________________
जैनेन्द्र क जावन-दर्शन की भूमिका
नैनेन्द्र की अनेकान्ततादी दृष्टि नितान्त प्रहिसक तथा समन्वयमूलक है। वे किसी भी मत का ग्वण्डन नही करते, क्योकि प्रत्येक विचार अपनी सीमा मे सत्य हो सकता है। विचारो और वादो का खण्डन भी एक प्रकार की हिसा ही है । जैनेन्द्र की महिसक नीति कोरी जीव-हत्या तक ही सीमित न होकर व्यापक गर्थो मे गृहीत है।
जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियो मे सत्यान्वेषण के प्रति सतत् जिज्ञासा बनी रहती है। ईश्वर ही एकमात्र शक्ति है, जो जीवन के समस्त सूत्रो का सचानन करती है । प्रतिदिन के जीवन की घटित घटनाग्रो के मध्य प्रत्येक व्यक्ति को उस परम सत्ता का आभास प्राप्त होता रहता है। निराशामय जीवन मे पक्ति अपनी श्रद्धा और विश्वास के सहारे ससार मे जीने की शक्ति प्राप्त करता है । जैनेन्द्र की जीवन दृष्टि अभेद श्रद्धामूलक है। भेददृष्टि द्वन्द्वमला है, किन्तु जहा समस्त भेद-भाव अपने-अपने मार्गों से उस परग सत्ता मे माहित हो जाते है, वहा मतवाद का प्राग्रह नही रहता, बरन पारस्परिक प्रेम की सम्भावना रहती है।
जीने की दार्शनिकता कोरी बुद्धि का ताण्डवनृत्य नही करती, उसमे व्यावहारिक जीन के पात्मसात् होने की क्षमता विद्यमान है । अधिकाशत दाशनिक जीवन की गावहारिकता से दूर निर्जन मे शाश्वत सत्यो की खोज मे रत रहते है, किन्तु जनेन्द्र ने जीवन-सघर्ष के मन्य ही सत्य का बोध प्राप्त करने की नाटा की है। मानव-पीडा मे ही सत्य का स्वरूप निवास करता हे । जनेन्द्र की विचारधारा का मूल उद्गम ही मानव-व्यथा है।' व्यथा मे समर्पण की भावना उत्पन्न होती है। जैनेन्द्र के दुख-बोध और गौतम बुद्ध के दुख-बोध में पन्तर है । जैनेन्द्र दुःख से छुटकारा नहीं चाहते, वरन् दुख में ही पात्मान्वेषण अथवा सत्यान्वेषण करते है। जनेन्द्र के अनुसार व्यथा की शक्ति पारथा पर ही निर्भर है। जैनेन्द्र के पात्र अपनी व्यथा का दोषारोपण समाज अथवा किसी व्यक्ति-विशेप पर नहीं करते, उमे वे अपने भाग्य का परिणाम समझते हे । यद्यपि जैनेन्द्र की अतिशय भाग्यवादिता तो कभी
१ "हर विवाद को मानो सवेदना की कसोटी पर उतरना और अपने को
गरा साबित करना होता है । सबसे प्रथम तथ्य और मूल तत्व हे दुखइस बौद्ध कथन का भी शायद यह सार है । इस अनिवार्यता के ही विचार को मानो कहानी बनना पड गया।" ----जन कुमार 'कहानी . अनुभव और शिल्प' दिल्ली, १९६७, प्र० स०, पृ० ७२ ।