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जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन
वस्तुत जैनेन्द्र के अनुसार धर्म का वास्तविक रूप 'स्व' के विसर्जन मे ही निहित है। आदिकाल से ही जितनी भी महान आत्माए हुई, उनका जीवन परहित के लिए ही समर्पित रहा है।
जीवन मे धर्म की आवश्यकता
जैनेन्द्र के अनुसार धर्म जीवन का अनिवार्य अग है। मानव जीवन के चार पुरुषार्थ है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष । मोक्ष जीवन का लक्ष्य है। अर्थ और काम जीवन के दो तट है, इन दोनो तटो के मध्य धर्म रूपी सरिता का प्रवाह ही जीवन को सफल बना सकता है। मानव जीवन के समस्त कर्मों की सार्थकता उसके धर्ममय होने मे है। किन्तु वर्तमान परिस्थितियो मे मानव जीवन धर्म से कटता जा रहा है। धन और उसका भोग ही उसके जीवन का लक्ष्य बन गया है। धन के ठेकेदार लोग बड़ी से बडी इण्डस्ट्री का निर्माण करते है, पैसा उनके पास खिचता आता है। उनका शरीर फूलता जाता है, किन्तु आत्मा सूखती जा रही है। मशीन के युग मे वे मशीन के सदृश्य ही निर्जीव होते जा रहे है। आज का साहित्यकार भी जीवन के यथातथ्य चित्रण में ही रत है, उसी मे उसे आनन्द मिलता है, किन्तु साहित्य का उद्देश्य कोरा यथार्थोन्मुख होने मे नही हो सकता । जैनेन्द्र ने अपने उपन्यास और कहानियो मे अधिकाशत ऐसे लोगो का चित्रण किया है, जिनके लिए अर्थ और काम प्रमुख है, धर्म का उन्हे कोई ज्ञान नहीं है, और न ही उसके प्रति उनमे कोई जिज्ञासा
_विवर्त', 'कल्याणी', 'अनन्तर', 'मुक्तिबोध' आदि उपन्यासो मे उन्होने अर्थलिप्सु व्यक्तियो का चित्रण किया है । पाश्चात्य सभ्यता के रगे हुए उनके पात्र भारतीय धर्म की आत्मा से मुक्त है। 'अनन्तर' मे जया अति मौलिकता से घबडाकर ही 'शाति धाम' की स्थापना करती है। उसके अनुसार जीवन भोगाभिमुख होता जा रहा है-उसने सकल्प बाधा है कि इस गिराव को
१ 'परहित सरिस धर्म नही भाई, पर पीडा सम नहि अब भाई।'
-तुलसीदास 'रामचरितमानस' । २ जैनेन्द्र ‘प्रश्न और प्रश्न', दिल्ली, १६६६, पृ० २६५ ।
जैनेन्द्रकुमार 'अनन्तर',--'ये धाम धाम (शाति धाम) मै नही समझता । जिसमे रहता हूँ वही समझता हू। रुपया समझता हू। यह भी समझता हू, कि सब मुझे उसी के लिए समझते है । मुझे और कुछ से मतलब नही
है।'