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________________ १४६ जैनेन्द्र का जीवन-दशन और बाह्य जगत की समष्टि है । पीडा अह अर्थात् व्यक्ति की सापेक्षता मे ही सम्भव हो सकती है। जैनेन्द्र की ग्रह सम्बन्धी विचारधारा उनके गहन चिन्तन और मनन का परिणाम है। उनका चिन्तन और मनन शास्त्रीय ज्ञान पर अवलम्बित न होकर स्वानुभव पर ही आधारित है। प्रात्मनिष्ठ होने के कारण जैनेन्द्र स्वानुभव को ही अपने विचारो की अभिव्यक्ति का आधार मानते है। उन्होने अपने विचारो के विश्लेषण के लिए भारतीय और पाश्चात्य दर्शन-शास्त्र अथवा मनोविज्ञान का मन्थन नही किया है। व्यक्तिगत जीवन के आस-पास के वातावरण के सूक्ष्म अध्ययन और अन्तश्चेतना के आधार पर ही उन्होने अपने विचारो की प्रतिष्ठापना की है। यद्यपि यह सत्य है कि विचारो की पुष्टि अथवा प्रामाणिकता के हेतु उन्होने किसी विशिष्ट दार्शनिक परम्परा को नही अपनाया तथापि सस्कारवश स्वाभाविक रूप से ही उन पर विभिन्न पाश्चात्य तथा पूर्वात्य दार्शनिक विचारो की झलक स्पष्टत दृष्टिगत होती है । व्यक्ति स्वय को परम्परा और परिवेश से पूर्णत मुक्त नही कर सकता, तथापि वह उस परम्परा मे अपनी मौलिक सूझ-बूझ की स्थापना के हेतु पूर्णत स्वतन्त्र है। वस्तुत जैनेन्द्र के विचारो पर अनायास ही भारतीय अद्वैत वेदात और साख्यदर्शन तथा कतिपय पाश्चात्य दार्शनिको की छाया परिलक्षित होती है । जैनेन्द्र ने आत्मगत जीवन से परे राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक आदि विभिन्न क्षेत्रो मे अह की विवेचना की है। जैनेन्द्र के विचारात्मक निबन्ध तथा प्रश्नोत्तर रूप मे सग्रहीत विचार उनके आध्यात्मिक चिन्तन का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते है । 'समय और हम' पुस्तक मे उन्होने अह का आध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक रूप प्रस्तुत किया है। उनके उपन्यास और कहानिया भी अह सम्बन्धी विचारो की व्यावहारिकता को प्रस्तुत करने में सहायक है। अह का स्वीकारात्मक अर्थात् अस्तित्वबोधक रूप और उसका निषेधात्मक अर्थात् अहकार सूचक रूप जैनेन्द्र के उपन्यास और विशेषत कहानियो मे परिलक्षित होता है । 'समय और हम' मे प्रश्नकर्ता ने उपोद्घात मे जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन को चार भागो मे विभाजित करके उनकी विवेचना की है । चारो विभागो मे परोक्ष अथवा अपरोक्ष रूप से उनके अह सम्बन्धी विचार व्याप्त है । अह ही वह सूत्र है जो जीवन की विविधता मे व्याप्त होकर भी एकता की प्राप्ति की ओर प्रयत्नशील है । जीव ब्रह्म से तादात्म्य, अहता और आत्मता तथा परस्परता और अहिसा सम्बन्धी दृष्टिकोण मे जैनेन्द्र की अह दृष्टि ही अनुप्राणित है । जैनेन्द्र के साहित्य मे अह की विशद् विवेचना को दृष्टि में रखते हुए उसके स्वरूप को जानना अनिवार्य है । सर्वप्रथम प्रश्न उठता
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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