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________________ जैनेन्द्र और समाज २०७ करने वाली स्त्री को प्रभागिन तक कहा है। स्त्री का राजनीति में प्रवेश वही तक स्वीकार है, जहा तक कि वह पति अथवा प्रेमी की प्रेरणा स्रोत बनी रहती है। 'निर्मम' मे प्रेम के वशीभूत हुई नारी अपने समर्पण से शिवा के प्रति अपने प्रेम को स्थायित्व प्रदान करती है। 'ध्रुव-यात्रा' मे लेखक ने प्रेम और कर्तव्य का अद्भुत आदर्श प्रस्तुत किया है। प्रेमिका प्रेमी को गृहस्थी के बन्धनो मे बाधकर उसकी प्रगति के मार्ग को अवरुद्ध नहीं करती। वरन् स्वय कष्ट झेलते हुए आगे बढने का सदुपदेश देती है। पुरुष के जीवन मे कुछ महत्वाकाक्षाए होती है । स्त्री उनकी पूर्ति मे सहायक होती है । 'मुक्तिबोध' मे नीलिमा कहती है—'आदमी सपने के लिए जीता है और औरत उस सपने के आदमी के लिए जीती है।३ 'जयवर्धन' मे इला प्रतिक्षण जय के साथ रहती हुई भी राजनीतिक परिवेश मे उसके साथ कदम मिलाकर नही चलती, वह जय के साथ रहती है, परन्तु अन्तर्निहित हार्दिकता अथवा आत्मता की भाति ही, उसका बाह्म और सक्रिय रूप तो जय स्वय होता है। जैनेन्द्र की अर्ध नारीश्वर की भावना भी स्त्री पुरुष के इस अन्तनिष्ठ और बहिनिष्ठ व्यक्तित्व मे सदा ही समाहित हो जाती है। ___ जैनेन्द्र ने स्त्री के मातृत्व रूप को बहुत अधिक महत्व प्रदान किया है। प्रेमिका होने के साथ ही साथ वह माता भी है । दोनो भागो से वह प्रेम और स्नेह की वृष्टि करती है । आधुनिक सभ्यता मे आर्थिक विवशता के कारण माता घर से बाहर कमाने के हेतु जाती है। इस प्रकार वह अपने मातृत्व के कर्तव्य को पूर्ण नही कर पाती । यही कारण है कि जैनेन्द्र स्त्री का घर से बाहर आर्थिक क्षेत्र मे पुरुष की सहगामिनी के रूप मे आना उचित नही मानते। उनकी दृष्टि १ (क) 'अभागिन है वह स्त्री जो स्त्री है और राजनीति मे आती है या उसका विचार भी करती है।' –जैनेन्द्रकुमार 'मुक्तिबोध', पृ० ६२ । (ख) 'राजनीति स्त्रियो के लिए नही है।' -जैनेन्द्रकुमार 'जयवर्धन', पृ० २७५ । २ 'मेरी और बच्चो की चिन्ता जरूर तुम्हारा काम नही है । मैने कितनी बार तुमसे कहा कि तुम उससे ज्यादा के लिए हो।' -जैनेन्द्रकुमार 'ध्रुवयात्रा', पृ० स० ६४ । ३. जैनेन्द्रकुमार 'मुक्तिबोध', पृ० ६३ ।। ४ 'मै नही चाहूगा कि माता कमाने के लिए दफ्तर मे जाय और धाय काम करने के लिए बच्चो को अपना दूध पिलाने प्राय ।' -जैनेन्द्रकुमार . 'काम, प्रेम और परिवार', पृ० स० १५१ ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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