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________________ जैनेन्द्र की दृष्टि मे भाग्य, धर्म-परम्परा एवं मृत्यु १३७ हुए उनके मृत्यु सम्बन्धी विचारो का विवेचन भी अनिवार्य प्रतीत होता है। जन्म और पुनर्जन्म के मध्य मृत्यु द्वार है, विश्रान्ति है, ठहराव है, किन्तु मौत के बाद फिर जन्म का क्रम अनवरत चलता रहता है। जैनेन्द्र की दृष्टि मे मौत एक गूढ सत्य है । मौत के द्वार से जीवन के गुह्यतम रहस्यो का उद्घाटन होता है। मृत्यु की चेतना व्यक्ति के जीवन मे इस प्रकार व्याप्त है कि प्रतिपल उसके (मृत्यु) अस्तित्व का बोध प्राप्त करता हुआ भी व्यक्ति कर्म-रत रहता है। मृत्यु के बाद सब व्यर्थ है, मिथ्या है, किन्तु व्यक्ति की मौत से जगत की अनन्तता मे कोई व्यवधान नही पडता है । जैनेन्द्र की मृत्यु सम्बन्धी मान्यताओ मे उनके गहन चिन्तन की झलक मिलती है । जीव और मृत्यु के अन्तर्गत रहस्य का उद्घाटन करते हुए जैनेन्द्र ने व्यावहारिक जीवन मे व्यक्ति की मृत्युसम्बन्धी धारणाओ को अपनी रचनाओ द्वारा व्यक्त किया है। जीवन के उन्माद मे उसकी चहल-पहल मे व्यक्ति मौत की सत्यता की ओर ध्यान नही देता, उसे ऐसा प्रतीत होता है मानो जीवन ही है उसके बाद मौत नही है। जैनेन्द्र के साहित्य मे अनेको बार मौत की सत्यता (महत्ता) पर प्रकाश डाला गया है । जैनेन्द्र ने अपने साहित्य मे ऐसी अनेको घटनाप्रो की ओर इगित किया है जब कि परिवार के कई सदस्य एक-के-बाद-एक मौत के ग्रास बन जाते है। मृत्यु का ऐसा दुर्दान्त रूप देखकर ही उन्हे स्वीकार करना पडता है कि मौत अकाट्य सत्य है । ससार मिथ्या है। जैनेन्द्र ने 'अनन्तर' कहानी मे सत्यता पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि मौत एक द्वारमात्र है, अन्यथा सब मिथ्या है केवल ब्रह्म सत्य है । 'रामनाम सत्य है, रामनाम सत्य है ।' मानो राम नाम सत्य के आगे मौत झूठ हो जाती है, मानो नियति के आधार पर हमारा एक उत्तर है । एक राम नाम से मिलकर ही सब मिथ्या हो जाता है। एक को श्मशान घाट पहुचाया जाता है और दूसरा जाने को तैयार हो जाता है, किन्तु व्यक्ति का कर्म (जीवित रहने के कारण) शेष है और और लोगो को भी मरना है । वस्तुत एकमात्र वही सत्य है और वह सत्य है ईश्वर । मृत्यु : एक अनिवार्य सत्य जैनेन्द्र के अनुसार मृत्यु जीवन का अनिवार्य सत्य है । उसकी कल्पना जीवन के लिए बहुत ही सहयोगी तथा शान्तिदायक सिद्ध होती है। 'जगत के जीवन के लिए मृत्यु वरदान है ।' जन्म की एकपक्षीय धारा जीवन को गदला १ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', भाग २, 'अनन्तर,' चौथा सस्करण, १६६६, पृ० स०१।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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