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________________ जैनेन्द्र के जीवन-दर्शन की भूमिका ५३ होता, किन्तु अहन्ता भेद-भाव मूलक है। आत्मता आन्तरिक चेतना है, किन्तु उसे सक्रिय होने के लिए ग्रहन्ता का आश्रय लेना पडता है और अहन्ता भी आत्मा के अवलम्ब पर स्थिर है। जैनेन्द्र ने अहन्ता और आत्मता को एकदूसरे की सापेक्षता मे स्वीकार किया है। उनके अनुसार प्रात्मता ही सत्य और स्वीकार्य है। प्रात्मोपलब्धि मे स्वचेतना ही प्रधान नही होती। वरन् 'स्व' मे 'पर' मे उन्मुखता की प्रेरणा विद्यमान होती है। 'स्व' को हम 'पर' मे ही प्राप्त कर सकते है। 'अपने को पा जाना, सब को पा जाना है। • • इसलिए प्रात्मोपलब्धि कोई वैयक्तिक आदर्शमात्र नही है, वह एक ही साथ सामाजिक और समष्टिपरक है।'' __ जैनेन्द्र के कथा-साहित्य मे आत्मा का स्वरूप अखण्ड अथवा समग्न रूप मे स्वीकार किया गया है । उन्होने अहता और आत्मता का लौकिक व नैतिक अर्थ न ग्रहण करके उसे वैज्ञानिक रूप से स्पष्ट किया है। जैनेन्द्र के अनुसार अहन्ता अर्थात प्रश का पूर्ण से भिन्न अस्तित्व और अात्मता अर्थात् अश का समग्र व्यक्तित्व । व्यक्ति अपने-अपने प्रहबोध से समग्रबोध की ओर उन्मुख होता है । जैनेन्द्र की प्रात्मपरक नीति इसी सिद्धान्त पर आश्रित है । ग्रह सदैव कर्मरत है। भाग्य व्यक्ति की कर्म-तत्परता में बाधक नही होता। भाग्य व्यक्ति के कर्मों का निर्णायक है । व्यक्ति होनहार के हाथ मे है। भारतीय दर्शन में कर्मानुसार पुनर्जन्म हो जाता है। जैनेन्द्र की कर्म और पुनर्जन्म सम्बन्धी धारणा परम्परागत भारतीय दार्शनिको से भिन्न है। उनके अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा परमात्मा मे समाविष्ट हो जाती है, किन्तु यह आवश्यक नही कि वही आत्मा अपने पूर्व कर्मो को साथ लेकर शरीर धारण करती है। मृत्यु के बाद कर्म, क्षितिज मे उसी प्रकार व्याप्त हो जाता है जिस प्रकार बूद समुद्र मे मिलकर अस्तित्वहीन हो जाती है। इस दृष्टि से कर्म का कोई महत्व नही रहता और जन्म जन्मान्तर तक शुभ कर्मो द्वारा उत्तरोत्तर मुक्ति की प्राप्ति का प्रयत्न भी निर्मूल्य हो जाता है। जैनेन्द्र कर्म के सम्बन्ध मे यह स्वीकार करते है कि व्यक्ति के कर्म अन्तरिक्ष में समाहित होकर व्यक्ति के न रहकर समष्टि के भी हो जाते है। इस प्रकार अपने कर्मों के लिए स्वय ही उत्तरदायी नही होता, वरन् उसे समष्टि के प्रति भी उत्तरदायी होना पडता है। इसलिए उसे अपने पाप-पुण्य के प्रति अधिक सतर्क रहना पडता है। १ जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', पृ० ६१ । २. जैनेन्द्र कुमार 'समय और हम', पृ० २० (उपोद्घात-वीरेन्द्रकुमार गुप्त)
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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