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जैनेन्द्र के जोवन दशन की भूमिका
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घटनामो मे ही रगते रहे। उन्होने जटिल से जटिल समस्या का समाधान भी जीवन की मावहारिकता मे ही प्राप्त किया है । सत्य का शोध करने के लिए वे सगार से नहीं गये, न ही उन्होने परम्परागत दार्शनिको के सादृश्य अपना कोई दर्शन प्रस्तुत किया है। भारतीय दर्शन के क्षेत्र मे प्राय प्रधिकाश दार्शनिक अपने पूर्व प्रतिष्ठित मान्यताओ के आधार पर ही अपना प्रत्ययन मीर विश्लेषण पारम्भ करते थे । उनके समक्ष खण्डन - मण्डन की प्रतिया ही प्रधान होती थी । किन्तु जैनेन्द्र मान व्रष्टा है, मत विशेष काटा होने पोग्य भी नही स्वीकार करते । वे जीवन के प्रति इतने राजग रहे कि प्रतिदिन की घटित होने वाली घटनाओ का प्रभाव उन पर पड़े बिना नही रहा ।
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स्वय को किसी
चिरन्तन में समय की निरन्तरता का बोध होता है । जीवन के वे प्रश्न जो प्रतिदिन की घटनाओ से संबंध रखते है, वे ही विरन्तन कहे जा सकते है | जैनेन्द के साहित्य को विशिष्टता चिरन्तन प्रश्नो के मूल मे समाविष्ट सत्य की खोज करने में ही दृष्टिगत होती है। सामाजिक, ऐहिक, राजनीतिक प्रदिपना के परी माकार प्रकार मे ही वे सन्तुष्ट नही होते सौर न ही उसमें सवार की पावापकता राम कते है । उनकी में यदि व्यक्ति से जीवन के पाप हो जाय तो वाह्य जीवन की समस्त विषमताए स्वत ही दूर हो जायेगी । तव उन्होने साधार पर दृष्टि डाली है, प्रादर्श पर नही । स्व पर की समस्या जीवन की सबसे विकट तथा विशद् समस्या है । घर परिवार सवेकर राष्ट्र के मूल मे 'स्व-पर' का द्वैत और द्वैत से उद्भूत ही प्रधानत दृष्टिगत होता है । जैनेन्द्र के प्रनुसार द्वैत की स्थिति जगत को सता के लिए अनिवार्य घोर स्वाभाविक है, किन्तु द्वैत अन्तिम सत्य नही है, अन्तिम सत्य यद्वैत की प्राप्ति के हेतु स्व अथवा पर को मूलत मिटाना वा अस्तित्व का ही समाप्त करना नही है, वरन स्व का प्रदर्श पर के सम्मुख समर्पित होना है। स्व पर की परम्परा द्वारा जीवन की बडीसे बडी समस्याए सहज ही समाप्त हो सकती है ।
जैनेन्द्र ग्रात्मपरक प्रास्तिक साहित्यकार और जीवन-द्रष्टा है । उनके जीवन का सत्य आत्मोपलब्धि प्रथवा ग्रात्मोन्मुखता मे ही प्राप्य है । प्रेमचन्द का साहित्य उनकी वस्तुनिष्ठ प्रकृति का परिचायक है । वे समाज की रामाश्रा से घिरे थे । व्यक्ति की श्रात्मा उनके साहित्य मे इतनी मुखरित नही हो सकी थी, जितनी कालान्तर मे जैनेन्द्र के साहित्य मे हुई है । जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन जिन मान्यता पर आधारित है, वे स्वत ही उन्हे श्रात्मोपलब्धि की ओर उन्मुख करती है ।