार्क्स सामाजिक विषमता के मूल मे आर्थिक स्थिति को ही प्रधान मानते है, किन्तु जैनेन्द्र के अनुसार गरीबी का सवाल एकदम आर्थिक नही है । सिर्फ धन का न होना दरिद्र का लक्षण नही है । उसका सहारा लेकर जो बेबसी और अोछाई की भावना प्रादमी मे समा जाती है, असली रोग तो वह हे और इस लिहाज से रक और दीन का प्रश्न नैतिक प्रश्न है । वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार गरीब और अमीर के मध्य की खाई भावना की विशुद्धता, प्रेम और सौहार्द्र के
१ 'आई डू नाट बिलीव इन डीड इन यूनिफार्मिटी'
जयप्रकाशनारायण 'सोशलिज्म सर्वोदय एण्ड डैमोक्रेसी', पृ० स० ३४० । २ जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० स० १४३ । ३ 'शोषण को समाप्त करना कोई निरा आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रम
नही है, बल्कि उसके अग रूप मे ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि भी अनिवार्य होते है।
—जैनेन्द्रकुमार 'अन्तर', पृ० १६१ । ४ जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० १६१ । ५ जैनेन्द्रकुमार 'सोच विचार', पृ० स० १३६ ।
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जैनेन्द्र और व्यक्ति
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द्वारा ही मिटायी जा सकती है, रक्तक्रान्ति द्वारा नही । आर्थिक दान देकर अथवा धन का हस्तान्तरण करके गरीबी को मिटाया नहीं जा सकता, वरन् मानव आत्मा के बीच तनाव ही उत्पन्न किया जा सकता है । वस्तुत जैनेन्द्र ने भी अपने साहित्य मे गाधीवादी साधन और साध्य की शुद्धता पर बल दिया है। उनके अनुसार समानता लाने का प्राधार आत्मदान है । वे आर्थिक विषमता का कारण आर्थिक स्थिति में ही नही, हार्दिक वेदना अथवा सवेदनीयता के अभाव मे ही देखते हे। वस्तुत जैनेन्द्र जिस समानता की कल्पना करते है, वह वस्तुगत न होकर आत्मगत है। जैनेन्द्र के साहित्य मे व्यक्ति हिसाब, श्रेणी, वाद, और स्तर से ऊपर भावप्रधान है। बडे बनने की भावना ही पूजीवादी सभ्यता का मुख्य दोष है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे 'आर्थिक' की जगह पारमार्थिक मूल्य हो, तो व्यक्ति अपने पडोसी की कीमत पर बडे बनने का विचार नही अपनाएगा।
मनुष्य और मशीन ___जैनेन्द्र के अनुसार भौतिक स्तर को बढाने के लिए नित्यप्रति नई-नई मशीनो का आविष्कार हो रहा है, किन्तु प्रतिक्रियास्वरूप मशीन मानव के अस्तित्व के लिए एक खतरा बन गई है । 'श्रम पर पूजी सवार है' मशीन पूजीकृत है और मानव श्रमनिष्ठ है। इस प्रकार मानव और मशीन की समस्या श्रम और पूजी की समस्या के रूप मे लक्षित होती है। जैनेन्द्र के अनुसार- 'जो सिर्फ सत् है वह जड, जिसमे साथ चित्त भी हो वह चेतन । सत् मे चित् गर्भित रूप से है ही। जिसमे चित् जगा हुआ है उसे किसी तरह सुलाया जा सके तो चेतन भी जड हो जाय । चित् जगाया जा सके तो जड भी चेतन हो जाय । किन्तु आधुनिक युग जडता-प्रधान ही हो गया है । मशीन द्वारा दुनिया को स्वर्ग बनाने की चेष्टा की जा रही है, किन्तु जैनेन्द्र की दृष्टि मे यह वृत्ति मानव की मृगतृष्णा के सदृश प्रतीत होती है । भौतिक सुख के उन्मेष मे वह बहता जा रहा है, किन्तु उसकी आन्तरिक तृषा शान्त होने को नही है। मुनाफे की
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ८४ । २ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ८४ । ३ जैनेन्द्रकुमार . 'अनन्तर', पृ० स० ८६ । ४. जैनेन्द्रकुमार · 'सोच विचार', पृ० स० २१७ । ५. 'पूजी और श्रम का सवाल मुझे जड चेतन का ही सवाल लगता है।'
-जैनेन्द्रकुमार 'सोच विचार', पृ० स० २१७।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
वृत्ति ही मशीन की वृद्धि को प्रोत्साहित करने का एकमात्र कारण है। जेनेन्द्र के अनुसार जब तक मनुष्य की अमोघता की ओर ध्यान आकृष्ट नहीं होगा, तब तक भौतिक सुख-सुविधा के द्वारा स्थापित सस्कृति और सभ्यता निर्मूल्य ही रहेगी। ___ श्रावुनिक सभ्यता बुद्विप्रधान हे, आस्था और प्रात्मबल उसमे से लुप्तप्राय हो गये है। इस प्रकार साम्यवादी नीति जो कि पूजीवाद के विरोध मे फलित हुई थी वह भी अपने लक्ष्य को पूर्ण करने में समर्थ न हो सकी । जैनेन्द्र की दृष्टि मे पूजीवाद मे यदि आर्थिक विषमता थी तो साम्यवादी विचार आर्थिक खुशहाली के लिए ही प्रत्यनशील है। जैनेन्द्र के अनुसार पूजीवाद के उन्मूलन से महाजन का अस्तित्व नही रहता है, किन्तु मशीन की अधिकता मजूर और मालिक के भेद को मिटाने मे सफल नही हो सकती। 'अनन्तर' मे जैनेन्द्र ने साम्यवाद के द्वारा होने वाली प्रतिक्रिया पर प्रकाश डाला हे । उनकी दृष्टि मे जब तक प्रत्येक व्यक्ति सेवा-भाव से युक्त होकर छोटे-से-छोटा कार्य करने हेतु तत्पर नही होगा, तब तक व्यक्ति-भेद का दोष समाज से दूर नही किया जा सकता। वस्तुत जैनेन्द्र मानव समाज की प्रगति तथा एकता के हेतु इण्डस्ट्री को विशेष लाभप्रद नही मानते । उनके अनुसार 'इण्डस्ट्री के भरोगे देश का काम नही चलेगा। इससे समय का अपव्यय भी होता है । अतएव उद्योगो द्वारा ही मानवता का पूर्ण कल्याण सम्भव हो सकता है । जैनेन्द्र के अनुसार व्यावसायिक उद्योग से मुक्ति प्राप्त करने के लिए छोटे-मोटे उद्योगो को प्रोत्साहन देना आवश्यक है।
१ 'पूजीवादी विचार प्रकट मे ही आर्थिक है। साम्यवादी विचार भी सर्वथा
आर्थिक है, इसकी मूल प्रेरणा प्रार्थिक खुशहाली है। कुन्छ की आर्थिक सम्पन्नता के प्रति आकाक्षा और सम्पन्नता के वर्तमान भोक्तानो के प्रति विद्वेष जगाने से उसका काम सधता है।'
--जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० ११२ । २ 'सब स्वेच्छा से मजूर बन जाते तो शायद वह अलग से नही भी रहता।
पर वह तो हुआ नही । सोचा कि मशीन से मजूर को हटा देगे । वह भला कैसे हो सकता था ? और जो हुआ वह यह कि मजूर रहा और महाजन हटा तो उसकी जगह हजूर आकर विराजमान हो गए।'
---जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० स० ८६ । ३ जनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० स० ८० ।
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जैनेन्द्र और व्यक्ति
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शारीरिक श्रम ___ जैनेन्द्र पश्चिम की व्यावसायिक दृष्टि को मानव-कल्याण मे बाधक समझते है। उनके साहित्य मे इसीलिए शारीरिक श्रम और उद्योग पर विशेषतया बल दिया गया है, तथा उन्होने चर्खे के प्रयोग पर भी जोर दिया है । 'जयवर्धन', 'मुक्तिबोध' तथा 'विच्छेद' आदि उपन्यास और कहानियो मे उनके आदर्शों की पूर्ण झलक दृष्टिगत होती है । 'सुनीता' मे जैनेन्द्र ने शारीरिक श्रम पर सर्वाधिक बल दिया है। हरिप्रसन्न कहता है-'पैसा श्रम का होना चाहिए, मूर्त व चातुर्य का नही । उसके अनुसार शारीरिक अस्तित्व के लिए शारीरिक श्रम पर निर्भर रहना अत्यन्त आवश्यक है। हरिप्रसन्न स्वय को श्रमिक वर्ग का ही कहलाना चाहता है।
मानव-चरित्र और विज्ञान ___ आधुनिक युग विज्ञान का युग है। जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे वैज्ञानिक प्रगति का बहिष्कार नही किया है, तथापि उसे विशेष प्रश्रय भी नही प्रदान किया है। उनकी दृष्टि मे विज्ञान की प्रगति तभी तक ग्राह्य हो सकती है, जब तक वह मानव-चरित्र के विकास मे बाधक नही होती। मानव-चरित्र का आदर्शरूप व्यक्ति के स्नेह की सुरक्षा मे है । जैनेन्द्र ऐसी सभ्यता (साम्यवादी) को कदापि स्वीकार करने के पक्ष मे नही है जो मानव मानव के मध्य दूरी उत्पन्न कर देती है। जयप्रकाशनारायण के अनुसार विज्ञान के प्रभाव के कारण ही आज पडोसी अपरिचित हो गया है। 'अनन्तर' मे जैनेन्द्र के प्रगतिशील विचारो की स्पष्टता की झलक मिलती है । विज्ञान ने मानव जीवन को अधिकाधिक भौतिक बना दिया है, जिससे आध्यात्मिक दृष्टि का लोप होने लगता है। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से भारतीय सस्कृति की स्थिति बहुत दयनीय हो गई है। 'अनन्तर' मे विज्ञान के प्रति अपने आक्रोष को व्यक्त करती हुई वनानि कहती है कि 'विज्ञान बढे तो क्या, मानव-चरित्र को भी घटना ही
१ जैनेन्द्रकुमार 'सुनीता', पृ० स० ७२ । २ जैनेन्द्रकुमार 'सुनीता', पृ० स० ७२ । ३. जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० स० ५६ । ४. “Science has turned the whole world into a neighbourhood,
but man has created a civilization that has turned even neighbours into strangers' -Jayaprakash Narayan'Socialism, Sarvodaya and Democracy'-(P 162).
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
चाहिए। जैनेन्द्र के साहित्य मे सामाजिक व्यवस्था और प्रगति के हेतु क्रान्ति का उद्घोष दृष्टिगत होता है। यह क्रान्ति देश, समाज और राष्ट्र से अधिक अपने पडोसी को लेकर फलित होती है, क्योकि आज व्यक्ति आकाश की ओर दौड रहा है, किन्तु धरती पर अपने पडोसी से अपरिचित है । जैनेन्द्र के अनुसार 'समाज और देश का प्रारम्भ पडोसी से है, अन्यथा देश, समाज, प्रान्त धारणाए है, और वे कही है ही नही ।'२
जैनेन्द्र के साहित्य का सर्वेक्षण करने से ज्ञात होता है कि विश्व के समस्त द्वन्द्वो का मूल व्यक्ति की स्वार्थवृत्ति ही है । 'स्व' और 'पर' चाहे व्यक्ति, व्यक्ति के सम्पर्क मे हो अथवा राष्ट्र, और राष्ट्र के सन्दर्भ मे हो, द्वन्द्वात्मक स्थिति उत्पन्न करने मे ही सहायक होते है । जैनेन्द्र के अनुसार वास्तविक प्रगति स्वार्थवृत्ति के निषेव मे ही सम्भव हो सकती है। सच्चे क्रान्तिकारी का उद्देश्य व्यक्ति मे परमार्थ की भावना का उदय करना है, जिससे वह मानवता के हित के लिए उन्मुख हो सकता है। जैनेन्द्र की पारमार्थिक दृष्टि पूर्णतावा दियो के सदृश ही मानव जाति के हित का उद्घोष करती है।
प्रजातन्त्र
__उपरोक्त सभी वाद-पूजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद व्यक्ति जीवन की समस्या का समाधान करने में असमर्थ है । प्रजातन्त्र द्वारा यह कल्पना की जाती
१ जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० स० ५६ । २ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ८, तृ० स०, पृ० ७६ । ३ ‘पशु भी स्वत्व को लेकर जन्मता है, मनुष्य ही है जो परिवार मे और
समाज मे जन्म लेता है । वही है आत्म। 'प्रादर्श के लिए जीने मे इसलिए उतनी महिमा नही है, जितनी पडोसी के लिए जीने मे है'।
___ --जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ८, पृ० स० ७६ । 'जिस स्वार्थ और परमार्थ के प्रश्न को अन्य विचारको ने शाश्वत समस्या का रूप दे दिया था, उसे पूर्णतावादियो ने मानव-सत्य के आधार पर समझाया और उसे आकर्षक, सुन्दर, व्यापक, वास्तविक तथा कल्याणकारी रूप दिया । यदि इस सत्य के आधार पर आज के विश्वव्यापी शोषकशोषित के प्रश्न को सुलझाये तो व्यक्ति और राष्ट्र के ध्वस के बदले एक उन्नत मानव जाति का निर्माण हो जायगा, जिसे पाशविक प्रवृत्तिया छिपाये हुए है।'
--शान्ति जोशी 'नीतिशास्त्र', पृ० २६७-६८ ।
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जैनेन्द्र और व्यक्ति
२४३ है कि उसमे प्रजा द्वारा अर्थात् जनता द्वारा जनता के हित पर ही ध्यान दिया जायगा । बाह्य रूप मे देखने पर प्रजातन्त्र की प्रणाली राजकीय व्यवस्था के हेतु शुभ प्रतीत होती है । जैनेन्द्र ने अपने उपन्यास 'मुक्तिबोध' मे प्रजातात्रिक प्रणाली की विवेचना की है। उनके अनुसार 'प्रजातान्त्रिक प्रणाली मेपालियामेण्ट मे बस दो-चार बरस उछलकूद करने का मौका मिल जाता है । बाहर के लोग देखते रहते है कि हमारा आदमी क्या कर रहा है, इस तरह नकेल तो बाहर हम लोगो के हाथ ही रहती है । नहीं तो जनतन्त्र के माने कुछ नही रह जाते । वस्तुत जैनेन्द्र की दृष्टि मे प्रजातन्त्र स्वय मे सदोष नही है। उसका उद्देश्य जनता मे ही पूर्ण होता है, किन्तु प्रजातन्त्र मे भी कुछ ऐसे दोष विद्यमान है, जिनके कारण जनता और पार्लियामेण्ट के सदस्यो के मध्य पुन दूरी उत्पन्न हो जाती है और नेता स्वय को प्रशासक समझने लगते है। भारत जैसे गरीब देश के मुट्ठी भर नेता जनता के पैसे का सुखभोग करते है। उन्हे पर्याप्त मात्रा मे भत्ता प्राप्त होता है ।
प्रजातन्त्र मे 'नेपोटिज्म' की भावना को आधार मिलता है। ससद का सदस्य जनता से अधिक अपने भाई-भतीजो का सेवक होता है । परिवार के लोग अपनी प्रतिष्ठा और प्रगति के हेतु ही अपना प्रतिनिधि ससद मे भेजते है। इस दृष्टि से जैनेन्द्र के उपन्यास 'मुक्तिबोध' के विचार बहुत ही महत्वपूर्ण है। 'मुक्तिबोध' का नायक प्रसाद स्वच्छन्द रूप से जनसेवा करने के हेतु पार्लियामेण्ट से त्यागपत्र लेना चाहता है। वह अपने परिवार के लोगो की स्वार्थ प्रवृति से पूर्णत अवगत है। इसलिए वह पद से मुक्ति चाहता है । उसके पदारूढ होने से अन्य लोग अनुचित लाभ उठाना चाहते है। इसलिए उसे बार-बार पदग्रहण के हेतु विवश किया जाता है ।' प्रसाद के पद-त्याग करने से उसके पुत्र का भविष्य नहीं बन सकता । समाज मे उसे प्रतिष्ठित स्थान नही प्राप्त हो सकता। प्रसाद अन्तत सदस्यता से मुक्ति प्राप्त करने के लिए ही प्रयत्नशील रहता है। अन्त मे जब उसे विवश होकर पद ग्रहण करना पडता है तब उसकी दृष्टि मे
१ जैनेन्द्र कुमार 'मुक्तिबोध', प्र० स० १६६५, पृ० स० २४ । २ पार्लियामेण्ट मे हमने अच्छा खासा भत्ता अपने लिए तैयार कर रखा है, उससे पहले जानते हो और भी ठाठ थे ।'
-जैनेन्द्र कुमार 'मुक्तिबोध', पृ० स० ४३ । ३. जैनेन्द्रकुमार : 'मुक्तिबोध', पृ० स० १३ । ___'आपका मन भर चुका होगा, पर हमे तो अभी सब कुछ पाना है।..' ४. जैनेन्द्रकुमार : 'मुक्तिबोध', पृ० स० ६२ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
नियम और आदर्श ही प्रमुख हो जाता है, लडका या दामाद का स्वार्थ नही। वह अपनी दृढता के कारण अपने ही परिवार के लोगो की बेईमानी का रहस्योद्घाटन करने मे सकोच नहीं करता । वस्तुत जैनेन्द्र-साहित्य के माध्यम से ज्ञात होता है कि प्रजातत्र मे शाब्दिक आकर्षण अवश्य है, किन्तु मूल मे व्यक्ति की स्वार्थमयी प्रवृति ही प्रधान है।
निष्कर्षत साहित्य मे जैनेन्द्र ने किसी भी वाद-विशेष का सहारा नही लिया है। उनकी दृष्टि मे मानव-हित की कामना ही मुख्य आदर्श है, अन्य सब वाद जो कि आदर्श का ढोग करते है, केवल अह को पुष्ट करने मे ही सफल होते है, व्यक्तिरूप मे नही । व्यक्ति-हित अथवा मानव जाति की उन्नति के हेतु 'स्व' का समर्पण अनिवार्य है। जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे 'स्व' को बहुत ही व्यापक परिप्रेक्ष्य मे ग्रहण किया है , उनके अनुसार प्रत्येक राष्ट्र का अपना 'स्व' होता है। यह स्वत्वमूलक भावना ही व्यक्ति मे राष्ट्रीयता की भावना को उद्भूत करती है। राष्ट्र-प्रेम मे अपनत्व का भाव अन्तर्निहित रहता है, किन्तु जैनेन्द्र जीवन के किसी भी स्तर पर स्वार्थ को नही टिकने देना चाहते । अतएव विश्व के लिए राष्ट्रीय स्वार्थ का त्याग भी मानवता का परम आदर्श है । जैनेन्द्र के साहित्य की महत्ता इस तथ्य में समाहित है कि वे देश और राष्ट्र के लिए क्सिी भौगोलिक-सीमा को स्वीकार नही करते । उनकी दृष्टि मे सीमा-रेखा खीचने से आदर्शगत भिन्नता होते हुए भी भावनामो मे अन्तर नही आता । इसीलिए उनके साहित्य में बार-बार सम्पूर्ण मानव जाति के ऐक्य तथा देशविदेश के भेद को दूर करके प्रेम पर आधृत अभेदमूलक दृष्टि की प्रतिष्ठापना की है । 'मुक्तिबोध', 'अनन्तर', 'जयवर्धन' आदि उपन्यासो तथा 'वीऽटिस' आदि कहानियो मे यही महत्वपूर्ण दृष्टिकोण दृष्टिगत होता है । जैनेन्द्र की मानवतावादी दृष्टि के मूल मे गाधी की अहिसक नीति की झलक दृष्टिगत होती है। 'स्व' और 'पर' के मूल मे उनकी अहिंसात्मक दृष्टि ही प्रधान है । अहिसा और प्रेम एक ही सिक्के के दो पक्ष के सदृश है। जहाँ प्रेम है वहा हिसा का प्रश्न ही नही उठता। जैनेन्द्र ने अपनी अहिसात्मक नीति के कारण ही साम्यवादी रक्तक्रान्ति का निषेध किया है।
सर्वोदय ___जैनेन्द्र की दृष्टि मे समस्त मतवाद अहतामूलक है, क्योकि उनकी दृष्टि सीमित स्वार्थ तक ही केन्द्रित है । यदि व्यक्ति की दृष्टि में अपना या विशिष्ट सस्था अथवा मत का ही हित प्रधान न होकर सारी मानव जाति के हित की भावना प्रधान हो तो, सारा द्वन्द्व और भेद ऐक्य और अभेद के सागर मे विलीन
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जैनेन्द्र और व्यवित
२४५ होकर समाप्त हो जायगा। जैनेन्द्र के साहित्य मे ऊच-नीच, गरीब-अमीर आदि को श्रेरियो मे न विभाजित करके केवल व्यक्ति रूप से स्वीकार किया गया है । इस प्रकार उनकी दृष्टि मे व्यक्ति अर्थात् 'सर्व' के उदय मे ही सच्ची प्रगति का भाव निहित है । सर्वोदय का एकमात्र आधार प्रेम है । यदि परस्पर प्रेम का भाव तथा अहशून्यता हो तो 'पर' के निषेध से उत्पन्न सारे द्वन्द्व स्वत ही समाप्त हो जायगे । जैनेन्द्र की मानवतावादी दृष्टि गाधी के सर्वोदय के सिद्धात से ही प्रभावित प्रतीत होती है । वस्तुत जैनेन्द्र ने अपने युग की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक आदि परिस्थितियो का चित्रण तथा उन परिस्थितियो मे व्यक्ति के उठते-गिरते मूल्यो, बदलते परिवेशो को अपने आदर्श के धरातल पर विवेचित किया है । जैनेन्द्र के साहित्य की विषयवस्तु बहुत ही व्यापक है। यद्यपि उन्होने प्रमुखत व्यक्ति-जीवन की अन्तनिष्ट सत्यता को ही उद्घाटित करने का प्रयास किया है, तथापि व्यक्ति के चतुर्मुखी विकास की ही अवहेलना नही की है । उन्हे समाज की वे ही विचारधाराए अभिभूत कर सकी है, जो व्यक्ति-हित मे केन्द्रित है। इस प्रकार उनकी साहित्यिक प्रतिक्रिया व्यक्ति को केन्द्रस्थ मानकर द्वन्द्वात्मक स्थितियो से गुजरती हुई अग्रसर होती है। जैनेन्द्र की दृष्टि समस्त वादो से तटस्थ प्रतीत होते हुए भी गाधी की सर्वोदय नीति की ओर झुकी हुई है।
प्राध्यात्मिक मूल्यो की प्रतिष्ठा ___ जैनेन्द्र के अनुसार मानवमात्र की प्रगति का आधार जीवन मे आध्यात्मिक मूल्यो को प्रतिष्ठित करने मे ही निहित है । जैनेन्द्र ने अपनी नवीनतम कृति 'समय, समस्या और सिद्धान्त' मे स्पष्टत स्वीकार किया है कि--'भौतिक व्यवस्था की आवश्यकता के नीचे आध्यात्मिक मूल्यो को अपनाने से सत्ता और सम्पत्ति का स्वयं अवमूल्यन होगा । आपसी प्रतिस्पर्धा और आपाधापी की वृत्ति अनावश्यक होकर झरेगी, तब मूल्य बाह्य पदार्थ से हटकर भीतरी चरित्र मे निष्ठ होगा और देख सकेगा कि जो समता साम्यवाद से और सामाजिक समाजवाद से लानी अशक्यप्राय थी वह अनायास भीतर से उठती जा रही है।"
१
जैनेन्द्रकुमार . 'समय, समस्या और समाधान', (अप्रकाशित)।
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परिच्छेद-८
जैनेन्द्र : परम्परा और प्रयोग
साहित्य मे उपन्यास का महत्व
प्राधुनिक हिन्दी साहित्याकाश मे 'उपन्यास-कला' अपना एक अभूतपूर्व स्थान रखती है। यो कविता, नाटक और आख्यान के द्वारा मानव जीवन की अभिव्यक्ति का प्रयत्न होता रहा है, किन्तु उनमे जीवन की समग्रता और सहजता का अभाव था। व्यक्ति का जीवन प्रेम, घृणा और सहानुभूति तथा द्वेष आदि से पूर्ण है। उसमे राजनीति, समाज, धर्म, अर्थ आदि की सापेक्षता मे नाना सघर्षमूलक घटनाए घटित होती रही है। जीवन मे जहा सौन्दर्य, आकर्षण तथा शान्ति है, कुरूपता और क्षुद्रता तथा अशान्ति का भी स्थान है। मानव जीवन के इतने व्यापक परिवेश की समग्र अभिव्यक्ति एकमात्र उपन्यासो के द्वारा ही सम्भव हो सकती है। मानव जीवन की यथार्थता की अभिव्यक्ति मे उपन्यास जितनी उपयुक्त विद्या है, उतनी साहित्य की अन्य कोई विद्या नही है। उपन्यास का साहित्य मे वही स्थान है, जो प्राचीनकाल मे महाकाव्य का था।
'कविता मे शब्दो पर अधिक बल दिया जाता है और उसमे एक प्रकार की अपार्थिवता रहती है।' उपन्यास हमारे परिचित समाज, व्यक्तियो और तथ्यो का चित्रण करता है, तभी तो उपन्यास पढ लेने के उपरान्त हम कह उठते है-'ऐसा ही होता है।' इस प्रकार साहित्य के अन्य रूपो की अपेक्षा उपन्यास मे जीवन की यथार्थता, सत्यता, आवश्यकताए, सम्भावनाए और स्वतन्त्रता,
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जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग
२४७ व्यक्तित्व और मूल्यो का निरूपण अधिक होता है।' उपन्यास साहित्य को परम्परा
उपन्यास-साहित्य के आविर्भाव-काल से लेकर आज तक की रचनायो मे परिस्थिति और आवश्यकतागत अनेकानेक मोड (परिवर्तन) दृष्टिगत होते है। प्रारम्भ मे उपन्यास और कहानिया जादू, चमत्कार आदि विचित्रताप्रो से पूर्ण होती थी। किशोरीलाल गोस्वामी, देवकीनन्दन खत्री आदि ने उपन्यास-जगत को अपनी देन से गौरवान्वित तो अवश्य किया, किन्तु उनमे ऐसी जीवन्त शक्ति नही थी जो काल की सीमा को पार करती हुई स्थायित्व ग्रहण कर सकती। उनमे न तो तत्कालीन परिस्थितियो का चित्रण है और न ही मानव जीवन की अन्तश्चेतना की वह अभिव्यक्ति जिसे सहज ही स्वीकार किया जा सके।
उपन्यासकार प्रेमचन्द
उपन्यास-कला का पूर्ण विकसिक रूप हमे प्रेमचन्द के उपन्यासो मे ही प्राप्त होता है । प्रेमचन्द के उपन्यास जीवन के जितने व्यापक परिवेश को अपने मे समेटे हुए है, उतना किसी अन्य उपन्यासकार के द्वारा सम्भव नही हो राका है । जीवन की बहुमुखी धारा उनके साहित्य मे विविध स्रोतो से प्रवाहित हुई है। तत्कालीन जीवन की ऐसी कोई भी समस्या न थी, जो प्रेमचन्द की लेखनी के द्वारा बच निकली हो । 'घर और बाहर' अर्थात् भाई-भाई के झगडे, जमीन और जायदाद से लेकर, राजनीति और समाज की विविध समस्याए प्रेमचन्द के उपन्यासो का विषय बनी। इस प्रकार उपन्यासो द्वारा साहित्य में विविधता का समावेश हुआ उसमे मानव जीवन से सान्निध्य स्थापित करने की प्रेरणा उद्भूत हुई। साहित्य का परिवर्तनशील सत्य
जिस प्रकार कथा साहित्य की परम्परा मे प्रेमचन्द के उपन्यास एक नवीन कडी के रूप मे प्राप्त हुए तथा उनके द्वारा साहित्य-जगत को एक नवीन दृष्टि, चेतना और स्फूर्ति प्राप्त हुई, उसी प्रकार प्रेमचन्दोत्तर साहित्य मे जैनेन्द्र भी एक नवीन चेतना लेकर अवतरित हुए । काल अनन्त है। अखण्ड है किन्तु विकास अथवा प्रगति काल की सापेक्षता मे ही फलित होती है। विविध प्रवृत्तिया अपनी विशिष्टता के कारण युग-विशेष का प्रतिनिधित्व करती है और १. डा० लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय · 'बीसवी शताब्दी . हिन्दी साहित्य नये सदर्भ'
प्रथम स०, १९६६, इलाहाबाद, पृ० २५१-२५२ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन साहित्यिक जीवन मे नवीनता का सचार करती है । कालान्तर मे वही प्रवृत्तिया प्राचीन और परम्परागत समझी जाने लगती है। काल की अनन्तता मे ही परम्परा और प्रयोग का द्वैत समाया हुआ है । मानव जीवन और काल सतत् परिवर्तनशील है । आज जो है, वह कल नही रहेगा । कल होने वाला परिवर्तन
आकस्मिक न होकर स्वाभाविक ही होता है। यदि प्रगति एक स्थान पर जडवत हो जाय, आगे का मार्ग अवरुद्ध हो जाय तो वह प्रगति, प्रगति न होकर अवनति ही सिद्ध होगी। ___ मुशी प्रेमचन्द के उपन्यास साहित्य जगत् मे अपना गोरवपूर्ण स्थान रखते है, किन्तु प्रेमचन्द की महानता के साथ काल की गति जडबद्ध नही हो सकती। यदि प्रेमचन्द के उपन्यासो को ही उपन्यास-साहित्य का चर्मोत्कर्ष मानकर भावी उपन्यास-सृजन के हेतु उन्हे ही कसौटी बनाया जाय तो किचित् असगति ही प्रतीत होगी। यद्यपि यह सत्य है कि प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासो और कहानियो मे सम-सामयिकता से ऊपर उठकर मानव जीवन के सार्वभौम रूप की अभिव्यक्ति की है तथापि प्रेमचन्द को ही साहित्य आदर्श की आधारशिला मानने से भावी साहित्य मे दृष्टिगत परिवर्तन निरर्थक सिद्ध होगा । वस्तुत काल की गति किसी केन्द्र से बद्ध नही है, वरन् सतत् प्रवाहशील है । किन्तु परिवर्तन अनिवार्य और स्वाभाविक होते हुए भी कभी भी परम्परा से पूर्णत विच्छिन्न नही होता। काल की अनन्तता के मूल मे एक शाश्वत सत्य सदैव विद्यमान रहता है, जिससे परपरा और परिवर्तन के बीच कोई एक रेखा नही खीची जा सकती। सत्य की सर्वव्याप्ति के कारण ही काल की अन्विति बनी रहती है । वस्तुत नवीनता, प्राचीनता अथवा परम्परा के निषेध का प्रतिफल नही है। परम्परा की भूमि पर ही नवजागरण की प्रतिक्रिया सम्भव होती है । जैनेन्द्र परम्परा से प्रगति का विरोध नही मानते । इसीलिए वे प्रगति मे प्रेम रखते हुए भी परम्परा के प्रति आदर रखते है। उन्हे विस्मय है उन व्यक्तियो पर जो परम्परा के विच्छेद से प्रगति का प्रारम्भ चाहते है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे परम्परा से ही जो पुष्पित और फलित नही होती, वह प्रगति नही है । जैनेन्द्र के अनुसार 'परम्परा को वह नहीं जानता, नही मानता जो उसे अतीत से जडित और भावी से विहीन करता है । वस्तुत परम्परा का वह प्रेम जो उस प्रवाह को रोकता और बाधता है, गति मे अनर्गलता का हठ पैदा करता है। वह गति निरकुश और भोगवादी होती है। साहित्य की विषयवस्तु और उसके
१ जैनेन्द्र कुमार 'इतस्तत' प्र० स० १९६२, पृ० स० ४-५ । २ जैनेन्द्रकुमार 'इतस्तत', पृ० स० ५।
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जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग
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प्राकार-प्रकार, रूप-योजना आदि मे आवश्यकतानुसार परिवर्तन होने से साहित्य की आत्मा में परिवर्तन नही होता ।
साहित्य में जैनेन्द्र का श्राविर्भाव
उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द के प्रनन्तर जैनेन्द्र साहित्य - जगत मे एक नवीन प्रयोग के रूप में अवतरित हुए है । यद्यपि जैनेन्द्र का उद्देश्य साहित्य मे नवीन प्रयोग प्रस्तुत करना नही रहा है, और न ही वे प्रयोग के पक्ष में है, क्योकि उनकी दृष्टि मे प्रयोग के प्रयास में लेखक के 'ग्रह' अथवा ग्राग्रह की ही पुष्टि होती है, जब कि जैनेन्द्र का सम्पूर्ण साहित्य ग्रह विसर्जन की भावना को लेकर ही फलित हुआ है । आदर्श और मर्यादा के सीमित परिवेश मे आबद्ध व्यक्ति चेतना निस्तेज और जड हो चले थे । बाह्य जीवन की समस्या तथा उनके सुधार मे साहित्यकार इतने व्यस्त थे कि अनन्त जगत की आवाज उनसे अनसुनी-सी ही रह गई । व्यक्ति-परिवेश और परिस्थितियो मे ही नही जीवित रहता, उसे अपना जीवन रस श्रात्मा से ही प्राप्त होता है । व्यक्ति की वास्तविकता और उसका सत् स्वरूप उसके अन्त मे ही निहित होता है । सत्य के भीतर होने के कारण ही हम उस पर अपने छल का आवरण डालने मे सफल होते है । किन्तु सत्य तो विजेय है । सत्य के अवदमित रूप का कभी-न-कभी विस्फोट अवश्यम्भावी है । प्रेमचन्द का साहित्य जीवन के समतल धरातल पर सहज गति से बहने वाली सरिता के सदृश बहता चला गया, न उसमे कभी त्वरा आई और न ही कोई अवरोध ही आया। उसमे आन्तरिक द्वन्द्व, मनस्थितिया तथा व्यक्तिगत जीवन की सत्यता और व्यक्तित्व के विधायक तत्वो की प्रोर दृष्टिपात नही किया गया है। वस्तुत प्रेमचन्दोत्तर काल के साहित्य मे आदर्श की भाव-धारा यथार्थ में प्रवाहित होने के लिए मार्ग ढूढ़ रही थी । 'क्या होना चाहिए' से इतर 'क्या है' को जानने की उत्कट लालसा साहित्यकारो को भी पीडित करने लगी थी। ऐसी ही अभावजन्य स्थिति मे जैनेन्द्र का साहित्य एक नवीन दिशा के निर्देश के रूप मे श्रवतरित हुआ । यद्यपि प्रेमचन्द भी अपने जीवन की अन्तिम रचनाओ मे यथार्थ जीवन की पूर्ण अभिव्यक्ति की है, किन्तु यथार्थता का पूर्ण वपन जैनेन्द्र के साहित्य में ही संभव हो सका है ।
प्रेमचन्द - साहित्य की व्यापक धारा सिमट कर एक सकरी धारा मे प्रवाहित होने लगी । व्यापकता की प्रतिक्रिया के कारण उसमे सघनता का प्रादुर्भाव हुआ | जैनेन्द्र के साहित्य की सघनता ही उन्हे बाह्य जगत से अन्तर्जगत् की गहराई की ओर ले गई । प्रकृति का नियम है कि बाह्य जीवन की समस्याओ
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
से घबडाया हुआ व्यक्ति एकान्त, नीरव स्थल पर आत्मचिन्तन द्वारा विश्रान्ति प्राप्त करने की चेष्टा करता है । जैनेन्द्र का साहित्य भी मानो आत्मचिन्तन और आत्माभिव्यक्ति का काल है । जैनेन्द्र के साहित्य मे समष्टि से व्यष्टि को पृथक करके पहचानने की चेष्टा की गयी है तथा पुन समष्टि के पति समर्पित होने का प्रयास दृष्टिगत होता है । जैनेन्द्र की साहित्यिक - सरचना साहित्य - जगत मे एक नवीन चेतना का सचार करती है । जैनेन्द्र के साहित्य में नवीनता की चर्चा करते हुए यह भ्रम उत्पन्न हो सकता है कि उन्होने सप्रयास प्रेमचन्द की साहित्यिक - दिशा मे नवीनता लाने की चेष्टा की है और व्यवस्थित तथा सुधरे हुए व्यक्ति चिन्तन में उथल-पुथल करने का प्रयास किया है । किन्तु उपरोक्त दृष्टिकोण जैनेन्द्र के साहित्य की सच्चाई को नही व्यक्त करता । जैनेन्द्र ने विचार और तर्क के आधार पर पारम्परित विचारधारा के मार्ग को अवरुद्ध नही किया है, वरन् भाव और हार्दिकता के सहारे मानव जीवन की गुत्थी को सुलझाने का प्रयास किया है । जैनेन्द्र के साहित्य का मुख्य स्वर- -मानव जीवन की सहजता और सत्यता की अभिव्यक्ति मे ही मुखरित हुआ है । नित्यप्रति के जीवन मे व्यस्त व्यक्ति प्रसतुष्ट, उद्विग्न और उत्पीडित है, किन्तु वह नही जानता कि उसके असन्तोष का उत्स कहा गर्भित है ? वह परिस्थिति के समक्ष विवश - सा बना रहता है । पारस्परिक तनाव, विद्रोह और विक्षोभ के कारण वह व्यक्ति, व्यक्ति के मध्य एक गहरी खाई उत्पन्न कर देता है, किन्तु यह जानने की चेष्टा नही करता कि ऐसा क्यो है ? क्यो उसकी निजता अथवा 'स्व' 'पर' से विमुख होकर द्वेष और घृणा का कारण बनती है ? जैनेन्द्र ने कस्तूरी मृग के सदृश भ्रमित मानव को स्वकेन्द्रित ग्रहता बोध कराया, जो समस्त द्वन्द्वो का मूलाधार बनी हुई है ।
व्यक्ति और अन्तश्चेतना
जैनेन्द्र के सम्बन्ध मे सामान्यत यह धारणा प्रचलित है कि उनका साहित्य व्यक्ति प्रधान है, उसमे समाज के सघर्षों और समस्याओ का निषेध किया गया है । मानव जीवन में होने वाली विविध सामाजिक समस्याओ से जैनेन्द्र के साहित्य
विमुखता दृष्टिगत होती है । जैनेन्द्र के साहित्य को स्वरति का पोषक माना जाता है । यह सत्य है कि जैनेन्द्र ने बाह्य परिवेश से अधिक आन्तरिक द्वन्द्व को उभारने और उसके कारणो से निदान पाने का प्रयास प्रस्तुत किया है । जैनेन्द्र के अनुसार यदि बाह्य द्वन्द्वका कारण ग्राह्य हो सके तो बाह्य स्थिति से उलझने की कोई आवश्यकता नही है । सच्चाई तल में निहित होती है, सतह पर तल में सगा - हित कुर ही प्रस्फुटित होते हुए देखे जाते है । जैनेन्द्र से पूर्व के उपन्यासकार
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जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग
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बाह्य स्थितियो से इतने उलझे हुए थे कि अन्तर्भूत सत्य को जानने का उन्हे अवसर ही नही मिला । जैनेन्द्र के साहित्य मे अन्तश्चेतना की अभिव्यक्ति के प्रयास को देखकर उन्हे व्यक्तिवादी नही माना जा सकता । बाद मे आग्रह का भाव समाहित होता है । परिच्छेद छ मे जैनेन्द्र के व्यक्ति सम्बन्धी विचारो पर विचार करते हुए जैनेन्द्र को व्यक्तिवादी माना गया है, किन्तु वहा भी व्यक्तिवाद का तात्पर्य केवल व्यक्ति के हित को प्रमुखता प्रदान करना था । व्यक्ति के हित मे अनन्त व्यक्ति मानव की निजता स्वत ही समाहित हो जाती है । जैनेन्द्र का लक्ष्य धर्म, अर्थ और राजनीति के मध्य व्यक्ति के हित को प्रमुखता देना रहा है । किन्तु प्रस्तुत परिच्छेद मे जैनेन्द्र की व्यक्ति प्रधान दृष्टि उनकी आत्मनिष्ठा की ओर इंगित करती है । इसी प्रात्मनिष्ठा के आधार पर आलोचको ने उनके साहित्य मे सामाजिकता के प्रभाव की ओर संकेत किया है । इस सम्बन्ध मे जैनेन्द्र का विचार है -- ' अन्तश्चेतना का स्रोत अन्तर्मुखी है, किन्तु उसकी अभिमुखता कभी भीतर होती ही नही । वह सदा ही इतर के सम्बन्ध मे होती है । वह बहिर्मुख होने, लोकाभिमुख होने को बाध्य है । व्यक्तिवादिता का प्रश्न प्रतिक्रिया है, जो चेतना लोकाभिमुख है, उसमे परामुखता स्वीकार करे तब वह व्यक्तिवादिता बनती है अर्थात इन्द्रिया तो बहिर्मुख होती ही है । चेतना का कार्य दोहरा है -- बाह्य का स्पर्श और उसका सवहन् । वस्तुत सारा जीवन अग्रोन्मुखी है । यदि ऐसा नही है तो यही समझना चाहिए कि कही अवरोध आ गया है और उस प्रवरोध का प्रश्न चिह्न प्रवाह को खोलने से है ।' वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे आत्मप्रधानता होते हुए भी 'पर' ar frषेध नही किया गया है । स्त्री-पुरुष सम्बन्धो मे जो स्वरतिमूलक भाव दृष्टिगत होता है, वह भी 'पर' की स्वीकृति मे ही हो सका है। जैनेन्द्र इस तथ्य का पूर्णत खण्डन करते है कि उन्होने सामाजिकता से परे केवल आत्मोन्मुखता को ही प्रश्रय दिया है । पारम्परिक विचारो से उनमे जो मुख्य भिन्नता
त होती है, वह है अन्तस् की स्वीकृति । व्यक्ति भेद के कारण अभिव्यक्ति मे भी अन्तर आना स्वाभाविक ही है । जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त अन्तश्चेतना आत्मगत सत्यता पर ही अवलम्बित है । जैनेन्द्र के अनुसार यदि बाह्य जीवन का बोध अन्तर्मुखी होता हुआ पुन बाह्योन्मुख न होता तो व्यक्ति जीवन का समाज मे कोई महत्व न रहता । 'स्व' 'पर' से विच्छिन्न होकर अपनी निजता अर्थात् हता को ही पुष्ट करता है । किन्तु जैनेन्द्र की मान्यता है कि बाह्य दृश्य या स्थिति आत्मा के स्पर्श से अधिकाधिक महिमामयी बन जाती है । स्व
१. जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
सार्थकता ही नही, यदि पर की स्वीकृति न हो तो । स्व और पर ही सृष्टि के आधार है । इस प्रकार पर की स्वीकृति द्वारा समाज से विमुखता का प्रश्न ही नही उठता । वरन् समाज की ओर उन्मुखता को ही प्रश्रय मिलता है ।
जैनेन्द्र के साहित्य मे दृष्टिगत श्रात्मनिष्ठा का आधार मनोविज्ञान है । जैनेन्द्र ने अपने पात्रो के अचेतन मन मे अवस्थित ग्रन्थियो को सुलझाने का प्रयास किया है । व्यक्ति के प्राचरण में जो विकृति और वैचित्र्य दृष्टिगत होता है उसका कारण उसके अन्त मे निहित कोई ऐसी ग्रन्थि है जो उसे सहज नही होने देती । जैनेन्द्र ने मनोविज्ञान के सहारे व्यक्ति की अन्त प्रकृति का उद्घाटन किया है । सामान्यत हम व्यक्ति के बाह्य आचरण मे उत्पन्न दोष के कारण व्यक्ति विशेष को अच्छा या बुरा, दोषी या निर्दोष समझने लगते है, किन्तु यह जानने की चेष्टा नही करते कि ऐसा क्यो होता है ? जैनेन्द्र ने व्यावहारिक मनोविज्ञान के द्वारा आचरण के उत्स को जानने की चेष्टा की है । इसलिए वे कार्य से अधिक कारण पर बल देते है । 'सुखदा', 'विवर्त' और 'सुनीता' मे 'सुखदा, जितेन और हरिप्रसन्न के मन मे एक गहरा अन्तर्द्वन्द्व है, जिसके कारण वे सामान्य कार्य करते है और वे यह नही समझ पाते कि उनके आचरण मे आने वाली विचित्रता और ध्वसात्मकता का क्या कारण है ? किन्तु सत्य स्पष्ट है कि विद्रोह और क्रान्ति का कारण आन्तरिक प्रभाव और पारस्परिक दूरी ही है । इसलिए जैनेन्द्र अपने पात्रो द्वारा होने वाली बाह्य चेष्टाओ, तोड-फोड मे कोई सार नही देखते, क्योकि सत्य तो कार्य के कारण सत्य की स्वी
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समाहित होता है । वस्तुत जेनेन्द्र के अनुसार यदि कारण कृति हो जाय तो कार्य की प्रतिक्रिया का प्रश्न ही नही उठता ।
जैनेन्द्र सुधारवादी नही
जैनेन्द्र आत्मनिष्ठ लेखक है । व्यक्ति की आतरिक स्थिति ही बाह्य द्वन्द्व अथवा समस्या का कारण है । इसलिए उपर से सुधार का प्रश्न व्यर्थ है । जैनेन्द्र स्वय को सुधारवादी नही मानते ।' जैनेन्द्र से पूरे साहित्य की महत्ता का मूलाधार उनकी सुधारवादी प्रवृत्ति मे ही अन्तर्भूत था, किन्तु जैनेन्द्र का विश्वास है कि जो सामाजिक मान्यता प्रकृतिगत सत्य को स्वीकार करने के लिए नही बनी है, वह अधिक दिन नही चल सकती । सुधार समय सापेक्ष होता है । प्राज
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'सत्य को स्वीकार करके आज की मान्यताओ को उससे जोड़ दे तो वह मान्य हो जायगा, इसलिए मै सुधारवादी नही हू ।'
( साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त )
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जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग
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एक समस्या उत्पन्न होती है और उसमे सुधार की आवश्यकता का अनुभव होता है । ऐसी समस्याओ को लेकर लिखा गया साहित्य कार्य- विशेष मे ही जीता है और अपना प्रभाव डालता है, किन्तु सीमित काल के अनन्तर उसका महत्व समाप्त हो जाता है और वह बासी पुष्प के सदृश प्रभावोत्पादक प्रतीत होता है । जैनेन्द्र के अनुसार सुधार की प्रवृत्ति सम-सामयिकता को लेकर ही होती है । उनकी दृष्टि मे सुधार तो सदैव बाह्य स्थितियो का ही होता है । उसमे जितना भी ऊपरी परिवेश है, उसमे कितना भी सुधार हो, हमेशा अपर्याप्त रहेगा । उनकी दृष्टि मे वृक्ष यदि सूखता है तो उसके ऊचे से हरियाली लाने से क्या लाभ ? आन्तरिक रस से ही उसमे सच्चे रूप मे हरियाली आ सकती है । ऊपरी आकार (फार्म) मे इधर-उधर से परिवर्तन आने से समस्या का समाधान सम्भव नही हो सकता । वस्तुत आज साहित्य के लिए श्रावश्यक है — चेतना का उभार और सस्कार । जैनेन्द्र के अनुसार साहित्य का ध्यान उसी पर केन्द्रित होना चाहिए | सामाजिक रीति-नीति पर अटकने से समस्या का सही निदान नही प्राप्त होता है । जो ऊपर से दिखता है वह क्षणिक तथा नश्वर है, उसमे स्थायित्व की क्षमता नही होती, अतएव साहित्य और जीवन के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है प्रेम की स्वीकृति । जो मान्यताए रूढ और जड हो गई है, उनमे निश्चय ही जीवन का रस प्रवाह रुक गया है । आज साहित्य की आवश्यकता, जीवन मे रस के प्रादुर्भाव और सचार मे ही पूर्ण हो सकती है ।
वस्तुत: जैनेन्द्र की दृष्टि अपने पूर्ववर्ती साहित्यकारो से पूर्णत भिन्न है । वे किसी भी स्थिति को आत्मता से निरपेक्ष रहकर स्वीकार करने में असमर्थ है । यही कारण है कि इनके साहित्य मे, विधवा विवाह, वेश्यावृति उन्मूलन आदि किसी भी समस्या के सुधार का बीडा नही उठाया गया है । 'परख' मे बाल विधवा कट्टो के प्रति लेखक मे पूरी सहानुभूति है, किन्तु वे चाहते हुए भी विधवा-विवाह को सामाजिक स्तर पर सम्पन्न होते हुए नही दिखा सके है और न ही इस सम्बन्ध मे सुधार के हेतु उन्होने कोई सुदृढ कदम ही उठाया है । उनका विश्वास है कि सुधार ऊपर से थोपी हुई वस्तु है । यदि सुधार की दृष्टि अन्त प्रसूत हो तो उसमे दबाव के स्थान पर स्वेच्छा और सहजता का प्रादुर्भाव
१. 'आज आवश्यकता के दबाव में आकर हम राष्ट्रीय रचना माग सकते है और उसकी अभ्यर्थना कर सकते है । लेकिन काम निकलने पर वही हमारे लिए भूल जाने लायक पदार्थ बन सकता है । जिसका ऐसा भाग्य हो, उसे साहित्य नही कहते ।'
-- जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया,' भाग ६ ( भूमिका से ) ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
होगा । इस प्रकार किसी समस्या की प्रतिक्रिया की स्थिति नही उत्पन्न होगी और समाज मे हार्दिकता का सन्निवेश होगा । प्रेमचन्द ने सुधार पर बल दिया था, अन्तश्चेतना पर नही । किन्तु एक के सुधार से दूसरे की समस्या का समाधान नही होता । एक समस्या दूसरे स्थान पर अपना मार्ग खोजती है और सुधार की अन्तिम स्थिति की सम्भावना कही भी नही की जा सकती । किन्तु जैनेन्द्र का विश्वास है कि यदि सुधार 'मूल' (रूट काज ) मे हो तो ऊपरी रूपाकार पर अटकने की आवश्यकता नही होगी ।
जैनेन्द्र ने समाज की कुरीतियो और रूढियो मे सुधार न करने के साथ ही सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थितियो मे सुधार के प्रश्न को निराधार सिद्ध किया है । जैनेन्द्र की दृढ मान्यता है कि प्रेम की स्वीकृति मे शोषक और शोषित की समस्या कभी भी उत्पन्न नही हो सकती । उनके अनुसार जिसमे पीडात्मक प्रेम होगा, वह शोषक और धनाढ्य बनेगा ही नही । दूसरे के शोषण मे अपना पोषण होता है । अपना पोषण अपने आप मे कोई सार्थकता नही रखता । अतएव शोषण को समाप्त करने के लिए शोषण की जड को ही समाप्त कर देना होगा । वस्तुत शोषण को समाप्त करने से अधिक, जहा से शोषण की वृत्ति निकलती है, उसे रोकना ही सच्ची सामाजिकता है। जैनेन्द्र के अनुसार सच्ची सामाजिक चेतना, मानव सवेदना से पृथक हो ही नही सकती । मानवसवेदना ही मानव जीवन का परम साध्य है। कानून और नियम के आधार पर aft सामाजिकता मे हार्दिकता का अभाव रहता है । जैनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य
ही मानव वेदना का स्वर मुखरित होता हुआ दृष्टिगत होता है । उन्होने 'स्व' 'पर' की समस्या को ही समस्त द्वन्द्वो का आधार माना है । जब तक स्वार्थनिष्ठ है, तब तक समाज का कल्याण सम्भव नही हो सकता । यदि 'स्व' मे 'पर' के प्रति परस्परता अथवा प्रेम की भावना का समावेश हो जाय तो विद्रोह की स्थिति ही नही उत्पन्न होगी । देश ही नही, विश्व मे व्याप्त सारे सघर्षों का मूल कारण स्वार्थ अर्थात् 'पर' का निषेध है । पर के सत्कार मे सत्य की स्वीकृति होती है, इसलिए सारे विकार सत्य मे समाहित होकर स्वत ही निर्मल हो जाते है । जैनेन्द्र ने स्त्री-पुरुष के जीवन मे 'स्व' 'पर' की सार्थकता से लेकर राष्ट्र के हित मे भी 'स्व' और 'पर' की भावना को ही आधार बनाया है । मानव जीवन की विराट् भूमि उनके साहित्य मे सिमट कर समा गई है, अन्तर यही है कि उन्हें घटनाओ का जाल नही फैलाना पडा, क्योकि विविधताओ का मूल एक ही रहा है । जीवन की व्याप्ति को सीमित परिवेश मे लेने के कारण उसमे प्रभावोत्पादकता उत्पन्न हो गई है । यही वह मापदण्ड है, जिसमे वे व्यक्ति के साथ समाज को भी
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जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग
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स्वीकार करते हुए अग्रोन्मुखी हुए है। अतएव यह कहना कि जैनेन्द्र के व्यक्ति समाज के साथ जूझते नही है, उचित नही प्रतीत होता है ।
साहित्य • कल्याणमय
सुधारवादी लेखक के समक्ष साहित्य की उपयोगिता की दृष्टि प्रधान होती है। उपयोगिता को लक्ष्य बनाने में व्यक्ति का अहभाव प्रदर्शित होता है। किन्तु सच्चा माहित्य अह के विसर्जन मे से ही प्राप्त हो सकता है। वस्तुत उपयोगिता को दृष्टि मे रखकर जो साहित्य-सृजन होगा, वह उत्तम साहित्य नही माना जायगा । उपयोगी होने मे साहित्य की आत्मा अथवा रसानुभूति का क्षय हो जाता है। इसीलिए साहित्य का स्वरूप शिवमय अथवा कल्याणमय होता है । कल्याणकारी होना नहीं है । शिवमयता ही साहित्य की सत्यता है । साहित्य भावमय होता है। उसमे कर्तृत्व का भाव नही रहता । अतएव जिसको विचार व्यक्त कहे, वह साहित्य का आदर्श नही हो सकता । साहित्य का आदर्श वही हो सकता है जो विविध वृत्ति के व्यक्तियो के लिए समान हो सके।
साहित्यगत विभिन्न वाद उपयोगितावाद को ही आधार बनाकर लिखे गए है। प्रगतिवादी साहित्य सामाजिक विषमताओ और दारिद्रय को दूर करने के प्रयत्न में ही रचित है । मार्क्सवादी विचारक, साहित्य द्वारा आर्थिक विषमता को दूर करने के हेतु प्रयत्नशील रहे है । विभिन्न वाद-प्रतिवाद अपने पक्ष का समर्थन करते है किन्तु साहित्य का सत्य वाद-विवाद के द्वन्द्व मे परिवर्तित नही होता । साहित्य का आदर्श वही हो सकता है जो सार्वभौम और सर्वकालीन हो। इस प्रकार 'स्व-पर' दोनो दृष्टियो से साहित्य के स्वरूप मे कोई अन्तर नही दृष्टिगत होता। प्रात्मपेक्षी भाषा मे वही आत्मलाभ है और वस्तुपेक्षी भाषा में प्रेम-लाभ ।' प्रेमास्पद हमसे भिन्न होकर वस्तुलक्षी हो जाता है किन्तु आत्म और वस्तु, 'स्व' और 'पर' के हित मे अन्तर नही प्रतीत होता। ___ जैनेन्द्र के अनुसार जीवन का अर्थ सीमा का अस्वीकार नही है। सारे प्रयोजन सीमा के साथ है, लेकिन आस्था असीम की ओर चलती है और वही मूल पूजी है । साहित्य का प्रयोजन तत्कालीनता मे अथवा सम-सामयिकता मे परिबद्ध होना नही है। सामयिकता का स्पर्श करते हुए उसकी गति काल के पार होनी चाहिए, जहा समस्त विभक्तताए एक सत्य मे समाहित हो जाती है। किन्तु जैनेन्द्र के अनुसार- 'जब हम प्रयोजन को ही अपने-आप मे पोषना और
१ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
पालना चाहते है तो वह दूसरे अथवा दूसरे के प्रयोजन के टक्कर मे आ जाता है।" इस प्रकार साहित्य मे राग-द्वेष की भावना पनपने लगती है। किन्तु साहित्य का लक्ष्य प्रेम की पूजी को धनीभूत करना है । जैनेन्द्र का साहित्य स्थूल से सूक्ष्म की ओर एक प्रतिक्रिया है । आत्मनिष्ठ सत्य, उनके सम्पूर्ण साहित्य मे यही स्वर मुख्य रूप से मुखरित हुआ है । वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य का सत्य उसकी उपयोगिता अथवा समाज के सुधार में निहित होकर व्यक्ति की आत्मा मे अन्तर्भूत है। जैनेन्द्र ने विषय के क्षेत्र मे ही नही, वरन् टेकनीक के क्षेत्र मे भी साहित्य-जगत मे भी सहजता का सूत्रपात किया है।
साहित्य और समाज
जैनेन्द्र की दृष्टि मे लेखक का कर्तव्य समाज के एक रुख के साथ चलना नही है। समाज के साथ चलने वाला लेखक समाज की मर्यादा के दबाव मे जीवन की सत्यता का उद्घाटन करने में असमर्थ होता है। दबाव में आकर साहित्य-सृजन की प्रक्रिया सत्य-असत्य का निर्णय करने में असमर्थ होती है। इसीलिए जैनेन्द्र समाज के रुख से अधिक उसके रोग की ओर देखना अधिक उपयुक्त समझते है। जैनेन्द्र समाज की परम्परागत लकीर पीटने मे स्वय को असमर्थ पाते है। उनकी दृष्टि मे यह आवश्यक नही कि प्रत्येक रचना सामाजिक दृष्टि से स्वीकृत हो ही। किन्तु जैनेन्द्र समाज की स्वीकृति की चिन्ता में अपने
आदर्शों से विचलित नही होते । जिस समय जैनेन्द्र ने साहित्य-जगत मे पदार्पण किया, उसी समय उन्हे लेकर बहुत टीका-टिप्पणी हुई। कितु उन्होने अपनी
आलोचना से घबडाकर समाज के समक्ष घुटने टेकना आवश्यक नही समझा। यही कारण है कि वे अन्तत अपने वैचारिक सत्य का अनुगमन करते रहे है। वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार—'साहित्य पथ-निर्देश यदि करता है तो इरादे से नही पथ प्रकाशित करता है। साहित्य उस स्रोत का उद्घाटन करता है, जिसे प्रकाश का मूल कहना चाहिए। अगर उससे जीवन के सत्य को स्पष्टता प्राप्त होती है और जगत की पहेली भी स्पष्ट-सी लगती है तो यह परिणाम कहा से अनायास प्राप्त होते है, साहित्य का अपना अभिप्रेत नही है, वह तो मात्र सत्य शोध या आत्मावगाहन है ।२
जैनेन्द्र समाज के साथ-साथ चलने के पक्ष मे नही है । इसीलिए उनके साहित्य मे वर्तमान से ऊपर उठने की चेष्टा लक्षित होती है । समय से बध कर साहित्य
१ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानियाँ', भाग ६, पृ० स० १३ । २ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त' ।
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जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग
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का स्वरूप चिरस्थायी नही हो पाता। अतएव साहित्य के लिए कालातीत होना आवश्यक है। उनकी दृष्टि में शेष साहित्य वही है जो काल को जीतता हुआ टिका रह जाता है। साहित्य मे एक का एकत्व विलीन होकर सर्वत्व मे समा जाता है। इस प्रकार साहित्य विशिष्ट व्यक्ति और स्थिति का प्रतिनिधि न होकर सर्वकाल का हो जाता है । जहा साहित्य तत्काल की यथार्थता से आगे नही जा पाता, वहा साहित्य अपने स्थायित्व की क्षमता को खो बैठता है। साहित्य का लाभ ही यह है कि वह तत्काल को और यथार्थ को भावी सम्भावनाप्रो की दिशा मे आकर्षित करता है और जीवन को मार्गदर्शन देता है । यह समझना कि साहित्य मात्र सामाजिक यथार्थ का दर्पण है, जैनेन्द्र को मान्य नहीं है। हजारो वर्षों के बाद आज भी यदि शास्त्र हमारे लिए जीवित है तो यही कारण है कि कथा के साथ ही उसमे जीवन, धर्म और जीवन कर्म को उद्घाटित करने की क्षमता विद्यमान है । इसीलिए साहित्य वह तत्व बन पाता है, जो काल की विभक्तता को अपने भाव से भर देता है तथा हममे चिरन्तन, शाश्वत सत्य को जाग्रत करता है।
जैनेन्द्र के साहित्य के सम्बन्ध मे इसीलिए असामाजिकता का आरोपण किया जाता है। किन्तु जिसे हम सामान्यत असामाजिकता समझते है, वह जैनेन्द्र के कालातीत विचारो का द्योतक है । साहित्य मे कुछ अशो मे अतिरेक भी स्वीकार्य हो सकता है । रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी यथार्थ सत्य की अभिव्यक्ति के हेतु साहित्य मे अतिशयोक्ति को आवश्यक माना है । यथार्थ के सत्य को यथातथ्य रूप मे ग्रहण करने से उसकी अभिव्यक्ति मे भावो की प्रभावोत्पादकता उतनी अधिक नही हो जाती, जितनी कि अतिश्योक्ति के आधार पर होती है।
साहित्य और टैकनीक ___ भाव के अनुकूल ही जैनेन्द्र ने भावाभिव्यक्ति भी की है। जिस प्रकार विषय काल की सीमा मे परिमित नही है, उसी प्रकार उनकी अभिव्यक्ति की क्षमता भी नये-पुराने के बन्धन से पूर्णत उन्मुक्त केवल अभिव्यक्ति ही है । उनकी दृष्टि मे भाव न कभी नये बनते है और न पुराने होते है । बनना केवल आकार का ही होता है। किन्तु आकार की भी सीमा है । लेखक के लिए यह जानना आवश्यक है कि कही भाव कला इतनी प्रमुख न हो जाय कि भाव दब जाए।
१ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार । २ रवीन्द्रनाथ टैगोर : 'साहित्य', पृ० २२ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
पीली प्रकृति के भीतर साहित्य-सृजन करने से आकृति प्रधान हो जाती है और सृजन कार्य गौरण हो जाता है । जैनेन्द्र के अनुसार आत्मा सूक्ष्म है । वह अन्तर्निष्ठ है । शरीर के ढाचे से आत्मा का कोई सम्बन्ध नही है । शरीर तो केवल आत्माभिव्यक्ति का साधन है । जैनेन्द्र के साहित्य का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि उन्होने उपन्यास अथवा कहानी की कला से अधिक उसके सत्य पर बल दिया है । उनका विश्वास है कि कहानी कला के ज्ञान के प्रभाव मे भी महानतम कृति की रचना सम्भव हो सकती है । जैनेन्द्र के अनुसार 'क्या कोई शिशु ऐसा हो सकता है, जिसके भीतर वह जटिल यन्त्र न हो, जिसे मानव यष्टि कहते है ? लेकिन एक अबोधा भी माता बन जाती है और उसे उस जटिलता का कुछ पता नही होता । जिसका निष्पन्न रूप उसका शिशु है ।" वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार जिस प्रकार शरीर के यन्त्र का सम्पूर्ण ज्ञान होने पर भी कोई वैज्ञानिक शिशु की सृष्टि नही कर सकता, उसी प्रकार साहित्य की टैकनीक को जानने से ही साहित्य-सृजन सम्भव नही हो सकता । जैनेन्द्र की दृष्टि मे साहित्य के सृजन के लिए श्रावश्यक है आत्मबोध अथवा पीडा । पीडा के रस से हुआ व्यक्ति ही सच्चा साहित्यकार बन सकता है । जैनेन्द्र के साहित्य का उत्स उनकी पीडा मे ही समाया है, इसीलिए उनके पात्रो के जीवन मे आत्मपीडन का भाव अधिक दृष्टिगत होता है ।
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आधुनिक साहित्य मे विषय से अधिक आकार को प्रधानता दी जाती है । नया - पुराना साहित्य परम्परागत साहित्य से अतिरिक्त कोई नितात नवीन स्थिति अथवा स्वरूप नही है । नया कुछ पैदा नही होता और पुराना त्याज्य नही होता, शर्त यह है कि जो स्वीकृत हो वह काल की विभक्तता से परे हो तथा उसमे उपयोगिता से अधिक सत्यता का समावेश हो । जैनेन्द्र के अनुसार नये पुराने शब्द की सार्थकता एक स्थिति तक ही लागू हो सकती है । उसके आगे उसकी सार्थकता नही है । वे ऊपरी है तथा रूप सज्जा की अपेक्षा से है । जैनेन्द्र के अनुसार आरम्भ से ही नाना वादो के द्वारा विविध भावो का प्रतिनिधित्व होता रहा है, किन्तु आधुनिक काल मे झगडा प्रवृत्ति के शब्द पर ही अटक गया है, 'नयापन' अथवा पुरानापन । नयेपन के जोश ने साहित्यकारो को पुराने साहित्य के प्रति प्रस्थाशून्य बना दिया है। जैनेन्द्र नये-पुराने के भेद को समने मे स्वयं को असमर्थ पाते है । उनकी दृष्टि से तो आने वाला हर क्षण ही नवीन है और बीता हुआ हर क्षण पुराना है । क्षण के पुराने और नये होने से साहित्य की अखण्डता मे कोई परिवर्तन नही होता । किन्तु प्राजकल नयेपन
१ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग 8, पृ० स० २६ ( भूमिका से ) ।
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जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग
२५६ द्वारा अद्भुत की सृष्टि की जा रही है। जैनेन्द्र के अनुसार अद्भुत के प्रति उत्सुकता सदा रही है और रहेगी । अद्भुत का नयापन ज्यादा टिकाऊ है। तीन टाग का प्रादमी आज यदि पैदा हो, तो क्या वह जल्दी पुराना पड जायगा...?' जैनेन्द्र के अनुसार नवीनता का यह प्रेम सनातन सत्य को अभिव्यक्त करने मे असमर्थ है। नयापन तभी स्वाभाविक हो सकता है, जब वह अन्त प्रसूत हो। केवल रूपकार मे नवीनता लाने का प्रयत्न टिकाऊ नही होता। वह केवल फैशन का द्योतक है।
जैनेन्द्र कहानी-लेखन को कोई ऐसी साधना नही मानते जिसके लिए अभ्यास करना पडे। कहानी को अकहानी कहकर उसमे नवीनता का बोध कराना अस्वाभाविक है। उनकी दृष्टि मे कहानी की विद्या का क्षेत्र कितना व्यापक है कि उसमे कहानी और अकहानी सभी समा जाती है। ___ जैनेन्द्र ने अपनी कहानियो के सम्बन्ध मे स्पष्टत स्वीकार किया है कि वे कहानी-लेखन की किसी परिपाटी से बधे न रहने के कारण उनकी प्रत्येक कहानी स्वय मे सहज ही नवीन बन गयी है । 'एक कहानी दूसरी जैसी नही बनी। सब अपने-आप मे स्वतन्त्र और भिन्न बनती चली गयी है। वस्तुत जैनेन्द्र किसी परिपाटी से पृथक् सहजाभिव्यक्ति को ही अपनी कला का इष्ट मानते है । 'उनकी दृष्टि मे' हर व्यक्ति को साहित्य के क्षेत्र मे हिम्मत होनी चाहिए कि वह अपनी कलम के साथ अकेला खडा हो, गोल या झुण्ड बाधकर जीने की आदिम आदत को चुनौती देता रहे।
वस्तुत जैनेन्द्र का साहित्य कला के बोझ से दबा न होते हुए भी भावगरिमा की दृष्टि से उत्कृष्ट है। जैनेन्द्र को हम कबीर के स्तर मे रखकर अधिक स्पष्टता से समझ सकते है । कबीर की भाषा सधुक्कडी होते हुए भी प्रभाव की दृष्टि से अविस्मरणीय है । जैनेन्द्र के साहित्य मे भी प्रभाव की गरिमा स्पष्टत दृष्टिगत होती हे । अभिव्यक्ति मे सहजता लाने के लिए यत्र-तत्र उनकी अभिव्यक्ति रचनायो मे चित्रमयता स्पष्टरूप से लक्षित होती है । टूटे-फूटे शब्दो के माध्यम से भी भाव-भगिमा पूर्णत स्पष्ट हो जाती है। कभी-कभी लेखक का एक ही वाक्य अन्त' और बाह्य प्रकृति के द्वन्द्व को व्यक्त करने में सक्षम
१ जैनेन्द्रकुमार . 'इतस्तत.', पृ० १३३ । २ जैनेन्द्रकुमार . 'कहानी . अनुभव और शिल्प', १९६७, प्र० स०, दिल्ली । ३. 'वह क्षण भर मुझे देखती सी देखती रह गयी, मानो बिंधी हिरिणी हो।
बिध कर ही बाधिन बन उठी हूं, लेकिन हूँ प्रकृत हिरिणी ही।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
होता है, यथा--'कल्याणी' मे एक करुण मुस्कराहट के भाव से उनका चेहरा पीला पड गया । उपरोक्त करुण मुस्कराहट से कल्याणी के अन्तस् की पीडा ओर द्वन्द्व सहज ही मुखरित हो उठता है । जैनेन्द्र के साहित्य मे मनोविज्ञान के प्रभाव के कारण वस्तुता से अधिक अन्त प्रकृति पर बल दिया गया है। ____ जैनेन्द्र से पूर्व के उपन्यासकारो ने मनोविज्ञान की आवश्यकता का अनुभव नही किया । जैनेन्द्र ने मनोविज्ञान के शास्त्रीय रूप का अनुगमन न करके व्यावहारिक रूप को ही अपनाया है । मनोविज्ञान के प्रभाव के कारण लेखक की अभिव्यक्ति के रूप मे भी अन्तर दिखायी देना स्वाभाविक ही है। जैनेन्द्र के साहित्य मे विषय-विस्तार और पात्रो की सख्या का अभाव है । एक क्षण की अनुभूति भी कहानी का विषय बन जाती है। व्यक्ति-विशेष के जीवन की घटना भी उपन्यास का विषय बनती है । जैनेन्द्र को उपन्यास-रचना के लिए पीढीदर-पीढी सम्बन्ध ढूढने की आवश्यकता नही हुई । उनकी कहानी तथा उपन्यासो मे बिखराव से अधिक सघनता है । पात्र भी भावाभिव्यक्ति मे विस्तार से अधिक सकेत से काम चला लेते है । प्रेमचन्द के उपन्यासो मे पात्रो की सख्या इतनी अधिक होती है कि उनमे बहुत से चरित्र अपने उत्कष पर पहुंचे बिना बीच मे ही समाप्त हो जाते है। कथा का अन्त दिखाने मे लेखक के समक्ष कठिनाई उपस्थित होती है, किन्तु जैनेन्द्र के साहित्य मे ऐसी स्थिति नही है। उनके उपन्यासो मे पात्रो की भीड देखने को नहीं मिलती। मनोवैज्ञानिक लेखक के लिए ऐसा सम्भव भी नही हो सकता। यही कारण हे कि जैनेन्द्र के साहित्य मे अन्तर्द्वन्द्व प्रधान है। ___ जैनेन्द्र के पात्रो का व्यक्तित्व सदैव सम्भाव्य होता है। उनके सम्बन्ध मे पूर्ण निर्णय नही प्रस्तुत किया जा सकता । वे एक ऐसी अनबूझ पहेली है, जिन्हे समझना मुट्ठी मे बाधना है। उनके जीवन के सम्बन्ध मे अनन्त सम्भावनाए है। वे पूर्व निश्चित मार्ग पर चलने के लिए बाध्य नही है, वरन् परिवर्तनशील जीवन के सत्यो और भावी जीवन की सम्भावनाओ की ओर उत्सुकता बनाए रहते है। प्रेमचन्द ने जिस पात्र को प्रारम्भ मे जिस स्तर का गढ दिया है, वह अन्तत उसी स्तर का बना रहेगा। आदर्श समझा जाने वाला पात्र अतत कभी भी कोई त्रुटि नही करता। जैनेन्द्र के पात्र इस कृत्रिमता से वचित है। जैनेन्द्र प्रेमचन्द के सान्निध्य मे रहते हुए भी उनकी परिपाटी का अनुसरण नही कर सके है। जैनेन्द्र के अनुसार प्रेमचन्द अपने पात्रो के चरित्र की सक्षिप्त रूप-रेखा पहले से ही अपनी डायरी मे लिख लेते थे, यथा . 'दमयन्ती साधारण सुन्दर । शील का गर्व रखती है। कम पर तेज बोलने वाली है। वात्सल्यमयी
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जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग
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पर ईर्ष्यालु इत्यादि । इससे स्पष्ट होता है कि प्रेमचन्द के पात्र एक निश्चित रूपाकार मे ढलकर ही विकसित होते है । उनके पात्रो के सम्बन्ध मे सब कुछ स्पष्ट होता है । इसीलिए उनका चरित्र समझने में कठिनाई भी नही होती। वे रेलगाडी के सह अपनी पटरी से इधर-उधर नही जाते, क्योकि उनमे जोखिम उठाने का साहस नही है। जबकि जैनेन्द्र के पात्रो का व्यक्तित्व सस्पेस की स्थिति में पाठक को भरमाता रहता है । उनकी अधिकाशत सभी रचनाओ मे पात्रो की यही प्रकृति है । 'त्यागपत्र' की मृणाल हो अथवा 'कल्याणी' मे कल्याणी के सम्बन्ध, हमारे मन मे सदैव एक गहरे सशय की स्थिति बनी रहती है । सीधी-सादी मृणाल के सम्बन्ध मे भला यह कल्पना की जा सकती थी कि वह कोयले वाले की गन्दी कोठरी मे जाकर रहेगी और फिर वहा भी न रुक सकेगी । कल्याणी के व्यक्तित्व मे कही भी ठहराव नही है । वह कभी कुछ कहती है और कभी कुछ | कभी लेखिका बनती है, कभी गृहिणी और कभी
क्रानी । इन सब से परे उसका अन्तर्द्वन्द्व बाह्य जीवन को उद्वेलित किए रहता है । उसके व्यक्तित्व का रहस्य उसके बाह्य जीवन से प्राप्त नही हो सकता । बाह्य स्थिति तो हमे एक उलझन मे डाल देती है । हम केवल 'धे का भेद', व 'गवार', 'कह पथा' आदि कहानियो में हम सत्य का रहस्य जानने के लिए प्रतिपल उत्सुक रहते है। यह उत्सुकता ही जैनेन्द्र के साहित्य का प्राण हे । यदि जिज्ञासा समाप्त हो जाय तो साहित्य जीवन-शक्ति शून्य प्रतीत होगा । लेखक पात्रो के साथ ही पाठक को भी मकडी के जाले के सदृश अपने में ही उलझाये रहता है । जैनेन्द्र की सबसे बडी विशेषता यह है कि उनके पात्र पाठक को सम्भावना के विपरीत क्यो न जाये, किन्तु वे पाठक की सवेदना से वचित नही हो पाते । कौन ऐसा व्यक्ति होगा, जिसे ' त्यागपत्र' की मृणाल को अपनी हार्दिकता अर्पित करने मे सकोच हो अथवा कल्याणी के विक्षोभ और पीडा पर किसका मन भुझलाहट के साथ ही साहनुभूति से न भर उठेगा ।
जैनेन्द्र की रचनाओ की सबसे बडी समस्या है, उसका समझ में न आना । उनकी कुछ रचनाओ को छोडकर अधिकाशत सभी के साथ हमे कठिन साधना करनी पडती है । 'कल्याणी' जैसे श्रेष्ठ उपन्यास का रसास्वादन करने के लिए उसे एक बार पढना ही पर्याप्त नही है । क्योकि जैनेन्द्र ने पात्रो के जीवन मे इतने गैप दिखाए है कि उन्हे भली प्रकार समझे बिना उनके व्यक्तित्व को समझना दूभर है । अतएव उनकी रचनाओ को पढते समय पाठक को बहुत
१. जैनेन्द्रकुमार 'कहानी अनुभव और शिल्प, पृ० स० ३८ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
सजग रहना पड़ता है। उनके पात्रो के साथ ही पाठक को भी भागना पडता है। एक पक्ति का भी साथ छूटा कि बस गडबड हुई । इस प्रकार उनकी रचना के प्रत्येक शब्द पर ध्यान देना आवश्यक है। उनके साहित्य मे यत्र तत्र प्रयुक्त रिक्त स्थानो ( ) का बहुत ही महत्व है। 'कल्याणी' मे ऐसे उद्धरण बहुत मिलते है । इन अभावो के कारण ही जैनेन्द्र के साहित्य मे हम केवल सम्भावना पर ही चलते है।
जैनेन्द्र के उपन्यासो मे घटनाए तो अधिक नही हे कि उनके पात्रो के सहारे व्यक्तित्व की गुत्थी सुलझ सके । अतएव अनुभूतिगत सूक्ष्मता एव विचार-तत्व को ग्रहण करने के लिए उनके साहित्य के अदृश्य सूक्ष्म सत्य को जानना आवश्यक है । जैनेन्द्र के अनुसार कहानी का सत्य घटना मे निश्रित होता है । अत उसे घटनाओ मे ही ढूढना पडता है, शब्दो मे नही । 'कल्याणी के व्यक्तित्व की सारी समस्या तब सहज ही स्पष्ट हो जाती है, जब कि उसकी समस्त क्रियाओं के प्रेरक अन्त मन मे हम प्रवेश करते है। वह प्रेम के अभाव मे कर्त्तव्य करते हुए भी विक्षिप्त-सी रहती है, जिसके कारण उसके जीवन में सन्तुलन और व्यवस्था का अभाव रहता है। इसी प्रकार 'गदर के बाद', व, 'गवार', 'पान वाला' आदि कहानियो मे सत्य की पकड के अभाव मे कहानी के साथ आत्मसात् होना कठिन हो जाता है। जैनेन्द्र के अनुसार मानव जीवन का अन्त सदैव सम्भाव्य है, निश्चित नही है, यही कारण है कि वे अपने पात्रो के जीवन की अन्तिम परिणति नही दिखाते । इस प्रकार वे अपनी रचनायो की पूर्णता मे भी अपूर्णता का सकेत देते है । 'जानने को शेष बना ही रहता है' यही उनके जीवन-दर्शन का प्रमुख आदर्श है। व्यक्ति जानने के लिए प्रयत्नशील है। किन्तु सृष्टि का सारा-का-सारा रहस्य वह नही जान सकता, क्योकि वह स्वय अपूर्ण है।
जैनेन्द्र के साहित्य मे पात्रो के जीवन को अधिकाधिक साकेतिक रेखायो के द्वारा ही व्यक्त किया गया है। कही-कही तो अन्तर्कथाओ का एक-दो शब्दो में सकेत भर कर दिया गया है, यथा-'कल्याणी' मे कल्याणी अपने विवाह से पूर्व जीवन का वृतान्त बताती है, पर विस्तार से नही, उसमे सक्षिप्तता मे रहस्य बना ही रहता है । पाठक के मन की जिज्ञासा और भी तीव्र हो उठती है । एक स्थल पर कत्याणी कहती है- 'खैर, विवाह हुआ · वह भी एक कहानी है पर छोडिए ।' और वह तुरन्त विषय बदलती हुई कहने लगती है --- 'विवाह से स्त्री पत्नी बनती है ' इस प्रकार वह यह नही स्पष्ट करती कि उसके विवाह से सम्बन्धित कहानी क्या है ? ऐसी स्थितिया जैनेन्द्र की रचनायो मे बहुत अधिक मिलती है । वस्तुत जैनेन्द्र की कहानियो और उपन्यासो मे
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जैनेन्द्र परम्परा ओर प्रयाग
प्रत्येक व्यक्ति अपने शाव को पीता हुआ चला जाता है, किसी पर अपने भाव उडेलता नही, बिखेरता नही ।'
रहस्यमयता
जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियो की एक बड़ी विशेषता, उसमे निहित गुह्यता और रहस्यमयता है । जैनेन्द्र के पात्रो का जीवन ऐसी भूल-भुलैया है जिसमे भटकने का भय सदा ही बना रहता है। उसमे घटनाओ द्वारा एक-केबाद दूसरे सत्य का उद्घाटन इस प्रकार होता है कि हम क्षण भर के लिए स्तम्भित रह जाते है । रचना का प्रारम्भ ही कुछ ऐसे ढग से होता है कि कहानी की भावी घटना का कुछ आभास ही नही मिलता । उस दृष्टि से 'अधे का भेद' तथा 'पान वाला' कहानी अपना विशिष्ट स्थान रखती है। एक सामान्य अन्धे भिखारी की कथा हमे कहा से कहा ले जाएगी, इसका हम प्रारम्भ मे अनुमान भी नही लगा सकते । रहस्य के खुलते ही अधा भिखारी हमारी रष्टि मे इतना ऊचा उठ जाता है कि हम उसकी कल्पना भी नही कर सकते । उनी भाति आखो मे सुरमा डाले छबीले पान वाले का क्या इतिहास हो सकता है तथा बाह्य साज-सज्जा और चचलता के पीछे एक गहन पीडा मे वह कराह रहा है, इसका हम अनुमान ही नही कर सकते । वह कौतूहल उत्पन्न करने वाला व्यवित अन्त मे बरबस हमारी सहानुभूति का पात्र बन जाता है । वस्तुत हम इस निश्कर्ष पर पहुचते है कि जैनेन्द्र घटनाओ मे ही नही, वरन् पात्रो के व्यक्तित्व की भी रहस्यमय सृष्टि करने मे दक्ष है।
घटनात्मक दृष्टि से जैनेन्द्र की 'मौत का भय' कहानी मे सत्य को इतनी सफाई और सूक्ष्मता से छिपाते हुए चलते है कि कहानी का मूल भाव उत्तरोतर भय मिश्रित जिज्ञासा उत्पन्न कर देता है । जब हमारा भय और उत्सुकता अपने उत्कपं पर पहुचती है तब वे अपनी इतनी सफाई के साथ धीरे से दो-एक शब्दो मे सत्य का उद्घाटन करके तटस्थ हो जाते है और पाठक लेखक की चतुराई और लेखन-क्षमता पर चकित हो उठता है । प्रस्तुत कहानी मे लेखक का उद्देश्य मृत्यु दिखाना नही है, वरन् उसका भय दिखाना है । जिसमे वह पूर्णत सफल होता है । इस प्रकार लेखक ने अपने वर्णन-कौशल द्वारा जीवन के महान मत्य का उद्घाटन किया है। मौत के भय मात्र से व्यक्ति की स्थिति कितनी दयनीय हो जाती है और वह सोचने को विवश हो जाता है कि मौत कितना भयकर मत्य है, जिसके भय मात्र से ही व्यक्ति की स्थिति विषम हो जाती है।
वस्तुत. जैनेन्द्र के अनुसार जिस प्रकार मानव जीवन सम्भावनाप्रो पर
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
चलता है, उसी प्रकार साहित्य-प्रक्रिया भी सम्भावित ही होनी चाहिए । यही कारण है कि जैनेन्द्र की रचनायो को पढकर ही समाप्त कर लेने पर पाठक का कर्तव्य पूरा नही हो पाता, क्योकि रचना का अन्त तो उसे स्वय ही सोचना पडता है। इस सम्बन्ध मे जैनेन्द्र ने स्पष्टत स्वीकार किया है कि 'भाग्य के प्रति जो साश्चर्य नही है, वह पहले से जीवन के भेद को यदि किसी थियरी के रूप मे मुट्ठी मे बाधे हुए है, तो पाठक को किस आकर्षण से खीच सकेगा।'' जैनेन्द्र की दृष्टि मे सुनिश्चित, सुनिर्दिष्ट प्रयोजन मे बाधकर होने वाली रचना साहित्यिक सृष्टि न हो सकेगी। उसमे बुद्धि का दबाव ही अधिक रहेगा। जैनेन्द्र की अधिकाश कहानी तथा उपन्यासो मे यह शैली स्पष्टत दष्टिगत होती है । 'मास्टर जी', 'क पथा', 'पाजेब', 'आत्मशिक्षण' आदि कहानियो मे एक अज्ञात उत्सुकता अन्त की ओर खीचती है। किन्तु कभी-कभी तो अन्त मे भी सच्चाई अस्पष्ट बनी रहती है।
जैनेन्द्र की भाषा
जैनेन्द्र के साहित्य मे भाषा प्रतीक रूप में प्रयुक्त हुई है । वह साधन है, साध्य नही । सत्य की पकड भापा द्वारा सम्भव नही हो सकती । सत्य को शब्दो मे सीमित करके हम सत्य की महत्ता को क्षीण कर देते है। 'कल्याणी' मे शब्द की असमर्थता की ओर इगित किया गया है। उनके अनुसार 'शब्द' बुद्धिनिर्मित 'शब्द' सतह की लहरो को गिनते है, गहराई को वे कहा नापते है ? क्या वे उसको तनिक भी पाते है, जो अन्तर्गत है ? जो अनुभव होता है, क्या वह शब्दो मे आता है ? रेखा मे बधता है १२ जैनेन्द्र के साहित्य मे विषयानुकूल भाषा का प्रयोग किया गया है। भावात्मक स्थलो की अभिव्यक्ति के लिए उनके समक्ष भाषा असमर्थ-सी प्रतीत होती है। ऐसी स्थिति मे मौन ही सम्भाषण की भाषा बनती है। जैनेन्द्र के साहित्य मे ऐसे अनगिनत स्थल है, जहा उनके पात्र वाणी द्वारा जो कहने में असमर्थ होते है, उसे वे मौन द्वारा निवेदित करते है । जैनेन्द्र की भाषा की सजीवता, प्रभावोत्पादकता, चक्षोपमत्ता
और हार्दिकता का जो स्वरूप 'परख' मे मिलता है वह हिन्दी साहित्य-जगत मे अपना बेजोड स्थान रखता है। बिहारी के द्वारा पूछे गए प्रश्नो के उत्तर मे
१ जैनेन्द्रकुमार 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', पृ० स० ४० । २ जैनेन कुमार 'कल्याणी', पृ० स० १०० ।
'भाषा पहरावन है और शब्द कोई भी सार सत्य को नही पकड सकता।' ३ जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० स० १०१ । ४ जैनेन्द्रकुमार 'परख', पृ० ७५-७६ ।
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जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग
२६५ कट्टो का मौन परिस्थिति को और भी भारी बना देता है। बिहारी के हर प्रश्न के उत्तर मे 'कट्टो चुप-सुन ।' 'कट्टो सुन—मूर्तिवत् ।' 'कट्टो मूर्तिसरीखी-जडवत् ।' 'कट्टो जडवत्--अचेत पर देखो-देखो, कट्टो अचेत मूछित होकर गिरी जा रही है | की स्थिति हमारे हृदय पर लगातार ऐसा प्रहार करती है कि हम कट्टो के साथ ही जडवत् हो जाते है ।' शब्द के अभाव मे भी कट्टो के हृदय का उद्गार हमारे अन्तस् को भिगोता ही नहीं, वरन् आकण्ठ भर देता है । हम चेतनाशून्य हो उठते है । मानसिक स्थिति की इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति जैनेन्द्र की प्रतिभा से ही सम्भव हो सकी है। उसमे बनावट से कोसो दूर सहजता और भावोद्रेक का अपार सागर उमडा पडता है।
जैनेन्द्र भाषा का बन्धन नही स्वीकार करते । उनकी दृष्टि मे यदि भाषा भावो की अभिव्यक्ति मे बाधक रहती है तो उसकी उपादेयता महत्वहीन हो जाती है। जैनेन्द्र ने अपनी रचना-काल के प्रारम्भ से ही सहज तथा भावानुकूल भाषा का ही प्रयोग किया है । भाव-भाषा के जिस रूप मे बह निकला उसे उन्होने रोकने की चेष्टा नही की। 'फासी', 'एकरात' आदि कहानियो मे तथा 'अनन्तर', 'मुक्तिबोध' आदि उपन्यासो मे अगरेजी के शब्दो का ही नही, पूरे-केपूरे वाक्यो का प्रयोग किया गया है । जो कि पात्रो के अनुकूल ही है । उसमे जबर्दस्ती हिन्दी का लोभ प्रदर्शित करना वे उचित नही समझते । जैनेन्द्र ने अगरेजी ही नही, उर्दू भाषा के शब्दो का भी प्रयोग किया है । कही-कही उन्होने बहुत ही शायराना ढग से भाव व्यक्त किया है । इसके अतिरिक्त पात्र, वर्ग और मन स्थिति के अनुकूल भी शब्दो का प्रयोग मिलता है, जिससे विषय की महिमा द्विगुरिणत हो गई है।
साराशत. जैनेन्द्र के साहित्य मे मन स्थितियो का ही उद्घाटन हुआ है। जैनेन्द्र की कहानियो या उपन्यासो मे ही नही, वरन् अधिकाशत नई कहानियो मे घटनाप्रो का घटाटोप कम है, जिसे जैनेन्द्र शुभ मानते है ।
उपन्यास और कहानी के सदृश्य ही जैनेन्द्र के निबन्ध भी साहित्य मे अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते है। उनके निबन्धो की सबसे बड़ी विशेषता उनकी सरसता और व्यावहारिक विषयो की स्वीकृति मे ही लक्षित होती है। उन्होने गम्भीर से गम्भीर विषय का विवेचन नित्य-प्रति की घटनाओ के आधार पर इतनी सरल भाषा और शैली मे किया है कि उसमे कथा की-सी रसानुभूति प्राप्त होती है। 'सोच-विचार', 'इतस्तत', 'परिप्रेक्ष', जैनेन्द्र के विचार मे सग्रहीत निबन्ध इसी शैली पर आधारित है । निबन्धो मे भी सत्य को स्पष्ट रूप में व्यक्त न करके सकेत द्वारा ही काम चलाया है । 'दही और समाज', 'जरूरी
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जनन्द्र का जीवन-दर्शन
भेदाभेद', 'व्यवसाय का सत्य' आदि निबन्धो द्वारा अपरोक्ष रूप से समाज के धनी वर्ग पर प्रहार किया है।
लोकोत्तर तथा मानवेत्तर विषय
जैनेन्द्र ने लोकोत्तर तथा मानवेत्तर विषयो को अपनी रचना का विषय बना कर साहित्य मे एक नवीन कडी जोडो है। 'नीलम प्रदेश की राज कन्या' इस दृष्टि से हिन्दी साहित्य मे अपना विशिष्ट स्थान रखती है । लेखक ने कल्पना की तूलिका से मानवीय बिम्ब प्रस्तुत करने की सफल चेष्टा की है। उपरोक्त कहानी का सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से कोई महत्व नही है, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से नीलम देश की राजकुमारी के विचार जैनेन्द्र की सापेक्षिक (स्यादवाद) की दृष्टि के पोषक है। ___ मानवेत्तर कहानियो मे 'एक गौ' तथा 'दो चिडिया' और 'चिडिया की बच्ची' अत्यन्त मार्मिक और सत्यानुभूति का उद्घाटन करने वाली कहानिया है। जैनेन्द्र की दृष्टि में प्रेम मानव जीवन की ही अनिवार्यता नही है, वरन् बुद्धि शून्य पशुपक्षी भी हृदय और प्रेम की भापा पहचानते है । जउ प्रकृति को भी उन्होने प्रेम के आकर्षण से पूर्ण माना है। जेनेन्द्र कोरे विचारक ही नही है, सहृदय व्यक्ति भी है । अपार सहृदयता के कारण ही उन्हें चहवहाती चिडिया के यौवन काल मे भी मानवीय प्रेम के दर्शन होते हे । छोटी चिडिया मे भी प्रेम का अकुर होता है, जो वय प्राप्त करते ही प्रस्फुटित हो उठता है। चिडिया की आत्मविभोरता और चहचहाहट के द्वारा लेखक ने उसके हृदय में उत्पन्न होने वाले प्रेम को व्यक्त किया है । 'अम्मा-अम्मा' कहकर वह अपनी अन्तस् के प्रेम का ही उद्घाटन करती है। उसके पास भावाभिव्यक्ति के लिए शब्द नही हे, किन्तु उसकी चचलता ही अभिव्यक्ति का प्रसाधन है। वह प्रकृति से केवल प्यार ही नही करती, वरन् प्यार मे मिलने वाले कष्ट को भी भूल जाती है। उसे 'शाम' के रूप मे प्रिय के दर्शन होते है । उस मिलन मे उसे अपनी भीगे तन की भी सुधि नही रहती।' सचमुच लेखक ने इस कहानी मे चिडिया मे एक वय प्राप्त किशोरी के प्रेमपूर्ण उल्लसित, हृदय के भावोद्गारो की बडी सुन्दर अभिव्यक्ति की है। उसकी भावाभिव्यक्ति मे अपार स्निग्धता तथा हार्दिकता के दर्शन होते है। ___'एक गौ' मे लेखक ने एक गाय के अपने मालिक के प्रति अटूट प्रेम और निस्वार्थ भाव का हृदयस्पर्शी चित्रण किया है जिसे पढकर पशु में भी निहित
१ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ३ ।
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जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग
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मानवीय संवेदना के दर्शन प्राप्त होते है । उपरोक्त कहानी को प्रद्यान्त पढने से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो लेखक ने मनुष्य ही नही, पशु के अन्तस् मे निहित प्रेम-मरण के द्वारा अपने साहित्य को दीप्त किया है। पशु बोल तो नही सकता, किन्तु वह भी प्रेम की भाषा पहचानता है । सुन्दर गाय का स्वामी परिस्थितिवश अपनी प्यारी गाय को बेच देता है। गाय विवश होकर चली तो जाती है, किन्तु वहा स्वामी के विछोह से दुखी होने के कारण उसका दूध कम हो जाता है । अपने मालिक द्वारा कारण पूछने पर वह कहती है- 'मै गौ ह रुपए के लेन-देन से अधिकार का और प्रेम का लेन-देन जिस भाव से तुम्हारी दुनिया मे होता है, उसे मै नही जानती । फिर भी तुम्हारी दुनिया मे तुम्हारे लिए मानती जाऊगी ।" गाय का उपरोक्त कथन बरबस ही हृदय को कचोट लेता है और हमे गाय द्वारा लेखक की प्रतिशयभावुकता के समक्ष विनत हो जाना पडता है । वस्तुत जैनेन्द्र ने पशु-पक्षियो को भी ईश्वर का प्रश मानते हुए उन्हे मानवीय भावो के प्रतीक के रूप मे प्रस्तुत किया है । 'चिडिया का 'बच्चा' मे जैनेन्द्र ने उन्मुक्त प्रकृति की गोद मे विचरण करने वाली चिडिया की अन्त प्रकृति का बहुत ही प्रभावोत्पादक चित्रण किया है । कहानी मे लेखक ने धनी माघवराम सेठ की लोभी, अहकारी वृत्ति तथा चिडिया की बच्ची की स्वच्छन्दप्रियता और भोलेपन का चित्रण किया है । सेठ अपने बाग में आयी हुई सुन्दर चिडिया के बच्चे को धन का प्रलोभन देकर बन्द कर लेना चाहता है । किन्तु वह तो धन-दौलत की भाषा जानती नही और कहती है- 'मेरी तो छोटी-सी जान है । आपके पास सब कुछ है । तब मुझे जाने दीजिए । २... साराशत लेखक ने व्यक्ति के ग्रह तथा चिडिया के भोले भाव को प्रतीकात्मक रूप मे व्यजित किया है ।
पौराणिक विषय
जैनेन्द्र ने मानवेत्तर विषयो के अतिरिवत पौराणिक कथाओ के माध्यम से भी मानवीय भावो की अभिव्यक्ति की है । 'देवी-देवता', 'बाहुबली', 'तद् ० ' 'उर्ध्व बाहु', 'भद्रबाहु', 'गुरु कात्यायन', 'नारद का अर्ध्य', 'यमपुर का निवासी' 'कामनापूर्ति' श्रादि कहानिया विविध पौराणिक प्राख्यानो को लेकर मानवजीवन के सन्दर्भ मे घटित हुई है ।
१ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ३ |
२ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ३ |
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जैनेन्द का जीवन-दर्शन
साहित्य-प्रास्तिकता
जैनेन्द्र का साहित्य उनके दार्शनिक चिन्तन से अभिभूत है । प्रेमचन्द्र मानवतावादी उपन्यासकार है। उन्होने आदर्श जीवन के लिए मानवोचित सेवा, त्याग, दया आदि गुणो को अपने पात्रो मे घटित होते हुए दर्शाया है । प्रेमचन्द ईश्वरवादी नही है। किन्तु जैनेन्द्र का साहित्य उनकी आस्तिकता से अनुप्राणित है। उनकी दृष्टि मे ईश्वर ही सत्य है और ईश्वरोन्मुख होना सत्साहित्य का लक्षण है। उनके साहित्य के रोम-रोम मे ईश्वरीय आस्था समाहित है । उन्होने अपने पात्रो के माध्यम से धर्ममय जीवनदृष्टि पर बल दिया है। वस्तुत जेनेन्द्र ने कथासाहित्य को दर्शन की भूमि पर आधारित करके साहित्य जगत को एक नवीन दृष्टि प्रदान की है। उनके आध्यात्मिक मनोभाव के द्वारा जीवन के गम्भीर सत्यो का उद्घाटन हुआ है । 'व्यर्थ-प्रयत्न', 'दर्शन की राह', 'तत्सत'
आदि कहानिया तथा उपन्यानो मे उनकी दार्शनिकता की स्पष्ट झलक मिलती है। जैनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य मे उनकी दार्शनिक दृष्टि परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से समायी हुई है।
जैनेन्द्र की दार्शनिकता के कारण कभी-कभी साहित्य के कोमल पक्षो पर ठेस भी लगी है । यथा 'खेल' कहानी मे अबोध भाई-बहनो के सरल, स्वच्छन्द, हास-परिहास और द्वन्द्व के बीच विधाता को लाकर खडा करना बहुत ही अस्वाभाविक प्रतीत होता है । तथापि कुछ स्थलो पर जैनेन्द्र की दार्शनिक दृष्टि मानव जीवन की सत्यता का उद्घाटन करने में समर्थ है।
सामाजिक दृष्टि चिरन्तन सत्य
जैनेन्द्र की साहित्यगत सत्यता को जानने के अनन्तर उनके विचारो के सम्बन्ध मे उत्पन्न सारा धन निराधार सिद्ध हो जाता है। जैनेन्द्र के साहित्य की प्रमुख समस्या स्त्री-पुरुष सम्बन्ध तथा विवाह मे प्रेम के प्रवेश के कारण ही उत्पन्न होती है। जैनेन्द्र से पूर्व उपन्यासकारो ने और विशेषत प्रेमचन्द ने स्त्री को भगिनी, माता और पत्नी के रूप मे ही देखा है किन्तु जैनेन्द्र ने सर्वप्रथम स्त्री-पुरुष को नियक्तिक रूप मे स्वीकार किया है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे नैतिक
और अनैतिक की समस्या स्त्री-पुरुष सम्बन्ध मे केन्द्रित नही है । जैनेन्द्र के पात्र प्रेमचन्द से बहुत आगे है। उन्होने घर और बाहर की समस्या द्वारा मानव जीवन के चिरन्तन प्रश्न का समाधान प्रस्तुत किया है। ___जैनेन्द्र के साहित्य के सम्बन्ध मे कुछ विद्वानो की यह धारणा है कि वे जीवन की वास्तविकता और अनुभव से इतर कल्पना और विचारो की प्रतिमूर्ति है। उनके अनुसार जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे अनुभूति की उपेक्षा करते
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जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग
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हए अपने तर्क-जाल को फैलाने की चेष्टा की है, किन्तु जैनेन्द्र-साहित्य का समग्र विवेवन करने के अनन्तर यह धारणा असगत नही प्रतीत होती है ।'
१. जैनेन्द्र कुमार : 'कहानी : अनुभव और शिल्प' (विजयेन्द्र स्नातक), पृ० १६ ।
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परिच्छेद-6
जैनेन्द्र और सत्य
सत्य जिज्ञासामूलक
मानव-प्राणी जिज्ञासा प्रधान है। व्यक्ति की जिज्ञासा का प्रबलतम आकर्षण अज्ञेय अथवा अदृश्य की ओर विशेषतया दृष्टिगत होता है। आदिकाल से ही दार्शनिको मे ब्रह्म को जानने की जिज्ञासा बनी रही है । ब्रह्म को हम 'नेति-नेति' कहकर समझने की चेष्टा करते है। जो दृश्य है, प्रत्यक्ष है, ज्ञेय है वह सब अपूर्ण और मिथ्या है । अन्तिम सत्य को हम नहीं जान पाते । किन्तु सत्य पूर्ण ही हो सकता है। ब्रह्म पूर्ण है, उसका अस्तित्व निरपेक्ष है। वह सत्य है । जीव नश्वर और ससीम है । अतएव जो नाशवान् है वह सत्य कैसे हो सकता है ? सत्य तो वही हो सकता है, जिसके साथ 'अस्ति' का भाव प्राप्त हो सके । वेद, पुराण आदि सभी धर्मशास्त्रो मे जगत को मिथ्या माना गया है। जीवन और जगत अन्तिम सत्य नही है। जिन दार्शनिको ने जगत की सत्यता पर बल दिया है, उनकी दृष्टि जीवन की व्यावहारिकता पर आधारित रही है। किन्तु जगत नाशवान् ही है।
जैनेन्द्र कुमार सत्य 'सत्' का भाव धारण करता है। सत् का तात्पर्य होने से है, जो वस्तु या शक्ति सदैव स्थिर रहती है, जिसकी न कभी उत्पत्ति होती है और न कभी विनाश, उसी का होना ही वास्तविक होना है। ऐसी सत्स्वरूप शक्ति ही 'सत्य' की सज्ञा से युक्त की जा सकती है। परम सत्य अद्वत
विश्व के समस्त दार्शनिको के समक्ष प्रमुख समस्या यही रही है कि सत्य
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जैनेन्द्र ओर गत्य
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क्या है ? सत्य को जाने बिना सारा मान-विज्ञान और दर्शन कोरी कल्पना ही प्रतीत होता है । सत्य की नीव पर ही समस्त दार्शनिक-चिन्तन आरूढ है । सत्य के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानो ने विभिन्न विचार प्रस्तुत किए है। किन्तु सबकी दग्नि मे सत्य एक है। उसो स्वरूप के सम्बन्ध में कोई निरपेक्षा निर्णय नही दिया जा सकता । विभिन्न धर्म और सम्प्रदाय के विचारक तथा दार्शनिक विभिन्न मार्गों से होकर कही लक्ष्य की दिशा में प्रयत्नशील है। सभी गर्मों मे विभिन्न मज्ञाओ द्वारा एक ही रात्य की सत्यता स्वीकार की गई है । नाम अनेक है, किन्तु सब एक ही सत्य का प्रतिनिधित्व करने के कारण मूलत एक ही है। 'भारतीय वेदान्त दर्शन' मे एकमान ब्रह्म को ही सत्य माना गया है । 'ब्रह्म सत्य जगद्मिश्या' के सिद्धान्त के द्वारा ब्रह्म की सत्यता और जगत की निस्सारता पर प्रकाश डाला गया है। शकर के अनुसार ससार का अस्तित्व केवल माया से तथा अज्ञान के कारण ही प्रतिभासित होता है, अन्यथा उसका कोई अस्तित्व नही है, केवल सरितमान् ब्रह्म ही सब कालो मे स्थाई रहता है। एक ही सत्य को विभिन्न रूपो में पायित किया गया है---- 'एको सत्यम् विप्राबहुधावदन्ति ।' ___परम सत्य' यक्ति की पहुच के परे है। वह उसे जानने के प्रयत्न द्वारा उसे जान नही माता । उसका अनुभव ही अपूर्ण प्राग्गियो के लिए पर्याप्त है। मीलिए जना मात्रा को चर्चा का विषय नहीं मानते । एकमात्र सत्य ब्रह्म है, अतान उसकी मां अथवा वाद-विवाद करना व्यर्थ हे । जहा व्यक्ति की पहुंच न हो बहा बरबम अपना अभिमत प्रस्तुत करने में व्यक्ति की अहता का ही प्रस्टीकरण होता है। इसीलिए जैनेन्द्र सत्य को वाद-विवाद की सकीर्णता से ऊपर माना है। अपने अभिमन द्वारा हम सत्य का निषेध करते हुए मत को ही प्रमुखता प्रदान करते है। 'आत्म शिक्षण' ओर पाजेब' मादि कहानियो मे व्यक्तिगत अभिमत द्वारा मत्य को बलपूर्वक नकारने की चेष्टा की गई है, जब तक अभिमत प्रधान रहता है तब तक सत्य का बोध प्राप्त होना कठिन हो जाता है और झूठी घटना ही बलपूर्वक सत्यसिद्ध की जाती है । किन्तु अत मे सत्य मत से परे ही सिद्ध होता है।
साहित्य मे सत्य का स्वरूप ___अधिकाशतः सत्य की खोज दार्शनिको की जिज्ञासा का विलय रही है, किन्तु सत्य की खोज का प्रयत्न दार्शनिको की ही बपौती नही है। सामान्य जीवन के
१ जैनेन्द्रकुमार' . 'जनेन्द्र की कहानियां', द्वितीय भाग, पृ० २०,४३ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन भी व्यक्ति अपने बाह्य जीवन के संघर्षों से इतर आत्मिक सत्य को जानने के लिए प्रयत्नशील है। कवि हो अथवा लेखक अथवा विचारक-सभी की दृष्टि मे सत्य के सम्बन्ध मे एक धारणा होती है । वह सत्य असत्य को दृष्टि मे रखकर ही साहित्य-रचना के हेतु प्रवृत्त होता है। वैसे तो सत्य के स्वरूप को जाना नही जा सकता किन्तु जीवन मे उसकी अनुभूति आवश्यक है । सत्य की अनुभूति को मन मे धारणा किए बिना साहित्य-रचना निरी कपोल-कल्पना ही प्रतीत होगी । सत्य मानव जीवन का उपजीव्य है, किन्तु सत्य के साथ सुन्दर का समावेश होने पर ही साहित्यिक सत्य की स्वीकृति होती है । जैनेन्द्र के सम्पूर्ण साहित्य का अध्ययन करके हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि उनके साहित्य मे सत्याभिव्यक्ति की पूर्ण चेष्टा की गयी है । सत्य के सूक्ष्म और स्थूल, व्यापक और सीमित, आध्यात्मिक और भौतिक आदि विभिन्न रूपो का उन्होने विशद् विवेचन प्रस्तुत किया है। जैनेन्द्र के साहित्य मे सत्य की व्यापकता का अवलोकन करने से पूर्व सत्य के अर्थ को जानना आवश्यक है।
जैनेन्द्र का साहित्य समग्र जीवन की अभिव्यक्ति करने में सक्षम है। उन्होने जीवन के विविध राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक आदि पक्षो का विवेचन करते हुए उनके गूढ सत्यो का उद्घाटन किया है । जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त सत्य को मानव की सापेक्षता मे ही जानने का प्रयास किया गया है।
सत् का भाव सत्य
जैनेन्द्र ने सत्य के सूक्ष्म स्वरूप का विवेचन करते हुए परम्परागत भारतीय दार्शनिको की विचारधारा का ही अवलम्ब लिया है। आधुनिक विचारको और दार्शनिको मे गाधी के आदर्शों की स्पष्ट झलक जैनेन्द्र के विचारो मे दृष्टिगत होती है। जैनेन्द्र के अनुसार 'सत्' का भाव सत्य है । जो है वह उसके कारण है, और उसके लिए है । इस प्रकार जो है वह सत् और जो उसको धारण करता है वह सत्य है।' गाधी ने भी सत्य को उपरोक्त रूप मे ही विवेचित किया है। जैनेन्द्र के अनुसार एकमात्र सत्य का ही अस्तित्व सभव हो सकता है। असत् से तात्पर्य न होने से है । अतएव जो नही है, उसके होने का प्रश्न ही नही उठता। उनके अनुसार जो नहीं है, उसके लिए यह 'असत्' शब्द भी अधिक है। जैनेन्द्र 'असत्' शब्द की स्वीकृति मे भी व्यक्ति की अहता के ही दर्शन होते है। उनकी दृष्टि मे जो नही है, उसे जोर देकर असत् कहने में व्यक्ति के अहकार का
१ महात्मा गाँधी 'दि वायस आफ ट्र थ' २ महात्मा गाँधी 'दि वायस आफ द थ'
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जैनेन्द्र प्रोर सत्य
प्रदर्शन होता है ।
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पूर्ण सत्य श्रज्ञय
प्रश्न उठता है कि 'सत्य' क्या है ? जैनेन्द्र के अनुसार 'सत्य' निर्गुण और निराकार है ।" गाधी ने तो 'सत्य' को ही ईश्वर माना है । जैनेन्द्र के पास एक अकेला अनुभव ईश्वर ही है, उससे बढ़कर कोई सच्चाई हो नही सकती । व्यक्ति अपूर्ण है, राज्य पूर्ण और निरपेक्ष है । अतएव व्यक्ति के द्वारा अभिव्यक्त विचार भी पूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति करने में सम्भव नही हो सकता । सत्य का निरपेक्ष रूप 'सत्चिदानन्द' हे । सूक्ष्म अथवा निरपेक्ष सत्य के सम्बन्ध मे भी श्रनेकानेक अभिमत प्रचलित है, किन्तु वे सत्य की सापेक्षता को ही व्यक्त करते है । जैन दर्शन से प्रभावित होने के कारण जैनेन्द्र ने स्यादवाद के आधार पर सत्य के सापेक्ष रूप को ही स्वीकार किया है। जैनेन्द्र के अनुसार सत्य अनन्त है, अकल्पनीय है, अत हम जो कुछ जान सकते है, चाह सकते है, वह एकागी सत्य है । दूसरी दृष्टि से वह प्रसत्य भी हो सकता है । सम्पूर्ण सत्य वह नही है, ' वस्तुत सत्य को जानने से अधिक उसे जानने की जिज्ञासा बनाए रखना ही पर्याप्त है । ' जैनेन्द्र के अनुसार परमेश्वर का पूरी तरह जान लेने का श्राशय हे व्यक्ति का ईश्वर से ऊपर आसीन होना । वस्तुत जानने के प्रयत्न मे कुछ शेष बना ही रहता है, जो व्यक्ति की अपूर्णता का बोध कराता है। जैनेन्द्र के विचार भारतीय विद्वानों के समकक्ष ही प्रतीत होते हे । अन्तिम सत्य को हम नही जान सकते । जो जानते है, वह सत्य नही है । जैनेन्द्र ने स्पष्टत स्वीकार किया है कि सत्य व्यक्ति की अपूर्णता का बोध कराता है। आदर्श तो अखण्ड है, द्वै यथार्थ में ही व्यक्ति की पहुच है, श्रतएव जीवन की यथार्थता ( सत्यता ) ही चर्चा का विषय बनती है । सत्य तो होने मात्र में है, जानने मे नही ।
सत्यबोध अनुभवाश्रित
जैनेन्द्र के साहित्य में सत्य को अनुभूतिगम्य और सम्भाव्य माना गया
१. 'सत्य के निर्गुण रूप को ईश्वर कहेंगे, वह परम कल्याणमय है ।' जैनेन्द्रकुमार 'प्रश्न और प्रश्न', पृ० १३६ । २. "The greatest trouble with us is that we can know and live in only bits of truth at a time and not all of it"'Glimpse of Truth' (p. 97)
३. 'Some may know more, some may know less, what is important is to keep discovery. 'Glimpse of Truth - ( P. 22.)
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
है । जानना बुद्धि के द्वारा होता है, तथा तर्क द्वारा उसे प्रमाणित किया जाता है, किन्तु तर्क द्वारा उसे ही सिद्ध किया जा सकता है, जो प्रत्यक्ष और दृश्य है । अदृश्य और सूक्ष्म सत्य के सम्बन्ध मे व्यक्ति केवल कल्पना कर सकता है । 'जयवर्धन' मे इस तथ्य की पुष्टि की गयी है। 'सत्य' हुनर ज्यादा है, जानना कम है। सत्य के ज्ञान को सदैव अपने अज्ञान के रूप मे ही मानते रहने मे व्यक्ति की कृतार्थता है। 'कल्याणी' मे कल्याणी सत्य की सिद्धि के लिए तर्क को सर्वथा निरर्थक रूप में ही स्वीकार करती है। उसके अनुसार--'तर्क सच्चाई को लपेट नही पाता है, समझना कभी पूरा हो नही सकता ।' जिज्ञासा सत् का स्वरूप नेति-नेति रह जाता है। यही वेदान्तिक सत्य है । जैनेन्द्र के अनुसार 'न' कार से यह तात्पर्य नही है कि सत्य है ही नही, वरन् नेति-नेति से तात्पर्य यह है कि व्यक्ति उस 'इति' को जान नही सकता, जो जानता है वह 'नेति' है। इसीलिए जैनेन्द्र सत्य के जिज्ञासु मे अपार धैर्य की आवश्यकता का अनुभव करते है । सत्य यदि व्यक्ति की पकड मे आ जाय तो वह सत्य नही रहेगा। 'कल्याणी' मे लेखक ने सत्य के सम्बन्ध मे व्यक्ति की जिज्ञासा को एक चुनौती के रूप मे स्वीकार किया है। उनके अनुसार--'जहा चुनौती नही है और जो बुद्धि के हाथो मे पालतू-सा दीखता है, वह सत्य भी नही है । अतएव आवश्यकता है कि सत्य के प्रति व्यक्ति सदा सप्रश्न और नतमस्तक रहे । 'सत्-ज्ञान' सत्त जिज्ञासा मे है ।' 'व्यर्थ प्रयत्न' मे भी सत्य को बुद्धि द्वारा जानने के प्रयत्न को अन्तत पराभूत होते हुए दर्शाया है । चिन्तामणि शून्य मे आख गडाकर उस सत्य को देखना चाहता है। काल की अनन्तता मे अदृश्य सत्य को देखने मे उसकी आस्था नही है। वह सत्य को प्रत्यक्ष देख लेना चाहता है, किन्तु सत्य तो शून्य मे है । वह शून्य को भेदना चाहता है, किन्तु उसकी बौद्धिक पिपासा शान्त नही होती। वेद, पुराण, उपनिषद् आदि का अध्ययन भी उसे सत्य का बोध कराने में असमर्थ होता है। उसकी आन्तरिक अशान्ति बढ़ती ही जाती है तथा उसे अपना आपा भी भारी प्रतीत होता है । अन्तत समर्पण की भावना ही उसे ईश्वर का अनुभव कराने मे समर्थ होती है।
जैनेन्द्र के अनुसार सत्य अज्ञात है और जिज्ञासा सदैव अज्ञात में से पाती
१ जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० स० ६८ । २ जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० स० ६८ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० स० ६८ । ४ जैनेन्द्रकुमार . 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ७, पृ० स० १२६-१२६ ।
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जैनेन्द्र और सत्य
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है, किन्तु अज्ञात की ओर से आने वाली चुनौती का सामना करने के लिए व्यक्ति प्रयत्नशील ही हो सकता है, पूर्णत. समर्थ नही हो सकता, क्योकि जिज्ञासा समाप्त हो जाय तो जीवन का प्रवाह ही समाप्त हो जायगा। जैनेन्द्र के अनुसार सत्य की खोज मे डूबकर ही व्यक्ति कतार्थ होता है । अहता के विगलन अथवा सत्य के समर्पण द्वारा ही परम सत्य की उपलब्धि का आनन्द प्राप्त हो सकता है। जैनेन्द्र की रचनाओ के पात्र सदैव जीवन मे कर्मरत रहते हुए भी ईश्वरोन्मुख होने के लिए प्रयत्नशील रहते है। विनम्रता, अहशून्यता, और प्रेम ही सत्य की प्राप्ति के विविध सोपान है। जीवन सतत् यात्रा है। जैनेन्द्र की दष्टि मे जीवन की सार्थकता चलने मे है, रुकने मे नही।
सत्य सम्बन्धी उपरोक्त विवेचन के आधार पर पर हम इस निष्कर्ष पर पहुचते हे कि सत्य का सूक्ष्म रूप शाश्वत है । वह व्यक्ति की पहुच से परे है, अतएव वह चर्चा का विषय भी नही बन सकता। वह केवल अनुभूति का ही विषय हो सकता है। एकमात्र सत्य वही ईश्वर है और सब उसी के होने से सभव है।' प्रश्न IT है कि जब सूक्ष्म सत्य व्यक्ति की चर्चा का विषय नही बन ममता तथा तब व्यक्ति के जीवन मे कौन-सा ऐसा सत्य है, जिसे साहित्यकार साहित्य के माध्यम से स्वीकार करता है । साहित्य का वह कौन-सा सत्य हे जो जीवन का सहजता प्रदान करने में समर्थ होता है।
जैनेन्म के अनुसार जीवन के विषय परिप्रेक्षो मे सत्य की स्वीकृति भी साहित्य का इष्ट है । सुक्ष्म सत्य से पर व्यावहारिक जीवन मे सत्य की जो स्थिति स्वीकार की गयी है, उसकी स्वीकृति में ही जीवन की सहजता सम्भव है। जैनेन्द्र के साहित्य में व्यावहारिक सत्य को किसी सीमित क्षेत्र मे ही नही स्वीकार किया गया है , वरन् धर्म, समाज, राजनीति आदि मे भी निहित सत्य की अभिव्यक्ति का प्रयास किया गया है। 'व्यवसाय का सत्य', 'मानव का सत्य' आदि सज्ञामो से जैनेन्द्र ने सत्य सम्बन्धी अपने विचारो की अभिव्यजना की है।
सत्य का स्वरूप काल से तब्गत नहीं
जैनेन्द्र के माहित्य में सत्य की स्थिति जानने से पूर्व उसकी विशिष्टता को जानना अनिवार्य है। जैनेन्द्र के अनुसार सत्य को काल की दृष्टि से देखना अधिक विश्वमनीय नही है। उनकी दष्टि से विभिन्न युगो के साहित्य मे दृष्टिगत होने वाले रास्य की परख काल के विभाजन के आधार पर करना उचित नहीं है । प्रायः यह देखा जाता है कि एक ही काल के लेखकों के सत्य सम्बन्धी
१. जैनेन्द्र में साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
दृष्टिकोण मे अन्तर होता है । यथा प्रेमचन्द और जयशकर 'प्रसाद' समकालीन होते हुए भी दृष्टि-भेद के कारण काल की सापेक्षता मे रखकर विवेचित नही किए जा सकते । जैनेन्द्र के अनुसार सत्य का स्वरूप लेखक की या व्यक्ति की आत्म-चेतन पर निर्भर होता है, न कि काल पर । अतएव साहित्य मे प्राप्त होने वाली सत्यता मे जो अन्तर दृष्टिगत होता है, वह लेखक की दृष्टि-भेद का ही सूचक है । सत्य कालातीत होकर ही वह स्थायित्व ग्रहण करता है । "
जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे सत्य का जो स्वरूप स्वीकार किया है, वह सम-सामयिकता की माग से ऊपर है । उनके चिन्तन का परिचय बाह्य परिवेश से अधिक आन्तरिक द्वन्द्व है । यही कारण है कि उन्होने अन्तस् चेतना के आधार पर ही सत्य का निरूपण किया है । सत्य का स्थूलरूप निर्गुण न होते हुए भी बाह्य स्थितियो मे लक्षित नही होता, वरन् अन्तर्भूत होता है । इसीलिए साहित्य मे जीवन के सत्य की अभिव्यक्ति के लिए अन्तर्दृष्टि अनिवार्य है ।
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सत्य शिव सुन्दरम्
साहित्यक - सत्य और दार्शनिक सत्य की अपनी सीमा है । दार्शनिक दृष्टि से सत्य को जिस रूप मे ग्रहरण किया जाता है, उसे ठीक उसी रूप मे साहित्य मे नही स्वीकार किया जा सकता । दर्शन का सत्य चिन्तन - प्रधान होता है । उसमे वैचारिक प्रमुख होती है, किन्तु साहित्यिक सत्य मे विचार से अधिक भाव और व्यावहारिकता का समावेश होता है । साहित्य मे कोरा सत्य केवल बौद्धिक तर्क-जाल फैलाने मे ही सहायक होता है । उसमे व्यक्ति के जीवन मे आत्मसात् होने की क्षमता नही होती । साहित्य का 'सत्य शिन और सुन्दरम्' के दो तटो के पार की स्थिति है, किन्तु पार जाने के लिए तट का निषेध भी नही हो सकता । मानो शिव और सुन्दर के तटो का स्पर्श करती हुई साहित्य-धारा सत्य के सागर मे समा जाती है । सुन्दरता और शिवत्व सत्य के पूरक है । साहित्यकार का लक्ष्य अपनी रचनाओ के द्वारा सत्योन्मुख होना ही है | जैनेन्द्र के अनुसार सत्य की शोध, सत्य की चर्या और सत्य की पूजा के लिए ही लेखन कार्य होना चाहिए। उनकी दृष्टि मे ' शिव और सुन्दरम्' सत्य के दो पहलू है, परन्तु अपने-आप मे सिमटते ही दोनो मे अनबन हो रहती है । साहित्य अथवा कला का प्रधान गुग्ण सुन्दरता है । सत्य का सुन्दर रूप ही साहित्य मे ग्राह्य हो सकता है । प्रयोजनीयता साहित्य का गोरण पक्ष है ।
१ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
२. जैनेन्द्रकुमार 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', पृ० स० २८३ ।
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जैनेन्द्र और सत्य
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प्रयोजनीयता अन्य शास्त्रो का इष्ट हो सकती है, किन्तु साहित्य मे कोरी प्रयोजनीयता अनिष्ट ही करती है। जैनेन्द्र के अनुसार सौन्दर्य ही वह आधार है, जिसपर कला आमीन होती है । 'प्राकृतिक सौन्दर्य'...कला के लिए प्रयोजनीय है, उस हेतु मे सत्य नहीं है। उसके लिए तो सब प्रयोजन से कही बडे उस हेतु से सत्य है कि वे सुन्दर है। सौन्दर्य कला के लिए सत्य का प्रधान रूप है। जैनेन्द्र के अनुसार सौन्दर्य हमे इन्द्रियो से प्राप्त होता हे और सुन्दर, शिव के उप रात सत्य वह सौन्दर्य है, जो आस्था मे ही उद्धत है अर्थात् अगर सत्य हमको प्रारथा मे सुन्दर न प्रतीत होता हो तो सत्य रहेगा ही नही । सुन्दर जिसे हम कहते है वह सामने ही है। वस्तुत जैनेन्द्र की दृष्टि में साहित्यिक सत्य का सौन्दर्य से युक्त होना अनिवार्य है। उनकी दृष्टि मे सूक्ष्म सत्य अथवा गेय सत्य या मार्थक सत्य कला के सिंहासन पर नहीं है । साहित्य के सिहासन पर ता सत्य सुन्दर होकर ही जाने वाले है।
साहित्य में सत्य उपन्यास तथा कहानी की घटना मे निमृत एव गुढ होता है। घटना ही सत्य को मुखरित करने वाली वाणी है। घटना दीखती है, सत्य को उसमें ढूढना पता है । इम एण्टि से जैनेन्द्र के माहित्य का अवलोकन करने पर उनके विचारों की पूर्णत पुष्टि प्राप्त होती है। जैनेन्द्र के साहित्य का पाकर्षण उनकी सत्याभिव्यक्ति मे ही समाहित है। सत्य और वास्तव
जैनेन्द्र के साहित्य में सत्य के स्वरूप का विवेचन करने से पूर्व उनकी दृष्टि मे सत्य और वास्तव का अन्तर जान लेना भी अनिवार्य है । स्थूलत सत्य और वास्तव टूथ और फैक्ट के समानार्थी प्रतीत होते है। किन्तु शब्द सकेत मात्र है। अर्थ पीर भाव शब्द की गहराई में ही प्राप्त होता है । जैनेन्द्र के अनुसार उपन्याग रचना का लक्ष्य सत्य की शोध करना है। रचना द्वारा 'स्व' की पुष्टि करना ही पर्याप्त नही है. वरन् उसके द्वारा समष्टि को सत्य की दिशा मे देना आवश्यक है। वारतव यथार्थ से सम्बद्ध है। 'वास्तव पर सत्य की सीमा नही है । वास्तव में परे भी सत्य है, इसलिए हमारे वास्तव की सीमा हमारी ही सीमा है, सत्य तो प्रमीम है। वास्तव है 'फैक्ट' और सत्य है 'ट्र थ' । जैनेन्द्र का आदर्श वास्तव से गत्य की ओर उन्मुख होना है। वास्तव सत्याभिव्यक्ति
१. जैनेन्द्र से गाक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार । २ जनेन्द्र कुमार · साहित्य का श्रेय और प्रेय' ।। ३, उनकी अभिलाषा वास्तव में नही हो सकती। उपन्यास का हार्द सत्य है, फेवन उसका शरीर वारराव में है। 'जीने के लिए शरीर चाहिए, पर वह आरमा क मन्दिर प म हो।'
जनेन्द्रकुमार : 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', पृ० सं० १७० ।
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जैनन्द्र का जीवन-दशन
का आधार है। जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे वास्तव का जो रूप स्वीकार किया है वह जीवन की यथार्थ भावनाप्रो और स्थितियो का उद्घाटन करने मे समर्थ है। उन्होने अपने जीवन मे आस-पास की घटनाओ और स्थितियो की सच्चाई को अपने साहित्य मे अभिव्यक्त किया है। उन्होने यथार्थ स्थिति को ज्यो-का-त्यो ही नही चित्रित किया है, वरन् स्थिति के मूल में निहित सत्य को उघारने की चेष्टा की है । जैनेन्द्र का समग्र साहित्य इस तथ्य का प्रमाण
है।
जैनेन्द्र-साहित्य का मूल्य सत्य
जैनेन्द्र के साहित्य का मूल सत्य जीवन की चिरन्तन स्थितियो को लेकर ही अभिव्यक्त हुआ है। जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति सामाजिक मर्यादा के भय से अपने अन्तस् के सत्य को स्वीकार करने मे अक्षम होता है। उसमे इतना साहस नही होता कि वह अपनी प्रकृति को स्वीकार कर सके । सत्य के अस्वीकार मे व्यक्तित्व मे नाना विकृतिया उत्पन हो जाती है, जिन्हे वह अपने साथ चिपटाये हुए जीता रहता है । जैनेन्द्र की दृष्टि से व्यक्ति का तीन चौथाई भाग भीतर है और एक चौथाई बाहर है । हम उस एक चौथाई को ही देखते है, किन्तु जो कुछ दिखता है, सत्य वही नही है । सत्य भीतर यात्मगुहा मे निमृत है । अतएव व्यक्ति जीवन की पूर्णता के हेतु सत्य की सम्पूर्णता का ज्ञान और उसकी स्वीकृति अनिवार्य है। व्यक्ति के अन्तस् में काम और प्रेम के भाव विद्यमान होते है। जिनकी अभिव्यक्ति करने मे वह भय की जडता से बधा रहता है।
काम सृष्टि का नियम है । जैनेन्द्र के अनुसार 'सेक्स में' से सृजन है, सृष्टि मैथुनी है, किन्तु यह समस्या भी है । समस्या सेक्स मे से नही, मिथुन में से प्राप्त होती है । मिथुन मे से भगवतस्वरूप शिशु प्राप्त होता है और मिथुन मे से ही पाप का दबाव भी उपजता है। इसीलिए उनकी दृष्टि मे साहित्य के समक्ष यही ध्रुव पहेली है और यही चुनौती है, जिसके उत्तर में साहित्य-रचना हो सकती है। वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य के सम्बन्ध मे सारा भ्रम एकमात्र इसी समस्या को लेकर ही उठता है । उनके साहित्य मे काम और प्रेम की स्वीकृति एक ऐसी जाटिल पहेली है जो सदैव अस्पष्ट ही बनी रहती है। __ जैनेन्द्र के साहित्य मे काम और प्रेम की समस्या को साहित्य में एक नवीन प्रयोग माना जाता है, किन्तु जिसे हम प्रयोग समझते है, वह सत्य ही है । प्रयोग
१ जैनेन्द्रकुमार 'समय, समस्या और सिद्धान्त' (अप्रकाशित)।
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जैनेन्द्र और सत्य
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परम्परा गे एक पडी है, किन्तु सत्य तो सनातन है। यो सत्य का स्वरूप भी परिवर्तनीय हो गकता है, किन्तु स्वरूप के परिवर्तन से आत्मा की स्थिति में कोई अन्तर नही पाता। जैनेन्द के साहित्य में काम और प्रेम को सत्य के रूप मे स्वीकार किया गया है। अतएव उनकी रचनाओ में गर्भित काम और प्रेममूलक सत्यता को जानना अनिवार्य है। यद्यपि पचम परिच्छेद में उपर्युक्त तथ्य की ओर इगित किया गया है, तागि जनेन्द्र के साहित्य में सत्य का विश्लेषण करते हुए उनकी समग्र पिट का विवेचन अनिवार्य प्रतीत होता है । जैनेन्द्र ने जीवन की विविधता म प्रेममूलक सत्य की ऐसी एकसूत्रता की सृष्टि की है, जिसमें समस्त पार्थक्य प्रेम द्वारा उद्भुत ऐनय में विलीन हो जाता है। जैनेन्द्र के अनुसार मानव जीवन का सार हृदयगत पीडा मे निहित है। पीडा अथवा व्यथा ही वह पूंजी है, जिसे अपने में समेटकर जीवन सार्थक हो जाता है । पीडा मे प्रेम का रस है। जैनेन्द्र के अनुसार जीवन मे ‘परम दुख' का क्षण ही परम सुख का क्षण है। जिस क्षरण हम अत्यधिक त्रास पा रहे होते है, उसी समय मानो रस की परम अनुभूति होती है। अतएव दुख मे ही जीवन का स्वाद है। पीडा विरह उद्भुत है। विरह मे ही प्रेम का आकर्षण है। प्रेम में प्राप्ति अथवा दायित हा गाव न होकर विसर्जन का भाव होता है। प्रेम गे काम अन्तर्भूत हैनाम की स्पीति में ही प्रेम की पूर्णता है। पूर्णता अर्थात् सत्य की प्राप्ति के मार्ग में हर कदम अपनी सार्थकता रखता है। प्रेम की पूर्णता के मार्ग में काम की स्वीकृति अनिवार्य है। जैनन्द्र ने स्पष्टत स्वीकार किया है कि 'प्रेम समग्र होकर इन्द्रियो गे स्वतन्त्र या इन्द्रियातीत हो जायेगा । फिर वहा प्रतिस्पर्धा का सवाल ही पो रहना चाहिए ? पति पत्नी सम्बन्ध सामाजिक है, इन्द्रियावलम्बी है, प्रेम भरपूर होते होते इतना अधिक हो जाता है कि पालम्बन की उसे आवश्यकता नहीं रहती। अतएव प्रेम की पूर्णता के लिए इन्द्रियो को मार्ग रूप में स्वीकार करना अनिवार्य है। जैनेन्द्र के अनुसार प्रेम में तीखापन आने से ही प्रतीन्द्रियना नहीं प्राप्त हो सकती। अतीन्द्रिय प्रेम मे शरीर को और इन्द्रियो को कृतकामता अनुभव होनी नाहिए।
जैनेन्द्र ने अपने साहित्य में सत्य को सहर्ष स्वीकार किया है । सकोच अथवा लज्जा के कारण तिरस्कार नही किया है। उनके साहित्य मे दृष्टिगत प्रेम के मूल में गरीर और आत्मा की पूर्णता ही दृष्टिगत होती है। जैनेन्द्र के अनुगार यह प्रामचेष्टा प्रत्येक काम और भोग मे से अतृप्ति ही बनी चली जाती है। अनवरत प में इरा स्थिति से गुजरती हुई वह पाती है कि उपलक्ष्य फिर
१. जनेद्र कुमार काग, प्रेम और परिवार', पृ० स० १०० ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
लुप्त ही बना रह गया है। इस स्थिति मे से ही एक दिन काम को अकाम हो जाना हे । वस्तुत कामेन्द्रियो के मार्ग से आत्मोन्मुखता की प्राप्ति सम्भव हो सकती है।
सत्य उत्सर्ग में
जैनेन्द्र के अनुसार भोग अथवा सम्भोग के मूल मे जो दोष है, वह एक का एक से सम्बन्ध होने के कारण ही सम्भव है, यदि एक का सम्बन्ध एक तक सीमित न होकर सर्व मे प्राप्त हो जाय तो उसमे दायित्व का भाव शिथिल पड जायगा । दायित्व मे ही काम की तीव्रता जाग्रत होती है । किन्तु जैनेन्द्र की दृष्टि मे जब एक का एक से अनेक के साथ अभिन्नता का सम्बन्ध हो, तब फिर एक के साथ सम्बन्ध की व्यापकता नही रह जाती। उनकी दृष्टि में अपने को देने और अन्य को पाने मे भोग तो बीज रूप मे रहेगा ही। उसकी सीमितता काम की न्यूनता है, क्योकि वहा एक का एक से सम्बन्ध ही काम प्रेम की अभिव्यक्ति का रूप माना जा सकता है । परन्तु उनकी दृष्टि मे काम ही प्रेम मे बाधा है । प्रेम उत्तरोत्तर अतीन्द्रिय होने के लिए है। जैनेन्द्र के साहित्य मे विवाह मे प्रेम की स्वीकृति की सार्थकता दायित्व को समाप्त करने में ही है। विवाह के द्वारा व्यक्ति यदि एक से बध जाय अथवा ए को अपने 'स्व' से इतना बाध ले कि उसे सर्व तक फैलने न दे तो वह विवाह जकडबन्द हो जायगा । जैनेन्द्र के अनुसार जीवन का सत्य स्वार्थ मे न होकर उत्सर्ग में है। उनकी दृष्टि मे भोग मे 'स्व' की किरकिराहट बनी ही रहती है। प्रासू बहाने मे जितना स्व का लाभ होता है, उतना भोग से नही । भोग मे योग का भाव विसर्जन अथवा प्रात्मोत्सर्ग द्वारा ही सम्भव होता है। जब प्रिय को हम अपनी कामना से मुक्त करते है, तब एक आन्तरिक उपलब्धि होती है। वही सत्य है।
जैनेन्द्र ने काम और प्रेम की समस्या को किसी विवशतावश स्वीकार न करके अपने अन्तस् की माग के कारण स्वीकार किया है । उमकी दृष्टि मे दुख में सुख गभित है। जिस प्रकार हिसा के मूल मे अहिसा का भाव अन्तमूर्त रहता है। काम के सूक्ष्म बिन्दु मे दो व्यक्ति परस्परता मे स्वय को खो देते है। उनकी दृष्टि मे जीवित रहते हुए भी जो मृत्यु का सुख दे सके वही परम सिद्ध है। जो दुख का क्षरण है, वही सुख का क्षरण है । 'अपने मरण' अर्थात् स्वत्व के न होने के भाव से बडा कोई भाव नही है। उस स्थिति मे द्वैत का भाव विलीन
१ जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', पृ० स० ३२४ । २ साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार।
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जैनेन्द्र ओर सत्य
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हो जाता है । जेनेन्द्र की दृष्टि में अद्वैत का क्षरण अथवा बिन्दु ही है जिसके लिए कामाकरण रे सगार मे व्याप्त है । उसी क्षणता के कारण आदमी प्रभाव पूर्वक जी पाता है । जाने-अनजाने उस क्षरण की अनुभूति द्वारा व्यक्ति ग्रह की गलाकर पना स्वास्थ्य प्राप्त करता है। जैनेन्द्र ने अपनी उपरोक्त मान्यता को के दान द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उनकी दृष्टि मे जिस प्रकार का को सूली पर चढने के समय भी परम सुख का अनुभव हुआ होता है, अपने शरीर पर प्राप्त होने वाली यातना मे भी उन्हे परम सुख की अनुभूति होती है। वह क्षरण उन्हें अपनी धन्यता तथा जीवन की सार्थकता का प्रतीत होता है । उनी प्रकार कामाकरण में परम पीडा का क्षरण ही, परम धन्यता का क्षण है । पि वे यह स्पष्टत स्वीकार करते है कि धन्यता का क्षण टिकता नही है, यही कारण है कि उसके प्रति आकर्षण बना रहता है किन्तु जब व्यक्ति की अनुभूति स्थायित्व ग्रहण कर लेती है, तब उसे आत्मिक सुख मिलता है और उस क्षरण की पुनरावृत्ति स्वत. ही निरर्थक हो जाती है । जैनेन्द्र की अति में 'स्व' के विसर्जन का यह मार्ग स्वत ही ग्रात्मोन्मुखता अथवा भगवत्प्राप्ति का प्रानन्द प्रदान करने में सक्षम होता है। इसीलिए जैनेन्द्र ने अपनाना के जीवन में प्राप्त होने वाले प्रचलतम श्राकर्षण के क्षरणो का निषेध नहीं किया है। 'एक रात' में जयराज सकल्पपूर्वक चलता है और एक बिन्दु का आकर्षण र पूर्वक अस्वीकार करना चाहता है, किन्तु उस बिन्दु का आकर्षण उसपर इतना हावी हो जाता है कि वही जीतता है और जय का सकल्प हारता है । जैनेन्द्र की हृष्टि में सकल्प के विरोध मे दृष्टिगत होने वाला पाप भी सत्य की स्वीकृति के मार्ग मे, उसकी स्थापना मे स्वत ही निर्मल हो जाता है। सुदर्शना के पति के घर से आने में जो पाप का शष्टिगत होता है वह गत्य में नहाकर पविन हो जाता है । प्रतत अर्थात् सुदर्शना की जय होती है और सकल्पपूर्वक चलने वाला जय पराजित होता है। जैनेन्द्र की ष्ट म पाप वह है जिससे व्यक्तित्व का कुछ अश पीछे हट रहा हो, किन्तु जहा सहज भाव से समग्र समर्पण की स्थिति हो, वहा चित्त मे विकार प्रथवा उत्तेजना नही आती । चित्त पर जोर तभी पडता है, जब दुराव का भाव मन में बना रहता है। जैनन्द्र की दृष्टि से पाप यदि कुछ है तो झूठ है। ग में बुराई नही हो सकती। उनके अनुसार सत्य के सामने झूठ कोकना ही पड़ता है। इस सबंध में उन्होने स्पष्टता से स्वीकार किया है कि 'अवार्ड गुझे मनाई में गर्भित दीखती है, इसीलिए अच्छा की जगह गच्चा
पाप
१. साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
होना मुझे ईष्ट है। सच्चा होकर कोई बुरा भी निकले तो मुझे असह्य न होगा। उत्टे झूठा होकर कोई शिष्ट, सभ्य, सम्भ्रान्त, शान्त आदि दिखे तो मेरी सह्यता टूटने लग जाती है। जैनेन्द्र के साहित्य मे सत्य छल मे नही है।
जैनेन्द्र के साहित्य मे सत्य को समझने के लिए उनकी रचनाओ मे सत्य का वास्तविक रूप देखना अनिवार्य है। कहानी के द्वारा लेखक की सही दृष्टि को प्राप्त करना और उसके आधार पर ही निर्णय प्रस्तुत करना आवश्यक है। प्राय जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त सत्य के सही रूप को न जानने के कारण ही उनके सम्बन्ध मे भ्रम उत्पन्न हो जाता है । 'सुनीता' पे लेखक का उद्देश्य पारिवारिक अवसाद को दूर करने के साथ ही हरिप्रसन्न के अवदमित मन के भीतर छिपी हुई सत्यता को भी प्रकाशित करना है, क्योकि आत्म-परिवार अथवा आत्मोन्नति सत्य की स्वीकृति मे ही सम्भव हो सकती है। सत्य के निषेध मे बाह्य रूप से दिखाई देने वाली सारी चेष्टा अर्थहीन सिद्व हो जाती है। हरिप्रसन्न का व्यक्तित्व मनोविज्ञान की भूमि पर ही अभिव्यक्त हुआ है । उसके व्यक्तित्व के सम्बन्ध मे हमारे मन मे एक आदर्श परिकल्पना होती है। उसके विचारो मे हमे सात्विकता के दर्शन होते है, किन्तु अन्त मे उसगी जो प्रतिक्रिया होती है, उसे हम पाप समझते हे और उस स्थिति को अश्लीलता की सूचक मानते है । किन्तु जैनेन्द्र की दृष्टि मे वही सत्य है। जब तक व्यक्ति अपने मन की सच्चाई को स्वत ही स्वीकार नही करता अथवा उसके प्रति सजग नही होता, तब तक उसके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में दिया जाने वाला निर्णय उसके अपूर्ण व्यक्तित्व की प्रतिक्रिया होगा, क्योकि मच्चाई ऊपर नही दिखायी देती। सुनीता के पूर्ण समर्पण के समक्ष हरिप्रसन्न टिक नही पाता। उपन्यास मे उसकी जो प्रतिक्रिया दिखायी देती है, उससे सामान्यत यही प्रतीत होता है कि हरिप्रसन्न अपने इच्छित उपलक्ष्य को प्रत्यक्ष देखकर मानसिक रूप से ही सन्तुष्ट हो जाता है। किन्तु जैनेन्द्र की दृष्टि में सत्य इससे परे है। ऊपर से आदर्श प्रतीत होने वाले व्यक्ति के अन्तस् की सच्चाई को कोई नही जानता, इसी सहारे वह दुनिया की आखो मे आदर्श प्रतीत होता है, किन्तु यदि उसे पता चल जाय कि लोग उसके भीतर की सत्यता को जानते है तो वह उनसे दृष्टि न मिला सकेगा, ठीक यही स्थिति हरिप्रसन्न की होती है। जैनेन्द्र के अनुसार---'आदमी का दर्पण मे अपना ही चित्र मिल जाय तो वह एकाएक सभल जाता है। अपने सबध में जितना भी आत्म सम्मान का भाव है--उसकी रक्षा के लिए वह लौट जाता है । सुनीता हरिप्रसन्न को चुनोती
१ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र 'प्रतिनिधि कहानिया', पृ० ३६६ ।
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जैनेन्द्र और मत्य
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देती है कि क्या तुम चाहते हो, लो---और हरिप्रसन्न सोचता है कि क्या में यही चाहता है और यह सोच कर उसके आत्मसम्मान को जो अपने लिए वह रखता था, उसे ठेस पहुचती है । उसे उद्दिष्ट की नग्नता मे अपना चित्र कामुक दिखायी देता है और प्रपनी कामुकता के चित्र को देखकर विपर्यस्थ हो जाता है। जैनेन्द्र के अनुसार भोक्ता की स्थिति मे द्रष्टा मिट जाता है, पर द्रष्टा जाग्रत हो जाय तो भोक्ता का आधिपत्य समाप्त हो जाय । सुनीता की नग्नता के दर्पण मे हरिप्रसन्न अपने ही कामुक कप का द्रष्टा बन जाता है। इस प्रकार जैनेन्द्र की दृष्टि में प्रेम अपने-आप में ही प्रौषधि हे । शुद्ध प्रेम मे से स्वत ही उसका समाधान मिल जाता है । यदि सुनीता मे इतना गहरा आत्मविश्वास न होता, जिसके सहारे वह हरिप्रसन्न के समक्ष सच्चाई को प्रकट कर सकी थी तो सम्भवत हरिप्रसन्न का दमित मन जिन मार्गों से अपनी तुष्टि करता, वह सुनीता के सतीत्व को भी अपने मे लपेट लेता, किन्तु सत्यता जब सहज बन जाए तब समस्या उठने की सम्भावना नही रह जाती । प्रेम का समग्र और सहज होना अनिवार्य है ।
प्रेम : समग्र और सहज
जैनेन्द्र के अनुसार प्रेम की पूर्णता वही है, जहा समग्रता और सहजता है। सेक्स के प्रति जुगुप्सा का भाव सात्विक आनन्द की सृष्टि करने में असमर्थ होता है । उपन्यास और कहानियो मे दृष्टिगत सैक्स के प्रति यदि लेखक मे अनादर का भाव नही है, उसे हीन अथवा तिरस्कृत नही माना जा सकता । 'ग्रामोफोन का रिकार्ड' मे लक्षित काम भाव के प्रति लेखक मे अनादर का भाव नही है । इसलिए उसे पाप अथवा घृणा की दृष्टि से नही देखा जा सकता। पूर्ण कहानी मे जो सत्य निश्रत है, उसे 'काम' के आधार पर अवहेलनीय नही समझा जा सकता। कहानी की विजया के प्रति लेखक की पूर्ण सहानुभूति है। विजया के द्वारा जो अघटित घटित होता है, उसमे दोष नही है। स्त्री होने के नाते उसमे मातृत्व की प्रबल आकाक्षा है किन्तु पति की असमर्थता के कारण उसका मन आन्दोलित होता रहता है । उसे अपना स्वत्व बोझ स्वरूप प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति में उसके घर आने वाले व्यक्ति के प्रति जो आकर्षण दृष्टिगत होता है, वह स्वाभाविक ही है। किन्तु घडी की 'टन्न' की आवाज उसकी चेतना को जागरूक कर देती है और वह अपने किए पर प्रायश्चित करने के लिए पति को छोड़कर चली जाती है। पति से दूर रहकर वह अपने को कष्ट ही देती है।
१. गाक्षात्कार के अवगर पर प्राप्त विचार ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
इस प्रकार उपरोक्त कहानी मे ढूढने पर भी अश्लीलता की झलक नही मिलती । जो कुछ भी है, सच्चाई मे से ही होता है । जैनेन्द्र के अनुसार अश्लीलता शरीर के स्पर्श मे न होकर व्यक्ति की भावना में निहित होती है ।
जैनेन्द्र की दृष्टि मे मन का कुछ ही भाग हमारी समझी जाने वाली इच्छाओ और वासनाओ से जुडा रहता है । अधिक भाग तो उसका पीछे ग्रात्मा से कहा जा सकता है । इस प्रकार अन्तत अन्तर की सत्यता और पीडा से ही उद्भूत होता है ।
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अन्तर्भूत पीडा
जैनेन्द्र के साहित्य का परम सत्य उनके पात्रो के अन्त में निहित पीडा अथवा व्यथा ही है । उनकी समस्त चेष्टाओ के मूल मे उनकी अन्तशचेतना का
वेग ही समाहित है, जो हमे जैनेन्द्र के साहित्य की अश्लीलता प्रतीत होती है, वह पीडा की पूजी से सहज ही पावन हो उठती है । जैनेन्द्र के साहित्य मे पीडा की गहनता ही तो हे जो घनीभूत होती हुई जीवन को स्निग्धता और प्रभविष्णुता प्रदान करती हे । बाह्य रूप मे दृष्टिगत वासना तो प्राणिक ही है, पूर्णता तो ग्रन्तस् की व्यथा के योग से ही प्राप्त होती है । व्यथा, विरह की ही उपलब्धि है । जैनेन्द्र के साहित्य में प्रेम प्रधान है। प्रेम प्राप्ति में न होकर अप्राप्ति में ही दृष्टिगत होता है । इसलिए जैनेन्द्र स्वीकार करते है कि 'हर श्रादमी उसका है, जिसको वह कभी प्राप्त नही कर पाता । यह प्रेम सघन होतेहोते अपने आधार प्रधेय को प्रतिक्रमिक कर जाता है अर्थात् वैयक्तिक होकर ही निर्वैयक्तिक बना रहता है ।' जैनेन्द्र के साहित्य में 'जीवन प्रारण का मूल गुरण सुख और शान्ति नही है । वह तो बेचैनी और व्यथा है ।" जैनेन्द्र की रचनाओ मे यत्र-तत्र जब कभी त्रास देने का भाव दृष्टिगत होता है, तो वह केवल देखने मे ही आता है । एक ओर से त्रास और दूसरी ओर से सहनशीलता मे विरोध और दूरी न होकर और भी सघनता होती है । जैनेन्द्र के अनुसार - 'जो जैसा दीखता है वैसा नही भी है यानी कष्ट बिना किसी को इष्ट नही है, जो इस प्रकार कष्ट कर व्यवहार करता है वह गहरी बेबसी के कारण । वह व्यवहार उचित है, सहन का यह मतलब नही । आशय इतना ही है कि उस व्यवहार पर ही क्षमा प्रौर करुणा की वृत्ति ही सम्भव नही है, स्नेह भी सम्भव है और वह उचित भी है ।" उपरोक्त विचारो की यथातथ्य हमे 'विवर्त' में प्राप्त होती
१ जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', पृ० स० ५४२ । २. जैनेन्द्र कुमार 'काम, प्रेम' और परिवार, पृ० ८८ ।
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जैनेन्द्र और सत्य
है। प्रेम की प्राप्ति के अभाव मे जितेन का व्यवहार इतना प्रतिबियात्मक हो जाता है कि वह अपनी प्रेमिका भुवनमोहिनी के वैवाहिक जीवन के सुख को देखकर व्यग्यात्मक बौछारे करने लगता है । इस प्रकार वह उसे चोट देकर अपने भीतर की ज्वाला को शान्त करता है । जितेन के द्वारा होने वाली समस्त विस्फोटक और भान्तिकारी प्रक्रिया एकमात्र प्रेम की अप्राप्ति का ही परिणाम है। उसके मूल मे अप्राप्ति जनित पीडा हे । पीडित व्यक्ति अपने प्रिय को ही प्रताडित कर गकता है, इसी मे उसे सतोष होता है । जितेन भूवनमोहिनी को जगल मे ले जाता है और निर्जन वन मे झोपडी मे डालकर उसके साथ बहुत ही बर्बरतापूर्ण, अमानवीय व्यवहार करता है । किन्तु, बदले मे भुवनमोहिनी उसके चरण छूने के लिए ही झुकती है। भूवनमोहिनी के प्रति जितेन के व्यवहार को देखकर यह कहा जाता है कि 'किसी स्त्री का इतना अपमान नही किया गया, जितना जैनेन्द्र ने किया है।' किन्तु जैनेन्द्र इसी सन्दर्भ मे अपने विचारो को स्पष्ट करते हुए कहते है-'कि स्त्री को मैने इतनी ऊचाई दी है कि जो उसे त्रास दे रहा है, उसके मूल को वह देखती है, और उसके प्रति उसमे अनुकम्पा का भाव है । अनुकम्पा के भाव से द्रवित है 'जो इतना गहरा त्रास पा रहा है, उगे पासपो से अपनाया जा सकता है।" परिणामस्वरूप भुवनमोहिनी जितेन द्वारा दी गई यातना को सहर्ष स्वीकार करती है और त्रास देने वाले की विवशता को जानकर उसका हृदय किसी भी प्रकार का प्रतिकार करने मे समर्थ नही हो पाता । मोहिनी जितेन को प्रेम और सहानुभूति देती है । किन्तु जो वह चाहता है, (भोग) उमे वह नही दे पाती । जैनेन्द्र की दृष्टि मे 'प्रेम को वह (भुवनमोहनी) अस्वीकार नहीं करती, परन्तु दूसरी चीज (भोग) को अवकाण नही देती । उसका व्यवहार बडा धुधात्मक हो जाता है । रुग्ण को ममता देती है, परन्तु उद्धत को प्रोत्साहन नही देती । परिणामत अतृप्त का व्यवहार ध्वसात्मक दिनायी देता है, किन्तु मूल मे व्यथा है, अप्रेम नही । अन्तिम परिणति प्रेम और समर्पण मे ही होती है, जो कुछ होता है अज्ञात रूप से होता है, इसीलिए जितेन कहता है-''"जहर मुझमे था सब तो यही जानते थे कि वह आजादी का, क्रान्ति का, विश्व की शान्ति का काम कर रहे हैं। यह मैंने उन्हें बताया था लेकिन भीतर मैं ही यह खुद नही जानता था वे लोग यह जानते थे और मानते थे। मैं जानता भी नही था, मानता भी नही था । अपने शब्द से मैं अलग था।' स्पष्ट है कि जितेन मे जो कुछ दिखाई देता है वह
१ जैनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार । २. साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
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जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन
सत्य नही है । उसके दल के लोग उसे नेता समझते थे किन्तु उसके मन के जहर को कोई नही जानता था, जो सच था। फिर असत् घटित होता है, वह क्यो? यही प्रश्न उसके अन्तस् को झकझोरता रहता है । जितेन कोठरी की नगी ईट की फर्श भुवनमोहिनी को सोने के लिए देता है, कम्बल का अोढन
ओर बिछावन देता है । परन्तु वह यह नही जानता कि यह सब सच नही था, तभी तो उसके मन मे प्रश्न उठता है कि 'नही ही कैसे हो जाता है ।' व्यक्ति शैतान कैसे बन जाता है । सब के मूल मे कुछ और ही है, किसके कारण अतिशय प्रेम के प्रति भी बाह्य रूप मे घृणा दिखायी देती है। किन्तु घृणा सत्य नही है सत्य तो अपने मन की सच्चाई को प्रकट करने मे है । अन्तत जितेन की दृष्टि मे जो सत् है, वह समर्पण मे ही है । जेल मे रहकर ही वह अपनी अह से मुक्ति प्राप्त कर पाता है और अपनी सच्चाई को भुवनमोहनी के समक्ष प्रकट कर देता है। मोहिनी प्रारम्भ से ही सच्चाई से अवगत रहती है, इसीलिए उसके व्यवहार मे सहानुभूति ही झलकती है, तिरस्कार का भाव नही आ पाता। वह जानती है कि बुद्धि के बल से सच को दबाया नही जा सकता। दमन मे झूठ ही झलकता है । सत्य स्नेह है। उसकी दृष्टि मे स्नेह नाते खोजता है । इसका, उसका, सबका उसे सग चाहिए । वह अपने मे नही है, अन्य मे होकर ही है। सब सम्बन्ध अन्त मे बन्धन ही तो है । स्नेह उन बन्धनो को रचता और फैलाता है। इन्ही तारो से वह हमे यहा बाधता है कि एकाकी होकर हम सूख न जाय । किन्तु सत्य और स्नेह का योग बहुत कठिन है, पर सत्य वही है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे स्नेह व्यक्ति का जीवन है, तो सत्य उसका जीव्य है । व्यक्ति के भीतर का अपरूप और द्वन्द्व कदर्प बाहर प्रकट होने के लिए है । दमन मे सहजता नही है । जो सहजता मे है, सत्यता मे है, वह सावधानता और चतुरता मे नही है। परस्पर की उपलब्धि नही हो पाती, बद्धि के प्रागल्भ से । हृदय के अनुदान से वह सहज होती है। ___ 'जयवर्धन मे भी सत्य तल मे ही रहता है, अभिव्यक्ति मे नही आ पाता। जय का जीवन जो राजनीति मे दृष्टिगत होता है, वही सत्य नही है, सत्य उससे परे है । इला जय के सम्बन्ध मे कहती है-'लोग राजनीति में उन्हे जाने वह जानना नही है। वह सतह का है और बाहरी है..।' इला के अन्तस् की पीडा बाह्य रूप मे प्रकट नही हो पाती । वह अपने जीवन मे जय को कर्तव्य की ओर उन्मुख होते हुए ही देखती है किन्तु उसकी व्यथा उसके हर शब्द मे
१ जैनेन्द्र कुमार विवर्त'। २ जैनेन्द्र कुमार 'विवर्त', प० स० १५७ ।
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जैनेन्द्र पार गत्य
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फुटी पडती है वह कहती हे---बीस गाल हो गए है, शायद अधिक...आखेगेरी उठी हे और सामने की आखो मे मैने चाह चीन्ही है । पर तब भी आखे मुद गयी है और मुदी रही है । उगलियो के पोरो मे लालमा लहकी दिखी है, कि वे अब बहेगी। लेकिन नही, नाम के नाप में उन्हे अपनी ही ओर से लिया गया है।...इसी तरह एक दिन, दो दिन, तीन दिन.. हर दिन अगले के इन्तजार में बीतता गया है, पर कुछ नही हुआ है और पच्चीग वर्ष हो गए है...पर आशा टूटती ..शायद ही कि बज़ पिघले ।..' इला का प्रत्येक शब्द नारी हृदय की उग पीला की अभिव्यक्ति मे समर्ण है, जिसमे वर्षों की प्यारा छिपी हे और नारी की सबसे बडी कामना मातृत्व की चाह भी तो हो सकती है। इला जय के निकार रहते हुए भी विरह की वेदना को सहन करने में ही अपनी कृतार्थता समझती है। उसके भीतर अभावजन्य एक गहन पीडा की सिस्कन बनी रहती है। उराक अन्तस् मे प्रेम है । इस कारण वह वियोग सहने में भी समर्थ होती है। यदि प्रेम ही सभव न होता तो उसके व्यक्तित्व मे इतनी गहराई नही आ सकती थी। जैनेन्द्र ने एक ग्थल पर स्वीकार किया है कि अभ्यन्तर में यदि स्वीकृति हो, तो.. तब बाहरी वियोग का भार उठाना कठिन नही होता, बल्कि सल्ले प्रिय ही हो जाता है।.. प्रेम स्वय अपनी व्यथा सहना मिखाता है।' विरह मे महनशक्ति ही प्रेम को जीवन्त बनाए रखती है।
जैनन्द्र के साहित्य में नारी पात्रो की सहनशक्ति का अद्वितीय रूप प्राप्त होता है। 'त्यागपन' की मृणाल और 'कल्याण' मे कल्याणी का जीवन मानो पीडा की गाकार प्रतिमूति ही है। कल्याणी का व्यक्तित्व आरम्भ से ही इतना उलझा हा है कि गत्यता प्रयत्नपूर्वक भी ग्राह्य नहीं हो पाती कारण, प्रेम की पीडा उनके अन्तस् मे इतनी गहराई से बिधी हुई है कि वह किसी क्षण भी उसमें मुका नहीं हो पाती । वह जानती है कि उसके जीवन मे कुछ अनवाहा घटित हो गया है, जो उसके भीतर की शान्ति को भग किए रहता है। कल्याणी द्वारा लिखे गए एक लेख में उसके अन्तर्द्वन्द्व की पूर्णाभिव्यक्ति होती है । वह प्रेम को सर्वस्व मानती है किन्तु प्रेम की महत्ता प्राप्ति मे नही है । वह कहती हे 'प्रीति इतनी रीति है भारती, प्रसाद है उसका वियोग ।'५ 'गवार' कहानी में भी इसी शक्ति की अभिव्यक्ति हुई है।' जैनेन्द्र की मान्यता है कि
१. जैनेन्द्र कुमार , 'जयवर्धन', पृ० १३३ । २ जैनेन्द्रकुमार . 'कल्याणी', पृ० ८२ । ३. जैनेन्द्रकुमार : जनेन्द्र की कहानियां', भाग ६, पृ० २०५ । 'वह प्रेम भयावह है जिसमें प्रभाव नही, तृप्ति है,-वह तभी घृण्य हो उठता है।'
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
उनकी भीतर की उस प्राणो की प्रेरणा पाते रहने के कारण वह कार्य बाहरी आकाक्षाओ से मलिन न होगा और इस तरह उलझन पैदा करने के बजाय उसको काटेगा। ___ 'मास्टर जी' कहानी के मूल मे एक गहरा प्रभाव हे जो नोकर के सान्निध्य की ओर आकर्षित होता हे । मास्टर की पत्नी का यह व्यवहार प्राकृतिक और मनोवैज्ञानिक ही है, उसे दोषी नही ठहराया जा सकता । स्त्री मे सदैव मातृत्व तथा त्रास पाने की प्रबल आकाक्षा होती है। किन्तु त्रास के बदले में मिलने वाले मान में वह अपमान का अनुभव करती है जिस प्रेम में 'चाह की धार' न हो उसे वह अपमान ही समझती है । उसके मन मे अपने ही प्रश्नो को लेकर एक आन्दोलन-सा उत्पन्न होता है और वह घर के उद्धत और जवाब देने वाले नौकर से झीक कर भी भीतर ही भीतर गर्व का अनुभव करती हे . इस नौकर को लेकर अह को तृप्ति मिलती है उसे कुछ अपनी सार्थकता अनुभव होती है। मास्टरानी नौकर के साथ घर छोडकर चली जाती है। पत्नी के वियोग मे मास्टर जी की पीडा-मर्म को झकझोर डालती है। उसका सात्विक प्रेम और विश्वास सत्य से अनभिज्ञ होता है । मास्टरानी दीवाली की रात को लौट आती है और अपने प्रति पति के प्रेम को देखकर उसका हृदय कचोट उठता है। वस्तुत उसकी क्रिया और प्रतिक्रिया दोनो ही स्वाभाविक है।
निष्कर्षत यह अकाट्य सत्य है कि प्रेम मे अथवा प्रेम को लेकर पाप-पुण्य का भेद टिक नही पाता। सारे नैतिक मानदण्ड प्रेम के समक्ष अर्थहीन सिद्ध होते है।
साहित्यादर्श सत्य की स्वीकृति __जैनेन्द्र के साहित्य का आदर्श सत्य की स्वीकृति मे ही पूर्ण होता है। जैनेन्द्र की दृष्टि में 'सत्य बडी चीज है । उससे बड़ा धर्म नही है। निष्पाप तो कोई हो नही सकता है। अपने साथ ईमानदारी बरतने से आगे आदमी का वश नही है।' इस प्रकार सत्य की स्वीकृति मे भीतरी कुत्सा और जुगुप्सा का भाव नही आ पाता । उनकी दृष्टि में सच मर्यादा में नही पाता। ऊपर से लादी हुई नैतिकता बाह्य रूप मे आदर्श तो प्रतीत होती है पर उसका अस्तित्व निर्जीवता के साथ ही सम्भव होता है और ऐसे नैतिकता प्राप्त समाज के अन्दर
१ जैनेन्द्रकुमार 'कल्याणी', पृ० स० ८२ । २ जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र की कहानिया', भाग ४, पृ० १७ । ३ जैनेन्द्रकुमार 'मुक्तिबोध', पृ० स० २८ ।
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जनेन्द्र प्रोर गत्य
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पाप का मल ओर गडाध रहती है।'
सत्य जगत-सापेक्ष
बस्तुत गत्य की उपलब्धि जीवन और जगत की स्वीकारता मे ही राम्भव हो सकती है। व्यावहारिक अथवा स्थूल शक्ति को प्राप्ति के लिए द्वैत का भाव अनिवार्य है। 'स्व', 'पर' के दो तटो के मध्य ही जीवन की सार्थकता है । ससार में दुर जाकर रहने म स्व-मलका भाव की पुष्टि होती है। 'पर' की नही, किन्तु 'स्व', 'पर' के प्रभाव में स्व केन्द्रित होकर विस्तारशून्य हो जाता है। जैनेन्द्र का विश्वास है कि शरीर रहते असागारिक होने की आशा अनावश्यक है। 'समार यदि भगवान का हे तो सासारिक होना भगवद्रोह क्यो ? यदि भगवान नही है तो फिर समार ही नही। इसलिए सराार और भगवान को विरोध की भाषा देकर टकराने से कोई लाभ नही दीखता।'
मनेन्दगार, 'अगवन', पृ. ७७ । २. जैनेन्द्रकुमार : 'काम, प्रेम और परिवार', पृ० सं० ३६ ।
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परिच्छेद–१०
जैनेन्द्र : जीवन का संश्लेषणात्मक दृष्टिकोण
दर्शन अखण्डता बोधक
जैनेन्द्र का साहित्य दार्शनिकता से अनुप्राणित है । उनकी साहित्यिक प्रक्रिया जीवन के सश्लिष्ट रूप का ही प्रतिनिधित्व करती है । 'दर्शन' का अर्थ ही है 'देखना' । किन्तु दार्शनिक दृष्टि तथा सामान्य दृष्टि मे अन्तर है। सामान्यरूप से व्यक्ति वस्तु या स्थिति के स्थूल और आशिक रूप को देखकर ही सन्तुष्ट हो जाता है। उसकी दृष्टि प्रत्यक्ष को ही देखती है, उसके पार देखने की क्षमता उसमे नही होती । किन्तु दार्शनिक दृष्टि ही नहीं, वरन् सूक्ष्म द्रष्टा भी होता है। उसकी दृष्टि सम्पूर्ण को देखती है । देश और काल की सीमा उसके लिए कोई महत्व नही रखती। वह कालबद्ध चेतना से ऊपर उठने के लिए प्रयत्नशील होता है। इतिहास का सत्य काल मे तद्गत होता है । अर्थशास्त्र, राजनीति, मनोविज्ञान आदि विभिन्न शास्त्र जीवन के विशिष्ट पक्ष पर ही प्रकाश डालने मे समर्थ है । अपने क्षेत्र मे ही उनकी पूर्णता लक्षित हो सकती है। विविध शास्त्र मानो सम्पूर्ण शरीर के अगरूप है । अग का महत्व है, किन्तु एक-दूसरे का अस्तित्व सापेक्षता मे ही स्वीकार्य हो सकता है। मानव जीवन की अखण्डता का बोध कराने वाला एकमात्र दर्शन शास्त्र ही है । दर्शन शास्त्र का कार्य जीवन, जीवन के विशिष्ट पक्ष पर दृष्टिपात करना नहीं है, उसका लक्ष्य तो जीवन को समग्र रूप में देखना है । दार्शनिक मानव जीवन की अतल गहराई मे झाककर सत्य
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जैनेन्द्र जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण
२६१ की अभिव्यक्ति का प्रयास करता है । वह गहराई में जाता हुआ भी सश्लिष्टता का ही समर्थक होता है। व्यक्ति की आत्मगत सत्यता का बोध प्राप्त करने के लिए सत्य को गहराई से जानने के लिए शरीर का विश्लेषण नही करना पडता । दार्शनिक सत्य के बोध के लिए बुद्धि से अधिक सम्बुद्धि का सहारा लेता है। दर्शन द्वारा जीवन को आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त होती है । आध्यात्मिक दृष्टि आस्थापरक है। प्रास्था विश्लेषण की ओर न जाकर सश्लेषण की ओर उन्मुख होती है।
विज्ञान : विश्लेषणात्मक ___आधुनिक युग विज्ञान का युग है । मानव जीवन का ऐसा कोई भी क्षेत्र नही है, जो कि विज्ञान के प्रभाव से वचित हो । साहित्य, समाज, अर्थ, धर्म
और राजनीति आदि विभिन्न क्षेत्रो मे विज्ञान का प्रभाव स्पष्टत लक्षित होता है । वैज्ञानिक अन्वेषक और विचारक सत्य की खोज मे वस्तु की तह पर तह खोलते चले जाते है। अपनी अनन्त जिज्ञासा मे वे सदैव तृषित ही रहते है, क्योकि बौद्धिक जिज्ञासू विश्वास के द्वारा किसी स्थिति पर ठहरता नही है, वरन तर्क के सहारे स्थूल से सूक्ष्म और सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम की ओर बढ़ता जाता है। वैज्ञानिक सत्य को खण्ड-खण्ड में विभाजित करके देखने की प्रक्रिया अपनाता है, किन्तु दार्शनिक अखण्डता और अविभाज्यता मे सत्य को देखने का प्रयत्न करता है। वैज्ञानिक उपकरणो द्वारा जीवन अधिकाधिक सुविधामय होता जा रहा है। किन्तु बाह्य जीवन की सुविधाए आत्मा को परितृप्त नही कर सकती। साहित्य, विज्ञान और दर्शन के मध्य की वह कडी है जो मानव जीवन को व्यावहारिक दृष्टि प्रदान करने में समर्थ है । दर्शन की समग्र दृष्टि का प्ररूपण साहित्य के धरातल पर ही सम्भव होता है । साहित्य मानव जीवन की समग्रता का व्यवहारिक पहलू है।
जैनेन्द्र का संश्लेषणात्मक दृष्टिकोण
जैनेन्द्र की जीवनदृष्टि उनके साहित्य मे पूर्णतः परिलक्षित होती है । साहित्य लेखक के विचारो का ही प्रतिबिम्ब है। जैनेन्द्र के साहित्य की ऐक्यानुभूति उनके विचारो की सश्लिष्टता की ही परिचायक है । उनके साहित्य मे जीवन की आध्यात्मिक पृष्ठभूमि, मनोवैज्ञानिक दृष्टि, साहित्यक विचार और भावगत चेतना के मूल में अखंडता अथवा अद्वैता के ही दर्शन होते है । उनके साहित्य की आत्मा व्यष्टि और समष्टि, अहंता और भगवत्ता, चेतन और अचेतन, यथार्थ वा आदर्श तथा प्राध्यात्म और भौतिकता के ऐक्य का पूर्ण निदर्शन प्राप्त
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२६२
जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
होता है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे भेद अथवा द्वैत, बाह्य और इन्द्रियगत है, किन्तु इन्द्रिया मार्ग है, गन्तव्य अथवा मजिल नही है । मार्ग की द्वैतता सत्य नही है, सत्य तो मजिल है, जहा पहुचना है । द्वैत यथार्थ और जागतिक सत्य होते हुए भी सूक्ष्म सत्य नही है। सार्वभौम दृष्टि से अखण्डता ही एकमात्र सत्य है । जैनेन्द्र के साहित्य का उद्देश्य एक के निषेध द्वारा अन्य को स्वीकार करना नही है। उनके साहित्य मे एक और अनेक के पार्थक्य को मिटाते हुए परस्परता पर भी बल दिया गया है । अद्वैत तथा ऐवय की प्राप्ति का एकमात्र आधार प्रेम है । प्रेम अन्त प्रसूत तथ्य है, अतएव ऐक्यानुभूति भी प्रात्मप्रसूत ही है। अान्तरिक एकता का स्वरूप सहज और स्थायी होता है। ऊपर से लादी हुई एकता मे परस्परता और आत्मता की सहजाभिव्यक्ति सम्भव नही होती। नाना मतवाद विवादमूलक ही है, किन्तु सत्य वाद-विवाद से ऊपर ऐक्य मे ही समाविष्ट है।
अद्वैत चर्चा का विषय नही
जैनेन्द्र की दृष्टि मे द्वैत मे से ही ज्ञान-विज्ञान की प्रगति होती है । सभ्यता भेदमूलक है, सत्य अभेद-मूलक । उनकी दृष्टि मे जीवन की सारी भाषा अर्थात् द्वन्द्व द्वैत मे ही सम्भव है । जैनेन्द्र के अनुसार अद्वैत चर्चा का विषय नही है। अद्वैत के तट पर बुद्धि को तो पहुचा ही नही सकते । इसलिए वे अद्वैत को उस भूमिका के तौर पर रहने देना चाहते है, जिस पर सब सम्भव बनता है। अद्वैत गर्भित ही है। उनके विचार मे जिस प्रकार जिस धरती पर हम बैठे है, वह चर्चा का विषय नही बनती। उसी प्रकार अद्वैत मूलाधार है, वह वाद-विवाद का विषय नही बनती।' उनकी दृष्टि मे अद्वैत पर पहुचना नही होता क्योकि जीवन अनन्त यात्रा है । जानने के प्रयत्न मे व्यक्ति का अभिमत प्रमुख होता है, सत्य गौरण । सत्य सश्लिष्ट है, अतएव जैनेन्द्र जानने के सश्लिष्टरूप की सत्य मे गुजाइश नही मानते । उनकी दृष्टि से सत्य सश्लिष्ट और अभेद है, उसे जाना भी नही जा सकता।
द्वैत से अद्वैत की ओर
जीवन का सत्य अखण्ड है, किन्तु व्यावहारिक जीवन द्वैताश्रित है। व्यावहारिकता, प्रेम, अनुकम्पा यानी अहिसामूलक है । जीवन की सक्रियता प्रेम, दया, प्यार, सहानुभूति आदि के सन्दर्भ मे ही घटित होती है । जैनेन्द्र की दृष्टि
१ जनेन्द्र से साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
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जैनेन्द्र जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण
२६३
मे द्वैत के कारण ही तो जीवन मे गति आती है । अद्वैत क्रियाशून्य है । स्त्रीपुरुष का द्वैत सृष्टि का आधार है । 'स्व' 'पर' का भेद लेकर सृष्टि का विकास सम्भव होता है । तथापि द्वैत मध्य की स्थिति है, अन्त नही है । जैनेन्द्र के साहित्य का अवगाहन करने से विदित होता है कि जीवन की धारा दो तटो के मध्य प्रवाहित होती है । परन्तु तटो का द्वैत ही सत्य नही है । अतिम स्थिति अद्वैत में ही प्राप्त होती है । जैनेन्द्र के साहित्य मे इस सत्य की स्पष्ट अभिव्यक्ति प्राप्त होती है। 'जयवर्धन' मे सत्य का सश्लिष्टरूप स्पष्टत दष्टिगत होता है।
जीवन अखण्ड . इकाई ___ जीवन सश्लेपण का तात्पर्य जीवन की समग्रता का बोध कराना है । जैनेन्द्र के अनुसार सत्य का स्वरूप काट-छाट के मार्ग से कही भी उपलब्ध नही हो सकता । उन्होने अपने साहित्य मे समग्र जीवन की अभिव्यक्ति की है। समग्रता में भलाई और बुराई, महानता और तुच्छता, आदर्श और यथार्थ सभी समाविष्ट है । जीवन की वह अभिव्यक्ति सच्ची नही है, जो कुछ को छोड़ती और कुछ को अपनाती है। उनका यह दष्टिकोण पूर्णत सत्य प्रतीत होता है, क्यो कि जिस प्रकार २४ घण्टे का दिन पूरी इकाई है । यदि सूर्य के प्रकाश में दिन को हम अपने लिए उपादेय माने और रात्री के अधेरे को तिरस्कृत कर दे, तो ऐसा सम्भव नही हो सकता । दिन की पूर्णता मे रात्रि और दिन गभित है। इस दृष्टि से जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त व्यक्तित्व की पूर्णता सहज और सत्य है । उन्हे चाहे हम चर्चा मे ले अथवा न ले किन्तु उनका अस्तित्व नही मिट सकता । जीवन पूर्ण इकाई है, उसके कुछ अशो के सत्कार और कुछ के तिरस्कार द्वारा तिरस्कृत वस्तु या व्यक्ति का निषेध ही सम्भव हो सकता है। जैनेन्द्र में जो कुछ भी दृष्टिगत होता है, वह सत्य के कारण ही है । जैनेन्द्र के अनुसार सत्य से बहिर्गत कुछ भी नही है । होने मे ही सत् का भाव समाहित है।
काल-खण्ड
जैनेन्द्र के साहित्य में एक मात्र अखण्ड सत्य की स्वीकृति पर ही बल दिया गया है। देश और काल मानव निर्मित किसी परिमित आयाम से परिबद्ध नही है। काल अनन्त है । भूत, वर्तमान और भविष्य सभी उसकी अनन्तता में समाहित हैं। बाह्य रूप में सुविधा हेतु दिखायी देने वाली कालगत सीमा शाश्वत नही है । बीते क्षण और भावी क्षण के बीच कोई विभाजन-रेखा नही
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
है ।' जैनेन्द्र की दृष्टि मे हर बीता हुआ क्षरण भी पुराना है और आने वाला क्षरण नवीन है । जीवन का सत्य काल से बंधा हुआ नही है, वह तो सर्वकाल व्यापी है । उनकी दृष्टि मे काल से तद्गत होकर चलने वाला साहित्य शाश्वत और 'सनातन नही हो सकता।' इसीलिए वे साहित्य के सम्बन्ध मे नये पुराने अथवा आधुनिक और प्राचीन के भेद को स्वीकार करने के पक्ष मे नही है । क्योकि काल की अनन्तता मे कुछ भी नया पुराना नही है । स्थूल रूप से दृष्टिगत होने वाली घटना ही पुरानी होती है, उसमे व्याप्त सत्य सदैव एक ही रहता है । साहित्य का आदर्श घटना के माध्यम से सत्य को ही उद्घाटित करना है । जैनेन्द्र के साहित्य कालखण्ड से ऊपर उठने का भाव लक्षित होता है । उनके पात्र यथार्थ से जडित नही है । भावी जीवन की कल्पना पर ही जीवनशक्ति ग्रहरण करते है । साहित्यकार द्रष्टा के सदृश्य भावी सम्भावनाओ पर अपने कथासूत्रो को विकसित करता है । साहित्य - प्रक्रिया इतिहास के सदृश काल के निश्चित आयाम मे परिबद्ध नही है । जैनेन्द्र के साहित्य मे जो हमे प्रयथार्थ प्रतीत होता है वह प्रयथार्थ न होकर सम्भावित भी है । साहित्यकार हजारो वर्षों की बीती घटना को अथवा भावी परिकल्पना को अपने साहित्य मे प्रतिष्ठित कर सकता है। जैनेन्द्र की 'नीलम प्रदेश की राजकन्या' मे मानवीय अनुभूति और सवेदना के सस्पर्श से हजारो वर्ष पूर्व का जीवन वर्तमान की पीठिका पर चित्रित होने में समर्थ हो सका है ।' दिन, माह, वर्ष आदि हमारी परिकल्पनाए है । अन्यथा काल का बोध क्षरण की अनुभूति मे ही होता है । जैनेन्द्र के साहित्य का अवलोकन करने से यह विदित होता है कि काल की गणना मानव निर्मित तथ्य है । विश्वात्मा के निकट वह पल के समान है । 'जैसे हम परकार पैमाने से ब्रह्माण्ड खीचते है, वैसे इतिहास से काल घेरते है, पर समय अनुभूति मे है, चेतना से विलग वह सच्चाई नही । "
१ 'मै काल को विभक्त करके पकडने के खिलाफ हू । जो लोग ऐसा करते है, वे सत्य को जडित करते है । काल तो प्रवाही है । काल के तट पर सत्य अभिव्यक्त होता रहता है। इसलिए काल की अमुक अवधि मे साहित्य की सत्यता को अभिव्यक्त नही किया जा सकता
- जैनेन्द्रकुमार 'कहानी अनुभव और शिल्प । २ ' व्यक्ति का जीवन जितना यथार्थ पर नही, उतना स्वप्न पर टिका है । कहानी, लेखक की ओर इतना बडा यथार्थ है कि उसमे हजारो वर्ष का जीवन जिसके कारण भरपूर बना रहता है ।
- साक्षात्कार के अवसर पर प्राप्त विचार ।
३ जैनेन्द्रकुमार ' जयवर्धन' पृ० स० ७२ ।
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जैनेन्द्र · जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण
२६५ वस्तुत काल को विभाजित करके प्राप्त होने वाला सत्य सम्पूर्णता का प्रतिनिधित्व नही कर सकता।
देश : अविभाज्य ___ काल की अनन्तता के सदश ही देश भी अविभाज्य है पूर्व और पश्चिम की सीमा का निरूपण मानव निर्मित है । मूलत. समस्त ब्रह्माण्ड एक है। इसपर कही से ऐसी कोई रेखा नही खिची जिसके द्वारा यह जाना जा सके कि अमुक स्थान पर एशिया अथवा योरप की सीमा समाप्त हो जाती है। जैनेन्द्र के साहित्य मे इस तथ्य को विशेष रूप से विवेचित किया गया है । देश-विदेश की सीमाए व्यवस्था की दृष्टि से ही उपयुक्त है, किन्तु जब यही सीमा मानवता के हित पर कुठाराघात करती है तब घातक बन जाती है । व्यक्ति मानवीय गुणो का प्रतिनिधित्व न करके विशिष्ट देश अथवा राष्ट्र का प्रतिनिधि होता है । राष्ट्र के साथ 'स्व' और 'पर' का भेद उत्पन्न हो जाता है। 'स्व', 'पर' भेद द्वन्द्वात्मक सिद्ध होते है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे 'राज्य की हदबदी...मानो सहानुभूति के प्रकट सूत्रो को काटे-तोडे बिना नही होती उन सीमा-रेखाओ के आरपार के सम्बन्ध सहज मानवीय नही रह जाते, राष्ट्रीय के नाम पर विषम सदिग्ध बन जाते है । अतएव उनके साहित्य में राज्य से पर चर्चा करते हुए भी व्यक्ति की अखण्डता और अभगता के मूल्यो का निराकरण नहीं किया गया है। जैनेन्द्र के अनुसार जो ब्रह्माण्ड मे है वही पिड मे है । अत राष्ट्र और मानव-हित में अतर नही है। मानव नीति पर आधारित राजनीति ही ऐक्यमूलक हो सकती है, अन्यथा राजनीति का कार्य तो भेद-नीति पर ही चलता है । जैनेन्द्र के उपरोक्त आदर्श की झलक 'जयवर्धन' मे स्पष्टत दृष्टिगत होती है। जय की दृष्टि में पूर्व और पश्चिम दो नही है। उनमे नामगत भेद केवल सूचकमात्र है, अन्यथा दोनों एक है। विलवर हूस्टन के समक्ष भारतीय राजनीति के प्रादर्श को प्रस्तुत करता हुआ जय कहता है-'तुम मुझे पूर्व का कहते हो, पश्चिम क्यो मुझसे अलग है ? पश्चिम का यह मानना ही उसका दोष है ।...पूर्व पश्चिम सकेत भर है, सज्ञा नही है । जय दुनियां मे झाकना नहीं चाहता वह तो पारस्परिक प्रेम को ही महत्वपूर्ण मानता है। उसकी दृष्टि मे मानव का पक्ष ही विश्व का पक्ष है । जैनेन्द्र की दृष्टि में नक्शे पर खिंची रेखाए सत्य नहीं है, सत्य तो प्रेम है जो कि देश और काल की सीमा को पार करता
१. जैनेन्द्रकुमार : 'राष्ट्र और राज्य', पृ० स० ३४ । २ जैनेन्द्रकमार · 'जयवर्धन', पृ० स० १६ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
हुआ भी स्थायी रहता है । जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानी के पात्रो के जीवन मे मानवीय सम्बन्धो की एकता पर ही बल दिया गया हे । वस्तुत देश और कालगत अविभाज्यता द्वारा जैनेन्द्र ने अपने साहित्य में मानव सम्बन्धो की परस्परता पर ही विशेषत बल दिया है। देश-विदेश की सीमा सम्बन्ध को सकीर्ण बना देती है किन्तु साहित्य की व्यापक भूमि पर भौगोलिक रेखाए मान्य नही हो सकती । विभाजन की रेखा द्वन्द्वमूलक है, क्योकि प्रत्येक राष्ट्र अपनी प्रगति और हित के लोभ मे दूसरे राष्ट्रो के स्वार्थ पर प्राघात करने मे सकोच नही करते, किन्तु परस्परता की भावना समस्त मानवता को एक ऐसे सूत्र मे बाध देती है, जिससे वे स्थूलत विलग होते हुए भी मूलत एक ही रहते है ।
ऐक्य-बोध ग्रह विसर्जन
जैनेन्द्र की दृष्टि में व्यक्ति का जीवन राजनीति, धर्म, समाज, अर्थ-नीति प्रादि की समष्टि है । मानव जीवन सन्तुलन और समन्वय पर ही आधा रित है । उनके साहित्य मे व्यक्ति की घटनाए विविध परिप्रेक्षो में घटित होती है, तथापि उनके मूल मे आत्मोन्मुखता की प्रवृत्ति विशेषत दृष्टिगत होती है । विविधता के मूल में एकता की प्रतिष्ठापना ही जैनेन्द्र के साहित्य का प्रमुख आदर्श है । अनेकता ग्रहमूलक है, एकता ब्रह्ममूलक । ग्रह अर्थात् जीव ब्रह्म का ही प्रश है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे 'मैं' की चेतना जाग्रत होते ही ब्रह्म, जीव मे पार्थक्य प्रतीत होने लगता है । 'मैं' भाव जितना स्वकेन्द्रित होता है, उतना ही उसमे पर के निषेध का भाव उत्पन्न होता है । जैनेन्द्र का आदर्श 'स्व' पर के मध्य परस्परता का भाव उत्पन्न करना है । व्यष्टि का कर्तव्य समष्टि की ओर उन्मुख होना है । जैनेन्द्र प्रभाव को दमित करने के पक्ष में नही है । उनकी दृष्टि मे अहता यदि भगवत्ता में लीन हो जाय तो द्वन्द्व का प्रश्न ही नही उठता, क्योकि मूलत ग्रह के मूल मे स्थित श्रात्मता और भगवत्ता के मध्य कोई अन्तर नही है । यद्यपि जीव मे ईश्वर के गुरण प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नही देते तथापि जैनेन्द्र के अनुसार यदि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व के गुरण यदि उसके प्रग-प्रत्यग मे देखने की चेष्टा की जाय तो निराशा ही होगी । इसीलिए जैनेन्द्र स्पष्टत स्वीकार करते है कि यदि दिखने वाले जगत मे ईश्वर न दिखाई दे तो घबडाने की आवश्यकता नही है । शरीर जड है, अग-प्रत्यग भी as के सूचक है । भाव चेतनायुक्त है । अतएव सम्पूर्ण सत्य अश मे गर्भित तो होता है किन्तु विच्छेद द्वारा उसकी प्राप्ति नही हो सकती । सत्य की प्रतीति ही सभव होती है । ग्रह विसर्जन के द्वारा ही 'भगवत्भाव' अर्थात् समग्र शक्ति का
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जैनेन्द्र जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण
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अनुभव हो सकता है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे-'जीव का अस्तित्व अपने मे अधूरा है, हममे एक-दूसरे और फिर शेष की आवश्यकता मे रहता है । इसलिए सब जीवात्मा का जो अखण्ड चिन्मय स्रोत है, दम्भ-वही है। ऐसा मानकर हमारा जीवन खण्डित होने के बजाय अखण्ड होता है।'
अर्द्धनारीश्वर · अद्धत बोधक ___ जैनेन्द्र की दृष्टि मे अहता अथवा 'मै' का सर्वाधिक विगलन काम के मार्ग से ही सम्भव होता है। स्त्री-पुरुष स्वय मे अपूर्ण है। एक-दूसरे की प्राप्ति के द्वारा ही पूर्ण हो सकते है। अर्धनारीश्वर की परिकल्पना द्वारा शास्त्रो मे नर-नारी की पूर्णता की ओर भी इगित किया गया है। मानव जीवन की सश्लिष्टता स्त्री और पुरुष के परस्पर सान्निध्य द्वारा ही सम्भव हो सकती है। प्रेम की चुम्बकीय शक्ति के द्वारा स्त्री-पुरुष परस्परता के द्वारा अहशून्य होते हए भगवत्ता में विलीन होने का प्रयास करते है। प्रेम की पूर्णता के लिए आत्मा
और शरीर दोनो का योग अनिवार्य है। प्रेम मे शरीर का निषेध नही है, किन्तु शरीर को लेकर ही प्रेम पूर्ण नही होता । 'यामादिपिट' में भी इस सत्य की
ओर इगित किया गया है। उसमे एक स्थल पर स्वीकार किया गया है कि 'प्रेम ? प्रेम यह दो भिन्न धाराप्रो के, दो हृदों के, आत्मानो के, दो व्यक्तियो के मिलकर एक हो जाने का नाम है। सिर्फ शरीरो का सयोग नहीं है।' अतएव व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य द्वैत को उत्सर्ग द्वारा अद्वैतता की ओर उन्मुख करना है।
मानसिक सरचना : प्रखण्ड
जैनेन्द्र ने स्त्री-पुरुष के ऐक्य' पर बल देते हुए उनकी अन्त प्रकृति और वाह्य परिवेश पर प्रकाश डाला है । व्यक्ति का व्यक्तित्व अन्त और बाह्य की समष्टि है। बाह्य-परिवेश की द्वन्द्वात्मक स्थितियो के चित्रण द्वारा जीवन की समग्रता का बोध कदापि नही हो.सकता। जैनेन्द्र ने अन्त.प्रकृति के बोध के लिए व्यावहा
१. प्रेम एक जबर्दस्त प्रबल भावना है। विश्वव्याप्त, वैसी ही शक्तिमान ।
साथ बिस्तर पर रहना ही प्रेम नही है, लुई वैसा प्रेम हम दोनो मे नही है यदि वह आयेगा तो मेरे तुम्हारे लिए परस्पर स्वर्ग उपस्थित हो आएगा ।' ---'यामादिपिट' अलेक्जेण्डर क्युप्रिन, अनु० जैनेन्द्र कुमार, १६५८, दिल्ली पृ० स० २६५ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
रिक मनोविज्ञान का आश्रय लिया है। उनका मनोवैज्ञानिक विवेचन की विश्लेषरणात्मक प्रणाली पर आधारित नही है । उनका मनोवैज्ञानिक विवेचन अध्या त्ममूलक है । मनोविश्लेषणवादी मनोविज्ञानिक मन की शक्तियो को चेतनअचेतन आदि खण्डो में विभाजित करके समझने का प्रयास करते है । मनोविज्ञान द्वारा दमित विकारो का ही प्रकटीकरण होता है, किन्तु व्यक्ति की अत चेतना और बाह्य चेतना को आत्मोन्मुखता की ओर प्रेरित करने का प्रयास किया गया है । इस प्रकार प्रत और बाह्य प्रकृति एक ऐसी अविच्छिन्न कडी से सम्बद्ध है कि उसमे पार्थक्य का प्रश्न ही नही उठता । जैनेन्द्र का उद्देश्य मनोविश्लेषण द्वारा अत प्रकृति को उधार कर रख देना नही है वरन् प्रकृति के मूल मे सत्य की अभिव्यक्ति करना है । मनोविश्लेषणवादी विचारो के विरुद्ध उनकी मान्यता है कि -- बुद्धि के तीखे नखो से पात्र के मन की चीरफाड से कला की छीछालेदर की जा सकती है । ऐसी कला से तात्पर्य -- सिद्धि तो नही होती । अनवय-समनवय मे सार्थक है और विश्लेषण यदि सार्थक है तो तभी जब वह कुछ सश्लिष्ट भाव उत्पन्न करने में सम्भव हो । वस्तुत जैनेन्द्र के साहित्य मे विश्लेषण ही नही है, वरन् सत्य को अभिव्यक्त करने की उत्कट अभिलाषा भी है । सत्य सश्लिष्ट ही है ।
डा० देवराज उपाध्याय ने जैनेन्द्र के उपन्यासो का मनोवैज्ञानिक विवेचन करते हुए उनके सश्लेषणात्मक रूप पर प्रकाश डाला है । उनकी दृष्टि मे जैनेन्द्र- किसी समस्या पर विचार करते समय उसे परिपात्रित स्थिति से तोडकर देखना नही चाहते, उसे जीवन के प्रवाह के रूप मे गतिमान देखते है।”
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जैनेन्द्र की दृष्टि में मानव प्रकृति के सदृश ही शरीरगत प्रभाव के हेतु रूपाकार की समग्रता भी अनिवार्य है सम्पूर्ण शरीर ही सौन्दर्यगत प्रकर्षरण को उत्पन्न करने में सक्षम हो सकता है । अग प्रत्यग को छिन भिन्न करके देखने से समस्त आकर्षण विनष्ट हो जाता है । 'विज्ञान' कहानी मे स्त्री की नाप-जोख करने से सौन्दर्य की अन्विति ही नही समाप्त होती, वरन् उसमे हार्दिकता भी विनष्ट हो जाती है । क्योकि विश्लेषण की प्रवृत्ति चाहे, वह किसी सन्दर्भ मे दृष्टिगत होती हो, आत्मगत हार्दिकता का बोध नही करा सकती । साहित्य का उद्देश्य प्रात्मिक सौन्दर्य सृष्टि का बोध कराना है ।
१ जैनेन्द्रकुमार 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', पृ० १८३ ।
२ To देवराज उपाध्याय 'जैनेन्द्र के उपन्यासो का मनोवैज्ञानिक अध्ययन', प्र० स०, १६६८, दिल्ली, पृ० स० ४६ ।
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जैनेन्द्र जीवन का संश्लेषणात्मक दृष्टिकोण
२६३ भौतिक और प्राध्यात्मिक ऐक्य
जैनेन्द्र ने व्यक्ति से इतर बाह्य परिवेश के चित्रण मे ही समन्वयात्मक दृष्टिकोण को ही अपनाया है। भौतिक और आध्यात्मिक जीवन के मध्य उन्होने एकता स्थापित करने का प्रयास किया है। उन्होने साहित्य मे वैज्ञानिक उपकरणो के प्रति अनास्था नही व्यक्त की है, उनकी दृष्टि मे यदि वैज्ञानिक अहभाव को त्याग कर श्रद्धा और प्रेम द्वारा अपने गन्तव्य की ओर अग्रसर हो तो जीवन में विनाश के स्थान पर प्रगति का मार्ग खुल जायगा। जैनेन्द्र ने 'वैज्ञानिक अध्यात्म' द्वारा विज्ञान और अध्यात्म की एकता की ओर इगित किया है। उनकी दृष्टि मे भौतिकवाद और विज्ञान को 'परे परे' करना आस्तिकता से इनकार करना है। क्योकि ये दोनो भी भगवान की ही देन है ।' उनका पूर्ण विश्वास है कि विज्ञान और अध्यात्म जब परस्पर सापेक्ष होकर घुलेमिलेगे, तो उसका सुफल यही हो सकता है कि राष्ट्रो के बीच परस्परता और प्रीति बढ़े, युद्धो की सम्भावना कम हो और एक विश्व-सस्कृति का विकास हो ।'२ जैनेन्द्र ने विज्ञान और अध्यात्म के सैद्धान्तिक पहलू को व्यावहारिक जीवन में स्थापित करने का प्रयास किया है । धार्मिक दृष्टि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आस्था और परस्परता का भाव जाग्रत करने में सक्षम है। जैनेन्द्र के अनुसार केवल भावना मे रहने वाली धार्मिक आस्था जीवन के लिए उपयोगी नही हो सकती। धन की सार्थकता और पूर्णता उसकी सक्रियता मे ही है। यदि धार्मिक भाव से अनुप्राणित होकर व्यक्ति कर्मशीलता की ओर उन्मुख हो तो विज्ञान और अध्यात्म की दूरी स्वत हो विलीन हो जाय । महात्मागाधी के जीवन को जैनेन्द्र ने सश्लिष्ट आदर्श के रूप में स्वीकार किया है। उनकी दृष्टि मे गाधी की महानता का रहस्य यही है कि उन्होने भेद मे से अभेद को और जीवन विज्ञान से अध्यात्म विज्ञान को क्षण के लिए विमुख और विलग नही हो ने दिया। जैनेन्द्र की दृष्टि मे भौतिक और आत्मिक द्वैत अद्वैतता एकता मे अर्थात् एकता में विलीन होने के लिए ही है। जैनेन्द्र ने अर्थ, राजनीति आदि क्षेत्रो मे धार्मिक आस्था का सन्निवेश करके हिंसा और शोषण का निषेध करने का प्रयास किया है। राजनीति और अर्थनीति को मानव नीति से सयुक्त करके उन्होने भौतिक जीवन को आत्मिक पृष्ठभूमि प्रदान करने का आदर्श प्रस्तुत किया है । परिपूर्ण
१. जैनेन्द्रकुमार . 'समय और हम' (उपोद्घात से), पृ० स० ४० । २ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम' (उपोद्घात से), पृ० स० ४० । ३ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० १२२ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
व्यक्तित्व मे हिसा के भाव या कर्म के लिए अवकाश नही रहता । जैनेन्द्र की दृष्टि मे मानव-व्यक्तित्व की अखण्ड युक्तता कठोरता मे नही, वरन् कोमलता मे ही है। उनका विश्वास है कि कठोरता मे से एकाग्रता की साधना करने वाले तपस्वी अन्त मे टूटते ही है। उनकी एकाग्रता प्रेम की स्निग्धता के अभाव मे शुष्क होकर टूट जाती है । जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियो मे ऐसे व्यक्तियो की अपूर्णता पर अनेकानेक स्थलो पर वर्णन किया गया है।
व्यक्तित्व अखण्ड
जैनेन्द्र के साहित्य मे बार-बार व्यक्तित्व की समग्रता पर ही बल दिया गया है । क्योकि उनकी दृष्टि मे सच्चाई पूर्णता मे ही है । झूठ के आग्रह द्वारा सच बनाने का प्रयास नही किया गया है । जहा ऐसी स्थिति लक्षित होती है, वहा आग्रह अतत पराभूत होते हुए देखा जाता है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे 'जिन्दगी एक साबत चीज है उसमे खाने नही है, विभाग नही है। वह अखण्ड है ओर समग्र है। अखण्डता में भी जीवन की सार्थकता है किन्तु अखण्डता बुद्वि द्वारा अग्राह्य है और व्यक्ति अपने ज्ञान के दर्प के कारण पूर्णता को खण्ड-खण्ड मे विभाजित करके जानने के प्रयत्न मे लगा ही रहता है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे सत्य मे जानता कुछ नही है, सब होना है। यदि उसे जानना ही होता तो सम्भवत वह सत्य ही नहीं रहता। विभाजन की यह प्रक्रिया वैज्ञानिक क्षेत्र मे ही नही परिमित होती। जैनेन्द्र के अनुसार नैतिकता व्यक्ति-सापेक्ष्य है। व्यक्ति के जीवन को नैतिक और अनैतिक के आधार पर उच्च और निम्न स्तरो मे विभाजित करके परखा जाता है। हमारे शास्त्रो मे भी विभाजन की यह प्रक्रिया स्पष्टत दृष्टिगत होती है। त्रिगुणात्मक सृष्टि की चर्चा श्रीमद्भागवतगीता मे भी मिलती है। गुणो की प्रकृति का विश्लेषण करते हुए यह समझना कि सत्वगुण प्रधान व्यक्ति का जीवन विषय-विकार से हीन होता है तथा तमोगुणीव्यक्ति मे सात्विक गुणो के दर्शन नही होते, नितान्त अस्वाभाविक प्रतीत होता है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे व्यक्तित्व सत्य रज और तम मे विभाजित नही है । ये तीनो व्यक्तित्व के ऐसे गुण है जिन्हे विभाजन-रेखा द्वारा विभाजित नही किया जा सकता। जैनेन्द्र ने सत्य, रज और तम के रूप की बडी सुन्दर अभिव्यक्ति की है। उनकी दृष्टि मे तीनो गुण जीवनरूपी मजिल के तीन खण्डो
१ जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', पृ० स० १२५ । २ जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० १२७ । ३ जैनेन्द्र कुमार 'इतस्तत', पृ० स० २५७ ।
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जैनेन्द्र जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण के सदृश है । इस प्रकार जीवन तीन खण्डो मे बटा है। यदि तीनो मजिलो के बीच आवागमन की सुविधा न हो तो प्रत्येक खण्ड अपने मे कटा रह जायगा । यह स्थिति नितान्त अप्राकृतिक है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे, ‘मकान वह तभी काम दे सकता है, उसमे रहा-सहा जा सकता है, जब उन मजिलो मे आपस मे आवाज आयी हो। एक जीना हो जो तीनो को जोडता हो एक मुलाजिम हो जो तीनो का ख्याल और इन्तजाम रखता हो। जैनेन्द्र के अनुसार तिमजिले मकान का सफल स्वामी वही हो सकेगा, जो नीचे की मजिल का ध्यान उतना ही रख सके जितना ऊपर वाली का रखा जाय तो जीवन सुखमय और सहज हो सकता है। सत्व, रज, तमः सश्लिष्ट ___ गीता मे इन तीनो गुणो की सश्लिष्ट अभिव्यक्ति ही हुई है । कृष्ण अर्जुन के समक्ष उपदेश देते हुए बताते है कि जिस काल मे द्रष्टा तीनो गुरगो के सिवाय अन्य किसी को कर्ता नही देखता है, अर्थात् गुण ही मे बरतते है, ऐसा देखता है और तीनो गुणो से परे सच्चिदानन्द स्वरूप मुझ परमात्मा को तत्व से जानता है, उस काल मे वह पुरुष मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है । इस प्रकार गुरणो मे ही निवास है, किन्तु व्यक्ति का स्वय निर्गुण होना ही सार्थक है। जैनेन्द्र ने गीता की आध्यात्मिक दृष्टि को जीवन के व्यावहारिक धरातल पर विवेचित किया है। गुणो के वैभिन्य के कारण व्यक्तित्व खण्डित नही होता, वरन् गुण से तद्गत होकर वह पूर्ण ही होता है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे आत्मा न सतोगुणी है न तमोगुणी । वह सबके ऊपर है।
___ मानव-व्यक्तित्व की पूर्णता उपरोक्त तीनो गुणो के सश्लिष्ट रूप की स्वीकृति में ही सम्भव है। जैनेन्द्र की दृष्टि में केवल सत्व की स्वीकृति और रज तथा तम के निषेध से व्यक्तित्व मे समग्रता नही आ सकती। रजस् और तमस् से अनबन करके जीवनयापन करने वाला व्यक्ति अपने आचरण मे कभी भी सहज नही हो सकता। मनोवैज्ञानिक सत्य है कि निषेधात्मक पहलू की ओर व्यक्ति की प्रवृत्तियो का झुकाव अधिक होता है। जिस और जितना दमन का भाव होता है, उतनी ही उसकी प्रतिक्रिया की सम्भावना बनी रहती है । यदि मानवीय प्रवृत्तियां सहज रूप से अपने क्षेत्र मे गतिशील होती हुई उत्तरोत्तर अकर्म अथवा शून्य की ओर बढ़ती है तो उनमे दमन का भाव न होकर सहजता और पूर्णता ही लक्षित होती है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे खण्डित व्यक्तित्व मे कृशता,
१. जैनेन्द्र कुमार · 'इतस्तत', पृ० स० २५८ । २. श्रीमद्भागवद्गीता, अध्याय १४, श्लोक १६ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
अतृप्ति और असन्तुष्टि अधिकाधिक बढती जाती है । ऐसे व्यक्तियो द्वारा पाप का भय सदैव ही बना रहता है । भय के कारण होने वाले आचरण मे सहजता का अभाव रहता है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे व्यक्तित्व का खण्डित रूप मान्य नही है । उनके साहित्य मे बडे-से-बडे नेता भी प्रवृत्ति के मार्ग से महान बने है । जब कभी निवृत्ति के द्वारा उन्होने त्याग और तपस्या के द्वारा अपने जीवन को सुखाने की चेष्टा की है तो उन्हे पराजय ही मिली है । जैनेन्द्र के पात्र सत्य के समक्ष नतमस्तक होते हुए देखे जाते है । उनके साहित्य मे चाहे कोई भी व्यक्ति हो, वह अपनी अन्तस् की तृषा को तृप्त किए बिना कभी भी सहज नही हो पाता । हठात् अपनी अन्तश्चेतना के सत्य को ठुकराकर वह क्लीव ही बनता है, महान नही । देश के वरिष्ठ नेताओ के प्रति सामान्यतया हमारे मन मे आदर का भाव होता है, किन्तु जब कभी हम उनके व्यक्तिगत जीवन के रहस्य से परिचित होते है, तो हमारा आदर का भाव घृणा मे परिवर्तित हो जाता है और हम यह भूल जाते है कि नेता होने पर भी वह व्यक्ति है । उनमे मानवोचित गुण और दोषो का होना अनिवार्य है । मानवीय गुणो के निषेध द्वारा ब्रह्मचर्य साधना का प्रयत्न निरर्थक ही प्रतीत होता है । सत्य योग मे ही है, किन्तु भोग का निषेध करके होने वाली योग-साधना पूर्ण नही हो सकती । 'बाहुबली' मे बाहुबली के मन मे जो फास होती है, उसके निकाले बिना उसकी पूर्णता की प्राप्ति का प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध होता है । 'क पथा' कहानी मे सत्य का निषेध करके शरीर को तप द्वारा अधिकाधिक सुखाने से अन्तर की पिपासा शान्त नही होती और अन्तत उपरोक्त कहानी मे लालचन्द्र को विक्षिप्त होते हुए देखा जाता है । 'सुखदा' मे सुखदा को घर छोडकर बाहर जाने वाली नेत्री ही समझा जाता है किन्तु उसके अन्तर्द्वन्द्व को जानने की चेष्टा नही की जाती । प्रभाव के कारण वह बाहर की ओर आकर्षित होती है, किन्तु घर से उसका विरोध नही होता । वह चाहती है कि घर पर उसे प्रात्मिक विश्वास और प्रेम मिले किन्तु वह सम्भव नही हो पाता, जिसके कारण वह कही की नही रह पाती । 'मुक्तिबोध' और 'अनन्तर' मे पाप के भय के कारण तथा सामाजिक मर्यादा के हेतु स्त्री से दूरी का भाव लक्षित होता है । 'मुक्तिबोध' में 'प्रसाद' मन की दुर्बलता के कारण ही नीलिमा की नगी त्वचा के स्पर्श से क्रुद्ध हो उठता है और उसके आचरण के प्रति अपनी खीझ व्यक्त करता है । यदि 'प्रसाद' के भीतर नग्नता इतनी महत्वपूर्ण न होती तो उसमे नारी-शरीर के स्पर्श मात्र से झुझलाहट न प्रती और वह सहज बना रहता । वस्तुत जैनेन्द्र ने व्यक्ति के राजनीतिक जीवन
१ जैनेन्द्रकुमार 'मुक्तिबोध', पृ० ६५ ।
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जैनेन्द्र . जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण
के साथ उसके व्यक्तिगत जीवन की सत्यता को भी स्वीकार किया है । राजनीति अथवा धर्म को लेकर व्यक्ति स्वय से इतना टूट नहीं जाता कि वह व्यक्ति ही न रहे। ___जैनेन्द्र मन को प्रताडित करते रहने की परिपाटी के कायल नही है । उनकी रष्टि मे वह सब प्राचार व्यभिचार है, जिसमे भय और सशय है । भय से साधी जाने वाली नैतिकता समाज मे ऐसी सडाध उत्पन्न करती है, जिसके बीच घुटता हुआ जीवन स्वच्छ वायु के अभाव मे निष्प्राण प्रतीत होने लगता है । वस्तुत: व्यक्ति का जीवन एक अखण्ड इकाई है । जिस प्रकार नक्शे की मोटी लकीर जमीन पर नही मिलती, उसी प्रकार जिन्दगी पर तत्ववादी की लकीर भी नही है । धरती एक है। हर बिन्दु पर वहा उत्तर-दक्षिण मिला हुआ है, इसी तरह जिन्दगी एक चीज है और उसके हर जीवन-करण-कण पर सत्व-रज और तम मिल जाते है। जैनेन्द्र गुरणो के भेद को स्वीकार करते है तथापि गुण-भेद के द्वारा जीवन की अखडता को विभाजित करने के पक्ष मे नही है।
निष्कर्षत. जैनेन्द्र के साहित्य का इष्ट अखण्डता की भावना ही है, उन्होने स्वय ही यह स्वीकार किया है कि उनके मन में एक गहरा अन्तर्दन्द्व है, अकुलाहट है जो प्रकट होने के लिए बेचैन है । और वह है यही अखण्डता की भावना । अपनी इस आन्तरिक उद्वेलन को प्रकट करने के लिए उपन्यास और कहानी की रचना की है। उनकी दृष्टि मे अखण्डता का बोध ही वह कुजी है, जो जीवन की बड़ी से बड़ी समस्या के समाधान में सहायक हो सकती है किन्तु यह अखण्डता ही व्यक्ति की पकड से बाहर हो रही है। जैनेन्द्र के अनुसार इस अखण्डता को ढूढने का एक मात्र साधन है-प्रेम और अहिंसा । जैनेन्द्र का सम्पूर्ण साहित्य प्रेम और हिसा के अर्थों को ही व्याख्यायित करता हुआ प्रतीत होता है। उनकी दृष्टि में प्रेम और अहिंसा का अर्थ है, दूसरे के लिए अपने को पीडा देना। पीडा मे ही परमात्मा बसता है। उन्होने स्पष्टत स्वीकार किया है कि 'मेरे उपन्यास आत्मपीडन के ही साधन है और इसीलिए मैंने उनमे कामप्रवृत्ति की प्रधानता रखी है, क्योकि काम की यातनाओ मे ही आत्मपीडन का तीव्रतम रूप है।" उनका विश्वास है कि उनके उपन्यास पाठक को जितनी आत्मपीडन की प्रेरणा देते हैं, जितना उसके हृदय मे प्रेम पैदा करके जीवन की अखण्डता का अनुभव कराते है, उतने ही सफल कहे जा सकते है। जैनेन्द्र का समग्र
१. जैनेन्द्र कुमार 'इतस्तत', पृ० २५६ । २. डा० नगेन्द्र : "प्रास्था के चरण', प्र० स० ३०० । ३. डा० नगेन्द्र : "प्रास्था के चरण', प० स० ३००। ४. डा० नगेन्द्र : 'आस्था के चरण', पृ० सं० ३०० ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन साहित्य इस सत्य की अभिव्यक्ति कराने में समर्थ है। उनके पात्रो की पीडा हमसे छिपी नहीं है। मृणाल और कल्याणी अपनी पीडा से स्वय ही व्यथित नही होती, वरन् पाठको के हृदय मे भी एक गहरी टीस उत्पन्न करने मे सक्षम होती है।
सृष्टि-प्रखण्ड
साहित्य, कला और संस्कृति का उत्स विभाजन मे न होकर ऐक्य मे ही समाहित है । जैनेन्द्र ने सृष्टि के मूल मे गर्भित सत्य की इतनी अकाट्य अभिव्यक्ति की है, जिसे स्वीकार किए बिना कोई भी सृजन-प्रक्रिया पूर्ण और
आत्मिक नही हो सकती । 'सृष्टि वहा से है जहा आदमी लीन हो जाता है, जहा वह अपनी विभक्ति भूल जाता है। जहा वह न अच्छा रहता है, न बुरा रहता है। जहा वह बटा नही होता, एकाग्र और समग्र हो जाता है । जहा वासना और भावना मे प्रखरता नही रह जाती । जहा व्यक्ति अपने को पूरा अगीकार करता और फिर पूरा-का-पूरा निछावर कर डालता है। जहा अपने किसी अश को पीछे रोकता नही और सर्वांश को स्वाहा करके धन्य हो जाता है।' 'जैनेन्द्र के उपरोक्त कथन मे उनके चिन्तन का सार स्पष्टत दृष्टिगत होता है । उनके साहित्य मे इन्ही तत्वो को जीवन मे घटित होते हुए दर्शाया गया है। उनकी दृष्टि मे सृष्टि ज्ञान मे से न होकर अबोधता मे से ही सम्भव हो सकती है । ज्ञान मे विभाजन है। विश्व की महान् प्रतिभाए स्वीकार और समन्वय के मार्ग का अनुसरण करने के कारण ही सम्भव हो सकी है । जैनेन्द्र का दृढ विश्वास है कि विभक्त मानसिकता मे से बने हुए मनमाने आदर्शों के नाम पर कुछ साधना करते हुए जो निस्तेज, निष्प्राण और खण्डित व्यक्तियो के नमूने नीति और धर्म के क्षेत्र मे देखने में आते है, सो इसी कारण कि उनकी वफादारी जीवन और जगत के प्रति न होकर सिद्धातो के प्रति होती है। जीवन मे पूर्णता एकमात्र प्रेम और स्वीकारता मे से ही सम्भव है। प्रेम की सक्रियता परस्परता मे ही लक्षित होती है।
साहित्यिक प्रक्रिया • संश्लेषणात्मक __ जैनेन्द्र की जीवन-दृष्टि सश्लेषणात्मक होने के साथ ही उनकी साहित्यिक प्रक्रिया भी सश्लिष्टता से अनुप्राणित है । जीवन की अखण्डता को बुद्धिप्रसूत
१ जैनेन्द्र कुमार 'इतस्तत पृ० स० २६० । २ जैनेन्द्रकुमार . 'इतस्तत.', पृ० २६०-२६१ ।
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जैनेन्द्र जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण
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विश्लेषक प्रक्रिया द्वारा वे खण्डित करने के पक्ष मे नही है । प्रखण्ड सत्य को वे ज्ञान का विषय न मानकर सम्बुद्धि का विषय मानते है । सम्बुद्धि मे प्रदृष्टि की प्रधानता होती है । अर्न्तदृष्टि द्वारा सत्य को समग्र रूप में देखने की चेष्टा की जाती है । जैनेन्द्र के अनुसार उपदेश मूलक, आलोचनात्मक दृष्टि से सृजनात्मक साहित्य मे अभिव्यक्त जीवन की सहजता और सजीवता का दिग्दर्शन सम्भव नही हो सकता है । आलोचनात्मक प्रक्रिया द्वारा वस्तु को अखण्ड रूप मे न देखकर उसे भिन्न-भिन्न करके देखा जाता है । यथार्थ की अभिव्यक्ति के लोभ मे व्यक्ति को पूर्णतया विश्लिष्ट करके देखने से सत्य की अनुभूति नही हो सकती । विश्लेषण के द्वारा अनेकता और विच्छिन्नता ही यथार्थ बन जाती है और यथार्थ के मूल मे अन्तर्भूत सत्य अदृश्य हो जाता है । जैनेन्द्र के अनुसार यथार्थ के आग्रह मे सौदर्य छिन्न-भिन्न हो जाता है । वस्तु की अनेकता बेहद उभर पडती है । जैसे सब कुछ परस्पर को व्यक्त करता हुआ सिर्फ कटा-फटा है । साहित्य-वस्तु की अनेकता मे से अपेक्षाकृत दृश्य एव दर्शन की एकता की सृष्टि करता ।" जैनेन्द्र की दृष्टि मे साहित्य का उद्देश्य जीवन की विविधता मे एक अमोध और प्रश्य सूक्ष्म सत्य की प्रतिष्ठा करना है ।
1
जीवन के साथ ही साहित्य - प्रक्रिया भी वैज्ञानिक पद्धति से अनुप्राणित है । वैज्ञानिक बुद्धि प्रन्वयपरक अधिक होती है, किन्तु साहित्य अन्य और विश्लेषण के आधार पर रसानुभूति और प्रभावगत अन्विति से शून्य हो जाता है । जैनेन्द्र की ढष्टि में सत्य शिव सुन्दरम् की पूर्णता साहित्य मे रसानुभूति और स्थायित्व उत्पन्न करने के लिए आवश्यक है । यथार्थ की प्राप्ति के लोभ में वस्तुगत समग्रता विनष्ट हो जाती है, क्यो कि सत्य शिव सुन्दरम इन तीनो मे से किसी एक के भी प्रभाव अथवा अन्य के वर्णन की प्रतिशयता से साहित्य का स्वरूप पूर्ण नही हो सकता । जैनेन्द्र के अनुसार वैज्ञानिक पद्धति से सत्य के अनुसधान में हम कितने भी दूर जा सके, चित्त सत्य तक नही पहुच सकते है । नही पहुच सकते है, इसलिए है कि वहां पहुचने वाला व्यक्ति और पहुचने की मंजिल जो बने रहते हे | जैनेन्द्र जीवन और साहित्य के लिए श्रद्धापरक ज्ञान को ही स्वीकार करते है । उनकी दृष्टि मे प्रास्थायुक्त बुद्धि दूसरे को खण्डित करके चलने के भ्रम में नही पडती । श्रद्धा और विश्वास के द्वारा आग्रह का भाव प्रखर नही होता । इसमे समर्पण और स्वीकारता की भावना ही विशेषरूप से जाग्रत होती है, तो उसमे शब्द और रूपाकार गौरण हो जाते है, भाव-गरिमा ही शब्दों द्वारा ध्वनित होती है । जैनेन्द्र के साहित्य में प्राप्त होने वाले दार्शनिक-बोध के
१. जैनेद्रकुमार 'कहानी अनुभव और शिल्प',
पृ० १३१ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
आधार पर हम उन्हे ज्ञाता से अधिक एक द्रष्टा के रूप में स्वीकार कर सकते है । ज्ञाता होने मे ज्ञाता और ज्ञेय का द्वैत बना रहता है। किन्तु अन्र्तबुद्धि के सहारे सत्य को जानने मे लीनता का भाव लक्षित होता है।'
सत्यबोध श्रद्धामूलक
जैनेन्द्र के साहित्य मे श्रद्धा का भाव विविध रूपो मे अभिव्यक्त हुआ है। इनकी दृष्टि मे श्रद्धा ऊपर से थोपी नही जाती, वह तो 'मर्म की ओर से शायद व्यथा है । 'व्यक्ति, व्यक्ति मे ज्ञान का दम्भ तो हो ही नहीं सकता। श्रद्वा के कारण वह केवल समर्पित ही होता है।' 'अनन्तर' मे ज्ञान और विज्ञान के ऐक्य के लिए श्रद्धा की अनिवार्यता पर बल दिया है। श्रद्धा के ऐक्य से ज्ञान और विज्ञान परस्पर पूरक हो सकते है। श्रद्धा ऐक्यमूलक है। वह व्यवच्छेद पर आश्रित नही है। जैनेन्द्र का अटूट विश्वास है कि जो जानने मे उपलब्ध नही हो सकता वह विनम्र श्रद्धा के द्वारा सहज हो जाता है। जैनेन्द्र के अनुसार न्यूटन को गुरुत्वाकर्षण की शक्ति का बोध विश्लेषणात्मक बुद्धि से नहीं, वरन् सबुद्धि से प्राप्त हुना था, जिसे हम प्रज्ञा भी कहते है। व्यर्थ प्रयत्न मे चिन्ता मन को सत्य का बोध श्रद्धा से झुक जाने और समर्पित होने मे ही प्राप्त होता है। श्रद्धालु के हृदय मे ज्ञाता और ज्ञेय का पार्थक्य मिट जाता है किन्तु बौद्धिक ज्ञान ज्ञाता और ज्ञेय के पार्थक्य पर ही आधारित होता है।
गेस्टाल्ट मनोविज्ञान
जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त जीवन सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को गेस्टाल्ट मनोविज्ञान की समकक्षता मे विवेचित किया जा सकता है । डा० देवराज उपाध्याय ने जैनेन्द्र के उपन्यासो का मनोवैज्ञानिक विवेचन करते हुए उन्हे गेस्टाल्टवादी मनोविज्ञान की समकक्षता मे ही प्रस्तुत किया गया है। उनके अनुसार जैनेन्द्र का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण गेस्टाल्ट के सम्पूर्णतावाद से अभिन्न है । उपाध्याय जी की दृष्टि मे 'गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिक वरतु को आकार से भिन्न नही देखता, तीन या चार बिन्दुप्रो को देखते ही वह एक त्रिकोण या
१ 'जब हम किसी कारण अपने को सर्वथा बिसरे रहते है, मानो शून्य हो
जाते है, चैतन्य हममे सोया नही रहता, पर प्रवृत्त भी नहीं होता और केवल जाग्रत भर रहता है, तब सबुद्धि काम कर जाती है।'
-जैनेन्द्रकुमार 'समय और हम', पृ० स० ६१५ । २ जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर', पृ० स० १००।
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जैनेन्द्र जीवन का सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण
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चतुष्कोण को देख लेता है, मानो वह त्रिकोण या चतुष्कोण वहा बिन्दुओ के अस्तित्व मे आने से पूर्व ही किसी रहस्यमय रूप मे उपस्थित हो और रेखाओ को सार्थकता प्रदान करते हो ।" जैनेन्द्र की कहानियों और उपन्यासो मे प्राप्त होने वाली रिक्तता को भी खण्डित रूप मे न देखकर भावगरिमा से युक्त करके
रूप में देखा गया है । उपाध्याय जी के अनुसार रिक्तता मे ही जैनेन्द्र के साहित्य का वैशिष्ट्य गर्भित है ।' उपाध्याय जी की दृष्टि में गेस्टाल्टवादी दृष्टि से देखने पर - - टुक : नही दीख पडते है, परन्तु उनके बीच मे जो व्यवस्था है, पारस्परिकता है, वही सबसे पहले दीख पडती है । उसी व्यवस्था और परस्पर बद्धता के मध्य पडे दीखने के कारण वे खण्ड अपूर्ण प्रश खण्डित नही, पर व्यवस्थित और संगठित रूप में दीखते है । "
जैनेन्द्र को खण्ड दृष्टि और गेस्टाल्ट
जैनेन्द्र के साहित्य मे सम्पूर्णतावादी दृस्टिकोण का प्रभाव पूर्णत दृष्टिगत होता है, तथापि जैनेन्द्र का चिन्तनपक्ष किसी वाद - विशेष से परिबद्ध नही है । उनके गाहित्य से प्राप्त होने वाला सम्पूर्णतावादी दृष्टिकोण उनकी प्रास्तिकता के स्पर्श से मनोवैज्ञानिक तथ्य न रहकर प्राध्यात्मिक विषय बन जाता है । गेस्टाल्ट ने वस्तु को प्रकार से भिन्न रूप में समझने की चेष्टा नही की है । उनका चिन्तन वस्तुगत है, किन्तु जैनेन्द्र के साहित्य मे सम्पूर्णतावादी दृष्टिकोण की झलक उनकी प्राध्यात्मिक दृष्टि के सन्दर्भ मे ही देखी जा सकती है। इस दृष्टि से उनकी 'तत्सत' कहानी बहुत ही उपयुक्त प्रतीत होती हे । 'तत्सत' कहानी में प्रत्येक वृक्ष अपने सम्बन्ध मे इतना ग्रहनिष्ठ है कि वह 'स्वय' को समष्टि की सापेक्षता में वन अथवा जगल के रूप में स्वीकार करने में असमर्थ होता है । हजार चेष्टा करने पर भी उन्हें यह समझ मे नही श्राता कि वन क्या हे ? वे परस्पर विवाद करते हुए कहते हे — 'मै जंगल हूं। तब बबूल कौन ?" इसी प्रकार बास कहता है- 'झूठ है 1 क्या मै यह मानू कि मै बास नही, जगल हैं, मेरा रोम-रोम कहता है, मै बास हूँ ।' 'और मै घास " और मै
1
१. डा० देवराज उपाध्याय 'जैनेन्द्र के उपन्यासो का मनोवैज्ञानिक अध्ययन',
पृ० स० ११५ ।
२. डा० देवराज उपाध्याय 'जैनेन्द्र के उपन्यासो का मनोवैज्ञानिक अध्ययन', पृ० स० १२१ ।
३. डा० देवराज उपाध्याय 'जैनेन्द्र के उपन्यासो का मनोवैज्ञानिक अध्ययन', पृ० स० १२१ ।
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
'वह है, वह हे ।'
शेर ।' इस प्रकार यह नही समझ पाते कि जगल कही बाहर या दूर नही है, वरन् उनकी समष्टि मे ही जगल है । अन्त मे एक विज्ञ पुरुष बडदादा के सहयोग से उन्हे सत्य का बोध कराने में सक्षम होता है । इस प्रकार उन्हे यह बोध होता है कुल है, कुछ नही है, उनका यह समझना कि मै बास हू, मै सेमर हूँ, भ्रम है । सत्य का बोध होते ही बडदादा कह उठते है'सब कही है । सब कही हे और हम ? 'हम नही, वह है ?" इस प्रकार सत्य की नुभूति समग्रता मे ही सम्भव हो पाती है । सत्यखण्ड मे भी अर्न्तभूत है, किन्तु खण्ड अथवा अश कोई सत्य मानकर चलने मे ग्रामवादिता लक्षित होती है । इस तथ्य के द्वारा यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जैनेन्द्र की दृष्टि मे 'मैं' अथवा अशत सत्य नही है, सत्य 'वह' है अर्थात् ईश्वर है जो कि पूर्ण है ।
जैनेन्द्र की उपरोक्त प्राध्यात्मिक दृष्टि उनके पात्रो के व्यावहारिक जीवन भी लक्षित होती है । जैनेन्द्र के साहित्य में लक्षित व्यक्तित्व की समग्रता के आदर्श मे भी यही सम्पूर्णतावादी दृष्टि के ही दर्शन होते है । जीवन का कोई भी पक्ष खडित होकर निषेध द्वारा पूर्ण नही हो सकता । जीवन की पूर्णता सत्असत् की स्वीकृति द्वारा उत्तरोत्तर उससे पार उठने मे हे । जैनेन्द्र के अनुसार सत्य अविभाज्य है, अतएव इसे खण्डित करके समझने का प्रयत्न मिथ्या है। उनका विश्वास है कि ग्रह के द्वारा व्यक्ति अखण्ड सृष्टि से नही वरन् वस्तु के राग से होता है ।
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उपसंहार
जैनेन्द्र के वहद् साहित्य-सागर मे अवगाहन करने के अनन्तर हमे जो कतिपय विचार-भौक्तिक प्राप्त होते है, वे कथा-साहित्य-जगत मे अपना विशिष्ट स्थान रखते है । जैनेन्द्र के साहित्य मे उपलब्ध ये भौक्तिक उनके अपने ही है, किसी से उधार लिए हुए नही है। यही है उनकी वैचारिक विशिष्टता का मूलाधार । उन्होने अपनी भावाभिव्यक्ति में न तो परम्परा से बधने की ही चेष्टा की है और न ही सायास उससे सम्बन्ध तोडने का प्रयत्न किया है। उनकी भाव और विचारगत नवीनता अन्त प्रसूत होने के कारण आग्रह से सर्वथा उन्मुक्त है। जैनेन्द्र के साहित्य का उत्स उनकी अन्तर्व्यथा ही है । अभावजन्य वेदना ही उनके साहित्य का उत्स बनी है। वस्तुत 'स्व' से 'पर' की ओर अर्थात् अपनी निजता को लेकर परता की ओर उन्मुख होने के कारण उनके साहित्य मे प्रात्मानुभूति . और सत्य' का समावेश सहज रूप से ही होता गया है। बाह्य-परिवेश उनके बोद्धिक धरातल से टकरा कर ही रह गया है, वरन् वह अन्तश्चेतना के रस का सस्पर्श करता हुआ पुन. साहित्य के माध्यम से बाह्यमुखी हुआ है। " ___ जैनेन्द्र से पूर्व साहित्य-सृजन की प्रक्रिया बाह्य स्थिति और समस्यायो को लेकर गतिशील हुई थी। सम-सामयिकता के प्रभाव के कारण उनकी रचनाओ मे समय से ऊपर उठने की प्रवृत्ति दृष्टिगत नही होती, किन्तु जैनेन्द्र का साहित्य काल से जडित नही है । उसमे देश और काल से ऊपर उठकर मानव जीवन के शाश्वत और चिरन्तन सत्यो की अभिव्यक्ति दृष्टिगत होती है । जैनेन्द्र ने अन्तश्चेतना को प्रमुखता देते हुए भी बाह्य स्थितियो की अवहेलना नहीं की
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
है। क्योकि उनके चिन्तन का आधार तो बाह्य-परिवेश ही था । अन्तर केवल उसकी अभिव्यक्ति के कारण ही उत्पन्न होता है। ___जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे मनुष्य द्वारा विकसित जीवविज्ञान, अर्थशास्त्र, राजनीति, धर्म प्रादि का मानव जीवन की सापेक्षता मे विवेचन किया है। मानव जीवन की पूर्णता, परिस्थिति और परिवेश की सापेक्षता मे ही सम्भव हो सकती है, किन्तु परिवेश बाह्य रूप तक ही सीमित है । बाहा रूप पर सामान्यत सभी की दृष्टि पडती है। किन्तु महत्ता उसकी है, जो स्थिति के मूल मे अदृश्य सत्य को पकडने की चेष्टा करता है और बाह्याकर्षण मे ही अपने को परिमित नही रखता । जैनेन्द्र ने परिवेश रूप पल्लव ओर शाखाप्रो के रूपाकार मे फसकर उसके मूल की अवहेलना नहीं की है। यह आवश्यक नही कि जीवन अथवा साहित्य का उत्स आकर्षक ही हो, किन्तु सत्य, सत्य है। उसके सुन्दर-असुन्दर, भले-बुरे होने से कोई अन्तर नही आता । यह सत्य ही जैनेन्द्र के समग्र साहित्य मे सहज रूप से अभिव्यक्त होता हुआ दृष्टिगत होता है। यदि हम जैनेन्द्र के साहित्य का सूक्ष्म अवगाहन करे तो उसके मूल में हमे एकमात्र सत्य का स्वर ही व्वनित होता हुआ दृष्टिगत होगा । समस्या छोटी हा, या बडी, शाश्वत हो या चिरन्तन, घर की हो या बाहर की- सब के मूल में उन्होने सत्य को ग्रहण करने की चेष्टा की है। ___सर्वप्रथम जैनेन्द्र के विचारो का मूल स्वरूप हमे उनकी जीववैज्ञानिक दृष्टि मे उपलब्ध होता है । मानो वही रूप उनके समस्त साहित्य मे छाया हुमा है । सुप्रसिद्ध जीव वैज्ञानिक डार्विन ने जीवन का विकास पशु से माना है। जैनेन्द्र डार्विन के इस विचार से सहमत है, किन्तु वे वैज्ञानिक ही नही है, दार्शनिक भी है। उनकी दृष्टि वर्तमान तक ही सीमित न रहकर उसके पूर्व अथवा उसके उत्स को जानने की चेष्टा करती है । जैनेन्द्र ने सम्बुद्धि के द्वारा आविन के विचारो से एक कदम पीछे हटने की चेष्टा की। उन्होने पशुता के मूल मे सत्य को देखने का प्रयास किया। जैनेन्द्र ने विकासवादी पशुत्व के मूल मे देवत्व को हिसा मे अहिसा की स्थिति के आधार पर स्पष्ट करने की चेष्टा की है। पशुत्व के मूल मे देवत्व की भावना उनके साहित्य मे सर्वत्र दृष्टिगत होती है।
जैनेन्द्र ने जीवन के शाश्वत सत्यो यथा ---ईश्वर, जीव, जन्म, मृत्यु आदि के सम्बन्ध मे आत्मानुभूति सत्य का प्रकटीकरण किया । जैनेन्द्र की दृष्टि में ईश्वर सत्य ही नहीं हे, वरन् वही एकमात्र सत्य है । उससे परे सब मिथ्या हे । सत्य अद्वैत है । वह चर्चा का विषय नही बन सकता किन्तु व्यावहारिक जीवन मे वही सत्य ईश्वर के नाना रूपो मे ग्रहण किया जाता है । भक्त अपनी अनुभूति के अनुकूल उसे प्रतिमा प्रदान करता है । जैनेन्द्र की ईश्वरीय आस्था
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उपसहार
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उनके समस्त साहित्य मे श्रद्धा और आत्मविश्वास तथा भाग्य निर्भरता के रूप मे लक्षित होती है। ___ जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति की समस्त क्रियाओ का मूलाधार उसकी धार्मिक दष्टि में ही समाविष्ट है। उन्होने धर्मपूर्वक ही राजनीति, धर्म और समाज आदि समस्याओं को सुलझाने का प्रयास किया है । जैनेन्द्र की दृष्टि मे धर्म परम्परागत कर्मकाण्ड से पृथक् जीवन की सहजता अथवा प्रकृति की स्वीकृति मे ही समाहित है । अहिसा, अपरिग्रह, दया, प्यार, सेवा आदि मानवीय गुणो का भी उन्होने यत्र-तत्र विवेचन किया है । उनकी दृष्टि मे मोक्ष जगत से मुक्ति नही है, वरन् अह से मुक्ति हे । वस्तुत ससार मे रहकर भी व्यक्ति मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है । इस सम्बन्ध मे जैनेन्द्र जैन दर्शन से तटस्थ है । जैनियो का कैवल्य उन्हे स्वीकार नही है।
जैनेन्द्र ने अह को अशता के रूप मे स्वीकार किया है। उनके अनुसार कुल अस्तित्व अखण्ड है। कुल मे जो खण्डितता की प्रतीति आई है, उसे हम दो मायामो मे विभाजित कर सकते है----काल और आकाश । इन दो आयामो के मेल अथवा काट का बिन्दु ही अह बिन्दु है । काल और प्राकाश के मिलन-बिन्दु मे चेतना का प्रवाह होने से पृथकता अथवा 'मैं' का बोध होता है। जैनेन्द्र ने 'अह' शब्द को कई अर्थों में स्वीकार किया है। प्रथमत अह अस्तित्वबोधक है । 'मैं' का अपर रूप अहकार बोधक है । जैनेन्द्र के अनुसार अह का विसर्जन अर्थात् 'मे' भाव का त्याग ही जीवन का प्रमुख लक्ष्य है । 'मै' और 'पर' के प्रश्न को उन्होने 'स्व' पर के रूप में भी लिया है। 'मै' अथवा 'स्व' की परोन्मुखता ही उनके साहित्य का इष्ट है। समाज और राजनीति में 'मह' का यह रूप व्यक्ति के रूप में प्राप्त होता है। ___सामाजिक स्तर पर जैनेन्द्र ने स्त्री-पुरुष सम्बन्ध को लेकर ही तत्सम्बन्धित विभिन्न समस्याओ की अोर दृष्टिपात किया है। परिवार, विवाह, प्रेम-विवाह वैवाहिक जीवन में प्रेम, कामभावना, वेश्यावृत्ति आदि विषयो का विवेचन उन्होने अपनी अनुभूति के आधार पर प्रस्तुत किया है। जैनेन्द्र ने सामाजिक मर्यादा का निषेध नही किया है और न ही वे परिवार को तोडने के पक्ष में है, किन्तु जहा तक प्रेम का सम्बन्ध है, उसे वे सामाजिक बन्धन से मुक्त मानते है। काम और प्रेम को लेकर उनके साहित्य मे अनेकानेक समस्याए दृष्टिगत होती है । यह सत्य है कि विवाह मे प्रेम द्वारा जैनेन्द्र ने जीवन के एक महत्वपूर्ण सत्य की ओर दृष्टिपात किया है, क्योकि इस सत्य से कोई नकार नही सकता कि विवाह के बाद पति-पत्नी का आकर्षण बाहर की ओर से पूर्णतया समाप्त हो जाता है और वे परिवार के घेरे मे बन्द हो जाते है । हम व्यक्ति
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३१२
जैनेन्द्र का जोवन-दर्शन गत अनुभव के आधार पर यह कह सकते है कि विवाह के अनन्तर भी प्रेम की स्थिति बनी रहती है । यह बात दूसरी है कि वह काम के स्तर पर घटित होता हुआ न दिखायी दे। किन्तु साहित्य मे सच्चाई को न भी व्यवत करके सदैव मर्यादा को ही अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है । सत्य के छिपाव मे व्यक्ति का छल ही अन्तर्भूत होता है । यदि जीवन के सम्बन्ध सहज हो तो उनमे विकृति आने का प्रश्न ही नही उठता।
जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति सत्-असत् गुणो की समष्टि है। महत्ता अथवा तुच्छता उसके व्यक्तित्व का अग हे । एक की स्वीकृति और अन्य के निषेध मे व्यक्तित्व की पूर्णाभिव्यक्ति सम्भव नही हो सकती । व्यक्तित्व की पूणता के लिए उसका सब कुछ स्वीकार करना होगा । जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति देवता और पशु के बीच की कडी है । अतएव उसमे दोनो के अशो का होना स्वाभाविक ही है । जब कभी वह अपने अन्तस् की तुच्छता को दबाने का आग्रह करता है तो उसके व्यक्तित्व मे विकार उत्पन्न हो जाता है । जैनेन्द्र के अनुसार साहित्य मे तुच्छ अथवा दलित व्यक्ति भी उतना ही माननीय है, जितना प्रतिष्ठित ।
जैनेन्द्र ने जीवन की राजनीतिक, सामाजिक आदि समस्याओ को व्यक्ति की सापेक्षता मे ही स्वीकार किया है । राजनीति में प्रचलित विभिन्न वादो मे उनकी दृष्टि मे वही वाद सत्य अथवा स्वीकृत हो सकता है, जिसमे व्यक्ति का हित प्रधान हो । व्यक्ति की उपेक्षा करने वाला वाद स्वार्थ का ही पोषक है। ___ जैनेन्द्र ने भाग्य, कर्म, परम्परा तथा जीवन-मृत्यु के सम्बन्ध मे अपने मौलिक विचारो का प्रतिपादन किया है। उनकी परम आस्तिकता उन्हें किसी पल भी भाग्य के चक्र से मुक्त नही होने देती। उनके पात्र अतिशय भाग्यवादी है । जैनेन्द्र के अनुसार पुरुषार्थ की सार्थकता केवल कर्मशीलता मे ही है। भाग्य पुरुषार्थ का सहयोगी होकर ही चलता है। पुरुषार्थ मे जब निराशा मिलती है तो भाग्य के सहारे उनके पात्र टूटने से बच जाते है । जैनेन्द्र ने कर्म-परम्परा को पूर्व जन्म अथवा पुनर्जन्म की शृखला से नही जोडा है। उनके अनुसार पुनर्जन्म होता है, यह सत्य है, किन्तु कोई यह नही देखने जाता कि पुनर्जन्म द्वारा पूर्वजन्म के कर्मों और सम्बन्धो मे सम्बन्द्धता होती ही है। इस तथ्य को जैनेन्द्र ने पतझड के आधार पर स्पष्ट किया है । उनके अनुसार प्रतिवर्ष पतझड मे पत्ते झर जाते है और पुन बहार आने पर उनमे नये पल्लव आ जाते है, किन्तु कह कौन सकता है कि ये वही पल्लव हे जो कि पिछली पतझड मे झरे थे। इस प्रकार जैनेन्द्र इस जन्म को पूर्व अथवा पुनर्जन्म से सम्बद्ध नही मानते । उनकी दृष्टि मे पुनर्जन्म की सार्थकता केवल व्युक्ति के बार-बार जन्म होने मे ही है । जैनेन्द्र के अनुसार व्यक्ति के कर्म मृत्यु के बाद
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उपसंहार
३१३ उसके साथ नही जाते वरन् यही कालाकाश मे व्याप्त हो जाते हे तथा साहित्य और इतिहास के रूप में स्थायी रहते है। जैनेन्द्र के अनुसार मृत्यु मे जीवन का अन्त नही है । मृत्यु जीवन का द्वार है । मृत्यु की चेतना से व्यक्ति सतत् कर्मशील रहता है किन्तु मत्यु का भय अपेक्षित नही है ।
जैनेन्द्र ने मानव जीवन का सश्लेषणात्मक स्वरूप व्यक्त किया है। उन्होने मानव जीवन को खण्ड रूप मे न देखकर पूर्ण इकाई के रूप मे विवेचित किया है। इसीलिए वे व्यक्तित्व मे होने वाली काट-छाट को उचित नही समझते । उन्होने जीवन की समग्र अभिव्यक्ति की है। उनके सश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को गेस्टाल्टवाद के समकक्ष मे विवेचित किया जा सकता है, तथापि उनमे कुछ मूलभूत अन्तर दृष्टिगत होता है, जिसके कारण वे गेस्टाल्ट के विचारो से तटस्थ प्रतीत होते है।
जैनेन्द्र-साहित्य का अध्ययन करने के अनन्तर हम इस निष्कर्ष पर पहुचते है कि उनके विचारो पर भारतीय तथा पाश्चात्य विचारको की छाप तत्कालीन परिस्थितियों के कारण यत्र-तत्र दृष्टिगत होती है । तथापि जैनेन्द्र को किमी वाद विशेष का प्रचारक अथवा अनुगामी नही माना जा सकता। क्योकि वे परिस्थिति की सापेक्षता में भी अपनी अनुभूति की सत्यता से वचित नही रहे है। जैनेन्द्र के सम-सामयिक फ्रायड, मार्क्स आदि विचारको मे भौतिकता की ओर अधिक उन्मुखता है । फ्रायड ने मनोविश्लेषण के आधार पर व्यक्ति की समस्त क्रियाओ का मूल 'निबिडो' मे देखा है। उनके अनुसार काम ही व्यक्ति की समस्त क्रियाओ का सचालक है। उन्होने अचेतन मन को दमित वासना का केन्द्र माना है। किन्तु जैनेन्द्र काम को जीवन का अनिवार्य अग मानते हुए भी उसे फ्रायड की दृष्टि से स्वीकार नहीं करते ना ही उन्होने मन को चेतन, अचेतन, अवचेतन स्तरो मे विभाजित ही किया है। विश्लेषण के द्वारा व्यक्तित्व की समग्रता विनष्ट हो जाती है । तथा हार्दिक सवेदना के लिए भी कोई स्थान नही रहता । फ्रायड और जैनेन्द्र की दृष्टि मे मूल पार्थक्य जैनेन्द्र की प्राध्यात्मिकता के कारण उत्पन्न होता है। जैनेन्द्र ने अचेतन मन को भगवत्ता अथवा सत्य का केन्द्र माना है, पाप का पुज नही । इस प्रकार अचेतन द्वारा प्रेरित क्रियाए सत्योन्मुख होती है, कामोन्मुख नही । ____ मार्क्स की दृष्टि अर्थप्रधान है । उन्होने भौतिक-सुख-सुविधा के लिए ही अधिकाधिक धन वृद्धि तथा समता पर जोर दिया है। मार्क्स की दृष्टि मे अर्थ का समान वितरण अत्यधिक आवश्यक है । इस हेतु वे हिसात्मक क्रान्ति का सहारा लेना आवश्यक ही नही, अनिवार्य समझते है। किन्तु जैनेन्द्र साधन की शुद्धता के आधार पर प्राप्त होने वाले साध्य को ही स्वीकार करते है । वे रक्त
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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
क्रान्ति के द्वारा लायी जाने वाली समानता के पक्ष मे नही है। उनकी दृष्टि मे इस प्रकार की समानता ऊपर से थोपी हुई है। इसलिए कभी-न-कभी उसकी प्रतिक्रिया की सम्भावना बनी ही रहेगी। इसीलिए जैनेन्द्र परिस्थिति अोर समस्या को लेकर किये जाने वाले सुधार के पक्ष मे नही हे । उनकी दृष्टि मे यदि सुधार होना ही है तो वह व्यक्ति की अन्तश्चेतना मे ही होना चाहिए । यदि व्यक्ति के मन मे ही स्वार्थ की भावना न होगी तो वह स्वत ही आदर्शोन्मुख प्रतीत होगा। वस्तुत सुधार की भावना अन्त प्रसूत होनी चाहिए। इसका मूल आधार व्यष्टि द्वारा समष्टि के प्रति विसर्जित होने मे ही लक्षित होता है । मार्क्स की समस्या अर्थ प्रधान थी। जैनेन्द्र ने भी अर्थ को महत्वपूर्ण माना है, किन्तु उनकी दृष्टि मे अर्थ ही साध्य नही हो सकता, इस प्रकार वे अर्थ और काम को मार्ग मे ही मानते है। उनके अनुसार धर्मपूर्वक अर्थ और काम के मार्गो से गुजरते हुए मोक्ष की ओर उन्मुख होना ही जीवन का लक्ष्य है।
जैनेन्द्र के विचारो पर यदि किसी का प्रभाव पडा है तो वह गाधी जी है। जैनेन्द्र गाधी से प्रभावित है, पर गाधीवाद से बधे नही है। उन्होने विचारो का सार ग्रहण किया है, वाद से स्वय को जडित नही किया है। इसीलिए वे गाधी से इतना प्रभावित होते हुए भी अपने को गाधीवादी नही मानते । गाधी की अहिसा-नीति, सर्वोदय भावना, कुटीर उद्योग, अद्वैत निष्ठा, आत्मपीडन आदि का प्रभाव जैनेन्द्र के साहित्य मे स्पष्टत दृष्टिगत होता है । जैनी होने के कारण जैनेन्द्र पर धर्म का प्रभाव पडना भी स्वाभाविक भी है, किन्तु वे जैन धर्म से प्रभावित होते हुए भी उसकी मान्यताप्रो के पक्ष मे नही है। उनके अनुसार निषेध अथवा नकार के द्वारा कोई भी धर्म पूर्ण नही हो सकता। जैन धर्म में जीवन के सुख तथा मानव प्रकृति का निषेध किया गया है । जैनेन्द्र ने जैन धर्म की तपश्चर्या द्वारा कैवल्य की प्राप्ति को स्वीकार नही किया , क्योकि उसमे व्यक्तित्व को पूर्णता नही प्राप्त होती। जैन धर्म की अति अहिसात्मक दृष्टि भी उन्हे मान्य नही है । जैनेन्द्र के अनुसार भावना की शुद्धता द्वारा यदि कभी हिसा हो जाय तो वह पाप नही है । जैनेन्द्र की अहिसा-नीति गाधी की अद्वैत वादी विचारधारा से अधिक अभिभूत है । जैन दर्शन की स्व पर मूलक धारा उन्हे प्रभावित नहीं कर सकी है। जैन धर्म मे शरीर को 'पर' तथा प्रात्मा को 'स्व' माना है। 'पर' से मुक्ति ही उनके धर्म का उद्देश्य है जो जैनेन्द्र को स्वीकार नहीं है। यदि जैनेन्द्र जैन धर्म के किसी तथ्य से प्रभावित है तो वह है स्यादवाद जो कि विश्वव्यापी महत्व रखता है।
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जेनेन्द्र का जीवन-दर्शन
पृष्ठ प्रशसभर
पष्ठ
प्रशुद्ध
की
२८ निहाय
मागि १०१ शुद्ध पाय पढे--स्यादाद में फायाशी तनिक भिन्नता तो यह है
कि प्रत्यक कथन स्वय अपने ५१ बारा भाग्य बाधिता में 'अस्ति' और 'नास्ति' दोनो ५३ में
हो। इसमें गभित है कि वह
'वस्तु है, वह वस्तु नहीं है।' 'अनन्तर' १०३ पराब' अपने 'परख' मे कट्टो
अपन हमम पत्येक १०. साहित्य
साहित्य के मृजनामा सृजनात्मक
पक्ष में... समभाग
समभाना १०७ धन के धन से स्वार्थ
पधिकाश पात्र स्वार्थ-साधन साधना ७१ की प्रश्रय नहीका प्रश्रय नही १०६ जैनेन्द्र-धर्म जैन धर्म ७१ माग
महश ११३ जीवन 'प्रानन्द इकाई ही-- ७१
सत्य के ७२ सहश्य
महश ११३ विसदीकरण विस्तार हो तो ११४ अस्मि
अस्थि ७३ गत्य स्वीकार्य १२६ मन्त
महन्त रूप १४० 'नोलए' 'तो लाए' ७५ पारम्परिक पारम्परिक १४३ मन
मनमय ওও হয়। मश १४७ अह से
अह के ७६ परिचायिका परिचालिका १५१ भोज्य
भोग्य ७६ अभिमानता निरभिमानता १५८ उसका
उसमें ८० मुझे
१६० आस्तिक आस्तिकता ८२ सपश्य सरश १६३ अह की
अह को ८२ सुखदा से 'सुखदा' मे १६३ वह आलोचना यह आलोचना ८७ 'मुद्गल' पुद्गन' १७५ हिंसाकारी हिंसा का ही ८८ जिसमें
जिससे १७६ भूत
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________________ पृष्ठ अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ अशुद्ध शुद्ध 192 176 उत्बुद्ध उत्कद्ध 256 रूपकार रूपाकार 162 अवलम्ब ही अवलम्ब की 256 विद्या का क्षेत्र विधा का क्रोध 'बोध' कितना क्षेत्र इतना 167 समृद्ध करता समृद्व प्रतीत 256 अभिव्यक्ति अभिव्यक्त 261 कह पन्था क पन्था 197 निर्वैयक्तिक निर्वैयक्तिक 262 निश्रित / निहित 200 'विज्ञान' 'वि-ज्ञान' 264 साहित्य- साहित्यिक 201 साहित्य ने साहित्य मे प्रक्रिया प्रक्रिया 201 मिश्रण नही है मिश्रण है 268 सारा धन सारा भ्रम 203 नैतिक अनैतिक 266 नही प्रतीत प्रतीत होती 210 हृदय रूप छद्म हृदय रूप होती 210 आत्मदास आत्मदान 270 जैनेन्द्रकुमार जैनेन्द्र के 215 आनन्द और आदर्श और अनुसार यथार्थ यथार्थ 271 उसे 216 अपूर्ण प्रापूर्ण 277 निमृत निभृत 222 निर्णय निषेध 278 जीवन मे जीवन ने 222 जागितभेद जातिगत भेद 278 निमत निसृत 222 गहरी व्यवस्था गहरी व्यथा 276 तद्यपि तथापि 226 अपनी निजत्व अपने निजत्व 280 अन्तभूत अन्तर्भूत 226 'अपना प्रदर्शन 'अपना-अपना 283 क्या में यही क्या मै यही अपना भाग्य भाग्य' 284 को अतिक्रमिक को अतिक्रमण 226 धार्मिक आर्थिक 284 की यथातथ्य की यथातश्य 235 शब्दो का द्वन्द्वो का झलक 236 प्रेम का प्रेम का 285 धुधात्मक द्वन्द्वात्मक आधार अभाव 287 'कल्याण' 'कल्याणी' 238 निषेध न करके निषेध करके 287 'प्रीति इतनी प्रीति की 246 विद्या है विधा है 265 राज्य से पर राज्य से परे 247 आवश्यकतागत आवश्यकतावश 300 मे जानता कुछ मे जानना कुछ 247 विकसिक विकसित नही है, नहीं है, 250 पारम्परित पारम्परिक 308 आम वादिता अहवादिता 252 जेनेन्द्र जैनेन्द्र 306 विचार-भौक्तिक विचार२५२ जैनेन्द्र से जैनेन्द्र के मौक्तिक 257 शेष साहित्य श्रेष्ठ साहित्य 306 ये मौक्तिन' ये मौक्तिक REENTERTREERa हम