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________________ १३८ जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन कर देगी । जिस प्रकार तालाब की स्वच्छता के लिए निरन्तर स्वच्छ जल का आगमन और अस्वच्छ जल का निगमन अनिवार्य है उसी प्रकार जैनेन्द्र ने जगत की स्वच्छता और स्वास्थ्य के हेतु मृत्यु को अनिवार्य माना है ।' उन्होने 'मौत की कहानी' मे अपने विचारो को व्यक्त करते हुए बताया है कि - 'मोत का सिलसिला बन्द हो जायगा तो जन्म का सिलसिला भी रोक देना पडेगा । नही तो धरती पर ऐसी किचमिच मचेगी कि सास लेने को भी जगह न रहेगी ।" मृत्यु की गोद मे केवल 'आत्मता' का ही प्रस्तित्व रहता है, व्यक्तिमत्ता ( निजता ) समाप्त हो जाती है। गरीबी और अमीरी का भेदभाव मौत मे समाप्त हो जाता है । 'भेद' जगत की सापेक्षता मे सम्भव होता है, किन्तु ससार की परिमिति से परे सब एक है, अभिन्न है । जैनेन्द्र ने जीवन मे और जीवन के अनन्तर भी एकमात्र स्नेह और पारस्परिक प्रेम को ही अनिवार्य माना है, क्योकि मौत के बाद कुछ भी शेष नही रहता, केवल व्यक्ति के स्नेह की स्मृति स्थायी रहती है । स्मृति के सहारे ही व्यक्ति मर कर भी अमर है और अविस्मरणीय हो जाता है । मौत के बाद व्यक्ति के समस्त सम्बन्ध छूट जाते है और वह किसी का न होकर शून्य सा हो जाता है । 'विवर्त' मे इस सत्य पर प्रकाश डाला गया है ।" जैनेन्द्र के विचारो के मूल मे उनकी धार्मिक प्रास्था और नीति के दर्शन होते है । धर्मपूर्वक आचरण ही उनकी सबसे बडी नैतिक मान्यता है । उनकी 'मौत सिर पर है, यह यदि हम याद रखे तो धर्म प्राचरण सहज होता है ।' मृत्यु की सत्यता का बोध यदि व्यक्ति के मन मे बना रहे तो व्यक्ति धर्म के विमुख होकर क्षुद्रता मे नही गिर सकता । १ 'मै मृत्यु का कायल हू । जीवन से अधिक उसका कायल हू । वह परमेश्वर का वरदान है । मै मृत्यु को समाप्त नही चाहता हू । उसके बिना जीवन असह्य हो जायगा ।' 1 -- जैनेन्द्रकुमार ' इतस्तत', पृ० ११३ । २ जैनेन्द्रकुमार 'जैनेन्द्र की कहानिया', तृ० स०, १९६३, पृ० ६८ । ३ 'यो हम कब एक दूसरे के है, कोई केवल अपना नही है, लेकिन क्षरण है कि हम आपस के रह ही नही पाते, कही किसी अपर के हो जाते है । तब मालूम होता है कि आपसीपन खिसककर प्रोढे कपडे के मानिन्द हमसे नीचे उतर गया है । हम किसी के भी नही रहे, अपने भी नही रहे, माने सिर्फ नही के हो गए है । क्या यही कृत कृत्यता है ? या कि यह मृत्यु है ।' - जैनेन्द्र कुमार 'विवर्त', पृ० २१७ । 'जैनेन्द्र की कहानिया' (अनन्तर ), भाग २, पृ० ७ । ४
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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