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________________ जैनेन्द्र के ईश्वर सम्बन्धी विचार ७७ एव सामाजिक क्षेत्र मे 'स्व-पर' के भेद-भाव से ऊपर उठते हुए अद्वैतता अथवा अभेद की प्रतिष्ठापना की हे । ईश्वर की उपासना मे शिथिलता तभी आती है, जब व्यक्ति की वृत्ति स्वार्थपूर्ण हो जाती है । जैनेन्द्र ने जीवन मे धर्म पर विशेष रूप से बल दिया है। उनकी दृष्टि मे धर्म आस्तिकता अथवा समर्पण का ही प्रतिरूप है। प्रेम और समर्पण के मार्ग मे द्वन्द्व की सभावना नही रह जाती । जैनेन्द्र के अन्त्स मे केवल ईश्वर को जानने की जिज्ञासा ही नही है, वरन् वे भक्त-कवियो के सदृश्य प्रभु के समक्ष आत्म-समर्पण के हेतु विकल रहते है । जिस प्रकार भक्त भगवान के समक्ष स्वय को घोर पापी, दुष्ट और नीचात्मा ही समझता है, उसके इस आत्म-निवेदन के द्वारा उसके व्यक्तित्व को नीचा नही समझा जा सकता। भक्त भावातिरेक के कारण ही स्वय को इतना दीन-हीन मानता है। जैनेन्द्र दार्शनिक है, तथापि उनके साहित्य मे अह से मुक्ति पाने के लिए अतिशय विनम्र निवेदन की झलक स्पष्टत दृष्टिगत होती है। साधु का हठ' मे माधु की ईश्वर के समक्ष गिडगिडाहट उसकी ईश्वर के प्रति शहा और विश्वास की अोर ही इगित करती है। जैनेन्द्र ने अपने उपन्यास तया कहानी के पात्रो के माध्यम से ही नही, निबन्धो मे भी प्रत्यक्षरूप से उनकी विनम्रता तथा समर्पण की उत्कट अभिलाषा के दर्शन होते है । ईश्वर साक्षात्कार के अभाव में उन्हें अपना जीवन निरर्थक प्रतीत होता है । उनका हृदय भगवान् मे खो जाने के लिए तडपता रहता है। यही नही, उनकी साहित्य-सृजन की प्रक्रिया भी ईश्वर के उपासना का ही अग है। भक्त के सदृश्य उन्हाने साहित्य के माध्यम से अपने हृदय के उच्छ वास को ही व्यक्त किया है। ससार के माया-जाल मे घिरे रहने के कारण ईश्वर का साक्षात्कार नही हो पाता । उनके मन में एक विक्षोभ और व्यथा है । व्यथा का मूल ईश्वर १ 'अब तो मेरे लिए तेरी यह प्रार्थना ही सब कुछ है। यही प्रेम है, यही श्रेय हे, यही ज्ञान है। यही मेरी साधना है और यही मेरी साधना का साध्य है। प्रभु, भगवान् मै ऐसा नही रहना चाहता । मै बिल्कुल तेरा हो रहना चाहता हु। मेरे रोम-रोम मे हरेक तुझे ही प्राप्त करे, तेरी ही स्फूर्ति पाये, किसी को मुझसे क्रोध की प्रेरणा न मिल सके।' -जैनेन्द्रकुमार 'साधु का हट', दिल्ली, १९६३, पृ० ११ । --'शायद वही है (ईश्वर) जिसके लिए मै जीना सार्थक मान सकता है। मेरा लिखना अन्त मे इसी प्रयोजन से जा मिलता होगा । अन्यथा अपने मे उसका दूसरा प्रयोजन मुझे नहीं मालूम होता है ।' --जैनेन्द्रकुमार 'परिप्रेक्ष', दिल्ली, १९६५ से उद्धृत ।
SR No.010353
Book TitleJainendra ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusum Kakkad
PublisherPurvodaya Prakashan
Publication Year1975
Total Pages327
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size43 MB
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