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________________ जैनेन्द्र की दृष्टि में भाग्य, कर्म-परम्परा एवं मृत्यु कि जैनेन्द्र के पात्र विषम से विषम परिस्थितियो मे निराश होकर टूटते नही, वरन् स्नेह और प्रेम की धारा उनमे जीवन-शक्ति का प्रवाह करने में सक्षम होती है। निष्काम-कर्म भाव जैनेन्द्र के विचारो पर गीता की निष्काम कर्म-भावना का पूर्ण प्रभाव लक्षित होता है । 'गीता' मे अर्जुन को कर्म-शीलता का उपदेश देते हुए कृष्ण ने कहा है कि 'जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा मे अर्पण करके (और) आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है वह पुरुष जल से कमल के पत्ते के सदृश्य पाप से लिपायमान नही होता । व्यक्ति समस्त इन्द्रियो से कर्म-रत होते हुए भी यह माने कि 'मै कुछ नही करता है। जैनेन्द्र के अनुसार कर्तृत्व भाव से हीन रहने वाला व्यक्ति अपने समस्त कर्मो को ईश्वरेच्छा से सचालित होता हुआ स्वीकार करता है। उसके अनुसार विधाता ही सर्वोपरि है। उन्होने बार-बार अपनी रचनाओ मे इस सत्य की ओर सकेत किया है कि 'मै नही हू, क्योकि शून्य हैमै कुछ नही हू यह अनुभूति ही मेरा सब कुछ है। जैनेन्द्र के अनुसार इस प्रकार की निस्पृह भावना व्यक्ति को कर्म से विमुख नही करती, वरन् उसे कर्तृत्व के अहकार से मुक्त करती है । वस्तुत जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य का निर्णय व्यक्ति की प्रगति मे बाधक नहीं होता। पुरुषार्थ जैनेन्द्र के साहित्य मे अभिव्यक्त भाग्यवादिता कोई नई घटना नही प्रतीत होती है, क्योकि भारतीय, यूनानी, इस्लाम आदि सभी धर्मो तथा दर्शनो मे व्यक्ति की भाग्यवादिता का परिचय मिलता है। भारतीय दर्शन मे भी भाग्य १ श्री मद्भगवद्गीता-ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्ग त्यक्त्या करोति य । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रामिवाम्भसा ॥१०॥ श्री मद्भगवद्गीता--अध्याय ५, श्लोक १०, गीताप्रेस, गोरखपुर । श्री मद्भगवद्गीता--अन्य श्लोक १२ अध्याय ६।२७, २८।१०।६, ६।१२ २ श्री मद्भगवद्गीता-नैव किचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् । पश्यन्विशृण्वन्स्पृशजिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपझ्वसन् ॥ प्रलपत् विसृजन् गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥६॥ अध्याय-५,श्लोक ८,६ ३ जैनेन्द्रकुमार . 'जनेन्द्र की कहानिया' (उपलब्धि तीसरा भाग), पृ० स० १२६ । ४ हीरेन्द्रनाथ दत्त 'कर्मवाद और जन्मान्तर', स० १९८६, इलाहाबाद, पृ० स० १०५।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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