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________________ जैनेन्द्र परम्परा और प्रयोग २५६ द्वारा अद्भुत की सृष्टि की जा रही है। जैनेन्द्र के अनुसार अद्भुत के प्रति उत्सुकता सदा रही है और रहेगी । अद्भुत का नयापन ज्यादा टिकाऊ है। तीन टाग का प्रादमी आज यदि पैदा हो, तो क्या वह जल्दी पुराना पड जायगा...?' जैनेन्द्र के अनुसार नवीनता का यह प्रेम सनातन सत्य को अभिव्यक्त करने मे असमर्थ है। नयापन तभी स्वाभाविक हो सकता है, जब वह अन्त प्रसूत हो। केवल रूपकार मे नवीनता लाने का प्रयत्न टिकाऊ नही होता। वह केवल फैशन का द्योतक है। जैनेन्द्र कहानी-लेखन को कोई ऐसी साधना नही मानते जिसके लिए अभ्यास करना पडे। कहानी को अकहानी कहकर उसमे नवीनता का बोध कराना अस्वाभाविक है। उनकी दृष्टि मे कहानी की विद्या का क्षेत्र कितना व्यापक है कि उसमे कहानी और अकहानी सभी समा जाती है। ___ जैनेन्द्र ने अपनी कहानियो के सम्बन्ध मे स्पष्टत स्वीकार किया है कि वे कहानी-लेखन की किसी परिपाटी से बधे न रहने के कारण उनकी प्रत्येक कहानी स्वय मे सहज ही नवीन बन गयी है । 'एक कहानी दूसरी जैसी नही बनी। सब अपने-आप मे स्वतन्त्र और भिन्न बनती चली गयी है। वस्तुत जैनेन्द्र किसी परिपाटी से पृथक् सहजाभिव्यक्ति को ही अपनी कला का इष्ट मानते है । 'उनकी दृष्टि मे' हर व्यक्ति को साहित्य के क्षेत्र मे हिम्मत होनी चाहिए कि वह अपनी कलम के साथ अकेला खडा हो, गोल या झुण्ड बाधकर जीने की आदिम आदत को चुनौती देता रहे। वस्तुत जैनेन्द्र का साहित्य कला के बोझ से दबा न होते हुए भी भावगरिमा की दृष्टि से उत्कृष्ट है। जैनेन्द्र को हम कबीर के स्तर मे रखकर अधिक स्पष्टता से समझ सकते है । कबीर की भाषा सधुक्कडी होते हुए भी प्रभाव की दृष्टि से अविस्मरणीय है । जैनेन्द्र के साहित्य मे भी प्रभाव की गरिमा स्पष्टत दृष्टिगत होती हे । अभिव्यक्ति मे सहजता लाने के लिए यत्र-तत्र उनकी अभिव्यक्ति रचनायो मे चित्रमयता स्पष्टरूप से लक्षित होती है । टूटे-फूटे शब्दो के माध्यम से भी भाव-भगिमा पूर्णत स्पष्ट हो जाती है। कभी-कभी लेखक का एक ही वाक्य अन्त' और बाह्य प्रकृति के द्वन्द्व को व्यक्त करने में सक्षम १ जैनेन्द्रकुमार . 'इतस्तत.', पृ० १३३ । २ जैनेन्द्रकुमार . 'कहानी . अनुभव और शिल्प', १९६७, प्र० स०, दिल्ली । ३. 'वह क्षण भर मुझे देखती सी देखती रह गयी, मानो बिंधी हिरिणी हो। बिध कर ही बाधिन बन उठी हूं, लेकिन हूँ प्रकृत हिरिणी ही।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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